उलूक टाइम्स: फ़रवरी 2015

शनिवार, 28 फ़रवरी 2015

जो जैसा था वैसा ही निकला था गलती सोचने वाले की थी उसकी सोच का पैर अपने आप ही फिसला था


भीड़ वही थी 
चेहरे वही थे कुछ खास नहीं बदला था

एक दिन
इसी भीड़ के बीच से निकल कर
उसने उसको 
सरे आम एक चोर बोला था
सबने
उसे कहते हुऐ देखा और सुना था

उसके लिये
उसे इस तरह से 
ऐसा कहना सुन कर बहुत बुरा लगा था

कुछ
किया विया तो नहीं था
बस
उस कहने वाले से किनारा कर लिया था

पता ही नहीं था
हर घटना की तरह इस घटना से भी
जिंदगी का एक नया सबक नासमझी का
एक बार फिर से सीखना था

सूरज को हमेशा
उसी तरह सुबह पूरब से ही निकलना था
चाँद को भी हमेशा पश्चिम में जा कर ही डूबना था

भीड़ के बनाये
उसके अपने नियमों का
हमेशा की तरह कुछ नहीं होना था
काम निकलवाने के क्रमसंचय और संयोजन को
समझ लेना इतना आसान भी नहीं था

मसला
मगर बहुत छोटा सा 
एक रोज के होने वाले
मसलों के बीच का ही एक मसला था

आज उन दोनों का जोड़ा
सामने से ही
हाथ में हाथ डाल कर जब निकला था

कुछ हुआ था या नहीं हुआ था
पता ही नहीं चल सका था

भीड़ वही थी चेहरे वही थे
कहीं कुछ हुआ भी है
का कोई भी निशान
किसी चेहरे पर बदलता हुआ
कहीं भी नहीं दिखा था

‘उलूक’ ने
खिसियाते हुऐ हमेशा की तरह
एक बार फिर अपनी होशियारी का सबक
उगलते उगलते
अपने ही थूक के साथ
कड़वी सच्चाई की तरह ही निगला था ।

चित्र साभार: davidharbinson.com

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

राजा हैं और बहुत हैं चैन से जीना है तो सीख राजाओं की सुनना और राजाओं का हुकुम बजाना



राजशाही राज्य और राजा
एक नहीं कई कई हुआ करते थे किसी जमाने में

जमाना बदला 
राज्य मिटे राजशाही मिटी सीमायें हटी
जमीने साथ मिली देश बना
बदल गया बदल गया का डंका बजा
थोड़ा नहीं बहुत जोर से बजा

हल्ला गुल्ला शोर शराबा होना शुरु हो गया
मोहल्ले की छोड़िये
गली गली में तमाशा हो गया

एक बार हुआ फिर कई बार हुआ
और अब होने लगा हर साल
कोई नहीं कहता इस बार नहीं हुआ

राजा पहले एक दो हुआ करते थे
बाकी होते थे भेड़ और बकरियाँ
कहा जाता था प्रजा हुआ करते थे

जमाने ने जमाना बदलने के साथ अपने को बदला
अंदाज नहीं आया
पर राजा ने राजशाही को भी बदला

पहले की तरह
कोई एक दो के होने से अच्छा
कोई भी कहीं भी हो ले का अलिखित
नियम चल निकला

सीमायें निर्धारित हुई
अपने अपने हिसाब से अपने चारों ओर

अपने मतलब का राज्य सोच
अपनी लाईन देख कोई भी राजा हो
अपने अपने बिलों से
बिना मुकुट धनुष तीर के मुस्कुराता
अपने मन ही मन
कोई एक किसी और का माँगा हुआ चोला डाल
सड़क पर नंगे पैर प्रजा होने का नाटक करने निकला

आज हर दूसरा राजा
और उसका अपने हिसाब का अपना राज्य
उसके अपने नियम
बाकी बचे का पैर जैसे कैले के छिलके में हो फिसला

‘उलूक’ सोच मत देखता चल
जिंदा रहना है तो पालन करना सीख
अपने आगे के राजा का हुकम बजाना सीख
पीछे के राजा को सलाम करने के लिये
अपने दोनो हाथों को अपने सिर पर ले जाना सीख

नहीं कर सकता है तो सीख ले
थोड़ा पागल और थोड़ा दीवाना हो जाना
आसमान को देख नोचना अपने ही बाल
और ठहाके साथ में लगाना ।

