उलूक टाइम्स: आजादी
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मंगलवार, 15 अगस्त 2023

आजादी के मायने सबके लिये उनके अपने हिसाब से हैं बस हिसाब बहुत जरूरी है

 


आजादी दिखने दिखाने तक ही ठीक नहीं है
आजादी है कितनी है उसे लिखना भी उतना ही जरूरी है

जब मिली थी आजादी सुना है एक कच्ची कली थी 
आज के दिन पूरा खिल गयी है फूल बन गयी है
स्वीकार कर लेना है
आज की मजबूरी है

बात देश की करते हैं नौजवान आजकल के 
झंडा फहराते हैं एक संगठन का
समझाते है राष्ट्र तिरंगे के फहराने के समय
अपनी अपनी श्रद्धा है अपनी अपनी जी हजूरी है 

ना सैंतालीस मैं पैदा हुऐ ना गांधी से रूबरू कभी
धोती लाठी नंगा बदन तीन बंदरों की टोली
समझने की कोशिश भर रही
गांधी वांगमय समझ में आया या ना आया
सच को समझने की कोशिश भर रही
कह ले कोई कितना फितूरी है

समय दिख रहा है दिखा रहा है सारा सब कुछ
ठहरे स्वच्छ जल में बन रही तस्वीर की तरह
लाल किले पर बोले गए शब्द कितने आवरण ओढे
तैरते सच की उपरी परत पर
देख सुन रही है एक सौ चालीस करोड जनता
दो हजार चौबीस के चुनाव के परीक्षाफल
चुनाव होना ही क्यों है उसके बाद
किसने कह दिया जरूरी है

‘उलूक’ चश्मा सिलवाता क्यों नहीं अपने लिये
पता नहीं क्यों उनके जैसा
टी वी अखबार वालों के पास होता है जैसा
पता नहीं क्या देखता है क्या सुनता है

आँख से अंधा कान से बहरा
पैदा इसी जमीन से हुआ
कुछ अजीब सा हो गया
इस में कहीं ना कहीं कोई तो गड़बड़ है
कागज़ कागज़ भर रहा है लेकिन
कलम कुछ बिना स्याही है
और सफ़ेद है कोरी है | 

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/

शनिवार, 25 मई 2019

खुजली कान के पीछे की और पंजा ‘उलूक’ की बेरोजगारी का


पहाड़ी
झबरीले 

कुछ काले
कुछ सफेद

कुछ
काले सफेद

कुछ मोटे कुछ भारी
कुछ लम्बे कुछ छोटे
कुत्तों के द्वारा
घेर कर ले जायी जा रही

कतारबद्ध
अनुशाशित
पालतू भेड़ों
का रेवड़

गरड़िये
की हाँक
के साथ

पथरीले
ऊबड़ खाबड़

ऊँचे नीचे
उतरते चढ़ते
छिटकते
फिर
वापस लौटते

मिमियाते
मेंमनों को
दूर से देखता

एक
आवारा जानवर

कोशिश
करता हुआ

समझने की

गुलामी
और आजादी
के बीच के अन्तर को

कोशिश करता हुआ 
समझने की

खुशी और गम
के बीच के
जश्न और
मातम को

घास के मैदानों के
फैलाव के
साथ सिमटते
पहाड़ों की
ऊँचाइयों के साथ

छोटी होती
सोच की लोच की
सीमा खत्म होते ही
ढलते सूरज के साथ

याद आते
शहर की गली के
आवारा साथियों
का झुँड

मुँह उठाये
दौड़ते
दिशाहीन
आवाजों में
मिलाते हुऐ
अपनी अपनी
आवाज

रात के
राज को
ललकारते हुऐ

और

इस
सब के बीच

जम्हाई लेता
पेड़ की ठूँठ पर
बैठा
‘उलूक’

