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सोमवार, 10 मार्च 2014

आशा और निराशा के युद्ध का फिर एक दौर आ रहा है

जाति धर्म
और समप्रदाय
से ऊपर ही
नहीं उठ
पा रहा है
सोलहवीं लोकसभा
का आगाज
होने को है
आदमी के लिये
बस आदमी ही
एक मुद्दा अभी
तक भी नहीं
हो पा रहा है
कुर्सी है सामने
कुत्ते की हड्डी
की तरह पड़ी जैसे
छूटने के मोह
को ही नहीं
त्याग पा रहा है
टिकट के महा
घमासान में
मूल्यों की
धज्जियाँ भी
कुत्तों की तरह
ही झगडते हुऐ
हवा में उड़ा रहा है
साफ साफ सबको
नजर आ रहा है
वोटर भी कई
बार से यही
सब कुछ
देखता हुआ ही
तो आ रहा है
वोट दे रहा है
एक अंग़ूठा छाप
की तरह हमेशा
पर साक्षर ही
नहीं होना
चाह रहा है
पूँजीवादी समाजवादी
साम्यवादी जनवादी
होने में कोई
बुराई नहीं है
पर देश के लिये
कोई नहीं है ऐसा
जो देश वाद
फैला रहा है
फंसा हुआ है
हर कोई किसी
ना किसी के
जाल में इस तरह
थोड़े से अपने
फायदे के लिये
खुद ही उलझने
का बस एक
जुगाड़ लगा रहा है
देश के लिये सोचने
की सोच खुले में
निकल कर ही
होती है "उल्लूक"
पर कोई कहाँ
खुले आकश में
निकलना चाह रहा है
बर्तन में रखा हुआ
पानी सड़ जाता है
कुछ दिनों में हमेशा
किसी की इच्छा
ही नहीं है थोड़ी
ना ही कोई
आधी सदी के
पुराने पानी को
बदलना चाह रहा है
आदमी का मुद्दा
आदमी के द्वारा
आदमी के लिये
जहाँ अब तक
हो ही जाना चहिये
उसी जगह
हर आदमी
हैवानो के लिये
फिर से एक बार
रेड कार्पेट फूलों भरी
बिछाने जा रहा है ।

सोमवार, 3 मार्च 2014

आदमी खेलता है आदमी आदमी आदमी के साथ मिलकर

हाड़ माँस और
लाल रक्त
आदमी का जैसा
ही होता है आदमी
कोशिश करता है
घेरने की एक
आदमी को ही
मिलकर एक
आदमी के साथ
आखेट करने वाले
के निशाने पर
होता है उस
समय भी
एक आदमी
बहुत सी मौतें
स्वाभाविक
होती हैं जिनमें
आदमी की
मृत्यू होती है
मरने वाला भी
आदमी होता है
मारने वाला भी
आदमी होता है
मर जाना यानि
मुक्त हो जाना
मोक्ष पा जाना
छुटकारा मिल जाना
आदमी को एक
आदमी से ही
इतना आसान
नहीं होता है
जितना कहने
सुनने और लिखने
में लगता है
आदमी का सबसे
प्रिय खेल भी
यही होता है
जंगल के शेर
के शिकार में
वो नशा कभी
नहीं होता है
जैसा आदमी के
शिकार में आदमी
के साथ मिलकर
एक आदमी ही
आदमी को घेरेते
चले जाता है
आदमी को भी
पता होता है
घेरेने वाला भी
अपना ही होता है
धागे भी बहुत
पक्के होते हैं
जाल कसता
चला जाता है
आदमी बस
कसमसाता है
पकड़ मजबूत
होते चली जाती है
आदमी के पंजे में
एक आदमी
आ जाता है
मरता कहीं भी
कोई नहीं है
पकड़ने वाला
मारना ही
नहीं चाहता है
फाँसी देने से
बेहतर उम्र कैद
को माना जाता है
क्या क्या नहीं
करता है आदमी
आदमी के साथ
बस बचा हुआ
कुछ है तो
आदमी की नींद
का एक सपना
जो उसका अपना
कहलाता है
आदमी का मकसद
होता है जिसे
अपनी मुट्ठी
में करना
बस यहीं पर
आदमी आदमी
से मात
खा जाता है
आदमी आदमी
के साथ मिलकर
आदमी को
कभी मोक्ष
नहीं दे पाता है ।

