उलूक टाइम्स: सितंबर 2012

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

बक बक संख्या तीन सौ

ये भी क्या बात है
उसको देख कर ही
खौरा तू जाता है

सोचता भी नहीं
क्यों जमाने के साथ
नहीं चल पाता है

अब इसमें उसकी
क्या गलती है
अगर वो रोज तेरे
को दिख जाता है
जिसे तू जरा सा भी
नहीं देखना चाहता है

तुझे पता है उसे देख
लेना दिन में एक बार
मुसीबत कम कर जाता है
भागने की कोशिश जिस
दिन भी की है तूने कभी
वो रात को तेरे सपने में
ही चला आता है

जानता है वो तुझे बस
लिखना ही आता है
इसलिये वो कुछ ऎसा
जरूर कर ले जाता है
जिसपर तू कुछ ना कुछ
लिखना शुरू हो जाता है

वैसे तेरी परेशानी का
एक ही इलाज अपनी
छोटी समझ में आता है

ऊपर वाले को ही देख
उसे उसके किसी काम पर
गुस्सा नहीं आता है

सब कुछ छोड़ कर तू
उसको ही खुदा अपना
क्यों नहीं बनाता है

खुदा का तुझे पता है
दिन में दिखना छोड़
वो किसी के सपने में
भी कभी कहाँ आता है ।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

बेबस पेड़

एक झंडा एक भीड़
बेतरतीब होते हुऎ
भी परिभाषित
दे देती है अंदाज
चाहे थोड़ा ही
अपने रास्ते का
अपनी सीमा का
यहाँ तक अपनी
गुंडई का भी
दूसरी भीड़
एक दूसरा झंडा
सब कुछ तरतीब से
कदमताल करते हुऎ
मोती जैसे गुंथे हों
माला में किसी
परिभाषित नजर
तो आती है पर
होती नहीं है
यहां तक कि
अपराध करने का
अंदाज भी होता है
बहुत ही सूफियाना
दोनो भीड़ होती हैं
एक ही पेड़
की पत्तियाँ
बदल देने पर
झंडे के रंग और
काम करने के
ढंग के बावजूद
भी प्रदर्शित
कर जाती हैं
कहीं ना
कहीं चरित्र
बेबस पेड़
बस देखता
रह जाता है
अपनी ही
पत्तियों को
गिरते गिरते
बदलते हुऎ
रंग अपना
पतझड़ में ।

बुधवार, 26 सितंबर 2012

मसला कुत्ते की टेढ़ी पूँछ

वैसे तो 
कुत्ते के पास मूँछ है 

पर 
ध्यान में ज्यादा रहती 
उसकी टेढ़ी पूँछ है 

उसको 
टेढ़ा रखना अगर उसको भाता है 

हर कोई 
क्यों उसको फिर
सीधा करना चाहता है 

उसकी 
पूँछ तक रहे बात 
तब भी समझ में आती है 

पर 
जब कभी किसी को 
अपने सामने वाले की 
कोई बात पागल बनाती है 

ना जाने तुरंत उसे 
कुत्ते की टेढ़ी पूँछ ही 
क्यों याद आ जाती है 

हर किसी की 
कम से कम 
एक पूँछ तो होती है 
किसी की जागी होती है 
किसी की सोई होती है 

पीछे 
होती है
इसलिये 
खुद को दिख नहीं पाती है 

पर 
फितरत देखिये जनाब 
सामने वाले की
पूँछ पर 
तुरंत नजर चली जाती है 

अपनी पूँछ उस समय 
आदमी भूल जाता है 

अगले की पूँछ पर 
कुछ भी कहने से बाज 
लेकिन नहीं आता है 

अच्छा किया हमने 
अपनी श्रीमती की सलाह पर 
तुरंत कार्यवाही कर डाली 

अपनी 
पूँछ कटवा कर 
बैंक लाकर में रख डाली 

अब 
कटी पूँछ पर कोई 
कुछ नहीं कह पाता है 

पूँछ 
हम हिला लेते हैं 
किसी के सामने 
जरूरत पड़ने पर कभी
तो 
किसी को 
नजर भी नहीं आता है 

