उलूक टाइम्स: अक्तूबर 2012

शनिवार, 13 अक्तूबर 2012

मूल्याँकन का मूल्याँकन

दो सप्ताह से व्यस्त
नजर आ रहे थे
प्रोफेसर साहब
मूल्याँकन केन्द्र पर
बहुत दूर से आया हूँ
सबको बता रहे थे
कर्मचारी उनके बहुत ही
कायल होते जा रहे थे
कापियों के बंडल के बंडल
मिनटों में निपटा रहे थे
जाने के दिन जब
अपना पारिश्रमिक बिल
बनाने जा ही रहे थे
पचास हजार की
जाँच चुके हैं अब तक
सोच सोच कर खुश
हुऎ जा रहे थे
पर कुछ कुछ परेशान
सा भी नजर आ रहे थे
पूछने पर बता रहे थे
कि देख ही नहीं पा रहे थे
एक देखने वाले चश्में की
जरूरत है बता रहे थे
मूल्याँकन केन्द्र के प्रभारी
अपना सिर खुजला रहे थे
प्रोफेसर साहब को अपनी राय
फालतू में दिये जा रहे थे
अपना चश्मा वो गेस्ट हाउस
जाकर क्यों नहीं ले आ रहे थे
भोली सी सूरत बना के
प्रोफेसर साहब बता रहे थे
अपना चश्मा वो तो पहले ही
अपने घर पर ही भूल कर
यहाँ पर आ रहे थे
मूल्याँकन केन्द्र प्रभारी
अपने चपरासी से
एक गिलास पानी ले आ
कह कर रोने जैसा मुँह
पता नहीं क्यों बना रहे थे !

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

भाई फिर तेरी याद आई


गधे ने किसी गधे को
गधा 
कह कर आज तक नहीं बुलाया
आदमी कौन से सुर्खाब के पर
अपने लगा कर है आया

बता दे कुछ 
जरा सा भी किसी धोबी के दुख: को
थोड़ा 
सा भी
वो कम कभी हो कर पाया

किस अधिकार से 
जिसको भी चाहे गधा कहता हुआ
चलता है चला आज तक आया

गधों के झुंड 
देखिये
किस 
शान से दौड़ते जंगलों में चले जाते हैं
बस अपनी 
अपनी गधी या बच्चों की बात ही बस नहीं सोच पाते हैं

जान दे कर 
जंगल के राजा शेर की जान तक बचाते हैं

बस घास को 
भोजन के रूप में ही खाते हैं
घास की ढेरी बना के कल के लिये भी नहीं वो बचाते हैं

सुधर जायें अब 
लोग
जो यूँ ही 
गधे को बदनाम किये जाते हैं
आदमी के कर्मों को कोई क्या कहे 
क्यों अब तक नहीं शर्माते हैं

गधा है कहने 
की जगह अब
आदमी हो गया है 
कहना शुरू क्यों नहीं हो जाते हैं

गधे भी
वाकई में 
गधे ही रह जाते हैं

कोई आंदोलन 
कोई सत्याग्रह
इस उत्पीड़न के खिलाफ
क्यों 
नहीं चलाते हैं ।

चित्र साभार: 
https://www.dreamstime.com/

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

संडे है आज तुझे कर तो रहा हूँ याद

इस पर लिखा
उस पर लिखा
ताज्जुब की बात
तुझ पर मैने कभी
कुछ नहीं लिखा
कोई बात नहीं
आज जो कुछ
देख कर आया हूँ
उसे अभी तक
यहाँ लिख कर
नहीं बताया हूँ
ऎसा करता हूँ
आज कुछ भी
नहीं बताता हूँ
सीधे सीधे तुझ पर
ही कुछ लिखना
शुरू हो जाता हूँ
इस पर या
उस पर लिखा
वैसे भी किसी को
समझ में कब
कहाँ आता है
काम सब अपनी
जगह पर होता
चला जाता है
इतने बडे़ देश में
बडे़ बडे़ लोग
कुछ ना कुछ
करते जा रहे हैं
अन्ना जैसे लोग
भीड़ इकट्ठा कर
गाना सुना रहे हैं
अपने कनिस्तर को
आज मैं नहीं
बजा रहा हूँ
छोड़ चल आज
तुझ पर ही
बस कुछ कहने
जा रहा हूँ
अब ना कहना
तुम्हें भूलता
ही जा रहा हूँ ।

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

मंदिर और ऎसिडिटी

यहाँ पर
सुबह सुबह
पहले तो
एक मकान
के आगे
नतमस्तक
खड़ा हुआ
नजर आ
रहा था
आज से मंदिर
हो गया है
अखबार में
पढ़कर आ
रहा था
वहाँ पर
बेशरमों के बीच
शरम का एक
मंदिर बनाने
का प्रस्ताव
लाया जा
रहा था
बेशरम को जब
आती थी
शरम तो
ऎसी जगह
में फिर क्यों
जा रहा था
रोनी सी
सूरत ले
हमें बता
रहा था
किताबों में
लिखा हुआ
होता था
जो कभी
वो सब
अब कोई
नहीं सुना
रहा था
जो कहीं
नहीं लिखा
गया है कभी
उसपर दक्ष
हर कोई
नजर आ
रहा था
ताज्जुब की
बात हर
कोई कुछ
भी पचा
ले जा
रहा था
जिसे पच
नहीं पा
रहा था
डाक्टर के
पास जा
ऎसिडिटी का
इलाज करवा
रहा था ।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पकौड़ी