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

होने होने तक ऐसा हुआ जैसा होता नहीं मौसम आम आदमी जैसा हो गया

मौसम का मिजाज था
कोई आदमी का नहीं
मनाये जाने तक
ये गया और वो गया
कहने कहने तक
थोड़ा कुछ नहीं
बहुत कुछ हो गया
उजाला हुआ फिर
अंधेरा अंधेरा
सा हो गया
कोहरा उठा
अपने पीछे छिपा
ले गया सारे दृश्य
खुद को ही खोज लेना
जैसे बहुत दूभर हो गया
कुछ देर के लिये
थम सा गया समय
जैसे घड़ी को एक
घड़ी में कोई चाभी देने
से हो रह गया
बूँदा बाँदी होना
शुरु होना था
पानी जैसे इतने में
ही बहुत हल्का होकर
रूई जैसा हो गया
धुँधला धुँधला हुआ
कुछ कुछ होते होते
सब जैसे सुर्ख सफेद
चादर जैसा हो गया
शांत हुआ इतना हुआ
जैसे बिना साज के
सँगीतमय वातावरण
सारा हो गया
कहीं गीत लिखा गया
मन ही मन में
किसी के मन से एक
काल जैसे कालजयी
किसी और के
लिये कहीं हो गया
कहीं उकेरा गया
किसी की नर्म
अंगुलियों से एक चित्र
सफेद बर्फ की चादर पर
जिसे देख देख कर
चित्रकार ही दीवाना
दीवाना सा हो गया
एक शाम से लेकर
बस एक ही रात में
जैसे एक छोटा सा
सफर बहुत ही
लम्बा हो गया
समाधिस्त होता हुआ
भी लगा कहीं
कोई पेड़ या पहाड़
सब कुछ कुछ पल
के लिये जैसे
साधू साधू हो गया
एक लम्बी रात के
गुजर जाने के बाद
का सूरज भी होते होते
जैसे कुछ पागल
पागल सा हो गया
नहाया हुआ सा दिखा
हर कण आस पास का
जैसा कुछ कुछ गुलाबी
गुलाबी हो गया
प्रकृति के एक खेल को
खेलता हुआ जैसे
एक मुसाफिर
देर से चल रही एक
गाड़ी पर फिर से
सवार होकर
रोज के आदी सफर पर
कुछ मीठी खुश्बुओं को
मन में बसाकर
रवाना हो गया
मौसम का मिजाज
जैसे फिर से
आम आदमी के
रोज के मिजाज
का जैसा हो गया ।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समझ में कहाँ आता है जब मरने मरने में फर्क हो जाता है

एक आदमी के
मरने की खबर
और एक औरत
के मरने की खबर
अलग अलग खबरें
क्यों और कैसे
हो जाती होंगी
मौत तो बस
मौत होती है
कभी भी अच्छी
कहाँ होती है
चाहे पूरी उम्र
में होती है
या कभी थोड़ी
जल्दी में होती है
कभी कहीं एक
आदमी मर जाता है
मातम पसरा सा
नहीं दिख पाता है
कुछ कुछ सुकून
सा तक नजर
कहीं कहीं आता है
फुसफुसाते हुऐ एक
कह ही जाता है
ठीक ही हुआ
बीबी और बच्चों
के हक में हुआ
जो हुआ जैसा हुआ
अब ये क्या हुआ
उधर एक औरत
मर जाती है
बूढ़ी भी नहीं
हो पाती है
मातम चारों ओर
पसर जाता है
हर कोई कहता
नजर आता है
बहुत बुरा हो गया
बच्चों का आसरा
ही देखिये छिन गया
ऐसा हर जगह हो
जरूरी नहीं होता है
पर जहाँ होता है
कुछ कुछ इसी
तरह का होता है
“उलूक” के
दिमाग का बल्ब
जब कभी इस तरह
फ्यूज हो जाता है
घर का “गूगल”
सरल शब्दों में
उसे समझाता है
जो आदमी मरा
अपने कर्मो से मरा
बुरा हुआ पर
उसका दोष बस
उसको ही जाता है
और जो औरत
मरी वो भी
आदमी के ही
कर्मों से मरी
उसका दोष भी
आदमी को ही
दिया जाता है
आदमी के और
औरत के मरने में
बस यही फर्क
हो जाता है
अब मत कहना
बस यही तो
समझ में नहीं
आ पाता है ।

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

एक की हो रही पहचान है एक पी रहा कड़वा जाम है !