सूँघता
महसूस
करता हुआ

तापमान

मौसम के
बदलते
मिजाज का

पंजे से
खुजलाता हुआ

यूँ ही
कान के पीछे के
अपने ही
किसी हिस्से को

बस कुछ
बेरोजगारी

दूर
कर लेने की
खातिर
जैसे।

चित्र साभार: www.kissanesheepfarm.com

रविवार, 24 मार्च 2019

हर कोई किसी गिरोह में है फिर कैसे कहें आजादी के बाद सोच भी आज आजाद हो गयी है


आजादी 

चुनने की
एक आजाद सोच

पहेली 

नहीं हो गयी है 

सोचने 

की बात है 

सोच
आज क्यों

विरुद्ध
सामूहिक
कर्म/कुकर्म
हो गयी है ।


बर्फी 
के ऊपर
चढ़ाई गयी

चाँदी का
सुनहरा
वर्क हो गयी है

स्वर्ग
हो गयी है
का विज्ञापन है

मगर
बेशर्म
नर्क हो गयी है

अपोहन
की खबर
कौन दे

किसे
सुननी है

व्यस्त
चुनावों में

गुलाम
नर्स हो गयी है

मरेगी
भी नहीं

जिंदा भी
नहीं रहने
दिया जायेगा

बिस्तरे
में पड़ी

बेड़ा गर्क
हो गयी है

गहन
चिकित्सा केंद्र में
है भी

तो भी

कौन सी
किस के लिये

शर्म हो गयी है 

ठंडे हो गये

ज्यादा
लोगों
के देश में

सिर्फ
दो लोगों
के लिये

हर खबर

गर्म
हो गयी है 

पूजा पाठ
नमाज समाज

सोचने
वालों के लिये

फाल्तू
का एक

कर्म
हो गयी है

मन्दिर
के साथ

मसजिद
की बात
करना

सबसे
बड़ा
अंधेर है

अधर्म
हो गयी है 

नंगा होना

नंगई करना

करने धरने
वालों की

सूची में
आने की
शर्त हो गयी है

लोक भी है
तंत्र भी है

लोकतंत्र
की बात

फिर
करनी क्यों

बात ही
व्यर्थ हो गयी है 

जीतना
उसी को है

आज
चुनाव
करवाने
की बात भी

फालतू
सा एक

खर्च
हो गयी है 

मर जायेंगे

लुटेरे
घर मोहल्ले के

हार
पर बात
कहना भी

खाने में

तीखी मिर्च
हो गयी है 

क्या
लिखता है

क्या
सोच है

‘उलूक’ तेरी

समझनी
भी
किसे हैं

बातें सारी

अनर्थ
हो गयी हैं

लूट में

हिस्सेदारी
 लेने वाली

सारी
जनता को

देखता भी
नहीं है

आज

सबसे
समर्थ हो
गयी है । 




बुधवार, 15 अगस्त 2018

बहुत खुश है गली के नुक्कड़ पर आजादी के दिन आजाद बाँटने के लिये खुशी के पकौड़े तल रहा है

कई दिन से
थोड़ा थोड़ा
फटे हुऐ
शब्दों को

एक
रफूगर
रफू कर रहा है

पूछने पर
बोला
बहुत धीमे से

बस
फुसफुसा कर

बहुत
दिनों में
मिला है
काम बाबू

एक पागल
दे गया है

कह रहा था
पन्द्रह अगस्त
नजदीक है

आजादी
लिखने का
बहुत मन
कर रहा है

फटे कपड़े
के कुछ टुकड़े

उसी गली के
अगले छोर
का एक दर्जी
मन लगा कर
सिल रहा है

किसलिये
और क्यों

क्या
नया कपड़ा
अब बाजार में
नहीं मिल रहा है

बहुत
आजाद हो चुके थे
कुछ रंगीन कपड़े

ढूँढ कर लाये
गये हैं जनाब

सिलने लगा
यूँ ही तब
देखा नहीं
गया जब

पुराना झंडा
आजादी का

अपने ही
टुकड़ों के लिये
बैचेनी में
मचल रहा है

बन्धन
नहीं है कुछ भी

कुछ भी कह देने
और
कुछ भी कर देने
को आतुर
आजाद

नये शब्दों की
नयी किताब के
आजाद पन्नों
को साथ लेकर

'उसके' घर से
तैयार होकर
बहस के लिये
अब निकल रहा है

आजादी
का मतलब
शायद इसीलिये
‘उलूक’ को

कहीं किसी भी
शब्दकोश में
नहीं मिल रहा है।

चित्र साभार: https://carwad.net

शुक्रवार, 19 अगस्त 2016

अच्छे लोग और उनके उनके लिये मिमियाते बकरे


बकरे कटने के लिये ही होते हों 
या 
बकरे हर समय हर जगह कटें ही 

जरूरी नहीं है 

हर कोई 
बकरे नहीं  काटता है 
कुछ लोग जानते हैं 
बहुत ही अच्छी तरह 

कुछ बकरे 
शहर में मिमियाने के लिये 
छोड़ने भी जरूरी होते हैं 
जरूरी नहीं होता है उन्हें 
कुछ खिलाना या पिलाना 

