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बुधवार, 28 जनवरी 2015

उसके आने और उसके जाने का फर्क नजर आ रहा है

सात समुंदर पार
से आकर
वो आईना
दिखा रहा है
धर्म के नाम पर
बंट रहे हो
बता रहा है
पता किसी
को भी नहीं था
वो बस इतना
और इतना ही
बताने के लिये
तो आ रहा है
धूम धड़ाम से
फट रहे हों
पठाके खुशी के
कोई खुशफहमी
की फूलझड़ी
जला रहा है
दिल खोल के
खड़े हैं राम भक्त
पढ़ रहे हैं साथ में
हनुमान चालिसा भी
हनुमान अपने को
बता कर कोई
मोमबत्तियाँ
बाँट कर
जा रहा है
एक अरब
से ज्यादा
के ऊपर थोपा
गया मेहमान
मुँह चिढ़ा कर
सामने सामने
धन्यवाद
हिंदी में
बोल कर
जा रहा है
अपनी अपनी
सोच और
अपनी अपनी
समझ है यारो
तुम लोगों का
अमेरिका होगा
’उलूक’ को
दूसरा पाकिस्तान
नजर आ रहा है
कुछ नहीं हो
सकता आजाद
होने के बाद
आजादी का
नाजायज फायदा
एक गुलाम और
उसका बाप
उठा रहा है
विवेकानंद भी
हंस रहा है
ऊपर कहीं
सुना है
मेरे भाई बंधुओ
जनता से
कहने का
नुकसान उसे
आज समझ मे
आ रहा है ।
चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com/

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

मंगलवार, 4 नवंबर 2014

आदमी आदमी का हो सके या ना हो सके एक गधा गधे का नजदीकी जरूर हो जाता है



“अंशुमाली रस्तोगी जी” का
आज 
दैनिक हिन्दुस्तान में छपा लेख 

“इतना सधा हूँ कि सचमुच गधा हूँ” 
पढ़ने के बाद । 

अकेले नहीं
होते हैं आप


महसूस 
करते हैं
और कुछ
नहीं कहते हैं

रिश्तेदारियाँ
घर में ही हों
जरूरी 
नहीं होता है

आपका 
हमशक्ल
हमख्याल 
कहीं और
भी होता है

आपका
बहुत
नजदीकी
रिश्तेदार
भी होता है

बस
आपको ही
पता नहीं
होता है

एक नहीं
कई बार

बहुत
सी बात

यूँ ही
कहने से
रह जाती हैं

सोच की
अंधेरी
कोठरी में

जैसे कहीं
खो जाती हैं

सुनने
समझने
वाला

कोई
कहीं नहीं
होता है

कहने
वाला कहे
भी किससे

कितना
अकेला
अकेला

कभी कभी
एक अकेला
होता है

और
ऐसे में
कभी

अंजाने में
कहीं से

किसी की
एक चिट्ठी
आ जाती है

जिसमें
लिखी
हुई बातें

दिल को
गदगद
कर जाती हैं

कहीं पर
कोई और
भी है

अपना जैसा
अपना
अपना सा

सुन कर
आखों में
कुछ नमी
छा जाती है

‘अंशुमाली’
कहता है

कोई उसे
गधा कहे तो

अब
सहजता
से लेता है

बहुत दिनों
के बाद
गधे की याद

‘उलूक’
को भी
आ जाती है

गधा
सच में
महान है

ये बात
एक बार
फिर से
समझाती है

खुद के
गधे से
होने से

कोई
अकेला नहीं
हो जाता है

और
भी कई
होते हैं गधे

इधर
उधर भी
कई कई
जगहों पर

सुनकर ही
दिल खुश
हो जाता है

बहुतों
के बीच

एक गधा
यहाँ देखा
जाता है

इसका
मतलब
ये नहीं
होता है

कि
दूसरा गधा
दूसरी जगह
कहीं नहीं
पाया जाता है ।

चित्र साभार: www.gograph.com

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

बिल्ली जब जाती है दिल्ली चूहा बना दिया जाता सरदार है



नदी है नावें है बारिश है बाढ़ है
नावें पुरानी हैं छेद है पानी है
पतवार हैं हजार हैं
पार जाने को हर कोई भी तैयार है

बैठने को पूछना नहीं है कुर्सियों की भरमार है

गंजे की कंघी है
सपने के बालों को रहा संवार है

लाईन है दिखानी है
पीछे के रास्ते पूजा करवानी है
बारी का करना नहीं इंतजार है

नियम हैं कोर्ट है
कचहरी है वकील हैं
दावे हैं वादे हैं वाद हैं परिवाद हैं
फैसला करने को न्यायाधीश तैयार है