इसलिये 
अगले की पूँछ पर 
अगर 
कोई कुछ
कहना चाहता है 

तो 
पहले अपनी पूँछ 
क्यों नहीं
कटवाता है । 

चित्र सभार: https://gfycat.com/

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

सपना कर अपना पूरा कम्पनी बना

अपने
सपनों को
हकीकत
में नहीं
अगर
बदल पाओ

दिमाग
है ना
उसे 
काम
में लाओ

अपने
सपनों के
शेयर बनाओ

कुछ
अपने जैसे
सपने देखने
वालों के
सपनों के
साथ मिलाओ

कम्पनी
एक खड़ी
कर बाजार
में ले आओ

कम्पनी
के सपनों
की ये बात
किसी को
भूल कर भी
मत बताओ

ऎसा
मुद्दा एक
इसके
बाद उठाओ

जिसको
लेकर लोगों
के सपनों को
उकसा पाओ

पार्टी शार्टी
जात पात
भेद भाव
ऊँच नीच
की सोच पर
कुछ दिन
के लिये
विराम लगाओ

मनमोहन
के हो तो
आडवानी जी
वाले के साथ
कुछ दिन बिताओ

माया दीदी
से प्रेम
रखने वाले
मुलायम वाले
की साईकिल
पर बैठे
दिख जाओ

धार्मिक
आस्था भी
कुछ दिन
के लिये
भूल जाओ

एक
दूसरे में
हिल मिल
जाओ

देखने
वाले लोग
पागल हो जायें

कुछ कुछ
ऎसा माहौल
दो चार ही महीनो
के लिये बनाओ

कुछ दिन
मीटिंग सीटिंग
करते हुऎ
नजर आओ

पोस्टर
वोस्टर थोडे़
शहर में
वाओ

अखबार
में कुछ
समाचार
छपवाओ

इन सब
के बीच
काम हो गया
पता चलते ही
गोल हो जाओ

नजर
मत आओ
कम्पनी की टोपी
किसी दूसरे के
सर पर रख जाओ

सन्यासी
हो गये हैं
वो तो कब के
जैसी 
खबर
तुरंत फैलाओ 


जाओ
अब यहाँ
क्या बचा है
किसी और के
सपनो में अपना
सिर मत खपाओ ।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

