उलूक टाइम्स: कुर्सी
कुर्सी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कुर्सी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

कुछ नहीं हो सकता है एक पक चुकी सोच का किसी कच्ची मिट्टी को लपेटिये जनाब

फूल होकर
डाल से उतरा

पक पका गया
एक फल
हो चुकी है आज

कैसे 

फिर से वही
बीज हो जाये 



जिस से
पैदा हुयी थी
कभी जनाब

कैसे बदलें
अब इस
पुरानी सोच को

सोच भी
नहीं पा रहे हैं
अपने आप

आप यूँ ही
कह देते
हैं हम से

अपनी
सोच को 
अब बदल
लीजिये जनाब

मित्र
पढ़ते हैं
कुछ लिखा
लिखाया हमारा

तुरन्त राय
देते हैं
जरूर एक दाग

बहुत साल
गधे रह लिये हैं

अब
घोड़े ही कुछ
सोच में
देख लीजिये जनाब

बेचैनी
शुरु होती है
क्या करें
जब देख लेते हैं
कुछ धुँआ
कहीं पर बिना आग

आग की बात कर
धुँआ दिखा कर ही
रोटियाँ सेक रहे हैं
सबसे बड़े साहब

अब आज ही
दिखे थे कुछ
दलाल घूमते हुऐ
अपने घर मोहल्ले
शहर के आस पास

कोई बिकेगा
कोई खरीदेगा
जल्दी ही कुछ

बड़ी कुर्सी पर
किसी के कहीं
जाकर बैठने
का जैसा
हो रहा है आभास

उम्र हो गयी
‘उलूक’ की
सीखते सीखते
सब गलत सलत सारा

ये होगा आपका हिसाब

कुछ नहीं
हो सकता है
माटी के पक चुके
इस घड़े का

जिसपर
अपनी सोच की
कलाकारी नक्काशी
उकेर देने वाले
अब नहीं भी कहीं

बस
उनके मीठे
अहसास बचे हैं

उसके पास
उसकी रूह के
बहुत पासपास

शनिवार, 21 जुलाई 2018

शरीफों की बस्ती है कुछ नहीं होना है एक नंगे चने की बगावत से

शरीफों
ने तोड़ी
कुर्सियाँ
शरीफों की

लात
मार कर
शराफत
के साथ

मेज फेंकी
शराफत से

दी
भेंट में
कुछ
गालियाँ
शरीफों
की ही दी
इजाजत से

काँच
की बोतलें
रंगीन पानी

खुश्बू
शराफत की
और मुँह
शरीफों के

साकी
छिड़क
रही थी
अल सुबह से
वीरों पर
थोड़ी सी बस
कुछ नफासत से

शरीफों ने
इजहार किया
शराफत का
शरीफों
के सामने

शरीफ बैठे
शराफत के साथ
मिले बातें किये
और चल दिये
शराफत से

जश्ने शराफत
घर में हो रहा था
कुछ शरीफों के ही
ऐसा कहना
शराफत नहीं

सम्मानित
देश भर के

भी दिखा
रहे थे
शराफत

शरीफ
बने थे
महारथी

शराफत की
महारत से

किताबें
शराफत की
शराफत के
स्कूलों की

बातें
शरीफों की
पढ़ने पढ़ाने की

इजाजत
नहीं है
बकने की
बकाने 
की
'उ
लूक’

शरीफों
की बस्ती है
कुछ
नहीं होना है
एक नंगे
चने की
बगावत से।

चित्र साभार: forum.wordreference.com

रविवार, 31 दिसंबर 2017

वर्ष पूरा हुआ एक और बनी रहे पालतू लोगों की फालतू होड़ कल आ रहा हूँ मैं अबे ओ कुर्सी छोड़