चित्र साभार: www.graphicsfactory.com

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2015

ब्लागर होने का प्रमाणपत्र कहाँ मिल पायेगा कौन बतायेगा

चिट्ठाकार कौन है
कौन बतायेगा
खुद को समझने
लगे कोई यूँ ही
तो क्या
किया जायेगा
किसी को तो
बताना ही पढ़ेगा
या हर कोई यहाँ
बेलगाम हो जायेगा
बपौती मेरी नहीं है
मुझे मालूम है
पर सुनने में बुरा
सबसे पहले उसे
ही लगेगा
जो होगा नहीं और
इसी बात को लेकर
बात ही बात में
बड़बड़ायेगा
टिप्पणी एक
बहुत खतरनाक
चीज है
किसे पता है कौन देगा
और कहाँ दे जायेगा
जमघट होता है
दिखता है क्यों होता है
समझ में किसके
आ पायेगा
ब्लागर की ब्लागरी
का भूत कौन
उतार पायेगा
तूने कह तो दिया
सब सतह में है
तैरता हुआ जैसे
तेरे कहने पर
कौन मुहर लगायेगा
चिट्ठाकारी की इंदीरा
कौन होगी कौन मोदी
अपने को बतायेगा
‘उलूक’ तू यहाँ क्यों है
 तेरी समझ में
ना आने वाला है
ना आ पायेगा
तुझे तो बस फैलाना है
कहीं ना कहीं कुछ कूड़ा
डस्टबिन सरकारी
किसी सरकार का
तुझे कभी भी
उपलब्ध नहीं हो पायेगा
लिखता रह कुछ भी
कभी भी कहीं भी
बिना किसी प्रमाणपत्र
के तू कभी एक
ब्लागर नहीं हो पायेगा ।

 चित्र साभार: whatsupaggiehort.blogspot.com

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

क्या बिका किसका बिका बेचना खरीदना कुछ भी बहुत आसान हो गया

किस कदर चाहता है
किसी को कोई सोचिये
कत्लेआम हो गया
अपने ईमान की खातिर
देखिये तो सही
जरा गौर से
उसका कुछ
नीलाम हो गया
इससे पहले भी
आये कई आशिक
कई मर खप गये
कुछ हुआ या नहीं हुआ
समझने की जरूरत नहीं
एक गुलाम का अपना
एक मकान हो गया
आजादी मिली
सब कुछ लुटा कर भी
गरीब का बिकते बिकते
बहुत कुछ बिकाऊ
अपनी ही बाजार का
कीमती सामान हो गया
सुने बहुत से तीरंदाज
पैदा होने से पहले के अपने
झूठ बोला होगा किसी ने
बहुत चतुराई से यूँ ही
किसी का कुछ
नहीं दिखा कहीं
किसी की खातिर
जो नीलाम हो गया
मंदिर बना कर
हर गली कूचे में
हे भगवान कहाँ गया
अंतरध्यान हो गया
देखता चल आँख
बंद कर ‘उलूक’
पता चलेगा किसी दिन
तुझे भी किसी चौराहे पर
अपने घर को
बचाने के लिये बिकना
जरूरी सरे आम हो गया ।

चित्र साभार: sketchindia.wordpress.com

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

जिसे चाहे लकीर कह ले पीटना शुरु कर और फकीर होले



अपनी लकीर को
पीटने का मजा ही कुछ और है
और
जब अपनी लकीर को खींचता हुआ
साथ साथ पीटता हुआ
लकीर खीँचने वाला देखता कहीं और है
तो देखता है
हर तरफ ही उसके लकीर ही लकीर है
हर लकीर के साथ
उसे खींचने वाला एक फकीर है

समझ में आता है चाहे देर में आता है
पर जब आता है पता चल पाता है
यही है जो और कहीं भी नहीं है
वो है और बस वही एक फकीर है
और
उसकी खींची हुई ही लकीर एक लकीर है
एक फकीर
और उस फकीर की एक लकीर
हर किसी के समझ में नहीं आती है
आ भी नहीं सकती है

लकीर को समझने के लिये
खुद भी होना पड़ता है कुछ
कुछ और नहीं बस एक फकीर है

फकीर फकीर के आस पास ही मडराते हैं

बस एक लकीर का फकीर ही
खुद अपनी ही लकीर को पीटने में खुश दिखता है
और कोशिश करता है
खींच पाये हर दिन हर पहर
कहीं ना कहीं सीधी ना भी सही
एक टेढ़ी मेढ़ी ही सही बस और बस एक लकीर
जिसे देखने वाला
ना चाहते हुऐ भी कह पड़े देख कर
कि
हाँ है और यही एक लकीर है