अगला
आदमी भी
कितना
परेशान है

अपनी
एक पहचान
बनाने की
कोशिश में
हो रहा
हलकान है

बगल वाला
है तो
उसका ही जैसा

कुछ भी
नहीं है
थोड़ा सा भी
कहीं कुछ
अलग अलग सा

दिखता भी
नहीं है
करता हुआ
कुछ
अजब गजब सा

समझ में
नहीं आता
हर गली
हर मौहल्ले में
हो रहा फिर भी
उसका ही नाम है

अखबार
रेडियो टी वी
वालों से बनाई
अगले ने
 पहचान है

हजार जतन
कर कराने
के बाद भी

कोई
क्यों नही देता
ऐसे शख्स की तरफ
थोड़ा सा भी ध्यान है

सभी तो
सब कुछ
करने में लगे हुऐ हैं

बस अपने
लिये ही तो
यहां या वहां
होना है

किसी और
के लिये
नहीं जब
कुछ इंतजाम है

इसे मिलता है
उसे मिलता है

अगले
को ही बस
क्यों नहीं मिलता
कुछ सम्मान है

किसी का
नाम होने से
किसी को हो रहा
बहुत नुकसान है

कोई करे
कुछ तो
उसके लिये कभी

इसकी
और उसकी
हो रही पहचान से
किसी की सांसत में
देखो फंस रही जान है ।

गुरुवार, 17 अक्तूबर 2013

आदमी जानवर को लिखना क्यों नहीं सिखाता है



घोड़े बैल या गधे को
अपने आप कहां कुछ आ पाता है

बोझ उठाना वो ही उसको सिखाता है
जिसके हाथ मे‌ जा कर पड़ जाता है

क्या उठाना है कैसे उठाना है
किसका उठाना है
इस तरह की बात
कोई भी नहीं कहीं सिखा पाता है

एक मालिक का एक जानवर
जब
दूसरे मालिक का जानवर हो जाता है

कोशिश करता है नये माहौल में भी
उसी तरह से ढल जाता है

एक घर का एक 
दूसरे घर का दूसरा होने तक तो
सब 
सामान्य सा ही नजर आता है

एक मौहल्ले का एक होने के बाद से ही
बबाल शुरु हो जाता है

एक जान एक काम
बहुत अच्छी तरह से करना चाहता है

क्या करे अगर कोई लादना चाहता है
और
दूसरा उसी समय जोतना चाहता है

जानवर इतने के लिये जानवर ही होता है
आदमी ना जाने क्यों सोचता है
कि
उसके कहने से तो बैठ जाता है
और
मेरे कहने पर सलाम ठोकने को नहीं आता है

अब ऐसे में 
तीसरा आदमी भी कुछ नहीं कर पाता है

आदमी के बारे में सोचने की
फुर्सत नहीं 
हो जिसके पास
जानवर की समस्या में
टांग अड़ाने की हिम्मत नही‌ कर पाता है ।

चित्र साभार: https://www.clipartof.com/

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

देखता है फिर भी समझना चाहता है

एक शक्ल एक सूरत
एक बनावट एक अक्ल
एक आदमी के लिये एक
दूसरे के लिये अलग
खेलते कूदते फांदते
बच्चे पर अलग अलग
एक गुब्बारे का झुंड
कहां होते है किसके होते हैं
कोई परवाह नहीं करता है
सब कुछ अलग अलग
होकर भी एक होता है
एक ही झुंड की
रंग बिरंगी तितलियां
उड़ते उड़ते कब
ओझल हो जाती हैं
अंदाज नहीं आता
पेड़ पौंधें हो जाती हैं
कौन परवाह करता है
सब परवाह करते हैं
आदमी और उसके झुंड की
आदमी कैसा भी हो
झुंड के साथ हो तो
खुद झुंड हो जाता है
अलग अलग होते हुऐ भी
हर कोई देखने में तक
एक सा नजर आना
शुरू हो जाता है
एक तजुर्बेकार
इसी बात को लेकर
एक उदाहरण अपने ही
घर का दे जाता है
गौर करियेगा एक लम्बे
समय के साथ के बाद
पति भी पत्नी का भाई
नजर आने लग जाता है
जैसे जोकर जोकर के
लिये मरा जाता है
या इक्का इक्के पै
चढ़ता चला जाता है
इतनी सी बात समझने में
कोई क्यों फालतू का
दिमाग लगाता है
एक बेवकूफ बेवकूफों के
साथ ही जाकर पंजा लड़ाता है
गधों के बीच रहकर तो
देखिये कभी कुछ दिन
अच्छा लगेगा देख कर
जब देखोगे कुछ समय बाद
हर गधे में एक
आदमी नजर आता है ।