खरपतवार से प्यार

जंगल की सब्जियों
फल फूल को छोड़

घास फूस खरपतवार
के लिये थी जो होड़

उसपर शेर ने जैसे
ही विराम लगवाया

फालतू पैदावार
के सब ठेकों को

दूसरे
जंगल के
घोडों को
दिलवाने का
पक्का
भरोसा दिलवाया

लोमड़ी के
आह्वाहन पर
भेड़ बकरियों ने
सियारों के साथ
मिलकर आज
प्रदर्शन करवाया

परेशानी क्या है
पूछने पर
ऎसा कुछ
समझ में है आया

बकरियों ने
अब तक
घास के साथ
खरपतवार को
जबसे है उगाया

हर साल की बोली में
हजारों लाखों का
हेर फेर है करवाया

जिसका
हिसाब किताब
आज तक कभी भी
आडिट में नहीं आया

लम्बी चौड़ी
खरपतवार के बीच में
सियारों ने भी
बहुत से खरगोशों
को भी शिकार बनाया

जिसका पता
किसी को
कभी नहीं चल पाया

एक दो खरगोश
का हिस्सा
लोमड़ी के हाथ भी
हमेशा ही है आया

माना कि अब
खाली सब्जी ही
उगायी जायेगी

सबकी सेहत भी
वो बनायेगी

पर घास
खरपतवार की
ऊपर की कमाई
किसी के हाथ
नहीं आयेगी

सीधे सीधे
हवा में घुस जायेगी

इसपर नाराजगी
को है दर्ज कराया

बीस की भीड़ ने
एक आवाज से
सरकार को
है चेताया

सौ के नाम
एक पर्ची में
लिखकर

कल के
अखबार में
छपने के लिये
भी है भिजवाया ।

शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

खिलौना सोच

कुछ लोग बडे़
तो हो जाते हैं
पर खिलौनों से
खेलने के अपने
बचपन के दिन
नहीं भूल पाते हैं
खिलौनों में चाभी
भर कर भालू
को नचाना
बार्बी डौल में
बैटरी डाल कर
बटन दबाना
आँखे मटकाती
गुड़िया देख कर
खुश हो जाना
उनकी सोच से
निकल ही
नहीं पाता है
सामने किसी के
आते ही उनको
अपना बचपन
याद आ जाता है
खिलौना प्रेम पुन:
एक बार और
जागृत हो जाता है
खिलौनों की तरह
करता रहे कोई
उनके आगे या पीछे
कहीं भी कभी भी
तब तक वो
दिखाते हैं ऎसा
जैसे उनको कुछ
मजा नहीं आता है
जरा सा खिलौनापन
को छोड़ कर कोई
अगर कुछ अलग
करना चाहता है
तुरंत उनको समझ
में आ जाता है
अब उनका खिलौना
उनके हाथ से
निकल जाता है
सोच कर कि अब
आगे तो नहीं
कोई उनसे कहीं
बढ़ जाता है
फटाफट वो कुछ
ऎसा काम ढूँढ कर
ले आते है
खिलौने तो क्या
अच्छे भले आदमी
जो नहीं कर पाते है
फिर तो जब
उनका खिलौना
आदमी वाला काम
नहीं कर पाता है
तो वो ऎसा
दिखाते है
जैसा कि
खिलौने तो
उनको बिल्कुल
भी पसंद
नहीं आते हैं ।

गुरुवार, 20 सितंबर 2012

बात की बात

बात पहले भी
निकलती थी
दूर तलक
भी जाती थी
बहुत समय
नहीं लगता था
पता नहीं कैसे
फैल जाती थी
साधन नहीं थे
आज के जैसे
बात तब भी
उछल जाती थी
आज भी बहुत
बात होती है
बात कभी तो
बाद में होती है
उससे पहले किसी
ना किसी के
पास होती है
कोई किसी से
नहीं पूछता है
अपने आप ही
आ जाती है
आज की बात में
वो बात पर नजर
नहीं  आती है
बात बडी़ बडी़
बातों के बीच में
कहीं खो जाती है
बहुत मुश्किल से
कोई बात का होना
बता पाता है
बात का ठिकाना
भी खोज लाता है
दबी हुई जबान से
बातों के बीच से
बात को निकाल
कर लाता है
उस बात की बात
लोग बस बनाते
ही चले जाते हैं
गाँधी जो क्या हैं 
कोई यहाँ जो
बात कहते कहते
देश को आजाद
कर ले जाते हैं
बात वैसे ही
कच्ची निकला
करती है अभी भी
लेकिन अब बात
को पहले लोग
पूरा पकाते हैं
मसाले नमक
मिर्च साथ में
मिलाते  हैं
जब बात के
होने का मतलब
निकल जाता है
बात बनाने वाला
खतरे को पार कर
अपने को बचा
ले जाता है
बात को तरीके से
सजाया जाता है
मौका देख कर
पूरा का पूरा
फैलाया जाता है ।

बुधवार, 19 सितंबर 2012

महापुरुष

बहुत कुछ कहें
या सब कुछ
कोई फर्क
नहीं होता है
एक महापुरुष
के पास जितना
अपना होता है
कहीं भी नहीं
उतना होता है
लिखना शुरु हो जाये
भरते चले जाते हैं
गागर सागरों से
जाते जाते अगर
लिख भी जाता है
जीवनवृतांत
कुछ नदियाँ नीर भरी
नीली नीली सी
फैल जाती हैं
गागर फिर भी
छलकता हुआ ही
नजर आता है
बचा हुआ भी इतना
ज्यादा होता है
एक दूसरा शख्स
उसपर उसकी
आत्मकथा लिख
ले जाता है
पन्ने दर पन्ने
किताब से किताब
होता हुआ वो कहीं
से शुरु होता हुआ
कहीं भी खत्म
नहीं हो पाता है
आज हर शख्स
अपने में एक
महापुरुष पाता है
एक पन्ना लिखना
भी चाहे तो भी
पूरा नहीं कर पाता है
महापुरुषों की
श्रेणी में फिर भी
आने का जुगाड़
लगाने का कोई
भी मौका नहीं
गवाना चाहता है ।

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

फेसबुक पर मिले एक संदेश का जवाब: बकवास रहने दीजिये कविता मत कहिये जनाब

S.k. SrivastavaJoshi ji ajkal apki kavitayen nahi aa rahi hai.