लेकिन सच कुछ और है
लकीर को कोई नहीं कहता है कि लकीर है

पीट सब रहे हैं
पर पीटने वालों में से एक भी ऐसा नहीं है
जिसे
कहा जा सके कि वो एक फकीर है
लेकिन
किया क्या जा सकता है
सारे लकीर के फकीर
एक जगह पर एक साथ दिख जाते हैं
और
फकीर खुद खीँचता भी है जिसे
वो उसकी अपनी ही लकीर है
और खुद ही पीटता भी है जिसे
वो भी उसकी अपनी ही लकीर है

होता है पर कोई नहीं कहता है
बस उसे और उसे ही
कि
वही है बस एक वास्तव में जो
लकीर का फकीर है।

चित्र साभार: www.threadless.com

रविवार, 15 फ़रवरी 2015

पन्नों के पहले पन्ने पन्नों के बाद पन्ने



कुछ काले सफेद पन्ने कुछ खाली सफेद पन्ने
पन्नो से उलझते पन्ने पन्नो से निबटते पन्ने
एक दो से शुरु होकर एक हजार होते पन्ने
किसने गिनने हैं पन्ने किसने पलटने हैं पन्ने
पन्नो के ऊपर पन्ने पन्नो के नीचे पन्ने
कुछ उठे उठे से पन्ने 
कुछ आधी नींद के उनींदे उनींदे से पन्ने
कुछ सोते हुऐ से पन्ने
पन्नों की सुनते पन्ने पन्नों की कहते पन्ने
कुछ इसके यहाँ के पन्ने कुछ उसके वहाँ के पन्ने
कुछ इसके उठाते पन्ने कुछ उसके सजाते पन्ने
कुछ कुछ घटा कर लगाते पन्ने
कुछ कुछ जुड़ा कर लगाते पन्ने
कुछ बस देखने ही आते पन्ने
कुछ देख कर ही जाते पन्ने
कुछ अपने उठाते पन्ने कुछ उसके उठाते पन्ने
पन्नों की भीड़ में कुछ के कभी खो भी जाते पन्ने
पन्नों के आघे पन्ने पन्नों के पीछे पन्ने
पन्नों की कहानियों को पन्नों को सुनाते पन्ने ।

चित्र साभार: www.yoand.biz

शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

जोकर बनने का मौका सच बोलने लिखने से ही आ पायेगा

व्यंग करना है
व्यंगकार
बनना है
सच बोलना
शुरु कर दे
जो सामने से
होता हुआ दिखे
उसे खुले
आम कर दे
सरे आम कर दे
कल परसों में ही
मशहूर कर
दिया जायेगा
इसकी समझ में
आने लगा है कुछ
करने कराने वाला
भी समझ जायेगा
पोस्टर झंडे लगवाने
को नहीं उकसायेगा
नारे नहीं बनवायेगा
काम करने के
बोझ से भी बचेगा
और नाम भी
कुछ कमा खायेगा
 बातों में बोलना
अच्छा नहीं
लगता हो
तो सच को
सबके सामने
अपने आप करना
शुरु कर दे
खुद भी कर और
दूसरों को करने
की नसीहत भी
देना शुरु कर दे
एक दो दिन भी
नहीं लगेंगे
तेरे करने
करने तक
जोकर तुझे
कह दिया जायेगा
किसी ना किसी
अखबार में
छप छपा जायेगा
अपने आस पास
के सच को देख कर
आँख में दूरबीन
लगा कर चाँद को
देखने वालों को
चाँद का दाग
फिर से नजर आयेगा
बनेगी कोई गजल
कोई गीत देश प्रेम
का सुनायेगा
 प्रेम और उसके दिन
की बात भूलकर
रामनामी दुप्ट्टा
ओढ़ कर
कोई ना कोई
संत बाबा जेल
भी चला जायेगा
बचेगी संस्कृति
बचेगा देश
कुछ नहीं भी बचा
तब भी तेरे खुद का
थोड़ा बहुत किसी
छोटे मोटे अखबार
या पत्रिका में
बिकने बिकाने
का जुगाड़ हो जायेगा ।

चित्र साभार: www.picturesof.net

गुरुवार, 12 फ़रवरी 2015

लिख कोई भी किताब बिना इनाम बिना सम्मान की कभी भी जिसमें सभी पाठ हों बस तेरे सामने के हो रहे झूठों के