आईये
फिर से
शुरु हो जायें
गिनती करना
उम्मीदों की

उम्मीदें
किसकी कितनी
उम्मीदें कितनी
किससे उम्मीदें

हर बार
की तरह
फिर एक बार
मुड़ कर देखें


कितनी
पूरी हो गई

कितनी अधूरी
खुद ही रास्ते में
खुद से ही
उलझ कर
कहीं खो गई

आईये
फिर से उलझी
उम्मीदों को
उनके खुद के
जाल से
निकाल कर
एक बार
और सुलझायें

धो पोछ कर
साफ करें
धूप दिखायें

कुछ लोबान
का धुआँ
लगायें

कुछ फूल
कुछ पत्तियाँ
चढ़ायें

कुछ
गीत भजन
उम्मीदों के
फिर से
बेसुरे रागों
में अलापें
बेसुरे हो कर
सुर में
सुर मिलायें

आईये
फिर से
कमजोर
हो चुकी
उम्मीदों की
कमजोर
हड्डियों की
कुछ
पन्चगुण
कुछ
महानारयण
तेल से
मालिश
करवायें

आह्वान करें
आयुर्वेदाचार्यों का
पुराने अखाड़ों
को उखाड़ फेंक
नयी कुश्तियाँ
करवाने के
जुगाड़ लगवायें

आईये
हवा से हवा में
हवा मारने
की मिसाईलें
अपनी अपनी
कलमों में
लगवायें

करने दें
कुर्सीबाजों
को सत्यानाश
सभी का

खीज निकालें
खींस निपोरें
बेशरम हो जायें

करने वाले
करते रहें
मनमानी

कुछ ना
कर सकने का
शोक मनायें

बहुत
लिख लिया
‘उलूक’
पिछ्ले साल
अगले साल
के लिये
बकवासों की
फिर से
बिसात बिछायें

इकतीस
दिसम्बर
को लुढ़कें
होश गवायें

एक
साल बाद
उठ कर
कान
पकड़ कर
माफी माँग
फिर से
शुरु हो जायें।

(श्वेता जी के अनुरोध पर 2018 की शुभकामनाओं के साथ) :

चित्र साभार: http://tvtropes.org

शुक्रवार, 2 जून 2017

चोर चोर चिल्लाना शगुन होता है फुसफुसाना ठीक नहीं माना जाता है

महीना
बदलने से

किसने
कह दिया

लिखना

बदल
जाता है

एक
महीने में
पढ़ लिख
कर

कहाँ
कुछ नया
सीखा
जाता है

खुशफहमी
हर बार ही

बदलती है
गलतफहमी में

जब भी
एक पुराना
जाता है

और
कोई नया
आता है

कोई तो
बात होती
ही होगी

फर्जियों में

फर्जियों का
पुराना खाता

बिना
आवेदन किये

अपने आप
नया हो
जाता है

कान से
होकर
कान तक
फिसलती
चलती है

फर्जीपने के
हिसाब की
किताबें

फर्जियों
की फर्जी
खबर पर

सीधे सीधे
कुछ
कह देना

बदतमीजी
माना जाता है

बाक्स
आफिस
पर

उछालनी
होती है
फिलम
अगर

बहुत
पुराना
नुस्खा है

और
आज भी
अचूक
माना
जाता है

हीरो के
हाथ में
साफ साफ

मेरा बाप
चोर है

काले
रंग में
सजा के
लिखा
जाता है

‘उलूक’
चिड़ियों की
खबरों में भी

कभी ध्यान
लगाता

थोड़ा
सा भी  अगर

अब तक
समझ चुका
होता
शायद

तोते को
कितना भी
सिखा लो

चोर चोर
चिल्लाना

चोरों के
मोहल्ले में तो

इसी
बात को

कुर्सी में
बैठने का
शगुन माना
जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Panda

गुरुवार, 12 मार्च 2015

आदमी की खबरों को छोड़ गधे को गधों की खबरों को ही सूँघने से नशा आता है


अब ये तो नहीं पता कि कैसे हो जाता है
पर सोचा हुआ कुछ कुछ आगे आने वाले समय में
ना जाने कैसे सचमुच ही सच हो जाता है

गधों के बीच में 
रहने वाला गधा ही होता है
बस यही सच पता नहीं हमेशा 
सोचते समय कैसे भूला जाता है