कुछ बकरे 
खुद अपनी हरी पत्तियाँ खाये हुए 
पेट भरे होते हैं 

बकरे
शहर 
में छोड़ना 
इस लिये भी जरूरी होता है 
ताकि सनद रहे 

और 
बकरे भी हमेशा 
खुद के लिये ही नहीं मिमियाते हैं 

बकरे
वो सब 
बताते हैं जो उन्हें खुद 
मालूम नहीं होता है 

बकरों को 
गलत फहमी होती है
अपने 
खुलेआम आजादी से घूमने की 
वजह की जानकारी होने की 

अच्छे लोग 
बकरों को कभी काटा नहीं करते हैं 

बकरे
हमेशा 
बताते हैं 
अच्छे लोगों की अच्छाइयाँ 
शहर की गलियों में मिमिया मिमिया कर 

देश को भी 
बहुत ज्यादा जरूरत होती है 
ऐसे अच्छे लोगों की 
जिनके पास 
बहुत सारे बकरे होते हैं 
सारे शहर में मिमिया लेने वाले 
बिना हरी घास की चिंता किये हुऐ 

‘उलूक’ 
कब से पेड़ पर बैठा बैठा 
गिनती भूलने लगा है 
अच्छे लोगों और उनके 
उनके लिये मिमियाते 
बकरों को गिनते गिनते । 

चित्र साभार: www.speakaboos.com

शनिवार, 15 अगस्त 2015

आजादी जिंदा और गुलामी मरी हुई बात कुछ समझ में आई ?

सूरज डूब गया
बहुत अच्छी तरह
आज का दिन भी
पिछले उन्हत्तर
सालों की तरह
बीतना था बीत गया
स्वतंत्रों की स्वतंत्रता
हर जगह नजर आई
बेचारी गुलामी
गुलामों की
दूर दूर तक कहीं
भी नजर नहीं आई
गुलाम और
गुलामी की बात
आजाद और
आजादी के साथ
करने की हिम्मत
आज के दिन तो
कम से कम
नहीं ही आनी थी
समझ में नहीं आया
क्यूँ और
किसलिये चली आई
लगता है बंदर के
बारे में नहीं सोचने
की प्रतिज्ञा आज
के दिन के लिये
किसी ना किसी ने
किसी कारण से
है करवाई
क्या फायदा हुआ
कैसे भूल गया
बचपन में स्कूल में
हर साल झंडे के साथ
प्रभात फेरी थी करवाई
गुलामी नहीं रही
शहीदों के साथ साथ
ही शहीद हो गई
किताबों में एक नहीं
कई सारी तेरे पढ़ने
परीक्षा देने के लिये
ही गई थी लिखवाई
‘उलूक’ रात में भी
ढंग से नहीं देखने
की बात तेरे बारे
में थी सुनी सुनाई
पहली बार हुआ
अचँभा जरा सा
जब चमगादड़ की
तरह उल्टा लटकने
की करामात तेरी
सामने से चली आई
जिंदा आजादी की
बात छोड़ कर आज
भी तुझे मरी हुई
गुलामी की
याद चली आई ।

चित्र साभार: thinkramki.blogspot.com

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

आजाद देश के आजादी के आदी हो चुके आजाद लोगों को एक बार पुन: आजादी की ढेर सारी शुभकामनाएं

एक
आजाद देश के
आजादी के
आदी
हो चुके
आजाद
लोगों को

एक बार
पुन:
आजादी की
ढेर सारी
शुभकामनाएं

सुबह उठें
तिरंगा
जरूर लहरायें
तालियाँ
उसके
बाद ही बजायें

जन गण मन
साथ में गायें
मिठाइयाँ बटवाऐं
कुछ भाषण
खुद फोड़े
कुछ इनसे
और
कुछ उनसे
फुड़वायें