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2013

'मोतिया' कहीं लिखता नहीं पर मेरा जैसा कैसे हो जाता है


बहुत सालों से 
सड़क पर
कहीं ना कहीं रोज टकराता है

एक आदमी
जैसा था तीस साल पहले
अभी भी वैसा ही नजर आता है

बस थोड़ा सा पके हुऐ बाल
अस्त व्यस्त कपड़े

चाल में थोड़ा सा
सुस्ती सी दिखाई देती है

लेकिन
सोचने का ढंग वही पुराना
अब तक वैसा ही नजर आता है

उसी मुद्रा में
आज भी
अखबारों की कतरनों को
बगल में दबाता है

अभी भी
जरूरत होती है उसे
बस एक रुपिये के सिक्के की

जिसका आकार अब
अठन्नी से चवन्नी का होने को आता है

वो आज भी
किसी से कुछ नहीं कहने को जाता है

अपनी ही धुन में रहता है

कहीं कुछ नहीं बोलते हुऐ भी 
बहुत कुछ यूं ही कह जाता है

सामने से उसके आने वाला
समझ जाता है

समझ गया है
बस ये ही नहीं कभी बताता है

उसके हाव भाव इशारों से
आज भी ऐसा महसूस
कुछ हो जाता है

जैसे
रोज का रोज कुछ ना कुछ
दीवार पर लिखने 
कोई यहां बेकार में चला आता है

बहुत से लोगों का उसको जानने से 
कुछ भी नहीं हो जाता है

एक शख्स मेरे शहर की
एक ऐसी ही पहचान हो जाता है

जिस के सामने से
हर कोई उसी तरह से निकल जाता है

जिस तरह से
यहां की भीड़ में कभी कभी
अपने आप को ही ढूंंढ ले जाना
एक टेढ़ी खीर हो जाता है ।

रविवार, 25 अगस्त 2013

सीधा साधा एक लड़का था कभी मेरे स्कूल में भी पढ़ता था

पक्ष की कर 
नहीं तो विपक्ष
की ही कर
सरकार की कर
नहीं तो उसके
ही किसी एक
अखबार की कर
बात करनी है
तुझे अगर कुछ
तो इनमें से किसी
एक के ही
कारोबार की कर
किसने कहा था
गाँव के स्कूल को
छोड़ के बड़े
शहर के बड़े
स्कूल में चला जा
चला भी गया था
तो किसने कहा था
गाँव की ढपली वहाँ
जा कर बजा जा
अब भुगत
घर की पुलिस नहीं
बड़े शहर की
पुलिस ने भी नहीं
देश की पुलिस ने
पकड़ कर अंदर
तुझे करा दिया
सारे के सारे
अखबारों में फोटो
छाप के तुझे एक
माओवादी बता दिया
समझा ही नहीं
इतने साल मेरे
स्कूल में रहकर भी
अरे कांग्रेसी
ही हो जाता
नहीं हो पा
रहा था तो
भाजपा में
ही चला जाता
अब ना
इधर का रहा
ना उधर का रहा
बिना बात के
अंदर को जा रहा 
इधर होता
या उधर होता
कभी तो
तेरे पास भी
कोई पोर्टफोलियो
एक जरूर होता
अभी भी समय है
सुधर जा
अधिसंख्यक
चल रहे हैं
जिन रास्तों पर
उन रास्तों में
चलना शुरु हो जा
जो नियम ज्यादा
लोगों की जेब में
देखे जाते हैं
वो ही भगवान जी
तक के द्वारा भी
फौलो किये जाते हैं
इसकी भी हाँ
में हाँ मिला
उसकी भी हाँ
में हाँ मिला
अब जेल भी
चला गया
और बोलेगा
तमगा भी
कोई नहीं
मिलेगा
पक्ष या
विपक्ष के
लिये जेल 

जाता तो
राजनीतिक कैदी
एक हो जाता
क्या पता 

किसी दिन
कोई मंत्री संत्री
बनने का मौका भी
जेल के सार्टिफिकेट
से तू पा जाता
मेरे स्कूल में इतने
साल तू पढ़ा पर
हेम तूने गुरुओं से
इतना भी नहीं सीखा । 


शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

बिल्ला कोई भी लगायेगा आदमी तो हो जायेगा

कितनी
भी बड़ी

तोप

तू
होता होगा


तेरा गोला
चलकर 
भी

फुस्स
हो जायेगा


किसी
भी गलत
मुद्दे को 


 तू
सही
ठहराने
की
मुहिम में
हार जायेगा


कोई भी
तेरे साथ

में नहीं
आ पायेगा


एक ना
एक दिन

लटका
दिया जायेगा


बिना
किसी बात के


मुश्किल
में भी फंसा

कहीं
दिया जायेगा


अपने पत्ते
अगर

नहीं उनको
दिखायेगा


तेरे होने
ना होने से

यहाँ
कुछ नहीं होता


जो भी होता है

माथे पे लिखे हुऎ
बिल्ले से होता है

तेरा होना यहाँ

भाजपा
या काँग्रेस

वाला ही
बता पायेगा


दो में
नहीं होना भी

थोड़ा बहुत
चल जायेगा


तीसरे
फ्रंट से कहीं

तेरा तार
अगर जुड़ा

उन्हें कहीं
दिख जायेगा


मुश्किल
में होने पर

होना कहीं ही
तेरे को
बचा ले जायेगा


एक दिन
तू बचेगा

कभी तू भी
किसी को

बचा कर
निकाल
के
ले आयेगा


कहीं
नहीं होने वाला


अपनी
आवाज से


 बस
कुछ कौऎ


 और
कबूतर ही

उड़ा पायेगा

दल में
नहीं घुस सके


संगठन
से उसके

जा कर भी
अगर
कहीं
जुड़ जायेगा


मुश्किलें
पैदा करना

किसी के लिये भी

तेरे लिये
आसान

बहुत
हो जायेगा


हर कोई

तेरे से

राय फिर
जरूर 
लेने
के लिये आयेगा


चुनाव
के दिनों

को छोड़कर

बाकी
दिनों की

समस्या में

तू

कहाँ है
ये नहीं

देखा जायेगा

तेरे
दर्द के लिये


उधर
वाला भी

अपने झंडे
दिखा 
कर
जलूस बनायेगा


सबके
दिल में

होगा तू
इधर भी

और
उधर भी


तेरा नाम
किसी 
की
जबान पर

कहीं भी
नहीं आयेगा


मेरी
एक पते

की बात
अगर


 तू
मान जायेगा


सोनिया, मोदी,

वृंदा या माया दीदी

में से
किसी की

छाया भी

अगर

कहीं
पा जायेगा


तेरा
अस्तित्व


 उस दिन
उभर 
कर
निखर जायेगा


कौड़ी
का भाव

जो आज है तेरा

करोड़ों
के मोल 
का
हो जायेगा


कुछ
लोगों के

लिये कुछ
करने वालों मे
गिन लिया जायेगा

ये सब
तभी
संभव
हो पायेगा


जब
बिल्ला
कोई एक

माथे पर
आज भी

अपने
लिखवायेगा


ऎसे ही
चलता
रहा

बिना छत्र

छाया के अगर

कौन
तेरा भला

कुछ कर पायेगा

लावारिस
में गिना 

जाता है आज भी

लावारिस
हमेशा

के लिये
हो जायेगा ।

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2013

लिखा क्या है से क्या होता है किसने लिखा है जब तक पता नहीं होता है

एक आदमी
लिखता है
कुछ पागल
का जैसा
जो वो खुद
भी समझ
नहीं पाता है

आदमी आदमी
की बात होती है

 इसका लिखा
बहुत से
आदमियों
को बिना पढे़
भी समझ में
आ जाता है

हर आदमी
उसके लिखे
पर कुछ ना
कुछ जरूर
कह जाता है

एक पागल
लिख जाता है
आदमी
जैसा कुछ
पता नहीं कैसे
कभी कहीं पर

ना कोई आता है
ना कोई जाता है


कुछ लिखना तो
रही दूर की बात
गलती से भी
कोई देखना भी
नहीं चाहता है

पागल को कोई
फर्क नहीं पड़ता
कोई आये
कोई जाये
ना पढे़ ना कुछ
लिख कर जाये

लेकिन आदमी
अपने लिखे पर
गिनता है
पागलों की
संख्या भी
और
दिखाता है
आदमी ही
बस आये

 एक दिन
गलती से
पागल का नाम
बडे़ आदमियों
की सूची में
छपा हुआ
आ जाता है

उस दिन
पागल अपने
बाल नोचता
हुआ दिख
जाता है

उसे
दिखता है
उसके लिखे
हुऎ पर

हर आदमी
कुछ ना कुछ
जरूर लिख
के जाता है ।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

क्षमा विष्णु शर्मा : संशोधन पञ्चतन्त्र के लिये


कल
की दावत में 
बस लोमड़ी दिखी थाली के साथ

पर
नजर नहीं आया 
कहीं बगुला अपनी सुराही के साथ 

विष्णु शर्मा 
तुम्हारा पञ्चतन्त्र 
इस जमाने में पता नहीं क्यों 
थोड़ा सा कहीं पर कतरा रहा है 