किसी दिन
शायद दिखे
बाजार में
गिनी चुनी
किताबों की
कुछ दुकानों में
एक ऐसी
किताब

जिसमें
दिये गये हों
वो सारे पाठ
जो होते तो हैं
 पर हम
पढ़ाते नहीं हैं
कहीं भी
कभी भी

प्रयोगशाला
में किये
जाने वाले
प्रयोग नहीं
हों जिसमें

होंं झूठ के साथ
किये गये प्रयोग
जो हम
सब करते हैं
रोज अपने लिये
या
अपनो के लिये
ग़ाँधी के सत्य के
साथ किये गये
प्रयोगों की तरह
रोज

किताबों
का होना
और
उसमें लिखी
इबारत का
एक
इबारत होना
देखता
आ रहा है
सदियों से
हर पढ़ने
और नहीं
पढ़ने वाला

लिखने
वाले की
कमजोर
कलम
उठती तो
है लिखने
के लिये
अपनी
बात को
जो उठती
है शूल
की तरह
कहीं उसके
ही अंदर से

पर लिखना
शुरु करने
करने तक
चुन लेती
है एक
अलग रास्ता
जिसमें
कहीं कोई
मोड़
नहीं होता

चल देता
है लेखक
कलम के
साथ स्याही
छोड़ते हुऐ
रास्ते रास्ते
अपनी
बात को
हमेशा
की तरह
ढक कर
पीछे छोड़
जाते हुऐ

जिसे देखने
का मौका
मुड़कर
एक जिंदगी
में तो नहीं
मिलता

फिर भी
हर कोई
लिखता है
एक किताब
जिसमें होते
हैं कुछ
जिंदगी के पाठ

जो बस
लिखे होते
हैं पन्नों में
उतारे जाते हैं
सुनाये जाते हैं
उसी पर प्रश्न
पूछे जाते हैं
उत्तर दिये
जाते हैं
और
जो हो रहा
होता है
सामने से
वो पाठ
कहीं किसी
किताब में
कभी
नहीं होता

क्या पता
किसी दिन
कोई
हिम्मत करे
नहीं हो
एक कायर

’उलूक’
की तरह का
और
लिख डाले
एक किताब
उन सारे
झूठों के
प्रयोगों की
जो हम
तुम और वो
कर रहे हैं रोज
सच को
चिढ़ाने
के लिये
गाँधी जी
की फोटो
चिपका कर
दीवार से
अपनी पीठ
के पीछे ।

चित्र साभार: galleryhip.com

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

इधर का इधर और उधर का उधर करें

हो गया
इधर पूरा
अब उधर चलें
करने वाले
कर रहे हैं
कुछ इधर
कुछ उधर
सोचना है
हमको कब
किधर चलें
कविता गीत
गजल की
बौछार है
उधर भी
और इधर भी
कुछ बोलने
वाले कुछ भी
हमेशा इधर
भी हैं और
उधर भी हैं
फर्क पड़ना
नही है
किसी को
कोई किधर
को भी चले
जिंदगी कट
रही है उनकी
इधर का
उधर करने में
हम भी कुछ
कम कहाँ हैं
उधर का इधर
करने में
कर रहे हैं
सब ही
कुछ ना कुछ
इधर और उधर
बात इधर की
वो इधर करें
हम भी चलें
हमेशा की
तरह आदतन
चल कर उधर
कुछ उधर करें
आइये सब मिल
कर अब करें
इधर और उधर
अलग अलग
रह कर इधर
का इधर और
उधर का उधर
करने की आदतों
को पहले
इधर उधर करें ।

चित्र साभार: www.flickr.com

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

क्या धोया ना कपड़ा रहा ना साबुन रहा सब कुछ पानी पानी हो गया

अब क्या कहूँ
कहने के लिये
कुछ भी नहीं
कहीं रह गया
कुछ मैला तो
नहीं हो गया
सोचने सोचने
तक बिना साबुन
बिना पानी के
हवा हवा में
ही धो दिया
धोना बुरी
बात नहीं पर
इतना भी
क्या धोना
पता चला
कपड़ा ही
धोते धोते
कहीं खो गया
साबुन गल
गया पूरा
बुलबुलों भरा
झाग ही झाग
बस दोनों ही
हाथों में रह गया
हे राम
तू निकला
गाँधी के मुँह से
उनकी अंतिम
यात्रा के पहले
उसके बाद
आज निकल
रहा है एक नहीं
कई कई मुँहों से
एक साथ
हे राम
ये क्या हो गया
भक्तों की पूजा
अर्चना करना
क्या सब
मिट्टी मिट्टी
हो गया
आदमी मेरे
गाँव का लगा
आज तेरे से
ज्यादा ही
पावरफुल
हो गया
अब क्या कहूँ
किससे कहूँ
रोना आ रहा है
धोने के लिये
बाकी कहीं भी
कुछ नहीं रह गया ।

