उलूक टाइम्स: चाह
चाह लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
चाह लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

असली सब छिपा कर रोज कुछ नकली हाथ में थमा जाता है


सब कुछ लिख देने की चाह में
नकली कुछ लिख दिया जाता है

बहुत कुछ असली लिखा जाने वाला
कहीं भी नजर नहीं आता है

कहीं नहीं लिखा जाता है वो सब
जो 
लिखने के लिये 
लिखना शुरु करने से पहले
तैयार कर लिया जाता है

सारा सब कुछ
शुरु में ही कहीं छूट जाता है
दौड़ने लगता है उल्टे पाँँव
जैसे लिखने वाले से ही
दूर कहीं भागना चाहता है

जब तक समझने की कोशिश करता है
लिखते लिखते लिखने वाला

कलम पीछे छूट जाती है
स्याही जैसे फैल जाती है
कागज हवा में फरफराना शुरु हो जाता है
ना वो पकड़ में आता है
ना दौड़ता हुआ खयाल कहीं नजर आता है

कितनी बार समझाया गया है
सूखने तो दिया कर स्याही पहले दिन की

दूसरे दिन गीले पर ही
फिर से लिखना शुरु हो जाता है

कितना कुछ लिखा 
कितना कुछ लिखना बाकी है
कितना कुछ बिका कितना बिकेगा
कितना और बिकना बाकी है

हिसाब लगाते लगाते
लिखने वाला 
लेखक तो नहीं बन पाता है
बस थोड़ा सा कुछ शब्दों को
तोलने वाली मशीन हाथ में लिये 
एक बनिया जरूर हो जाता है

कुछ नहीं किया जा सकता है ‘उलूक’

देखते हैं एक नये सच को
खोद कर निकाल कर
समझने के चक्कर में

रोज एक नया झूठ बुनकर
आखिर कब तक 
कोई हवा में उसकी पतंग बना कर उड़ाता है

पर सलाम है उसको
जो ये देखने के लिये हर बार

हर पन्ने में किनारे से झाँकता हुआ
फिर भी कहीं ना कहीं
जरूर नजर आ जाता है ।

चित्र साभार: www.istockphoto.com