पैंतरे 
दिखा दिखा कर के नये 
नये छेदों से पता नहीं 
कहाँ से कहाँ घुस जा रहा है 

कुछ दिनों से 
क्योंकि
लोमड़ी और बगुला साथ नजर आ रहे हैं 

दावत में 
एक दूसरे को अपने अपने
घर भी नहीं बुला रहे हैं 

किसी तीसरी जगह 
साथ साथ दोनो अपनी उपस्थिति 
जरूर दर्ज करा रहे हैं 

लोमड़ी
अपनी थाली ले कर चली आ रही है 

बगुला भी 
सुराही दबाये बगल में 
दिख जा रहा है 

ना बगुला 
अपनी सुराही 
लोमड़ी की तरफ बढ़ाता है 

ना ही लोमड़ी
बगुले को 
थाली में खाने के लिये बुलाती है 

पर मजे की बात है 
दोनो ही मोटे होते जा रहे हैं 

दोनो ही 
कुछ ना कुछ लेकिन जरूर खा रहे हैं 

बहुत 
समझदार 
हो गये हैं सारे जानवर जंगल के 

विष्णु शर्मा जी 
फिर से आ जाओ 
नया पञ्चतन्त्र लिखो और देख लो 

जंगल राज 
कैसे जंगल से 
आदमी में घुस के आ गया है 

और 
जानवर 
आदमी बन के आदमी के अंदर 
पूरा का पूरा छा गया है । 

चित्र साभार: https://hubpages.com/

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

भाई फिर तेरी याद आई


गधे ने किसी गधे को
गधा 
कह कर आज तक नहीं बुलाया
आदमी कौन से सुर्खाब के पर
अपने लगा कर है आया

बता दे कुछ 
जरा सा भी किसी धोबी के दुख: को
थोड़ा 
सा भी
वो कम कभी हो कर पाया

किस अधिकार से 
जिसको भी चाहे गधा कहता हुआ
चलता है चला आज तक आया

गधों के झुंड 
देखिये
किस 
शान से दौड़ते जंगलों में चले जाते हैं
बस अपनी 
अपनी गधी या बच्चों की बात ही बस नहीं सोच पाते हैं

जान दे कर 
जंगल के राजा शेर की जान तक बचाते हैं

बस घास को 
भोजन के रूप में ही खाते हैं
घास की ढेरी बना के कल के लिये भी नहीं वो बचाते हैं

सुधर जायें अब 
लोग
जो यूँ ही 
गधे को बदनाम किये जाते हैं
आदमी के कर्मों को कोई क्या कहे 
क्यों अब तक नहीं शर्माते हैं

गधा है कहने 
की जगह अब
आदमी हो गया है 
कहना शुरू क्यों नहीं हो जाते हैं

गधे भी
वाकई में 
गधे ही रह जाते हैं

कोई आंदोलन 
कोई सत्याग्रह
इस उत्पीड़न के खिलाफ
क्यों 
नहीं चलाते हैं ।

चित्र साभार: 
https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 25 अगस्त 2012