चित्र साभार: www.4to40.com

सोमवार, 9 फ़रवरी 2015

बुलाया होगा तुझे पहली बार यहाँ शतरंज की बिसात को ही पलटा गया

पहली बार आया
और चला गया
जाने के बाद
पता चला
जिसने बुलाया
उसे ही चूना
लगा गया
ऐसा भी क्या
आना हुआ
गणित पढा‌ने
वाले को ही
हिसाब समझा गया
यहाँ आया चुपचाप
अंदर ही अंदर
मुस्कुरा गया
वापिस जाने के बाद
अपनी हंसी को
खुल कर अखबार
में छपवा गया
दे कर कुछ
भी नहीं गया
सपने के कारखाने
के मालिक को ही
सपने दिखा गया
यहीं कह जाता
सब कहना सुनना
ये क्या बात हुई
घर वापस पहुँचने
के संदेशे के साथ
फटे कपड़ों के
टल्लों की बात
मुहल्ले मुहल्ले
में फैला गया
तेरे आने का
फायदा तो
बुलाने वाले के
हिस्से में आने
से पहले ही
हाथ से फिसल
कर चला गया
बहुत बुरी बात है
झाड़ने वाले को
शाबाशी देने
के बजाय
झाड़ू वाले की
पीठ थपथपा गया
तू तो बाजीगरी के
उस्तादों की नगरी
में आकर
हाथ की सफाई
उनको ही दिखा गया
गजब किया
मुँह के राम को
बगल में छुरी
होने का पक्का
भरोसा दिला गया
किसलिये आया
क्यों आया पूरी की पूरी
बाजी ही उल्टी करा गया
आज की रात
का कर फिर
तू भी इंतजार
कल पता चलेगा
किसको मजा आया
और किसको मजा
आते आते चला गया ।


चित्र साभार: www.dreamstime.com

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

कह दे कुछ भी कभी भी कहीं भी कुछ नहीं होता है

कुछ कहने
के लिये कुछ
करना जरूरी
नहीं होता है
कभी भी
कुछ भी
कहीं भी
कह लेना
एक मजबूरी
होता है
करने और
कहने या
कहने और
करने में
बस थोड़ा सा
अंतर होता है
कहने के बाद
करना जरूरी
नहीं होता है
खामियाजा
छोटा सा ही
बस रहने या
नहीं रहने
के जितना
ही होता है
एक बार
कह देने का
एक मौका
जरूर होता है
दूसरी बार
कहने का
मौका कोई
नहीं देता है
कहने के बाद
मिले मौके को
जो खो देता है
उसके पास
करने का मौका
अगली बार
नहीं होता है
जो दिख रहा
होता है वो ही
सही होता है
समझ ले जो
इसके साथ
इस बार होता है
उसी जैसा कुछ
अगली बार
उसके साथ
होता है
जो कहा है उसे
खुद ही समझ ले
अच्छी तरह
समझने के लिये
अलग से समय
नहीं होता है
कई बार हो
और बार बार हो
उससे पहले
कहे हुऐ
एक बार को
एक ही बार
याद क्यों नहीं
कर लेता है
सपने देखना
सभी चाहते हैं
सपने दिखाने
वाला एक बार
के बाद एक
सपना खुद का
खुद के लिये
हो लेता है
लोकतंत्र का
मंत्र खाली
किताबों में
लिखा नहीं
होता है
पढ़ने के साथ
स्वाहा भी
कहना होता है ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