भगवान है पूजा है मंत्र हैं पंडित है 
दक्षिणा माँगने का भी एक अधिकार है

पढ़ना है पढ़ाना है स्कूल जरुरी जाना है
सीखने सिखाने का बाजार गुलजार है

धोती है कुर्ता है झोला है लाठी है
बापू की फोटो है 
मास्साब तबादले के लिये
पीने पिलाने को खुशी खुशी तैयार है

‘उलूक’ के पास काम नहीं कुछ
अड़ोस पड़ोस की चुगली का
बना लिया व्यापार है ।

रविवार, 4 मई 2014

बहुत पक्की वाली है और पक्का आ रही है

आसमान से
उतरी आज
फिर एक चिड़िया
चिड़िया से उतरी
एक सुंदर सी गुड़िया
पता चला बौलीवुड से
सीधे आ रही है
चुनाव के काम
में लगी हुई है
शूटिंग करने के लिये
इन दिनों और जगहों
पर आजकल नहीं
जा पा रही है
सर पर टोपियाँ
लगाये हुऐ एक भीड़
ऐसे समय के लिये
अलग तरीके की
बनाई जा रही है
जयजयकार करने
के लिये कार में
बैठ कर कार के
पीछे से सरकारी
नारे लगा रही है
जनता जो कल
उस तरफ गई थी
आज इसको देखने
के लिये भी
चली जा रही है
कैसे करे कोई
वोटों की गिनती
एक ही वोट
तीन चार जगहों
पर बार बार
गिनी जा रही है
टोपियाँ बदल रही है
परसों लाल थी
कल हरी हुई
आज के दिन सफेद
नजर आ रही है
लाठी लिये हुऐ
बुड़िया तीन दिन से
शहर के चक्कर
लगा रही है
परसों जलेबी थी हाथ में
कल आईसक्रीम दिखी
आज आटे की थैली
उठा कर रखवा रही है
काम पर नहीं
जा रहा है मजदूर
कई कई दिन से
दिखाई दे रहा है
शाम को गाँव को
वापस जाता हुआ
रोज नजर आ रहा है
बीमार हो क्या पता
शाम छोड़िये दिन में
भी टाँगे लड़खड़ा रही हैं
‘उलूक’ तुझे क्यों
लगाना है अपना
खाली दिमाग
ऐसी बातों में जो
किसी अखबार में
नहीं आ रही हैं
मस्त रहा कर
दो चार दिन की
बात ही तो है
उसके बाद सुना है
बहुत पक्की वाली
सरकार आ रही है ।

शनिवार, 3 मई 2014

सब पी रहे हों जिसको उसी के लिये तुझको जहर के ख्वाब आते हैं

रेगिस्तान की रेत के
बीच का कैक्टस
फूलोंं के बीज बेच रहा है

कैक्टस 
बहुत कम लोग पसंद करते हैं

कम से कम
वास्तु शास्त्री की बातों को
मानने वाले तो कतई नहीं

कुछ रखते हैं गमलों में
क्योंकि फैशन है रखने का

पर किंवदंतियों के भूत से भी
पीछा नहीं छुड़ा पाते हैं
गमले 
घर के पिछवाड़े रख कर आते हैं

कैक्टस के कांटे निकलने
का मौसम अभी नहीं है
आजकल उनमें फूल आते हैं

फूल के बीज बिक रहे हैं बेतहाशा भीड़ है

और भीड़ की
बस दो ही आँखें होती हैं
उनको कैक्टस से कोई मतलब नहीं होता है
उनके सपने में फूल ही फूल तो आते हैं

काँटो से लहूलुहान ऐसे लोग
भूखी बिल्ली की तरह होते हैं

जो बस दूध की फोटो देख कर ही तृप्त हो जाते हैं

इसी भूख को बेचना सिखाने वाले कैक्टस
उस मौसम में 
जब उनके काँटे गिर चुके होते हैं

और कुछ फूल
जो उनके बस फोड़े होते हैं 
सामने वाले को फूल जैसे ही नजर आते हैं

सारे फूलों को फूलों के बीज बेचना सिखाते हैं

फूल कैक्टस को महसूस नहीं करते हैं
उसके फूलों पर फिदा हो जाते हैं

और बेचना शुरु कर देते हैं कैक्टस के बीज

‘उलूक’
बहुत दूर तक देखना अच्छा नहीं है
कांटे तेरे दिमाग में भी हैं
जिनपर फूल कभी भी नहीं आते हैं