देश प्रेम से
भरे भरे
पाँव से
सिर तक
ही नहीं
उसके
ऊपर ऊपर
कहीं तक
भर भर जायें

इतना भरें
शुद्ध पारदर्शी
स्वच्छ गँगाजल
की तरह
छलछ्ल कर
छलछलाते हुऐ दूर
बहुत दूर से भी
साफ साफ
नजर आयें

दूरदर्शन
आकाशवाणी
से उदघोषणा
करवायें

समाचार
लिख लिखा
कर ढेर सारी
प्रतियों में
फोटो कापी
करवायें

माला डाले
सुशील संभ्रांत
किसी ना किसी
व्यक्ति का फोटो
रंगीन खिंचवायें

एक दो नहीं
घर शहर देश
प्रदेश के
सभी अखबार
में छपवाने
के लिये
घर के खबरी
को दौड़ायें

दिन निकले
इसी तरह
खुशी खुशी
शामे दावत
की तैयारी में
जुट जायें

आजादी के
होकर गुलाम
फिर वही सब
रोज का करने को
वही सब काम

एक गीता
बगल में दबा कर
शुरु वहीं से
जहाँ रुके थे
फिर से शुरु हो जायें

एक
आजाद देश के
आजादी के
आदी हो चुके
आजाद लोगों को
एक बार पुन:
आजादी की
ढेर सारी
शुभकामनाएं।

चित्र साभार: happyfreepictures.com

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

क्या बिका किसका बिका बेचना खरीदना कुछ भी बहुत आसान हो गया

किस कदर चाहता है
किसी को कोई सोचिये
कत्लेआम हो गया
अपने ईमान की खातिर
देखिये तो सही
जरा गौर से
उसका कुछ
नीलाम हो गया
इससे पहले भी
आये कई आशिक
कई मर खप गये
कुछ हुआ या नहीं हुआ
समझने की जरूरत नहीं
एक गुलाम का अपना
एक मकान हो गया
आजादी मिली
सब कुछ लुटा कर भी
गरीब का बिकते बिकते
बहुत कुछ बिकाऊ
अपनी ही बाजार का
कीमती सामान हो गया
सुने बहुत से तीरंदाज
पैदा होने से पहले के अपने
झूठ बोला होगा किसी ने
बहुत चतुराई से यूँ ही
किसी का कुछ
नहीं दिखा कहीं
किसी की खातिर
जो नीलाम हो गया
मंदिर बना कर
हर गली कूचे में
हे भगवान कहाँ गया
अंतरध्यान हो गया
देखता चल आँख
बंद कर ‘उलूक’
पता चलेगा किसी दिन
तुझे भी किसी चौराहे पर
अपने घर को
बचाने के लिये बिकना
जरूरी सरे आम हो गया ।

चित्र साभार: sketchindia.wordpress.com

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

गुलामी से आजादी तक का सवाल आजादी से आजादी तक हर तरफ उत्तर प्रश्नो का अकाल

कुछ अलग
ही अहसास
आज का
विशेष दिन

कुछ आजाद
आजाद से
हो रहे हों जैसे
सुबह सुबह से ही कुछ खयाल

उत्पाती बंदरों
का पता नहीं
कहीं दूर दूर तक

रोज की तरह
आज नहीं पहुँचे
घर पर करने

हमेशा की
तरह के
आम आदमी
की आदत में
शामिल हो चुके धमाल

शहर के स्कूल
के बच्चों की
जनहित याचिका
बँदरो के खिलाफ

असर दो दिन में
न्यायाधीश भी
बिना सोचे
बिना समझे
कर गया हो जैसे ये एक कमाल

दिन आजाद
गणों के तंत्र की
आजादी के
जश्न का

जानवर भी
हो गया
समझदार

दे गया
उदाहरण
इस बात का
करके गाँधीगिरी
और नहीं करके
एक दिन के लिये कोई बबाल

साँप सपेरों
जादूगरों
तंत्र मंत्र के
देश के गुलाम

आजादी के
दीवानों को ही
होगा सच में पता

बंद रेखा के
उस पार से
खुली हवा में
आना इस पार

जानवर से
हो जाना ग़ण
और मंत्र का
बदलना तंत्र में
और आजाद देश
मे आजाद ‘उलूक’ एक बेखयाल

उसके लिये
आजादी का
मतलब

बेगानी शादी और
दीवाना अब्दुल्ला हर एक नये साल

एक ही दाल
धनिये के
पीले पत्तों
को सूँघ कर
देख लेना होते हुऐ
हर तरफ माल और हर कोई मालामाल