हाँ 
वो
आजकल 
नहीं आ रही है
जो बकवास आपको
कविता नजर आ रही है 

पता ही 
नहीं लग पा रहा है 
कहाँ जा रही है 

रोज ही 
कुछ ना कुछ 
देने आ जाती थी 
कुछ दिन से लग रहा है 
सब नहीं दे जाती थी 
कुछ कुछ छुपा भी ले जाती थी 

वैसे वो
आये 
या ना आये 
बहुत अंतर नहीं आता है 

आती है तो 
कोई ना कोई 
कुछ ना कुछ कह जाता है 
नहीं आती है 
तब भी खाना पच ही जाता है 

अब
जब 
आपने कहा 
वो आजकल नहीं आ रही है 
हमे भी लगा 
वाकई वो नहीं आ रही है 

फिर अगर
वो 
नहीं आ रही है 
तो पता तो लगना ही चाहिये 
कि वो 
कहाँ जा रही है 

अब 
आप ही
पता 
लगा दीजिये ना 
कुछ हमारा भी भला हो जायेगा 
कुछ होगा या नहीं 
ये बाद में फिर देखा जायेगा 

कम से कम 
आप की तरह कोई मेहरबान 
उसको पकड़ कर
वापिस 
मेरे पास ले आयेगा 

वापिस आ गयी 
फिर से
आने 
जाने लग जायेगी 
जैसे पहले 
आया जाया कर रही थी 
करना शुरु हो जायेगी 

फिर 
आप भी नहीं कह पायेंगे 
वो आजकल 
क्यों नहीं आ रही है 

क्या करें कैसे लिखें
बकवास ही सही
जब वो 
हमको ही आजकल
कुछ 
नहीं बता रही है

'उलूक' की बकवास 
कविता
कही जा रही है
बिना बात इतरा रही है।

चित्र साभार: 
https://sites.google.com/

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

'ए' लो चाहे 'यू' लेलो

जल्दी बहुत वो
ऎसा कानून
लेकर आयेगी
कोई भी बात
अब खुले आम
नहीं कही जायेगी
एक एक को देखना
मनमोहन कृष्ण
बना ले जायेगी
कैसी भी बात हो
खुले आम बिल्कुल
नहीं कही जायेगी
कहने लायक है
या नहीं है
एक कमेटी बतायेगी
हर काम के
अलग अलग सेंसर
बोर्ड बनायेगी
बात पहले तराजू में
तुलवाई जायेगी
हल्की और भारी
अलग अलग
बताई जायेगी
कोई 'ए' तो कोई 'यू'
श्रेंणी में रखी जायेगी
उसी हिसाब का
प्रमाणपत्र पायेगी
श्रीमति जी को
लिखी चिट्ठी भी
पहले उनको खोल
कर दिखलाई जायेगी
प्रियतम लिखें
प्रिय लिखें
या ऎ जी लिखें
सरकारी कमेटी
ये सब बतायेगी
जनता आदतों को
बदल अगर नहीं पायेगी
इन्सान की तरह
अगर रह जायेगी
पूँछ हिलाना नहीं
कुछ सीख पायेगी
कमेटी के सामने
एक बुलवाई जायेगी
पूँछ कटी हुई एक
हाथ में दे दी जायेगी
कहने में साफ बात
हमको भी शर्म आयेगी
लेकिन फिर भी
इशारों में बताई जायेगी
एक पूँछ वाला जीव
बना दी जायेगी
अपने माथे पर 'यू'
चिपका हुआ पायेगी ।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

चित्रकार का चित्र / कवि की कविता

तूलिका के 
छटकने भर से 
फैल गये रंग चारों तरफ 

कैनवास पर 
एक भाव बिखरा देते हैं 
चित्रकार की कविता चुटकी में बना देते हैं 

सामने वाले के लिये 
मगर होता है बहुत मुश्किल ढूँढ पाना 

अपने रंग 
उन बिखरे हुवे इंद्रधनुषों में अलग अलग 

किसी को नजर आने शुरु हो जाते हैं 
बहुत से अक्स आईने की माफिक 
तैरते हुऎ जैसे होंं उसके अपने सपने 

और कब अंजाने में 
निकल जाता है उसके मुँह से वाह !

दूसरा उसे देखते ही सिहर उठता है 

बिखरने लगे हों जैसे उसके अपने सपने 
और लेता है एक ठंडी सी आह !

