उलूक टाइम्स: खपत
खपत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
खपत लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

सोमवार, 17 फ़रवरी 2014

पानी नहीं है से क्या है अपनी नाव को तो अब चलने की आदत हो गई है

कोई नई बात नहीं कही गई है 
कोई गीत गजल कविता भी नहीं बनी है 

बहुत जगह एक ही चीज बने 
वो भी ठीक जैसा तो नहीं है 

इसलिये हमेशा कोशिश की गई है 
सारी अच्छी और सुन्दर बातें 
खुश्बू वाले फूलों के लिये 
कहने सुनने के लिये रख दी गई हैं 

अपने बातों के कट्टे में
सीमेंट रेते रोढ़ी की 
जैसी कहानियाँ
कुछ सँभाल कर रख दी गई हैं 

बहुत सारी
इतनी सारी जैसे आसमान के तारों की 
एक आकाशगंगा ही हो गई है 

खत्म नहीं होने वाली हैं 
एक के निकलते पता चल जाता है 
कहीं ना कहीं तीन चार और 
तैयार होने के लिये चली गई हैं 

रोज रोज दिखती है एक सी शक्लें अपने आस पास 
वाकई में बहुत बोरियत सी अब हो गई है 

बहुत खूबसूरत है ये आभासी दुनियाँ 
इससे तो अब मोहब्बत सी कुछ हो गई है 

बहुत से आदमियों के जमघट के बीच में 
अपनी ही पहचान जैसे कुछ कहीं खो गई है 

हर कोई बेचना चाहता है कुछ नया 
अपने कबाड़ की भी कहीं तो अब खपत 
लगता है हो ही गई है ।