कैक्टस
इसी बात को बहुत सफाई के साथ
भुना ले जाते हैं

और यूँ ही खेल ही खेल में
सारे के सारे बीज बिक जाते हैं

देखना भर रह गया है
कितने बीजों से 
रक्तबीज फिर से उग कर आते हैं ।

शुक्रवार, 2 मई 2014

अपना शौक पूरा कर उसके शौक से तेरा क्या नाता है

इन दिनों
कई दिन से
एक के बाद एक

सारे जानवर
याद आ जा रहे हैं

किसी को कुछ
किसी को कुछ
बना कर भी
दिखा जा रहे हैं

शेर चीते बाघ हाथी
मौज कर रहे हैं

छोटे मोटे जानवरों
के लिये पैक्ड लंच
का इंतजाम
घर में बैठे बैठे
करवा रहे हैं

आदमी की बात
फिर कभी कर लेंगे

आदमी कौन सा
हमेशा के लिये
जंगल को चले
जा रहे हैं

कुत्ते खुद तो
भौंक ही रहे हैं
सियारों से भी
भौंकने की अपेक्षा
रखते हैं जैसा ही
कुछ दिखा रहे हैं

अब कौन कहे
भाईयों से
भौंकने से क्या
किसी ने उनको
कहीं रोका है

भौंकते रहें
अपने लिये तो
रोज भौंक लेते हैं
इसके लिये भी भौंकें
उसके लिये भी भौंकें

लेकिन बहुत ही
गलत बात है
सियारों को तो
कम से कम
इस तरह से ना टोकें

वैसे तो सियार
और कुत्तों में
कोई बहुत ज्यादा
फर्क नजर
नहीं आता है

अच्छी तरह से
पढ़ाया लिखाया
सियार भी
कुछ समय में
एक कुत्ते जैसा
ही हो जाता है

पर समय
तो मिलना
ही चाहिये

कोई जल्दी
तो कोई
थोड़ी देर में
सभ्य हो पाता है
पता है तुमको
बहुत अच्छा
पूँछ हिलाना
भी आता है

जब
तुमको कोई
नहीं रोक रहा
किसी के लिये
पूँछ हिलाने पर

तो किसी
और का
किसी और
के लिये
मिमियाने
और
टिटियाने से
तुम्हें
क्या हो जाता है

जब
कोई सियार
तुमको कभी
मत भौंको
कहने के लिये
नहीं आता है

संविधान
के होते हुऐ
किस हैसियत से
तुमसे सियारों के
ना भौंकने पर
जबरदस्त रोष
किया जाता है

‘उलूक’
इसीलिये तो
हमेशा ही
ऐसे समय में

चोंच ऊपर कर
आसमान की ओर
देखना शुरु हो जाता है ।

गुरुवार, 1 मई 2014

क्या किया जाये अगर कभी मेंढक बरसात से पहले याद आ जाते हैं



कूँऐं के 

अंदर से चिल्लाने वाले मेढक की 

आवाज से परेशान क्यों होता है 

उसको
आदत होती है शोर मचाने की 

उसकी तरह का
कोई दूसरा मेंढक 
हो सकता है वहाँ नहीं हो 
जो समझा सके उसको 

दुनिया गोल है
और बहुत विस्तार है उसका
यहाँ से शुरु होती है और
पता नहीं कहाँ कहाँ तक फैली हुई है 

हो सकता है 
वो नहीं जानता हो कि किसी को 
सब कुछ भी पता हो सकता है 

भूत भविष्य और वर्तमान भी 

बहुत से मेंढक 
कूँऐं से कूद कर 
बाहर भी निकल जाते हैं 
जानते हैं कूदना बहुत ऊँचाई तक 

ऐसे सारे मेंढक 
कूँऐं के बाहर निकलने के बाद 
मेंढक नहीं कहलाते हैं 

एक मेंढक होना 
कूँऐं के अंदर तक ही ठीक होता है 

बाहर 
निकलने के बाद भी मेंढक रह गया 
तो फिर
बाहर आने का क्या मतलब रह जाता है 

वैसे 
किसी को ज्यादा फर्क भी नहीं 
पड़ना चाहिये 

अगर 
कोई मेंढक अपने हिसाब से कहीं टर्राता है 
किसी के 
चुप चुप कहने से बाज ही नहीं आता है 

होते हैं बहुत से मेंढक 
जरा सी आवाज से चुप हो जाते हैं 

और 'उलूक'
कुछ सच में 
बहुत बेशरम और ढीट होते हैं 

जिंदगी भर बस टर्राते ही रह जाते हैं ।

चित्र साभार:
https://www.shutterstock.com/

बुधवार, 30 अप्रैल 2014

पँचतंत्र लोकतंत्र पर हावी होने जा रहा है


खाली रास्ते पर 
एक खरगोश
अकेला दौड़ लगा रहा है

कछुआ बहुत 
दिनों से गायब है
दूर दूर तक 
कहीं भी नजर नहीं आ रहा है

सारे कछुओं से 
पूछ लिया है
कोई कुछ नहीं बता रहा है

दौड़ चल रही है
खरगोश दौड़ता ही जा रहा है

इस बार लगता है
कछुआ मौज में आ गया है
और 
सो गया है
या
कहीं छाँव में बैठा बंसी बजा रहा है