दूर जाने की कोशिश करता हुआ 
डर सा जाता है 
उसके अपने चेहरे का रंग 
उतरता हुआ सा नजर आता है 

किसी का किसी से 
कुछ भी ना कहने के बावजूद 
महसूस हो जाता है 

एक तार का झंकृत होकर 
सरगम सुना देना 
और एक तार का 
झंकार के साथ उसी जगह टूट जाना 

अब अंदर की बात होती है 
कौन किसी को कुछ बताता है 

कवि की कविता और चित्रकार का एक चित्र 
कभी कभी यूँ ही बिना बात के
 एक पहेली बन जाता है ।

 चित्र साभार: 
https://www.kisscc0.com/

मंगलवार, 11 सितंबर 2012

देशद्रोह

थोड़ा
कुछ लिखना
थोड़ा
कुछ बनाना

हो जाता है अब
अपने लिये ही
आफत
को बुलाना

देखने में तो
बहुत कुछ
होता हुआ

हर किसी को
नजर आता है

उस होते हुऎ पर
बहुत ऊल जलूल
विचार भी आता है

कोशिश
करके बहुत
अपने को
रोका जाता है

सब कुछ
ना कह कर
थोड़ा सा
इशारे के
लिये ही तो
कहा जाता है

यही थोड़ा
सा कहना
और बनाना
अब देशद्रोह
हो जाता है

करने वाला
ऊपर से
झंडा एक
फहराता है

डंडे के जोर पर
जो मन में आये
कर ले जाता है

करने वाले से
कुछ बोल पाने
की हिम्मत
कोई नहीं
कर पाता है

क्योंकी
ऎसा करना
सम्मान से करना
कहा जाता है

लिखने बनाने
वाले पर
हर कोई बोलना
शुरू हो जाता है

सारा कानून
जिंदा
उसी के लिये
हो जाता है

अंदर कर
दिये जाने को
सही ठहराने के लिये

अपनी विद्वता
प्रदर्शित करने
का यह मौका
कोई नहीं
गंवाता है

अंधेर नगरी
चौपट राजा
की कहावत
का मतलब
अब जा कर
अच्छी तरह
समझ में
आ जाता है ।

सोमवार, 10 सितंबर 2012

एक संत आत्मा का जाना

जगन भाई
के इंतकाल
की खबर
जब
मगन जी
को सुनाई

सुनते ही
अगले की
आँखें
भर आई

बोले
अरे
बहुत संत
महापुरूष थे

ना कुछ खाते थे
ना कभी पीते थे

किसी से भी कभी

पंगा नहीं लेते थे

बीड़ी
सिगरेट शराब
तम्बाकू गाँजा प्रयोग करने
वाले अगर
उनकी
संगत में
कभी आ जाते थे

हफ्ता दस
दिन में ही
सब कुछ
त्याग कर
सामाजिक
हो जाते थे

अब आप
ही 
बताइये
ऎसे लोगों
का दुनिया
में लम्बे
समय
तक रहना
ऊपर वाले
से भी क्यों 

नहीं देखा
जाता है

इतनी कम
उम्र में
वो इनको
सीधा
 ऊपर
ही उठा
ले जाता है

तब हमने
मगन जी
को ढाँढस
बंधाया

प्यार से
कंधे में
हाथ
रख कर
उनको
समझाया

देखिये
ये सब
चीजें भी
ऊपर
वाला ही
तो यहाँ
ला ला
कर
फैलाता है

अगर
कोई इन
सब चीजों
का प्रयोग
नहीं कर
पाता है

खुद भी
नहीं खाता है
खाने वाले
को भी
रोकने
चला जाता है

हर
दूसरा आदमी
ऎसा ही
करने लग
जायेगा तो

ऊपर
वाले की
भी तो सोचो जरा
उसका तो
दो नम्बर
का धंधा
मंदा
हो जायेगा

इसलिये
ऎसे में
ऊपर वाला
आपे से
बाहर हो
जाता है

शरीफ
लोगों को
जल्दी ऊपर
उठा ले
जाता है
और
जो
करते
रहते है
प्रयोग
उल्टी सीधी
वस्तुओं का
दैनिक जीवन में
उनको एक
दीर्घ जीवन
प्रदान करके
अपने धंदे को
ऊपर बैठ
कर ही
रफ्तार देता
चला जाता है