पढ़ पढ़ के पढ़ाने वाले भी कभी पानी भर रहे होते हैं

मत पूछ लेना
कि क्या हुआ है
अरे कुछ भी
नहीं हुआ है
जो होना है वो तो
अभी बचा हुआ है
हो रहा है बस
थोड़ा धीरे धीरे
हो रहा है
इस सब के
बावजूद भी कहीं
एक बेवकूफी
भरा सवाल
मालूम है
तेरे सिर में
कहीं उठ रहा है
अब प्रश्न उठते ही हैं
साँप के फन की तरह
पर सभी प्रश्न
 जहरीले नहीं होते हैं
हाँ कुछ प्रश्नों के
सिर और पैर
नहीं होते हैं
और कुछ के नाखून
नहीं होते हैं
खून निकला नहीं
करता है जब
प्रश्न ही प्रश्न को
खरोंच रहे होते हैं
वैसे ज्यादातर प्रश्नों
के उत्तर पहले से ही
कहीं ना कहीं
किताबों में लिखे होते हैं
और बहुत ज्यादा
पढ़ाकू टाईप के लोग
एक ना एक किताब
कहीं अपनी किसी
चोर जेब में लिये
घूम रहे होते हैं
बहुत भरोसे से
कह रहे होते हैं
प्रश्न और उत्तर
उनके भरोसे से ही
किताबों के किसी
पन्ने में रह रहे होते हैं
हँसी आ ही जाती है
कभी हल्की सी
बेवकूफी भरी
किसी किनारे से मुँह के
जब कभी किसी समय
हड़बड़ी में पढ़ाकू लोग
अपनी अपनी किताब
निकालने से परहेज
कर रहे होते हैं
प्रश्न कुछ आवारा से
इधर से उधर और
उधर से इधर
उनके सामने से ही
जब गुजर रहे होते हैं
समझने वाले
समझ रहे होते हैं
नासमझ कुछ
इस सब के बाद भी
प्रश्न कुछ नये तैयार
करने के लिये
अपनी अपनी किताब के
पन्ने पलट रहे होते हैं ।

चित्र साभार:
backreaction.blogspot.com  

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

कुछ देर के लिये झूठ ही सही लग रहा है वो सुन रहा है

सुना है

उसने
फतवा दिया है

और इसने
नहीं लिया है

ऐसा
क्यों किया है

बस
यही नहीं
कह रहा है

इसके
फतवे को
ना लेने से

उसका
रक्तचाप
बढ़ रहा है

उसने
बताया
नहीं है

लेकिन
चेहरे पर
दिख रहा है

राजनीति
कर रहा है

और
धर्म को
अनदेखा
कर रहा है

ये
कौन सा
नया पैंतरा है

ना
ये कह रहा है
ना
वो कह रहा है

कुछ
तो है
हवा में
जो ताजा है
और नया है

पुराने
बासी का
चेहरा
उतर रहा है

बस
थोड़ा सा
इंतजार
करने का
अपना ही
मजा है

होने
वाला है
जरूर
कुछ नया है

खुशी
की बात
बस इतनी है
साफ लग रहा है

जैसे
आदमी अब
अपने घर
लौट रहा है

चोला
फट रहा है
सारा दिख रहा है

बहुत
हो गई
आतिशबाजी
धुआँ हट रहा है

धुँधला
ही सही
कुछ कुछ कहीं

कहीं से
आसमान
दिख रहा है

‘उलूक’

नशा
करना अच्छा है

बहुत बुरा
तब है

जब
बताये
कोई
कि
उतर रहा है ।

चित्र साभार: www.firstpost.com

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

दो चार दिन और पश्चिमी विक्षोभ पूरब पर भारी रहेगा

जरूरी है
क्या जीतना
हार भी गया
तब भी
क्या होगा
एक तो
पक्का हारेगा
और एक
जीतेगा भी
एक बीच में
रह कर
तमाशा भी देखेगा
उसके बाद
कुछ होगा
या नहीं होगा
ये किसी को
भी पता नहीं होगा
ये बस आज ही
की बात नहीं है
जब से शुरु हुआ है
हारना और जीतना
तब से लगता रहा है
कुछ ऐसा ही होगा
ऐसा नहीं भी होगा
तो वैसा जरूर होगा
जीतने वाला बहुत
समझदार होगा
हारने वाला
बेवकूफ होगा
जिताने वाले के पास
बड़ा दिमाग होगा
हराने वाले के पास
हरा दिमाग होगा
बड़ा दिमाग कब
हरा दिमाग होगा
और हरा दिमाग कब
बड़ा दिमाग होगा
ये किसे पता होगा
इसे पता करना ही
बहुत बड़ा काम होगा
हर बार की तरह
इस बार भी होगा
एक ने जीतना होगा
एक ने हारना होगा
जिताने वाले के
पास इनाम होगा
हराने वाले के
पास इनाम होगा
हारना जीतना पहली नहीं
पिछली कई बार की तरह
ही इस बार भी होगा
बस देखना इतना ही है
जो होता आ रहा है
इस देश में
क्या वही इस बार होगा
वही होता रहेगा
और हर बार होगा
तेरा क्या होगा
तुझे मालूम होगा
मेरा क्या होगा
उसे मालूम होगा
उसका क्या होगा
किस को पता होगा
कहने वाला कह रहा है
इस समय भी
कुछ ना कुछ
उस समय भी
कुछ ना कुछ
कह रहा होगा
तेरा देश तेरा रहेगा
मेरा देश मेरा रहेगा
ये रहेगा तो ये करेगा
वो रहेगा तो वो करेगा
झंडा ऊँचा रहे हमारा
हमसे कहो कहने के लिये
ये भी कहेगा और
वो भी कहेगा ।