दौड़ शुरु होने से 
पहले भी
कछुऐ की 
खबर 
कोई अखबार 
नहीं दिखा रहा है

कुछ ऐसा जैसा 
महसूस हो पा रहा है
कछुवा कछुओं के साथ मिलकर
कछुओं को 
इक्ट्ठा करवा रहा है

एक नया करतब 
ला कर दिखाने के लिये
माहौल बना रहा है

कुछ नये तरह का 
हथियार बन तो रहा है
सामने ला कर कोई नहीं दिखा रहा है

दौड़ करवाने वाला भी
कछुऐ को कहीं नहीं देखना चाह रहा है

खरगोश गदगद 
हो जा रहा है
कछुऐ और उसकी छाया को दूर दूर तक
अपने आसपास फटकता हुआ
जब 
नहीं पा रहा है

‘उलूक’ हमेशा ही 
गणित में मार खाता रहा है
इस बार उसको लेकिन 
दिन की रोशनी में
चाँदनी देखने का जैसा मजा आ रहा है

कछुओं का
शुरु से 
ही गायब हो जाना
सनीमा के सीन से 

दौ
 के गणित को
कहीं ना कहीं तो गड़बड़ा रहा है

प्रश्न कठिन है और 
उत्तर भी
शायद
कछुआ ही ले कर आ रहा है।

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

मंगलवार, 29 अप्रैल 2014

अपनी अक्ल के हिसाब से ही तो कोई हिसाब किताब लगा पायेगा

सोचता हुआ
आ रहा था
शायद आज
कुछ अच्छा सा
लिखा जायेगा
क्या पता कहीं
कोई फूल सुंदर
एक दिख जायेगा
कोई तो आकर
भूली हुई एक
कोयल की याद
दिला जायेगा
मीठी कुहू कुहू से
कान में कुछ
नया सा रस
घुल के आयेगा
किसे पता था
किराये का चूहा
उसका फिर से
मकान की नींव
खोदता हुआ
सामने सामने
से दिख जायेगा
जंगली होता तो भी
समझ में आता
समझाने पर कुछ
तो समझ जायेगा
पालतू सिखाये हुऐ से
कौन क्या कुछ
कहाँ कह पायेगा
पढ़ाया लिखाया हुआ
इतनी आसानी से
कहाँ धुल पायेगा
बताया गया हो
जिसको बहुत
मजबूती से
खोदता खोदता
दुनियाँ के दूसरे
छोर पर वो
पहुँच जायेगा
उतना ही तो
सोच सकता है कोई
जितना उसकी
सोच के दायरे
में आ पायेगा
भीड़ की भेड़ को
गरडिये का कुत्ता
ही तो रास्ते पर
ले के आयेगा
‘उलूक’ नहीं तेरी
किस्मत में कहना
कुछ बहुत अच्छा
यहाँ तेरे घर को
खोदने वाला ही
तुझे तेरे घर के
गिरने के फायदे
गिनवायेगा
और अपना
खोदता हुआ
पता नहीं कहाँ से
कहाँ पहुँच जायेगा ।

रविवार, 27 अप्रैल 2014

कुछ दिन के लिये ही मान ले हाथ में है और एक कीमती खिलौना है

आज को भी
कल के लिये
एक कहानी
ही होना है
ना उसमें कोई
राम होना है
ना किसी रावण
को होना है
हनुमान दिख रहे
चारों तरफ पर
उन्हे भी कौन सा
एक हनुमान
ही होना है
राम की एक
तस्वीर होनी है
बंदरों के बीच
घमासान होना है
ना कौरव
को होना है
ना पाँडव
को होना है
शतरंज की बड़ी
बिसात होनी है
सेना को बस
एक लाईन में
खड़ा होना है
ना तलवार
होनी है
ना कोई
वार होना है
अंगुली स्याही
से धोनी है
बस एक काला
निशान होना है
बड़े मोहरों
को दिखना है
बिसात के
बाहर होना है
इसे उसके लिये
वहाँ कुछ कहना है
उसको इसके लिये
यहाँ कुछ कहना है
रावण को लंका
में ही रहना है
राम को अयोध्या
में ही कहना है
आस पास का
रोज का सब ही
एक सा तो रोना है
‘उलूक’ दुखी इतना
भी नहीं होना है
जो कुछ आ जाये
खाली दिमाग में
यहाँ लिख लिखा
के डुबोना है ।