यहाँ वाला
बस कानून
बनाता ही
रह जाता है ।

रविवार, 9 सितंबर 2012

जा भटक कर आ

उत्तर का प्रश्न 
खुद अपने से निकाले 

संकरे से 
भटकन भरे रास्ते पर 
चलने की आदत डाले

सामने वाले 
के लिये 
एक उलझन हो जाये
मुश्किल हो जाती है ऎसे में क्या किया जाये

भटकने वाला 
तो
भटकना है 
करके खुद भटक जाता है 

हैरानी की बात 
इसलिये नहीं होती है
कि 
उसको अच्छा भटकना आता है 

सीधे रास्ते पर 
सीधे सीधे चलने वाला 
दूर दूर तक साथ देने वाला 
ढूँढने में जहाँ बरसों लगाता है 

भटकने वाले को 
भटकाने के लिये 
भटकता हुआ कोई
पता नहीं 
कैसे तुरंत मिल जाता है 

भटक भटक कर 
भटकते हुऎ 
भटकाने वाले का बेड़ा 
भटकाव के सागर में भटक जाता है 

सामने वाला 
देख देख कर 
पागल हो जाता है 
उसके पास 
अपने सर के 
बाल नोंचने के अलावा 
कुछ नहीं रह जाता है ।

शनिवार, 8 सितंबर 2012

बात की लम्बाई

कभी
लगता है
बात
बहुत लम्बी
हो जाती है

क्यों नहीं
हाईकू
या हाईगा
के द्वारा
कही जाती है

घटना
का घटना
लम्बा
हो जाता है

नायक
नायिका
खलनायक
भी उसमें
आ जाता है

उसको
पूरा बताने
के लिये
पहले खुद
समझा जाता है

जब
लगता है
आ गई
समझ में
कागज
कलम दवात
काम में आता है

सबसे
मुश्किल काम
अगले को
समझाना
हो जाता है

कहानी
तो लिखते
लिखते
रेल की
पटरी में
दौड़ती
चली जाती है

ज्यादा
हो गयी
तो हवाई
जहाज भी
हो जाती है

समझ
में तो
अपने जैसे
दो चार
के ही
आ पाती है

उस समय
निराशा
अगर
हो जाती है

तुलसीदास जी
की बहुत
याद आती है

समस्या
तुरंत हल
हो जाती है

उनकी
लिखी हुई
कहानी
भी तो
बहुत लम्बी
चली जाती है

आज नहीं
सालों पूर्व
लिखी जाती है

अभी तक
जिन्दा भी
नजर आती है

उस किताब
को भी
बहुत कम
लोग पढ़
पाते है

पढ़ भी
लेते है
कुछ लोग
पर
समझ
फिर भी
कहाँ पाते हैं ।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

सदबुद्धि दो भगवान

एक
बुद्धिजीवी
का खोल

बहुत दिन तक
नहीं चल पाता है

जब अचानक वो
एक अप्रत्याशित
भीड़ को अपने
सामने पाता है

बोलता बोलता
वो ये भी भूल
जाता है कि
दिशा निर्देशन
करने का दायित्व
उसे जो उसकी
क्षमता से ज्यादा
उसे मिल जाता है

यही बिल्ला उसका
उसकी जबान के
साथ फिसल कर
पता नहीं लगता

किस नाली में
समा जाता है

सरे आम अपनी
सोच को कब
नंगा ऎसे में वो
कर जाता है

जोश में उसे
कहाँ समझ
में आता है

एक भीड़ के
सपने को अपने
हित में भुनाने
की तलब में
वो इतना ज्यादा
गिर जाता है

देश के टुकडे़
करने की बात
उठाने से भी
बाज नहीं आता है

उस समय उसे
भारत के इतिहास
में हुआ बंटवारा भी
याद नहीं रह जाता है

ऎसे
बुद्धिजीवियों से
देश को कौन
बचा पाता है

जो अपने घर
को बनाने के लिये
पूरे देश में
आग लगाने में
बिलकुल भी नहीं
हिचकिचाता है ।

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आयकर अधिकारी का निमंत्रण पत्र