चित्र साभार: clipartof.com

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

कल फोड़ने के लिये रखे गये पठाकों को कोई पानी डाल डाल कर आज धो रहा है

फेशियल किया हुआ
एक एक चेहरा
चमक चमक कर
फीका होना
शुरु हो रहा है
उन सब चेहरों
पर सब कुछ
जैसे बिना जले
भी धुआँ धुआँ
सा हो रहा है
नजर फिसलना
शुरु हो गई है
चेहरे से
चेहरे के ऊपर
रखा हुआ चेहरा
देखना ही
दूभर हो रहा है
दिखने ही
वाला है सच में
सच का झूठ
और झूठ का सच
ऐसा जैसा ही
कुछ हो रहा है
ऐसे के साथ
वैसा ही कुछ कुछ
अब बहुत साफ साफ
दिखाई भी दे रहा है
उधर खोद चुके हैं
खाई खुद के लिये
इधर भूल गये शायद
उनका अपना ही
खोदा हुआ कुआँ
भरा भरा सा हो रहा है
उड़ गई है नींद रातों की
कोई कह नहीं पा रहा है
परेशान हो कर
दिन में ही कहीं
किसी गली में
खड़े खड़े बिजली के
खम्बे से सहारा
ले कर सो रहा है
गिर पड़ा है मुखौटा
शेर का मुँह के ऊपर से
बिल्ले ने लगाया हुआ है
साफ साफ पता
भी हो रहा है
सिद्धांतो मूल्यों की जगह
गाली गलौच करना
बहुत जरूरी हो रहा है
बहुत ज्यादा हो गया
बहुत कुछ उस की ओर को
अब इसकी ओर भी कुछ
होने का अंदेशा हो रहा है
जो भी हो रहा है ‘उलूक’
तेरे हिसाब से बहुत ही
अच्छा हो रहा है
दो चार दिन की बात है
पता चल ही जायेगा
दीदे फाड़ कर
बहुत हंसा वो
अब दहाड़े मार मार
कर रो रहा है ।

चित्र साभार: www.123rf.com

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

किसी को भी नहीं दे देना कुछ भी सभी कुछ उसी को दे आ

उसके कहने
पर चला जा
इसको दे आ
इसकी मान ले
बात और
उसको दे आ
चाँद तारों को देख
रोशनी के ख्वाब बना
अपनी गली के
अंधेरों को सपनों
में ही भगा
खुद कुछ मत सोच
इसकी या उसकी
कही बात को नोच
कपड़े पहन कर
संगम में नहा
थोड़ी घंटी थोड़ा
शंख भी बजा
झंडा रखना
जरूरी है
डंडा चाहे पीठ
के पीछे छुपा
तेजी से बदल रही
दुनियाँ के नियम
कानूनो को समझने
में दिमाग मत लगा
जहाँ को जाती
दिखे भीड़
कहीं से भी घुस
कर सामने से आजाने
का जुगाड़ लगा
जिस घर में घुसे
अपना ही घर बता
जिस घर से चले
उस में आग लगाने
के लिये एक पलीता
पहले से छोड़ जा
हारना सच को ही है
पता है सबको
झूठ के हजार पोस्टर
हजार जगहों पर चिपका
बहुत कुछ देख लेता है
‘उलूक’ रात के अंधेरे में
उसके रात को निकलने
पर सरकारी पाबंदी लगवा
दिमाग से कुछ कुछ देकर
आधा अधूरा मत बना
बिना सोचे समझे
सब कुछ देकर
पूरा बनाने का
गणित लगा
मरना तो है ही
एक ना एक दिन
सभी को कुछ तो
समझदारी दिखा
दो गज जमीन
खोद कर
पहले से कहीं ना
कहीं रख कर जा ।