मंगलवार, 11 मार्च 2014

झेल सके तो झेल “उलूक” ने छ: सौवीं बक बक दी है आज पेल

काम की बात
करने में ही
होती हैं बस
कठिनाईयाँ
कुछ लोग
बहुत अच्छा
लिखते हैं
पढ़ते ही
बज उठती
है चारों तरफ
शहनाईयाँ
कुछ भी
कह लेने में
किसी का कुछ
नहीं जाता है
एक दो तीन
होते होते
पता कहाँ
चलता है
एक दो नहीं
छ: का सैकड़ा
हो जाता है
ना पेड़ खिसकता
है कहीं कोई
ना ही पहाड़
एक किसी से
सरक पाता है
सब लोग लगे
होते हैं कुछ
ना कुछ ही
करने धरने में
कहीं ना कहीं
कुछ लोगों से
कुछ भी नहीं
कहीं हो पाता है
लिखना सबसे
अच्छा एक काम
ऐसे लोगों को
ही नजर आता है
एक जमाने में
भरे जाते थे
जिनसे कागज
किसी कापी
या डायरी के
साल होते होते
सामने सामने का
नजारा एक कबाड़ी
का कापियों को
खरीद ले जाना
हो जाता है
वो जमाना भी
गया जमाना
हो चुका कभी का
आज के दिन
कापी की जगह
ब्लाग हो जाता है
पहले के लिखे का
भी कोई मतलब
नहीं निकाला
किसी ने कहीं
आज निकलता
भी है तो कोई
कहाँ बताता है
टिप्पणी करने का
चलन भी शुरु हुऐ
कुछ ही दिन तो
हुऐ हैं कुछ
ही समय से
कुछ करते हैं
कुछ ही जगहों पर
कुछ नहीं करते
हैं कहीं भी
कुछ को लिखा
क्या है ये ही
समझ में नहीं
आ पाता है
खुश है “उलूक”
पलट कर
देखता है जब
छ: सौ बेकार
की खराब कारों के
काफिले से
उसका गैरेज
भर जाता है ।

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

उलूक एक बस्ती उजाड़ने में बता तेरा क्या रोल होता है

परिपक्व यानी
पका हुआ फल
सुना है मीठा
बहुत होता है
सुनी सुनाई नहीं
परखी हुई बात है
हमेशा तो नहीं
पर कई बार
अपने लिये निर्णयों
पर ही शक बहुत
होने लगता है
मेरा निर्णय
उसका निर्णय
तेरा निर्णय
सब गडमगड
गलत और सही
कहीं किसी किताब
में लिखा ही
नहीं होता है
एक सूखी हुई
नदी के रास्ते के
पत्थरों को वाकई
बहुत घमंड होता है
अपनी मजबूती पर
आपदा के समय
ही पता लगता है
पेंदी और बेपेंदी
की चट्टाने कौन सी
पड़ी रहती है
और कौन सी
चल देती है
पानी के प्रवाह
के साथ बिना
शिकायत के
जीवन हर किसी
के लिये अलग 
पहलू एक होता है
किताबें सिद्धांत
समझने वालों
के लिये होती हैं
पर कोशिश
सब करते हैं
लागू करने की
किसी से हो
ही जाता है और
कोई ऐसी की
तैसी कर लेता है
“उलूक”
तुझे पता है
कितना गोबर
भरा है तेरे भेजे में
फिर भी नहीं
समझ में आता है
तू किस बात के
पंगे ले लेता है
ओलम्पियाड सारी
जिंदगी में दिखेंगे
तुझे हरे लाल
और पीले काले
क्यों फजीहत
करवाता है अपनी
हर बार फेल होता है
मकड़ी सात बार
में चढ़ गई थी
दीवार कभी एक
कहानी रही है
बहुत पुरानी
लोगों के लिये
पता कहाँ
चल पाता है
क्या रोजमर्रा
का जैसा काम
और क्या
कभी कभी का
एक खेल होता है ।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