गधों का राजा 
गधों में से ही
एक 
अच्छे गधे को छाँट कर ही बनाया जाता है

इसमें कोई गलत 
बात नहीं ढूँढी जानी चाहिये
संविधान गधों का गधों के लिये ही होता है
गधों के द्वारा गधों के लिये ही बनाया जाता है

तरक्की भी गधों 
के राज में गधों को ही दी जाती है
एक छोटी कुर्सी से छोटे गधे को बड़ी कुर्सी में बैठाया जाता है

छोटी कुर्सी के लिये 
एक छोटा मगर पहले से ही
जनप्रिय बनाया और लाईन पर लगाया गधा बैठाया जाता है

सब कुछ सामान्य 
सी प्रक्रियाऐं ही तो नजर आती है
बस ये समझ में नहीं आ पाता है जब खबर फैलती है
किसी गधे को कहीं ऊपर बैठाये जाने की
‘उलूक’
तुझ गधे को पसीना  आना क्यों शुरु हो जाता है ?

चित्र साभार: www.clipartof.com

गुरुवार, 6 मार्च 2014

एक अरब से ऊपर के उल्लू हों चार पाँच सौ की हर जगह दीवाली हो

कहाँ जायेगा
कहाँ तक जायेगा
वही होना है
यहाँ भी
जिसे छोड़ कर
हमेशा तू
भाग आयेगा
भाग्य है अरब
से ऊपर की
संख्या का
दो तीन चार
पाँच सौ
के फैसलों पर
हमेशा ही
अटक जायेगा
उधर था वहाँ भी
इतने ही थे
इधर आया
यहाँ भी
उतने ही हैं
फर्क बहुत बारीक है
वहाँ सामने दिखते हैं
यहाँ बस कुछ शब्द
फैले हुऐ मिलते हैं
कुर्सी हर जगह है खाली
हर जगह होती है
वहाँ भी बैठ
लेता है कोई भी
यहाँ भी बैठ
लेता है कोई भी
परिक्रमा करने
वाले हर जगह
एक से ही होते हैं
कुर्सी पर बैठे हुऐ
के ही फैसले ही
बस फैसले होते हैं
कुर्सियां बहुत सी
खाली हो गई होती हैं
मामले गँभीर
सारे शुरु होते हैं
कहीं भी कोई अंतर
नहीं होता है
हर जगह एक
भारतीय होता है
अपने देश में
होता है तो ही
कुछ होश खोता है
दूसरे देश में
होने से ही बस
गजब होता है
इसलिये होता है
कि वहाँ का
कुछ कानून
भी होता है
यहाँ होता है तो
कानून उसकी
जेब में होता है
घर हो आफिस हो
बाजार हो लोक सभा हो
विधान सभा हो
कलाकारों का दरबार हो
ब्लागिंग हो ब्लागरों
का कारोबार हो
एक सा होता है
चाहे अखबारों का
कोई समाचार हो
एक अरब की
जनसंख्या पर
कुछ सौ का ही
कुछ एतबार हो
यहीं होता है
कुछ अनोखा
हर नुक्कड़ पर
जश्ने बहार हो
काँग्रेस हो
चप्पा चप्पा वाली हो
केजरीवाल की
बिकवाली हो
एक अरब से
ऊपर के लोगों को
फिर से वही
चार पाँच सौ के
हाथों ही होने
वाली दीवाली हो
कुर्सी भरी रहे
किसने भरी
किससे भरी
मेज को कौन सी
परेशानी कहीं भी
होने वाली हो
हर किसी के
लिखने के अंदाज
का क्या करेगा
“उल्लूक”
तेरी कलम से
निकलने वाली
स्याही ही कुछ
अजीब रंग जब
दिखाने वाली हो ।