बंदों का वंदे मातरम
तब से अब और
बंदरों का सवाल
तब के और अब के

समझदार को
इशारा काफी
बेवकूफों के लिये
कुर्सियाँ सँभाल

वंदे मातरम से
शुरु कर
घर की माँ को
धक्के मार कर घर से बाहर निकाल ।

चित्र साभार: nwabihan.blogspot.com

रविवार, 17 अगस्त 2014

हे कृष्ण जन्मदिन की शुभकामनाऐं तुम्हें सब मना रहे हैं और जिसे देने तुम्हें सारे कंस मामा भी हमारे साथ ही आ रहे हैं

दो ही दिन हुऐ हैं 
जश्ने आजादी का मनाये हुऐ 
हे कृष्ण 

आज तेरा जन्म दिन 
मनाने का अवसर हम पा रहे हैं 
दिन भर का व्रत करने के बाद 
शाम होते होते दावत फलाहार की
तुझे भोग 
लगा कर खुद खा 
और बाकी को साथ में भी खिला पिला रहे हैं 

दादा दादी माँ पिताजी 
से बचपन में सुनी कहानियाँ
याद 
साथ साथ करते भी जा रहे हैं 

कितने मारे 
कितने तारे गिनती करने में 
आज भी याद नहीं आ पा रहे हैं 
सभी का हो चुका था संहार सुना था 
कुछ बचे थे शायद भले लोग 
कुछ गायें कुछ ग्वाले कुछ बाँसुरी की धुन और तानें 
आज भी सुन और सुना रहे हैं 

आज ही की 
बात नहीं है कृष्ण 
तेरे बारे में सुनते सुनते 
अब खुद अपने जाने के दिनों के 
बारे में भी कुछ सोचते जा रहे हैं 

नहीं हुई भेंट तुझसे 
कहीं घर में मंदिर में 
रास्ते में आदमी ही आदमी आते जाते भीड़ दर भीड़ 
हम खुद ही खोते जा रहे हैं 

कंस से लेकर 
शकुनि ही शकुनि 
घर से लेकर मंदिर तक में नजर आ रहे हैं 

गीता देकर गये थे 
तुम अपनी याद दिलाने के लिये 
पाप करने के बाद शपथ उसी पर आज 
हम हाथ रख कर खा रहे हैं खिला रहे हैं 

हैप्पी बर्थ डे कृष्ण जी 
कहने हमेशा हर साल 
याद कर लेना तुम भी सभी संहार किये गये 
उस समय के और इस समय के
हो चुके 
तुम्हारे भक्त गण 
मेरे साथ मेरे आस पास मिलकर
हरे कृष्ण हरे कृष्ण 
गाते गाते तालियाँ भी साथ में बजा रहे हैं ।   

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

बदतमीजी कर मगर तमीज से नहीं तो आजादी के मायने बदल जाते हैं

वो
करते
थे सुना

गुलामी
की बात

जो
कभी
आजाद
भी हो गये थे

कुछ
बच गये थे

आज
भी हैं
शायद
कहीं
इंतजार में

बहुत सारे
मर खप भी
कभी के गये थे

ऐसे ही
कुछ
निशान

आजादी
के कुछ

गुलामी
के कुछ

आज भी
नजर कहीं
आ ही जाते हैं

कुछ
खड़ी
मूर्तियाँ

शहर
दर शहर
चौराहों पर

कुछ
बैठे बूढ़े
लाठी लिये

खेतों के लिये
जैसे वजूका
एक हो जाते है

पर
कौए
फिर भी
बैठ ही
कभी जाते हैं

कोई
नहीं देखता
उस तरफ
कभी भी

मगर
साल
के किसी
एक दिन

रंग
रोगन कर
नये कर
दिये जाते हैं

देख सुन
पढ़ रहे होंं
सब कुछ

आज भी

आज को
उसी अंदाज में

देखो
उनकी
तरफ तो
नजर से
नजर मिलाते
नजर आ जाते हैं

बदतमीजी

बहुत
हो रही है
चारों तरफ

बहुत
ही तमीज
और बहुत
आजादी के साथ

बस
दिखता है
इन्ही को

समझते
भी ये
हैं सब

बाकी तो
आजाद हैं

कुछ
इधर से
निकलते
हैं उनके

कुछ
उधर से
भी निकल
जाते हैं ।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