सब को आता है कुछ ना कुछ तुझे क्यों नहीं आता है

लिख देने
के बाद भी

यहीं पर
पड़ा हुआ
नजर आता है

इतनी सी
भी मदद
नहीं करता
कहीं को चला
भी नहीं जाता है

अखबार
से ही सीख
लेता कुछ कभी

कितनो
का लिखा
अपने सिर पर
उठा उठा
कर लाता है

खुद ही जाकर
हर किसी के घर भी
रोज हो ही आता है

अपनी
अपनी खबर
पढ़ लेने का मौका

हर कोई
समानता से
पा भी जाता है

बहुत
कम होते हैं ऐसे
जिन्हे है फुरसत यहाँ
जमाने भर की

और वो
यहाँ आ कर
पढ़ क्या गया तुझको

तू तो
बहुत ही मजे
मजे में आ जाता है

कुछ तो
सऊर सीख भी ले अब

इधर उधर के
पन्नों से कभी

जिसमें
लिखा हुआ
कुछ भी कहीं भी

बहुत
सी जगह
पर जा जा कर
कुछ ना कुछ
लिखवा ही लाता है

एक तू है पता नहीं
किस चीज का बना हुआ

ना खुद लिख पाता है
ना ही कुछ किसी से
लिखवा ही पाता है

जब देखो
जिस समय देखो
यहीं पर पड़ा रह रह कर

बेकार में
सारी जगह
घेरता चला जाता है

अरे ओ
बेवकूफ पन्ने
किसी की समझ में
बात आये ना आये

तेरी समझ में
कभी भी कुछ
क्यों नहीं आता है

'उलूक'
के बारे में
भी कुछ सोच
लिया कर कभी

उससे भी
आँखिर
कब तक और
कहाँ तक सब
लिखा जाता है ।

रविवार, 1 दिसंबर 2013

घर पर पूछे गये प्रश्न पर यही जवाब दिया जा रहा है

इस पर उस पर
पता नहीं
किस किस पर
क्या क्या
कब से
कहाँ कहाँ
लिखते ही
चले जा रहे हो
क्या इरादा है
करने का
किसी को नहीं
बता रहे हो
रोज कहीं
जा कर
लौट कर
यहाँ वापस जरूर
आ जा रहे हो
बहुत दिन से
देख रहे हैं
बहुत कुछ
लिखा हुआ भी
बहुत जगह
नजर आ रहा है
किसी भी
तरफ निकलो
हर कोई
इस बात को
बातों बातों में
बता रहा है
छोटी मोटी
भी नहीं
पूरी पेज भर
की बात
रोज बनाते
जा रहे हो
सारी दुनिया
का जिक्र
चार लाईनों में
करते हुऐ
साफ साफ
नजर आ रहे हो
घोड़े गधे
उल्लू खच्चर
नेता पागल
जैसे कई और
लिखे हुऐ में
कहीं ना कहीं
टकरा ही
जा रहे है
बस एक
हम पर
कही हो
कभी कहीं
पर कुछ भी
लिखा हुआ
तुम्हारे लिखे में
दूरबीन से
देखने पर भी
देख नहीं
पा रहे है
समझा करो
कितना बड़ा
खतरा कोई
इस सब को
यहाँ लिख कर
उठा रहा है
माना कि
इसे पढ़ने को
उनमें से कोई भी
यहाँ नहीं
आ रहा है
लिखा जरूर
है लेकिन
बिना सबूत
के सच को
कोई नहीं
समझ पा रहा है
तुम पर लिखने
को वैसे तो
हमेशा ही
बहुत कुछ
आसानी से
घर पर ही
मिल जा रहा है
पर जल में रहकर
मगर से बैर करना
'उलूक' के बस से
बाहर हो जा रहा है ।

बुधवार, 27 नवंबर 2013

उलूक का शोध ऊपर वाले को एक वैज्ञानिक बताता है

ऊपर वाला
जरूर किसी
अन्जान
ग्रह का
प्राणी वैज्ञानिक

और मनुष्य
उसके किसी
प्रयोग की
दुर्घटना
से उत्पन्न

श्रंखलाबद्ध
रासायनिक
क्रिया का
एक ऐसा
उत्पाद
रहा होगा

जो
परखनली
से निकलने
के बाद
कभी भी
खुद सर्व
शक्तिमान
के काबू में
नहीं रहा होगा

और
अपने और
अपने ग्रह को
बचाने के लिये

वो उस
पूरी की पूरी
प्रयोगशाला को

उठा के दूर
यहाँ पृथ्वी
बना कर
ले आया होगा

वापस
लौट के
ना आ जाये
फिर से कहीं
उसके पास

इसीलिये
अपने होने
या ना होने
के भ्रम में
उसने
आदमी को
उलझाया होगा

कुछ
ऐसा ही
आज शायद
उलूक की
सोच में
हो सकता है
ये देख कर
आया होगा

कि मनुष्य
कोशिश
कर रहा है आज

खुद से
परेशान
होने के बाद
किसी दूसरे ग्रह
में जाकर बसने
का विचार
ताकि बचा सके
अपने कुछ अवशेष

अपनी सभ्यता
के मिटने के
देख देख
कर आसार

क्योंकि मनुष्य
आज कुछ भी
ऐसा करता हुआ
नहीं नजर आता है

जिससे
महसूस हो सके
कि कहीं ऐसा कोई
ऊपर वाला भी
पाया जाता है

जैसे ऊपर वाले की
बातें और कल्पनाऐं
वो खुद ही यहाँ पर
ला ला कर फैलाता है

अपना जो भी
मन में आये
कैसा भी चाहे
कर ले जाता है

सामने वाले को
ऊपर वाले की
फोटो और बातों
से डराता है

कहीं भी ऐसा
थोड़ा सा 

भी महसूस
नहीं होता है

शक्तिशाली
ऊपर वाला
कहीं कुछ
भी अपनी
चला पाता है

उसी तरह
जिस तरह आज
मनुष्य खुद
अपने
विनाशकारी
आविष्कारों को
नियंत्रित करने में
अपने को
असफल पाता है