दर्द जब होता है हर कोई दवाई खाता है
तुझे क्या ऎसा होता है कलम उठाता है ।

रोशनी के साथ मिलकर ही इंद्रधनुष बनाता है
अंधेरे में आँसू भी हो तो पानी हो जाता है ।

सपना देखता है एक तलवार चलाता है
लाल रंग की स्याही देखते ही डर जाता है ।

सोच को चील बना ऊँचाई पर ले जाता है
ख्वाब चीटियों से भरा देख कर मुर्झाता है ।

हुस्न और इश्क की कहानी बहुत सुनाता है
अपनी कहानी मगर हमेशा भूल जाता है ।

बहुत सोचने समझने के बाद समझाता है
समझने वाला हिसाब लेकिन खुद लगाता है ।

दुखी होता है जब जंगल निकल जाता है
डाल पर उल्लुओं को देख कर मुस्कुराता है ।

रोज का रोज मान लिया जलेबी बनाता है
पकौड़ी बन गई कभी किसी का क्या जाता है ।
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 जलेबी तो हो गयी पकौड़ी 

अब इस पर

रविकर जी की

टिप्पणी का
मजा लीजिये





रोज जलेबी खा रहा, हो जाता मधुमेह |
इसीलिए दिखला रहा, आज पकौड़ी नेह |

आज पकौड़ी नेह, खूब चटकारे मारे |
लेता जम के खाय, रात बार बड़ा डकारे |

सके न चूरन फांक, जगह जो पूरी फुल है |
बैठा जाके शाख, यही तो इसका हल है ||
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चित्र साभार: 
peurecipes.blogspot.com

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

निपट गये सकुशल कार्यक्रम

गांंधी जी
और शास्त्री जी

दो एक दिन से
एक बार फिर से 

इधर भी और उधर भी
नजर आ रहे थे

कल का पूरा दिन
अखबार टी वी समाचार
कविता कहानी और
ब्लागों में छा रहे थे

कहीं तुलना हो रही थी
एक विचार से
किसी को इतिहास
याद आ रहा था

नेता इस जमाने का
भाषण की तैयारी में
सत्य अहिंसा और
धर्म की परिभाषा में
उलझा जा रहा था

सायबर कैफे वाले से
गूगल में से कुछ
ढूंंढने के लिये गुहार
भी लगा रहा था

कैफे वाला उससे
अंग्रेजी में लिख कर
ले आते इसको

कहे जा रहा था

स्कूल के बच्चों को भी
कार्यक्रम पेश करने
को कहा जा रहा था

पहले से ही बस्तों से
भारी हो गई
पीठ वालो का दिमाग
गरम हुऎ जा रहा था

दो अक्टूबर की छुट्टी
कर के भी सरकार को
चैन कहाँ आ रहा था

हर साल का एक दिन
इस अफरा तफरी की
भेंट चढ़ जा रहा था

गुजरते ही जन्मोत्सव
दूसरे दिन का सूरज
जब व्यवस्था पुन:
पटरी पर  होने का
आभास दिला रहा था

मजबूरी का नाम
महात्मा गांंधी होने का
मतलब एक बार फिर
से समझ में आ रहा था ।

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

जानवर की खबर और आदमी की कबर




हथिनी के बच्चे का नहर में समाना
कोशिश पर कोशिश नहीं निकाल पाना
हताशा में चिंघाड़ना और चिल्लाना
हाथियों के झुंड का 
जंगल से निकल कर आ जाना
आते ही दो दलों में बट जाना
नहर में उतर कर बच्चे को धक्के लगाना
बच्चे का सकुशल बाहर आ जाना
हथिनी का बच्चे के बगल में आ जाना
हाथियों का सूंड में पानी भर कर लाना
बच्चे को नहलाकर वापस निकल जाना
पूरी कहानी का फिल्मी हो जाना
जंगली जीवन की सरलता के
जीवंत उदाहरण का सामने आ जाना
आपदा प्रबंधन का नायाब तरीका दिखा जाना
नजर हट कर 
अखबार के दूसरे कोने में जाना
आदमी की चीख किसी का भी ना सुन पाना
बच्चे के उसके मौत को गले लगाना
आपदा प्रबंधन का पावर पोइंट प्रेजेन्टेशन याद आ जाना
सरकार का 
लाश की कीमत कुछ हजार बताना
सांत्वना की चिट्ठी सार्वजनिक करवाना
मौत की जाँच पर कमेटी बिठाना
तरक्की पसंद आदमी की सोच का
जानवर हो जाना ।

चित्र साभार: https://www.upi.com/