उलूक टाइम्स: अन्दाज
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रविवार, 5 नवंबर 2017

अन्दाज नहीं आ पाता है हो जाता है कब्ज दिमागी समझ में देर से आ पाता है पर आ जाता है

कई
दिनों तक
एक रोज
लिखने वाला
अपनी कलम
और किताब को
रोज देखता है
रोज छूता है

बस लिखता
कुछ भी नहीं है

लिखने की
सोचने तक
नींद के आगोश
में चला जाता है
सो जाता है

कब्ज होना
शुरु होता है
होता चला
जाता है

बहुत कुछ
होता है
रोज की
जिन्दगी में

बाजार
नहीं होता है
आसपास
कहीं भी
दूर दूर तलक

बेचने की
सोच कर
साथी एक
कुछ भी
बेच देने वाला
मन बना कर
चला आता है

दुकान तैयार
कर देता हैं
मिनटों में
खरीददार
बुझाये
समझाये
हुऐ कुछ
दो चार
साथ में
पहले से ही
लेकर के
आता है

बिकने को
तैयार नहीं
होने से
कुछ नहीं
होता है

कब
घेरा गया
कब
बोली लगी
कब
बिक गया

जब तक
समझता है
बेच दिया
जाता है

सामान
बना दिया
जाने के बाद
दाम अपने आप
तय हो जाता है

शातिराना
अन्दाज के
नायाब तरीके
सीखना सिखाना
जिस किसी
को आता है

भीड़ का
हर शख्स
थोड़ी देर
के लिये
कुछ ना कुछ
सीखने के लिये
आना चाहता है

किताबें
कापियाँ
कक्षाओं के
श्यामपट के
आसपास रहने
दिखने वालों
के दिन कब
का लद गये

भरे हुऐ भरे में
थोड़ा सा ही सही
और भर देने की
कारीगरी सिखाना
फिर मिल बाँट कर
भर देना गले गले तक
खींच कर गले लगाना
जिसे आता है

आज
वही तैयार
करता है फन्दे
आत्म हत्या
करने का
ख्याल
रोज आता है

‘उलूक’
उल्लू का पट्ठा
समझता सब कुछ है
रोज मरता है मगर
रोज जिन्दा भी
हो जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Library

सोमवार, 3 फ़रवरी 2014

हर शुभचिंतक अपने अन्दाज से पहचान बनाता है


कितना कुछ होता है अपने आस पास 
बिल्कुल भी एक जैसा नहीं 
एक ऐसा तो दूसरा वैसा 

लिखने की सोचो 
तब महसूस होता है कुछ अजब गजब सा 

क्या छोड़ो क्या उठाओ 
मदारी उठाओ जमूरा छूट जाता है 
जमूरे की सोचो मदारी अकेला पड़ने लग जाता है 

पर सोचिये जरा 
हर आदमी का ऐंगल 
दूसरे आदमी से कहीं छोटा तो कहीं बड़ा हो जाता है 

किस पर क्या लिखा जाये 
एक विषय सोचने तक कलकत्ता आ जाता है 

बस और देर की गई तो जैसे लिखा हुआ 
समुन्दर में डूब जाने के लिये तैयार हो जाता है 

इस से पहले कोई डूबे कहीं 
दिमाग की लेखनी का ढक्कन 
कहीं ना कहीं उलझ ही जाता है 

तो ऐसे ही होते होते 
आज अपने ही एक शुभचिंतक का खयाल आ जाता है 

ना समाचार पत्र पढ़ता है ना रेडियो सुनता है 
आँखों में बस गुलाबजल डालता है 
टी वी देखने के हजार नुकसान बता डालता है 

बस जब भी मिलता है 
उससे पूछने से नहीं रहा जाता है 

जैसे एक रोबोट 
कलाबाजियाँ कई एक साथ खाता है 

भाई क्या हाल और क्या चाल हैं 
फिर दूसरा वाक्य और कोई खबर 

सबके साथ यही करता है 

क्यों करता है 
हर कोई इसे भी एक शोध का विषय बनाता है 

उलूक दिन में नहीं देख पाता है 
तो क्या हुआ 
रात में चश्मा नहीं लगाता है 

उलूकिस्तान में 
इस तरह की बातों को समझना 
बहुत ही आसान माना जाता है 

समाचार पत्रों में जो भी समाचार दिया जाता है 
उससे अपने आस पास के गुरु घंटालो के बारे में 
कुछ भी पता नहीं लग पाता है 

अच्छी जाति का कोई भी कुत्ता 
विस्फोटक का पता सूंघ कर ही लगाता है 

इसीलिये हर शुभचिंतक 
चिंता को दूर करने के लिये 
खबरों को सूंघता हुआ पाया जाता है

मिलते ही आदतन 
क्या खबर है 
उसके मुँह से अनायास ही निकल जाता है ।

चित्र साभार: iStock