उलूक टाइम्स: खुराफातें
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शनिवार, 6 नवंबर 2021

रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

 


सब कुछ समेटने के चक्कर में बहुत कुछ बिखर जाता है
जमीन पर बिखरी धूल थोड़ी सी उड़ाता है खुश हो जाता है

आईने पर चढ़ी धूल हटती है कुछ चेहरा साफ नजर आता है
खुशफहमियाँ बनी रहती हैं समय आता है और चला जाता है

दिये की लौ और पतंगे का प्रेम पराकाष्ठाओं में गिना जाता है
दीये जलते हैं पतंगा मरता है बस मातम नजर नहीं आता है

झूठ एक बड़ा सा हसीन सच में गिन लिया जाता है
लबारों की भीड़ के खिलखिलाने से भ्रम हो जाता है

पर्दे में रखकर खुराफातें अपनी एक होशियार खुद कभी आग नहीं लगवाता है
रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

कोई कुछ कर ले जाता है
कोई कुछ नहीं कर पाता है तो कुछ लिखने को चला आता है
कुछ समझ ले कुछ समझा ले खुद को ही ‘उलूक’
हर बात को किसलिये यहां रोने चला आता है ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

चल रहा है सिलसिला लिखने लिखाने का फिर फिर वही बातें नया तो अब वैसे भी कहीं कुछ होना ही नहीं है

लिखना
सीख ही
रहा है
अभी भी

कई सालों से
लिखने वाला

क्या
लिख रहा है

क्यों
लिख रहा है

अभी तो
पूछना
ही नहीं है

शेर गजल
कविता भी
पढ़ रहा है

लिखी लिखाई
बहुत सी कई

शेर सोचने
और गजल
लिखने की

अभी तो
हैसियत
ही नहीं है

मत बाँध लेना
उम्मीद भी
किसी दिन

नया कुछ
लिखे
देखने की

सूरतें सालों
साल हो गये हैं

कहीं भी
कोई भी
अभी तो
बदली
ही नहीं हैं

किताबों में
लिख दी
गयी हैं

जमाने भर
की सभी
बातें कभी के

किसलिये
लिखता है
खुराफातें

जो किताबों
तक अभी
भी पहुँची
ही नहीं हैं

कल
लिख रहा था
आज
लिख रहा है
कल भी
लिखने के लिये
आ जायेगा

होना जब
कुछ भी
नहीं है
तो लिखने
की भी
जरूरत
ही नहीं है

अच्छा नहीं है
लिये घूमना
खाली गिलास
खाली बोतलों
के साथ
लिखने के
लिये शराबें

‘उलूक’
कुछ ना कुछ
पी रहा है
हर कोई
अपने
हिसाब का

समझाता
हुआ
जमाने को

पीने
पिलाने की
कहीं भी अब
इजाजत
ही नहीं है ।

चित्र साभार: Childcare