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

हर खाली कुर्सी में बैठा नहीं जाता है

आँख में बहुत मोटा
चश्मा लगाता है
ज्यादा दूर तक
देख नहीं पाता है
लोगों से ही
सुनाई देता है
चाँद देखने के लिये
ही आता जाता है
वैसे किसी ने नहीं
बताया कभी आसमान
की तरफ ताकता हुआ
भी कहीं पाया जाता है
कोई क्यों परेशान
फिर हुआ जाता है
अपने आने जाने
की बात अपनी
घरवाली से कभी
नहीं छुपाता है
अपने अपने ढंग से
हर कोई
जीना चाहता है
कहाँ लिखा है
किसी किताब में
काम करने
की जगह पर
इबादत करने को
मना किया जाता है
छोटी छोटी बातों के
मजे लेना सीख
क्यों जान बूझ कर
मिर्ची लगा सू सू करने
की आदत बनाता है
क्या हुआ अगर कोई
अपनी कुर्सी लेकर ही
कहीं को चला जाता है
अपनी अपनी किस्मत है
जिस जगह बैठता है
वही हो जाता है
तुझे ना तो किसी
चाँद को देखना है
ना चाँद तेरे जैसे को
कभी देखना चाहता है
रात को बैठ लिया कर
घर की छत में
आसमान वाला चाँद
देखने के लिये कोई
कहीं टिकट
नहीं लगाता है
धूनी रमा लिया कर
कुर्सी में बैठना
सबके बस की
बात नहीं होती है
और फिर हर
किसी को कुर्सी पर
बैठने का तमीज
भी कहाँ आ पाता है ।

मंगलवार, 3 सितंबर 2013

दीमकों में से हो और दीमक नहीं हो नहीं होता है !