पैर जमीन से उठा बड़ा आदमी हो जा

जब तक
जमीन से
नहीं उठ पायेगा

बड़ा
आदमी तुझे
कोई नहीं बनायेगा

सुन
अगर
बड़ा आदमी

सच्ची
में तू बनना
बहुत ही
ज्यादा चाहता है

तो मेरी
एक सस्ती
आसान सी
सलाह को
क्यों नहीं
अपनाता है

अभी
कहना मान जा
और कल को ही
बडे़ आदमी की
सूची देखने
किसी बडे़ आदमी
के पास चला जा

वैसे
अपना खुद भी
तो सोचा कर कुछ जरा

कब तक
छोटे आदमी
की तरह करेगा मरा मरा

कोशिश कर
पाँव थोड़ा सा सही
जमीन से उठा
हवा में तो कुछ लटका

अब चाहे
इसके लिये
अपना घर बेच जेवर बेच
या फिर जमीन बेच के आ

साईकिल
ही सही
अपने नीचे तो लगा

बस
जमीन से पैर
कुछ ऊपर उठा

हैसियत
इससे ज्यादा की
समझता है अपनी अगर
तो स्कूटर लगा
मोटरसाईकिल लगा

ज्यादा ही
बड़ा होना हो अगर
तो चल
कार ही ला कर के लगा

पर देख
बड़ा आदमी
अब तो हो ही जा

सबसे
बड़ा आदमी
होने की ख्वाहिश
रखता है तू
थोड़ी सी भी अगर
तो ऎसा कर

हवाई जहाज
का टिकट एक मंगवा
उस में बैठ और
पैर छोड़ पूरा का पूरा
हवा में चला जा

सबसे
बडे़ आदमी
की सूची में जाकर
के जुड़जा और
हवा भी खा  ।

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

जो है क्या वो ही है

किसी का
लिखा हुआ
कुछ कहीं
जब कोई
पढ़ता
समझता है

लेखक
का चेहरा
उसका
व्यक्तित्व
भी गढ़ने
की एक
नाकाम
कोशिश
भी साथ
में करता है

सफेदी
दिख रही
हो सामने
से अगर

कागज पर
एक सफेद
सा चेहरा
नजर आता है

काला
सा लिखा
हुआ हो कुछ

चेहरे
पर कालिख
सी पोत
जाता है

रंग
लाल
पीले हों
कभी कभी
कहीं
गडमगड्ड
हो जाते हैं

लिखा हुआ
होता तो है
पर पहचान छुपा
सी कुछ जाते हैं

लिखने पर
आ ही
जाये कोई
तो बहुत
कुछ लिखा
जाता है

पर अंदर
की बात
कहाँ कोई
यहाँ आ
कर बता
जाता है

खुद के
सीने में
जल रही
होती है 
आग
बहुत सारी

जलते
जलते भी
एक ठंडा
सा सागर
सामने ला
कर दिखाता है

किसी
किसी को
कुछ ऎसा
लिखने में
भी मजा
आता है

आँखों
में जलन
और
धुआँ धुआँ
सा हो जाता है

वैसे भी
जब साफ
होता है पानी

तभी तो
चेहरा भी
उसमें साफ
नजर आता है

यहां तो
एक चित्र
ऎसा भी
देखने में
आता है
जो अपनी
फोटो में
भी नजरें
चुराता है

ले दे कर
एक चित्र
एक लेख
एक आदमी

जरूरी
नहीं है जो
दिखता है
वही हो
भी पाता है ।

सोमवार, 23 जुलाई 2012

आज बस मुर्गियाँ

आज कुछ
मुर्गियाँ
लाया हूँ

खाने वाले
खुश ना
होईयेगा

चिकन नहीं
बनाया हूँ

बस
लिख कर
मुर्गियाँ
फैलाया हूँ

सुबह सुबह
मुर्गियों ने मेरी
बहुत कोहराम
मचाया हुआ था

कल देर से
सोया था
रात को

सुबह के
शोर से जागा
तो बहुत
झल्लाया था

कल ही नयी
कुछ तमीजदार
मुर्गियाँ खरीद
के लाया था

पुराने दड़बे
में पुरानी
कम 

पढ़ी लिखी
मुर्गियों में
लाकर उन को
घुसाया था

नयी मुर्गियाँ
पुरानी 

मुर्गियों से
नाराज नजर
आ रही थी

इसलिये 

सब के सब 
जोर जोर
से चिल्लाये
जा रही थी

मुर्गियों को
मुर्गियों में
ही मिलाया था

मुर्गीखाना था
उसी में डाल
कर के 

आया था

किसी को
लग रहा हो
कबूतर खाना
मैंने तो कहीं
नहीं बनाया था

क्यों कर
रही होंगी
मुर्गियाँ ऎसा

समझने की
कोशिश
नहीं कर
पा रहा था

अपने खाली
दिमाग की
हवा को
थोड़ा सा
बस हिलाये
जा रहा था

थक हार
कर सोचा

मुर्गियों से ही
अब पूछा जाये

इस सब बबाल
का कुछ हल तो
ढूँढा ही अब जाये

मुर्गियों ने बताया
कल जब उनको
लाया जा रहा था

तब उनको ये भी
बताया जा रहा था

इधर की मुर्गियाँ
कुछ अलग
मुर्गियाँ होंगी
कुछ नहीं करेंगी

उनको बहुत
आराम से
सैटल होने को
जगह दें देंगी

पर यहाँ तो
अलग माजरा
नजर आ रहा है
हर मुर्गी में
हमारे यहाँ की
जैसी मुर्गियों का
एक डुप्लीकेट
नजर आ रहा है

मैने बहुत
धैर्य से सुना
और प्यार से
मुर्गियों को
थपथपाया
और समझाया

वहाँ भी मुर्गियाँ थी
यहाँ भी मुर्गियाँ है

वहाँ से यहाँ
आने पर मुर्गी
आदमी तो
नहीं हो जायेगी

हो भी जायेगी
तब भी मुर्गी
ही कहलायेगी

चुप रहे तो
शायद
कोई नहीं
पहचान पायेगा

मुँह खोलते
ही दही दूध
फैलायेगी

अपनी हरकतों से
पकड़ी ही जायेगी

इसलिये
ज्यादा मजे
में तो मत
ही आओ

दाना मिल
तो रहा है
पेट भर के
खाते जाओ

फिर
कुकुड़ूँ कूं
करते रहो

मेरा
बैंड बाजा
पहले से ही
बजा हुआ है
तुम उसको
फिर से तो
ना बजाओ

मुर्गियो
आदमी हो
जाने के ख्वाब
देखने से

 बाज आओ ।

बुधवार, 4 जुलाई 2012

आदमखोर

ऎसा कहा जाता है
जब शेर के मुँह में
आदमी का खून
लग जाता है
उसके बाद वो
किसी जानवर को
नहीं खाता है
आदमी का शिकार
करने के लिये
शहर की ओर
चला आता है
आदमखोर हो गया है
बताया जाता है
जानवर खाता है
तब भी शेर
कहलाता है
आदमी खाने
के बाद भी
शेर ही रह जाता है
इस बात से
इतना तो पता
चल जाता है
कि आदमी बहुत
शातिर होता है
उसका आदमीपन
उसके खून में
नहीं बहता है
बहता होता तो
शेर से पता
चल ही जाता
आदमी को
खाने के बाद
शेर शर्तिया कुछ
और हो जाता
और आदमी
वाकई में एक
गजब की चीज
ना नाखून लगाता है
ना चीरा लगाता है
खाता पीता भी नजर
कहीं से नहीं आता है
सामने खड़े हुऎ को
बहुत देर में अंदाज
ये आ पाता है
कोई उसका खून
चूस ले जाता है
कोई निशान कोई
सबूत किसी को कहीं
नहीं मिल पाता है
उधर आदमखोर शेर
शिकारियों के द्वारा
जंगल के अंदर
उसके ही घर में
गिरा दिया जाता है।