इस सब से
ऊपर वाले का
एक अनाड़ी
वैज्ञानिक होना
आसानी से क्या
सिद्ध नहीं
हो जाता है ।

सोमवार, 4 नवंबर 2013

लक्ष्मी को व्यस्त पाकर उलूक अपना गणित अलग लगा रहा था

निपट गयी जी
दीपावली की रात

पता अभी
नहीं चला वैसे
कहां तक पहुंची
देवी लक्ष्मी

कहां रहे भगवन
नारायण कल रात

किसी ने भी
नहीं करी
अंधकार प्रिय
उनके सारथी
उलूक की
कोई बात

बेवकूफ हमेशा
उल्टी ही
दिशा में
चला जाता है

जिस पर कोई
ध्यान नहीं देता

ऐसा ही कुछ
जान बूझ कर
पता नहीं

कहां कहां से
उठा कर
ले आता है

दीपावली की
रात में जहां
हर कोई दीपक
जला रहा था

रोशनी
चारों तरफ
फैला रहा था

अजीब बात
नहीं है क्या
अगर उसको
अंधेरा बहुत
याद आ रहा था

अपने छोटे
से दिमाग में
आती हुई एक
छोटी सी बात
पर खुद ही
मुस्कुरा रहा था

जब उसकी
समझ में
आ रहा था

तेज रोशनी
तेज आवाजें
साल के
दो तीन दिन
हर साल
आदमी कर

उसे त्योहार
का एक नाम
दे जा रहा था

इतनी चकाचौंध
और इतनी
आवाजों के बाद
वैसे भी कौन
देख सुन पाने की
सोच पा रहा था

अंधा खुद को
बनाने के बाद
इसीलिये तो
सालभर

अपने चारों
तरफ अंधेरा
ही तो फैला
पा रहा था

उलूक कल
भी खुश नहीं
हो पा रहा था

आज भी उसी
तरह उदास
नजर आ रहा था

अंधेरे का त्योहार
होता शायद
ज्यादा सफल
उसे कभी कोई
क्यों नहीं
मना रहा था

अंधेरा पसंद
उलूक बस
इसी बात को
नहीं पचा
पा रहा था । 

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

एक भीड़ एक पोस्टर और एक देश



इधर
कुछ 
पढ़े लिखे कुछ अनपढ़
एक दूसरे के ऊपर चढ़ते हुऐ

एक सरकारी 
कागज हाथ में
कुछ जवान कुछ बूढ़े
किसी को कुछ पता नहीं
किसी से कोई कुछ पूछता नहीं

भीड़
जैसे भेड़ 
और बकरियों का एक रेहड़
कुछ लैप टौप तेज रोशनी फोटोग्राफी
अंगुलियों और अंगूठे के निशान
सरकार बनाने वालों को मिलती एक खुद की पहचान
एक कागज का टुकड़ा 'आधार' का अभियान

उसी भीड़ का अभिन्न 
हिस्सा 'उलूक'
गोते लगाती हुई उसकी अपनी पहचान
डूबने से अपने को बचाती हुई

दूसरी तरफ
शहर की सड़कों पर बजते ढोल और नगाड़े
हरे पीले गेरुए रंग में बटा हुआ देश का भविष्य

थम्स अप लिमका 
औरेंज जूस 
प्लास्टिक की खाली बोतलें 
सड़क पर बिखरे
खाली 
यूज एण्ड थ्रो गिलास 
हजारों पैंप्लेट्स

नाच और नारे
परफ्यूम से ढकी सी आती एल्कोहोल की महक
लड़के और लड़कियां
कहीं खिसियाता हुआ
लिंगदोह

फिर कहीं 'उलूक'
बचते बचाते अपनी पहचान को
निकलता हुआ दूसरी भीड़ के बीच से

और
तीसरी तरफ 
प्रेस में छपते हुए
एक आदमी के पोस्टर

जो कल 
सारी देश की दीवार पर होंगे

और
यही भीड़ पढ़ रही होगी
दीवार पर लिखे हुऐ
देश के भविष्य को
जिसे इसे ही तय करना है ।