दीमकों
का काम
ही होता है
कुतरना

उसी
काम को
वो करते
जा रहे हैं

सारे दीमक
कुतरने में
लगे हुऎ हैं
जब एक
निकाय को

हे दीमक

तेरे
रंग ढंग
मेरी
समझ में तो
नहीं आ रहे हैं

दीमक है
दीमकों के
बीच में रहता है

दीमक हूँ भी
हमेशा से
खुद ही कहता है

फिर
वो कौन लोग हैं

जो
तुझ को
तेरे पेशे से ही
दूर ले जा रहे हैं

ऎसी
अजीब सी
हरकत तुझसे
पता नहीं क्यों
करवा रहे हैं

लगता है
दीमकों की
रानी का
नहीं होना

तेरे
कदमों को
पीछे को
ले जा रहे हैं

समझता
क्यों नहीं

राजतंत्र
अब बचा नहीं

दीमक ही
उसे कुतर कर
दफना कर के
आ रहे हैं

दीमकतंत्र
का आह्वान
किया जा चुका है

दीमकों
के बीच से ही एक को
दीमकों
की रानी की
कुर्सी में बैठाया
भी जा चुका है

दीमक
अब दीमकतंत्र
को फैला रहे हैं

उसी का बाजा
बजा रहे हैं
उसी को खाये
भी जा रहे हैं

दीमक हैं
और
दीमकों के जैसे
कामों को ही
तो कर रहे हैं

खुद कुतर रहे हैं
कुतरने के काम ही
करवाऎ जा रहे हैं

ये सब तो आम
सी ही बातें हैं
इस को हम कहाँ
किसी को समझाने
को जा रहे हैं

पर दीमकों मे से
एक दीमक इतना
ऎबनार्मल हो जायेगा

बस यही बात
अपने गले के नीचे
नहीं उतार पा रहे हैं

समझता क्यों नहीं
कुतरने का काम तो
चलता ही चला जायेगा

निकाय को
गिरना ही है
एक दिन
वो गिर कर
जमीन पर
आ ही जायेगा

दीमकों ने
कुतर कुतर
के खा दिया है अंदर से

किसी को
कहाँ ये सब
पता चल पायेगा

गिरने से पहले ही
हर दीमक भाग कर
दूसरी नयी जगह पर
जब पहुँच जायेगा

ना तेरा नाम होगा
नहीं कुतरने वालों में
ना कुतरने वालों को
ही कहीं गिना जायेगा

वो सब भी
दीमक ही रहेंगे
तुझे भी दीमकों में
ही गिना जायेगा

आपदा के नाम से
किसी के हाथ में एक
कटोरा जरूर आ जायेगा

दीमकों को कहीं
और कुतरने के काम
के लिये भेज दिया जायेगा

तू कुतर
तू ना कुतर
तुझे दीमक ही तो
तब भी कहा जायेगा

सारे दीमक लगे हैं
जब कुतरने में
कोई इतना समय
कहाँ निकाल पायेगा

फिर
ये बात पता नहीं
कौन आ कर
तुझे इस समय
समझायेगा

हे दीमक
तू दीमक था
दीमक है
दीमक ही रहेगा
दीमक ही
एक कहलायेगा ।

गुरुवार, 8 मार्च 2012

सबक

मायूस क्यों
होता है भाई
कुर्सी तेरे
आदमी तक
अगर नहीं
पहुंच पायी

तू लगा था
सपने देखने मे
तेरे हाथ भी
कभी एक
स्टूल आ
ही जायेगा
शेखचिल्ली
बनेगा तो
आगे भी जमीन
पर ही आयेगा
आसमान
से गिरेगा
खजूर में
अटक जायेगा

इधर तू दूल्हा
सजा रहा था
उधर तेरा
ही रिश्तेदार
कुर्सी
खिसका रहा था

कहा गया है
कई बार
जिसका काम
उसी को साजे
और करे
तो ठेंगा बाजे

अब भी
सम्भल जा
उस्तरा उठा
और
सम्भाल अपनी
दुकान को
नाई था
नाई हो जा
नेता जी
की दुकान
सजाने अब
तो नहीं जा

कुर्सी सबके
नसीब में होती
तो मैने भी
पैदा होते ही
एक मेज
खरीद ली होती

नाई
दुकानदार
हलवाई
सब अपनी
अपनी जगह
ठीक लगते
हैं भाई

इतिहास
गवाह है
जिस दिन
मास्टर बंदूक
उठाता है
शेर के
शिकार
पर जाना
चाहता है
गोली पेड़
की जड़ मे
लगी हुवी
पाता है
और
मुंह की
खाता है

नेता को
नेतागिरी
अब तो
मत सिखा
लौट के
दुकान पर आ
उस्तरा उठा
शुरू हो जा।

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2012

रिटायर्ड चपरासी

गुरु जी
झूठ नहीं बोलूंगा
आपसे तो
कम से कम नहीं

बस एक
पव्वा ही लगाया है

बिना लगाये जाओ तो
काम नहीं हो पाता है
साहब कुछ
समझता ही नहीं
डाँठता चला जाता है

खुश्बू लगा
के जाओ तो
कुर्सी में बैठाता है

तुरत फुरत
पी ए को
बुलाता है
थोड़ा नाक
सिकौड़ कर
फटाफट
दस्तखत कर
कागज लौटाता है

भैया अगर
खुश्बू से
काम चल
ही जाता है

तो फिर छिड़क
कर जाया करो
पी के अपने स्वास्थ
को ना गिराया करो

दिन में ही
शुरू हो जाओगे
तो कितने
दिन जी पाओगे

गुरू जी आप तो
सब जानते हैं
बड़े बड़े आपका
कहना मानते हैं

पर ये लोग बहुत
खिलाड़ी होते हैं

शरीफ आदमी
इनके लिये
अनाड़ी होते हैं

एक दिन
मैंंने
एसा ही
किया था

कोट पर
थोड़ा गिरा
कर दारू
साहब के पास
चला गया था

साहब ने
उस दिन
कोट मुझसे
तुरंत उतरवाया था

दिन दोपहरी
धूप में मुझे
दिन भर
खड़ा करवाया था

तब से जब भी
पेंशन लेने जाता हूँ

अपने अंदर ही भर
कर ले जाता हूँ

मेरे अंदर की खुश्बू
कैसे सुखा पायेगा

खड़ा रहूँगा जब तक
सूंघता चला जायेगा

उसे भी पीने की
आदत है वो कैसे
खाली खुश्बू
सूंघ पायेगा

तुरंत
मेरा काम
वो करवायेगा
मेरा काम
भी हो जायेगा
उसको भी चैन
आ जायेगा।