आयकर अधिकारी 
ने
सूचना एक भिजवाई थी

आज ही के दिन की 
तारीख लगवाई थी

लिखा था

मिलने 
के लिये आ जाना 
जो भी पूछूंगा
यहाँ 
आकर बता जाना 

वेतनभोगी
का वेतन 
तो खाते मैं जाता है
जो भी होता है 
साफ नजर आता है 

आयकर तो नियोक्ता 
खुद
काट कर 
भिजवाता है

साल में
दो महीने का वेतन
आयकर में चला जाता है

खुशी होती है 
कुछ हिस्सा देश के 
काम में जब आता है 

समझ में
नहीं आता है 
ऎसे आदमी से 
वो और क्या नया 
पूछना चाहता है 

अरबों खरबों
के 
टैक्स चोर
घूम रहे हैं खुले आम 

उनसे
टकराने की हिम्मत तो
कोई नहीं कर पाता है 

माना कि
कोई कोई मास्टर
धंदेबाज भी हो जाता है 

वेतन
के अलावा के कामों में
लाखों भी कमाता है 

ट्यूशन की दुकान चलाता है
लाख रुपिये की कापियाँ
एक पखवाडे़ के अंदर ही जाँच ले जाता है 

उस आय से बीबी के गले में
हीरों का हार पहनाता है 

आयकर वाला
लगता है
शायद ऎसी बीबी को बस कुछ ऎसे ही 
देखता रह जाता है 
पूछ कुछ नहीं पाता है 

सड़क पर कोई 
बेशकीमती गाड़ी
दो दो भी दौड़ाता है 

बहुमंजिले
मकान पर मकान बनाता है 
अच्छा करता है 
कोई अगर तकिये के नीचे नोट छिपाता है 

उधर
पहुँचने पर
पेशी में पूछा जाता है 

कितना
राशन पानी दूध चीनी
तू हर महीने अपने घर को ले जाता है 

हिसाब किताब
लिख कर दे जाना 
अगली तारीख लगा दी है 

वो
मुस्कुराते हुवे जब बताता है

ईमानदारी
वाकई 
अभिशाप तो नहीं 

ऎसे समय में
लगने लग जाता है 

बेईमान
होने से ही 

शायद आदमी 
इन लफड़ों में
नहीं 
कभी फंस पाता है ।

चित्र साभार: 
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बुधवार, 5 सितंबर 2012

शिक्षक दिवस

माता पिता
समाज
परिवेश
घर गाँव
शहर देश

पता नहीं

यहाँ तक
आते आते
किसने क्या
क्या
पढ़ाया 

शिक्षक दिवस
पर आज
अपने गुरुजनों
के साथ साथ

हर वो शख्स
मुझे याद आया

जिसने
कुछ ना कुछ
अच्छा बुरा
मुझे
सिखाया 

कोशिश
भी की
सीखने की
कुछ कुछ
हमेशा

पर
रास्ता
अपने
गुरु का
दिया हुआ
ही अपनाया

यहाँ तक
बेरोकटोक

शायद
इसी लिये
चल के
आराम से
आ पाया

आसपास
अपने

बोली भाषा
और
पहनावे
को
आज जब

मैं
खुद नहीं
समझ पाया

प्रश्न उठना
ही था
मन के कोने
में कहीं

पूछ बैठा
उसी समय
अपने आप से
वहीं के वहीं

शिक्षा
दी हो
शायद यही
मैंने ही
सब कुछ इन्हें

वही इन
सब के
व्यवहारों में
परिलक्षित हो
सामने से
है आया ।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

सामान नहीं बस दुकानदार चाहिये

राशन की
दुकान पर
हो रही
मारामार हो
गैस और
कैरोसिन
के लिये
लगी लम्बी
कहीं एक
कतार हो

जब प्रश्न
जीवन और
जीने का
हो जाता है
जरूरी होता है
इसलिये
भीड़ होने
के बावजूद
हर कोई
चला जाता है

दूसरी तरफ
एक भीड़
उस दुकान
पर जाकर
पता नहीं
कोई क्यों
लगाता है

जहां होता
है बस
काम में
ना आने वाला
ढेर सारा
कुछ सामान

कुछ सड़
गया होता है
और
बचा हुआ
आउट
आफ डेट
हो गया
होता है

राशन
और
कैरोसिन
लेने
जाने वाला
उस दुकान
के बगल से
गुजर के
रोज जाता है
थोड़ा दिमाग
लगाता है
उसको
साफ साफ
अंदाज
आ जाता है