चित्र साभार: https://www.pikpng.com/

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

चार सौ बीसवीं प्रविष्टि उलूक कर रहा है

वो कुछ ना बता
जो मुझको पता है
एक दो शुरु जाने
कब से किया है
होना ही था जो
आज हो गया है
आधा नहीं पूरा
चार सौ बीस
हो गया है
बात चार सौ बीस
होने की ही नहीं है
बात कुछ पाने या
कुछ खोने की नहीं है
कौन कितना चार सौ
बीस हो गया है
ये उसके माथे पर
ही छप गया है
दिखाना किसी को
कहीं कुछ नहीं है
बताना किसी को
कहीं कुछ नहीं है
जितना जिसका
जो हो गया है
पर्दे में लाकर
उसे रख दिया है
पता भी किसी को
कहाँ चल रहा है
एक दिन का जा
कर के जब एक
ही जुड़ रहा है
चार सौ बीस जुड़ा
कर चार सौ
बीस कर रहा है
मुझे जो पता है
वो अपना पता है
तूने किया है जो
तुझको पता है
उसका पता हाँ
उसको पता है
किसका पता पर
किसको पता है
यही बस मुझको
नहीं कुछ पता है
कोई आज कुछ है
कोई कल हो रहा है
अपने समय में
हर कोई हो रहा है
कोई दस हो रहा है
कोई सौ हो रहा है
कोई धीरे धीरे
कोई तेज हो रहा है
होना सभी को
ही हो रहा है
किसी की करनी
कोई भर रहा है
किसके लिये कौन
क्या कर रहा है
क्यों कर करा है
होने को हर रोज
कुछ हो रहा है
इतना लिखा है
लिखते रहा है
खुश हो रहा है
बहुत हो रहा है
एक दो से होकर
कोई गुजर रहा है
कोई चार सौ बीस
पर इधर हो रहा है ।

गुरुवार, 29 अगस्त 2013

उलूक की पोटली में कूड़ा ही कूड़ा

हवा में तैरती ही हैं हर वक्त 
कथा कहानी कविताऎं

जरूरी कहाँ होता है 
सब की नजर में 
सब के सब ऎसे ही आ ही जायें

सबको पसंद आ जायें
शैतानियाँ बच्चों की चुहुल बाजी 
कहीं कहीं खट्टी कहीं मीठी झिड़कियां

दरवाजे के किनारे से झांकने का
अपना 
एक अलग मजा है 
किसी को दिख रही होती हैं खिकियां 

कोई फर्क नहीं पड़ता है 
जालियों में जाले लगे हो या नहीं 
जब झांकने की आदत हो जाये 
आँख बंद कर 
बंद दरवाजे के अंदर तक झांक लेता है कोई 

किसी को फर्क नहीं पड़ता 
किसी के बच्चों को कोई 
स्कूल अगर पहुँचाने में लगा हो 

क्या होता है अगर सुबह का दूध 
डेयरी से लाकर रोज दे जाने लगा हो 

अपने अपने शौक अपनी अपनी महारथ 

कोई हाथ की सफाई में माहिर 
कोई दिल पर डाके डालने में उस्ताद 
घर में एक अलग बाहर के लिये अलग 

बहुत कम होते हैं मगर होते हैं किताबी कीडे़ 
बस चले तो पढ़ाने वाले को ही खा जायें 

रोज रोज के पूछने का झंझट हो दूर 
एक दिन में ही सारी समस्यायें खुद सुलझ जायें

कोई अगर खाली होती कुर्सियों की 
गिनती कर रहा हो 
तो इसमें किसी के बाप का क्या चला जाता है 

इसके लिये वो झुक झुक कर 
काम आने वाले लोगों को सलाम ठोकना 
शुरु हो जाता है 

जहाँ दिमाग में कुछ 
हिसाब किताब घूम रहा होता है
वो 
लेखाधिकारी आफिस में 
उपस्थित हो या ना हो
उसकी कुर्सी को चूम रहा होता है 

कहीं कृष्ण देख लो कहीं राधा भी होती है
राम के भक्तगण भी मिल जायेंगे 
जरूरत पढ़ने पर रावण के भी काम आयेंगे 

कहीं पत्थर सीमेंट रेता भी होता है
इधर फेंका जाता है उधर काम आ जाता है 

जुगाड़ी भी 
तैरती हुई परीकथा का एक हिस्सा होता है

ऎसा दिखाया जाता है

कुछ कुछ तो ऎसा भी होता है 
जो होता है 
पर उसके ऊपर कुछ भी कहीं नहीं कहना होता है 

कैसे कहे कोई 
उसे कहने के लिये पहले बेशरम होना होता है 

कोई बात नहीं 
ये सब अगर नहीं होता चला जायेगा
तो कहने वाले के लिये भी तो 
कहने के लिये कुछ नहीं रह जायेगा 

आज ही सब कुछ नहीं कहेगा 
कल को कहने के लिये
कुछ नया 
चटपटा उठा कर ले आयेगा 

अपनी अपनी ढपली अपने अपने रागों 
से ही तो मेरा देश 
महान होने की दौड़ लगायेगा 

अब गिरे हुऎ रुपिये को उठाने के लिये
कोई 
तो जोर लगायेगा ।