चित्र साभार: eci.nic.in

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

पकी पकाई खबर है बस धनिया काट कर ऊपर से सजाया है



बच्चों
की 
जेल से

बच्चे 
फरार 
हो गये हैं 

ऐसा 
खबरची 
खबर ले कर 
आज आया है 

देख लेना
चाहिये 
कहीं

उसी
झाडू‌ वाले
ने
फर्जी 
मतदान करने 
तो
नहीं बुलाया है 

अपनी
जेब पर 
चेन लगाकर 
बाहर और अंदर 
दोनो तरफ से 
बंद करवाया है 

उसकी
खुली जेब 
से
झाँक रहे नोटों 
पर

कहानी
बना कर
चटपटी 
एक लाया है 

सवा करोड़ 
चिट्ठियों में
कहाँ 
कुछ खर्च होता है 

बहुत 
सस्ते कागज 
में
सरकारी 
छापे खाने में 

श्रमदान 
करने वाले 
कर्मचारियों 
को

काम पर 
लगा कर 
छपवाया है 

बहुत कुछ 
किया है 
बहुत कुछ 
करवाया है 

दिखाना 
जरूरी 
नहीं होता है 

इसलिये
कुछ 
कहीं नहीं 
दिखाया है 

आदमी छोड़िये 
भैंसे भी
कायल 
हो चुकी हैं 

बड़ी बात है
बिना लाठी 
हाथ में लिये 
भैंस को
अपना 
बनाया है 

जादू है 
जादूगर है 
जादूगरी है 
तिलिस्म है 

छोड़ कर
जाने वाले
इतिहास 
हो गये हैं 

हर
किसी को 
इधर से हो
या 
उधर से हो 

अपने में
घुलाया 
और
मिलाया है 

मिर्ची
तुमको 
भी लगती है 
इस
तरह की 
बातें पढ़कर 

कोई नई 
बात नहीं है 
मिर्ची हमें 
भी
लगती है 

अच्छी
बातों का 
अच्छा प्रचार 
पढ़कर 

अच्छे लोगों
का
बोलबाला है

बुरों को 
लिखने
लिखाने
का
रोग लगवाया है

क्या करें 
आदतन 
मजबूर हैं 

देखते हैं
रोज 
अपने आस पास 
के
घुन लगे हुऐ 
गेहूँ के बीजों
को 

यहाँ उगना 
मुश्किल 
होता है जिनका 

रेगिस्तान
में 
उसी तरह के
बीजों 
से

कैसे
 हरा पौँधा 
उगता हुआ
दिखाया है 

‘उलूक’ 
पीटता रहता है 
फटे हुऐ ढोलों को 

गली मुहल्ले के 
मुहानों पर 

कई
सालों से 
कौओं ने 
कबूतरों से 

सभी
जलसों में
देश प्रेम का भजन 
गिद्धों के सम्मान 
में बजवाया है । 

चित्र साभार: homedesignsimple.info

रविवार, 1 फ़रवरी 2015

किसी दिन ना सही किसी शाम को ही सही कुछ ऐसा भी कर दीजिये


अपनी ही बात अपने ही लिये 
रोज ना भी सही 
कभी तो खुल के कह ही लीजिये 

कोई नहीं सुनता इस गली में कहीं
अपनी आवाज के सिवा 
किसी और की आवाज 

खुद के सुनने के लिये ही सही 
कुछ तो कह दीजिये 

कितना भी हो रहा हो शोर उसकी बात का 
अपनी बात भी उसकी बातों के बीच 
हौले हौले ही सही कुछ कुछ ही कहीं 
कुछ तो कह दीजिये 

जो भी आये कभी मन में चाहे अभी 
निगलिये तो नहीं उगल ही दीजिये 

तारे रहते नहीं कहीं भी जमीन पर 
बनते बनते ही उनको 
आकाश की ओर हो लेने दीजिये 

मत ढूँढिये जनाब ख्वाब रोशनी के यहीं 
जमीन की तरफ नीचे यहीं कहीं 
देखना ही छोड़ दीजिये 

आग भी है यहीं दिल भी है यहीं कहीं 
दिलजले भी हैं यहीं 
कोयलों को फिर से चाहे जला ही लीजिये 

राख जली है नहीं दुबारा कहीं भी कभी 
जले हुऐ सब कुछ को जला देख कर 
ना ही कुरेदिये 

उड़ने भी दीजिये 
सब कुछ ना भी सही 
कुछ कुछ  तो कभी कह ही दीजिये 

अपनी ही बात को
किसी और के लिये नहीं 
अपने लिये ही सही 
मान जाइये कभी कह  भी दीजिये ।

चित्र साभार: galleryhip.com