उलूक टाइम्स: अस्थायी
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गुरुवार, 9 अगस्त 2012

अस्थायी व्यवस्था

हर तीसरे साल
के बाद बदल दिया
जाता रहा है
मेरी सस्ते गल्ले की
दुकान का मालिक
बात है ना मजेदार

उसके बाद चाहे तो भी
रुक नहीं पाता है
कोई भी हो ठेकेदार

बहुत समय से जबकी
लग जाते हैं इस काम में
लोग सपरिवार

दुकान का ठेका
उठाना चाह कर भी
नहीं हो पाते हैं
सफल हर बार

कोशिश करते ही
रह जाते हैं बेचारे
छोटे किटकिनदार

सरकार के काम
करने के सरकारी
तरीके को खुद कहाँ
जानती है सरकार

कुछ ऎसा ही एक
नजारा देखने में
आया है इस बार

एक बादल बेकार
नाराज हो कर
फट गया जा कर
एक कोने में
कहीं सपरिवार

ठेका देने वाले को
खुद उठाना पड़ा
एक कटोरा और
जाना पड़ गया
दिल्ली दरबार

प्रश्न गंभीर हो गया
अचानक
कौन चलायेगा
इस दुकान
को इस बार
आपदा की
इस घड़ी में
कौन ढूँढने जाता
एक सस्ते गल्ले की
दुकान के लिये
एक अदद ठेकेदार

मजबूरी में तंत्र
हुआ बेचारा लाचार
पकड़ लाया एक
पकौड़ी वाला जो
बेच रहा था
आजकल
कहीं पर
अपने ही अचार

कहा है उससे
जब तक हम
देते नहीं
दुकान को
एक अपना
ठेकेदार

तुझे ही
उठाना है
गिराना है
शटर इसका
पर पकाना
नहीं पकौड़े यहाँ

नहीं आना
चाहिये ऎसा
कोई अखबार
में समाचार ।