उलूक टाइम्स: कान
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शनिवार, 25 मई 2019

खुजली कान के पीछे की और पंजा ‘उलूक’ की बेरोजगारी का


पहाड़ी
झबरीले 

कुछ काले
कुछ सफेद

कुछ
काले सफेद

कुछ मोटे कुछ भारी
कुछ लम्बे कुछ छोटे
कुत्तों के द्वारा
घेर कर ले जायी जा रही

कतारबद्ध
अनुशाशित
पालतू भेड़ों
का रेवड़

गरड़िये
की हाँक
के साथ

पथरीले
ऊबड़ खाबड़

ऊँचे नीचे
उतरते चढ़ते
छिटकते
फिर
वापस लौटते

मिमियाते
मेंमनों को
दूर से देखता

एक
आवारा जानवर

कोशिश
करता हुआ

समझने की

गुलामी
और आजादी
के बीच के अन्तर को

कोशिश करता हुआ 
समझने की

खुशी और गम
के बीच के
जश्न और
मातम को

घास के मैदानों के
फैलाव के
साथ सिमटते
पहाड़ों की
ऊँचाइयों के साथ

छोटी होती
सोच की लोच की
सीमा खत्म होते ही
ढलते सूरज के साथ

याद आते
शहर की गली के
आवारा साथियों
का झुँड

मुँह उठाये
दौड़ते
दिशाहीन
आवाजों में
मिलाते हुऐ
अपनी अपनी
आवाज

रात के
राज को
ललकारते हुऐ

और

इस
सब के बीच

जम्हाई लेता
पेड़ की ठूँठ पर
बैठा
‘उलूक’

सूँघता
महसूस
करता हुआ

तापमान

मौसम के
बदलते
मिजाज का

पंजे से
खुजलाता हुआ

यूँ ही
कान के पीछे के
अपने ही
किसी हिस्से को

बस कुछ
बेरोजगारी

दूर
कर लेने की
खातिर
जैसे।

चित्र साभार: www.kissanesheepfarm.com

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बहकता तो बहुत कुछ है बहुत लोगों का बताते कितने हैं ज्यादा जरूरी है


परेशानी तो है 
आँख नाक दिमाग सब खोल के चलने में 
आजकल के जमाने के हिसाब से 

किस समय
क्या खोलना है कितना खोलना है किस के लिये खोलना है 
अगर नहीं जानता है कोई
तो पागल तो होना ही होना है 

पागल हो जाना भी एक कलाकारी है समय के हिसाब से 
बिना डाक्टर को कुछ भी बताये कुछ भी दिखाये 

बिना दवाई खाये बने रहना पागल सीख लेने के बाद 
फिर कहाँ कुछ किसी के लिये बचता है 

सारा सभी कुछ 
पैंट की नहीं तो कमीज की ही किसी दायीं या बायीं जेब में 
खुद बा खुद जा घुसता है 

घुसता ही नहीं है 
घुसने के बाद भी जरा जरा सा थोड़े थोड़े से समय के बाद 
सिर निकाल निकाल कर सूंघता है 
खुश्बू के मजे लेता है 

पता भी नहीं चलता है 
एक तरह के सारे पागल एक साथ ही
पता नहीं क्यों 
हमेशा एक साथ ही नजर आते हैं 

समय के हिसाब से समय भी बदलता है 
पागल बदल लेते हैं साथ अपना अपना भी 

नजर आते हैं फिर भी 
कोई इधर इसके साथ कोई उसके साथ उधर 

बस एक ऊपर वाला
नोचता है एक गाय की पूँछ या सूँअर की मूँछ कहीं 
गुनगुनाते हुऐ राम नाम सत्य है 
हार्मोनियम और तबले की थाप के साथ 

‘उलूक’ पागल होना नहीं होता है कभी भी 
पागल होना दिखाना होता है दुनियाँ को 
चलाने के लिये बहुत सारे नाटक 

जरूरी है अभी भी समझ ले
कुछ साल बचे हैं पागल हो जाने वालों के लिये अभी भी 

पागल पागल खेलने वालों से 
कुछ तो सीख लिया कर कभी पागल ।

चित्र साभार: dir.coolclips.com

बुधवार, 7 जनवरी 2015

इंद्रियों को ठोक पीट कर ठीक क्यों नहीं करवाता है

 

कान आँख नाक जिह्वा त्वचा 
को इंद्रियां कहा जाता है

इन पाँचों के अलावा ज्ञानी एक और की बात बताता है
छटी इंद्री जिसे कह दिया जाता है

गाँधी जी ने तीन बंदर चुने
कान आँख और जिह्वा बंद किये हुऐ

जिनको बरसों से
यहाँ वहाँ ना जाने कहाँ कहाँ दिखाया जाता है

सालों गुजर गये
थका नहीं एक भी बंदर उन तीनों में से

भोजन पानी का समय तक आता है
और चला जाता है

नाक बंद किया हुआ बंदर
क्यों नहीं था साथ में इन तीनो के
इस बात को पचाना मुश्किल हो जाता है

गाँधी जी बहुत समझदार थे
ऐसा कुछ किताबों में लिखा पाया जाता है

झाड़ू भी नहीं दे गये
किसी एक बंदर के हाथ में
ये भी अपने आप में एक पहेली जैसा हो जाता है

जो भी है
अपने लिये तो आँखो से देखना ही बबाल हो जाता है
आँखे बंद भी कर ली जायें तो कानो में कोई फुसफुसा जाता है

कान बंद करने की कोशिश भी की कई बार
पर अंदर का बंदर चिल्लाना शुरु हो जाता है

एक नहीं अनेकों बार महसूस किया जाता है
‘उलूक’ तुझ ही में
या तेरी इंद्रियों में ही है कोई खराबी कहीं
आशाराम और रामपाल की शरण में
क्यों नहीं चला जाता है

ज्यादा लोग
देखते सूँघते सुनते महसूस करते हैं जिन जिन बातों को

तेरे किसी भी कार्यकलाप में
उसका जरा सा भी अंश नहीं आता है

सब की इंद्रियाँ सक्रिय होती हैं
हर कोई कुछ ना कुछ कर ही ले जाता है

तुझे गलतफहमी हो गई है लगता है
छटी इंद्री कहीं होने की तेरे पास

इसीलिये जो कहीं नहीं होता है
उसके होने ना होने का वहम तुझे जाता है ।

चित्र साभार: bibliblogue.wordpress.com