इस तरह की
दुकानों पर
हर कोई
सामान ही
खरीदने
को नहीं
आता है

कोई दिखाने
के लिये
चिड़िया के
पंख खरीद
भी अगर
ले जाता है

असली में
वो तो
दुकानदार
के लिये
वहाँ जाता है

उसके बाद
फिर कोई
प्रश्न किसी
के दिमाग में
कहाँ रह
जाता है ।

सोमवार, 3 सितंबर 2012

अच्छी दिखे तो डूब मर

घरवाली
की आँखें
एक अच्छे
डाक्टर को
दिखलाते हैं

काला चश्मा
एक बनवा के
तुरंत दिलवाते हँ

रात को भी
जरूरी है
पहनना

एक्स्ट्रा
पैसे देकर
परचे में
लिखवाते हैं

दिखती हैं
कहीं भी
दो सुंदर
सी आँखें

बिना
सोचे समझे ही
कूद जाते हैं

तैराक होते हैं
पर तैरते नहीं
बस डूब जाते हैं

मरे हुऎ
लेकिन कहीं
नजर नहीं आते हैं

आयी हैं
शहर में
कुछ
नई आँखे

खबर पाते ही

गजब के
ऎसे कुछ
कलाकार

कूदने
की तैयारी
करते हुऎ

फिर
से हाजिर
हो जाते हैं

हम
बस यही
समझ पाते हैं

अच्छे
पिता जी
अपने बच्चों को

तैरना
क्यों नहीं
सिखाते हैं ।

रविवार, 2 सितंबर 2012

स्टिकर

कपड़े पुराने
हो जाते हैं
कपडे़ फट
भी जाते हैं

कपडे़ फेंक
दिये जाते हैं
कपडे़ बदल
दिये जाते हैं

कुछ लोग
फटे हुऎ कपडे़
फेंक नहीं
भी पाते हैं

पैबंद लगवाते हैं
रफू करवाते हैं
फिर से पहनना
शुरु हो जाते हैं

दो तरह के लोग
दो तरह के कपडे़

कोई नहीं करता

फटे कपड़ों 
की कोई बात

जाड़ा हो या

फिर हो बरसात

जिंदगी भी

फट जाती है
जिंदगी भी
उधड़ जाती है

एक नहीं

कई बार
ऎसी स्थिति
हर किसी की
हो जाती है

यहाँ मजबूरी

हो जाती है

जिंदगी फेंकी

नहीं जाती है
सिलनी पड़ती है
रफू करनी पड़ती है

फिर से मुस्कुराते हुऎ

पहननी पड़ती है

अमीर हो या गरीब

ऎसा मौका आता है

कभी ना कभी

कहीं ना कहीं
अपनी जिंदगी को
फटा या उधड़ा हुआ
जरूर पाता है

पर दोनो में से

कोई किसी को
कुछ नहीं बताता है

आ ही जाये कोई

सामने से कभी
मुँह मोड़ ले जाता है

सिले हुऎ हिस्से पर

एक स्टिकर चिपका
हुआ नजर आता है

पूछ बैठे कोई कभी

तो खिसिया के
थोड़ा सा मुस्कुराता है

फिर झेंपते हुऎ बताता है

आपको क्या यहाँ
फटा हुआ कुछ
नजर आता है

नया फैशन है ये

आजकल इसे
कहीं ना कहीं
चिपकाया ही
जाता है

जिंदगी

किसकी
है कितनी 

खूबसूरत
चिपका हुआ
यही स्टिकर
तो बताता है ।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

तेरी रोटी रोटी थी पर खोटी थी

अपनी एक
रोटी बनाना
टेढ़ी मेढ़ी
मोटी सूखी
स्वाद के साथ
उसको खाना
खुशी मनाना
किसी का इसको
ना देख पाना
उसका घीं का
डब्बा एक लाना
ला लाकर
सबको दिखाना
एक दिन
एक जगह पर
खाने के लिये
सबको बुलाना
सारे सूखी रोटी
वालों का
इक्ट्ठा होकर
वहाँ जाना
घीं वाले का
अपनी रोटी के
साथ वहाँ आना
टेढ़ी मेढ़ी रोटी
वालों को
डब्बा दिखाना
घीं लेकिन
अपनी रोटी
पर लगाना
सूखी रोटी
वालों का
दुखी बहुत
हो जाना
अपनी रोटी
लेकर वापस
अपने घर
आ जाना
घीं के डब्बे
वाले का
जम कर
गाली खाना
जो नहीं
गया कहीं
उसका अपनी
रोटी पर
इतराना
रोटी थी पर
खोटी थी
मुहावरे का
जन्म कहीं
हो जाना ।