आजादी भी खुद चाहती है अब आजादी

सभी भारतीयों को
स्वतंत्रता दिवस की
बहुत बहुत शुभकामनाएं
लो आ गया फिर आज
वो मुबारक दिन
पूर्ण हुई थी जब कभी
मेरे देश के नागरिकों
की सारी मनोकामनाएं
आजादी मिली थी
आज ही के दिन
ऎसा कुछ कभी
पढ़ाया गया था
बताया गया था
बुजुर्गों द्वारा अपनी
कहानियों में कभी 
सुनाया गया था
आजाद हो गये हैं
सब लोक भी
और तंत्र भी
ऎसा कुछ कभी
समझाया गया था
और
ये बात तो सच है
महसूस भी होती है
दिल को अंदर तक
कहीं छू भी लेती है
आजादी अब कहीं
भी रुकती नहीं
होता नहीं कोई
घर्षण  अब कहीं
स्वत: स्फूर्त होती है
बाहर से नहीं
दिल के अंदर
से होती है
अब आजादी
जीवित ही नहीं
बेजान में तक
जीती हुई सी
मिलती है
जब आजादी
हुऎ
हम सब
आजाद ऎसे
टूटती रही सारी
सीमाऎं जैसे
धीरे धीरे कुछ
यूँ ही सभी
कसमसाती ही रही
तब ये आजादी
चाहने लगी अपने
ही खुद के लिये
भी कुछ आजादी
अब दिख रही है
हर तरफ हर चीज
खुद से आजाद ऎसे
कुछ कहती नहीं बस
मौन सी हो
गई है आजादी
हम हो चुके हैं
तोड़ कर सारी हदें
इतना आजाद
कि अब रहना
भी नहीं चाहती
साथ में ये
ही आजादी
सब को मुबारक
आज का दिन
अभी तक तो
कह ही रही है
ये ही आजादी
कल जो करे
वो सो करे
पर आज तो
मजबूर सी क्यों
लग रही है आजादी
क्या उम्र ज्यादा
होने से बूढ़ी तो
नहीं हो गई
है ये आजादी ।

बुधवार, 15 अगस्त 2012

आजादी

देश बहुत
बड़ा है

आजादी

और
आजाद
देश को
समझने में
कौन पड़ा है

जितना भी
मेरी समझ
में आता है

मेरे घर
और
उसके लोगों
को देख कर

कोई भी
अनाड़ी

आजादी
का मलतब
आसानी से
समझ जाता है

इसलिये कोई
दिमाग अपना
नहीं लगाता है

देश
की आजादी
का अंदाज

घर
बैठे बैठे ही
जब लग जाता है

अपना
काम तो भाई
आजादी से
चल जाता है

कहीं
जाये ना जाये

आजाद
15 अगस्त
और
26 जनवरी
को तो
पक्का ही
काम पर जाता है

झंडा फहराता है
सलामी दे जाता है
राष्ट्रगीत में बकाया
गा कर भाग लगाता है

आजादी
का मतलब
अपने बाकी
आये हुऎ
आजाद भाई बहनो
चाचा ताइयों को
समझाता है

वैसे
सभी को
अपने आप में
बहुत समझदार
पाया जाता है

क्योंकी
आजादी को
समझने वाला ही
इन दो दिनो के
कार्यक्रमों में
बुलाया जाता है

फोटोग्राफर
को भी
एक दिन का काम
मिल जाता है

अखबार के
एक कालम को
इसी के लिये
खाली रखा
जाता है

किसी
एक फंड
से कोई
मिठाई सिठाई
भी जरूर
बंटवाता है

जय हिन्द
जय भारत के
नारों से
कार्यक्रम का
समापन कर
दिया जाता है

इसके
बाद के
365 दिन
कौन कहाँ
जाने वाला है

कोई
किसी को
कभी नहीं
बताता है

अगले साल
फिर मिलेंगे
झंडे के साथ
का वादा
जरुर किया जाता है

जब सब कुछ
यहीं बैठ कर
पता चल जाता है

तो
कौन बेवकूफ
इतना बडे़ देश

और
उसकी आजादी
को समझने के
लिये जाता है।