मंगलवार, 29 मई 2012

कुत्ते की पूँछ

कुत्ते सारे
मोहल्ले के

आज सुबह
देखा हमने
जा रहे थे

सब अपनी
अपनी पूँछ
सीधी करके

पूछने पर
पता चला
नाराज हैं

हड़ताल
पर जा
रहे हैं

आज
रात से
गलियों में
भौंकने के
लिये भी
नहीं आ
रहे हैं

क्या दोष
है इसमें
माना सीधी
नहीं हो पाती है
पूँछ हमारी
अगर पाईप के
अन्दर भी रख
दी जाती है

छ: महीने का
प्लास्टर भी
अगर लगाओ
फिर से वैसी
ही टेढ़ी पाओ
जब प्लास्टर
खुलवाओ

सभी लोगों का
अपना अपना
कुछ सलीका
होता है

हर आदमी का
अपने काम को
अपनी तरह
करने का 

एक अलग
तरीका 
होता है

अब अगर
किसी को
किसी का
काम पसंद
नहीं आता है

तो इसके बीच
में कोई कुत्ते
और
उसकी पूँछ
को क्यों
ले आता है

बस बहुत
हो गया

आदमी की
बीमारियों
को अब
उसके अपने
नामों से ही
पंजीकृत
करवाओ

लोकतंत्र है
कुत्तों के
अधिकारों
पर चूना
मत लगाओ

कोई सोच
खुद की
अपनी भी
तो बनाओ।

शनिवार, 17 मार्च 2012

शतक और बजट

बजट पर
भारी पड़ गया
सौंवा शतक

न्यूज रीडर भी
आज गया
खबरों में भटक


सचिन
देश के लिये खेलता
तो
स्कोर तीन सौ से
ऊपर चला जाता


फिर बाँग्लादेश
उसको कैसे हरा पाता


ज्यादातर सचिन
जब शतक बनाता है

भारत उस मैंच में
हार ही जाता है


खबरों ने आज सचिन
का सौंवा शतक गाया


इसी लिये बजट के
बारे में कुछ नहीं सुनाया


बजट सुनकर भी क्या
करेगी भारत की जनता


हर बार की तरह
इस बार भी
चुनाव
के खर्चे की
भरपायी करेगा संता


बजट कब किस की
समझ में आता है


मेरी समझ में
आज तक
ये नहीं घुस पाता है

फिर भी ये बेवकूफ
हर आदमी को

टी वी से चिपका
हुवा क्यों पाता है


सिगरेट और बीड़ी
के दाम को

हर बार सरकार ने
ढ़ा हुवा दिखाया है

गरीब को लगा
इससे मुर्गा जरूर

उसके हाथ इस
बार जरूर आया है


रेल से जाने वालों
को दिनेश ने तो

कल ही छत
पर चढ़ा दिया है


जिसे लगे हाथ
ममता दीदी ने

धक्का मार कर
लु
ढ़का दिया है

मनमोहन की
मोहनी सूरत की
फोटो 
अब जरूर
खरीद कर लानी है


साल भर उसके
नीचे अगरबत्तियां

सस्ती वाली जरूर
ही जलानी हैं।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

बाघ

जंगल में बाघ कम
होते जा रहे हैं
इस बात से लोग
आदमी को डरा रहे हैं
पहाड़ो में बाघ ने
आजकल आदमी
खाना भी शुरू कर
दिया है
फिर बाघ के कम
होने पर तो खुशी
होनी चाहिये
आदमी तो मातम
मना रहा है
तमाम तरह के
उपाय अपना
रहा है
बाघ का समाप्त होना
आदमी के लिये
खतरे की घंटी है
बताया जा रहा है
बाघ इस बात से
बेखबर होकर
फिर भी कस्बों
शहर की ओर
आ रहा है
खामखाह में
मारा जा रहा है
अरे कोई बाघ
को समझाने
क्यों नहीं जा
रहा है
बाघ को जंगल में
ही जाना चाहिये
बाघ ही को मार के
खाना चाहिये
जैसे आदमी आदमी
को खा रहा है
फिर भी संख्या में
दिन पर दिन
बढ़ता जा रहा है।