उलूक टाइम्स: चैन
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रविवार, 13 दिसंबर 2020

चैन लिखना बेचैनी होते हुऐ किसलिये सोचना क्या रखी है और कहाँ रखी है

सारे बेचैनो ने
लिख दिये हैं चैन
दरो दीवार छोड़िये सड़क मैदानों तक में 

लिखे को पढ़िये पन्ने दर पन्ने
किसलिये  ढूंढनी है 
कलम किस की है और कहाँ रखी है 

कुछ कहां हो रहा है
किसलिये बैचेन है
चैन ढूंढ और जमा कर पैमाने तक में 

लिखते चले जा
खाली गिलास खाली बोतल
किसने देखनी है किसकी है और कहाँ रखी है 

चैन और बेचैनी
रिश्ता बहुत पुराना है
खोज ना जा कर घर से लेकर मैखाने तक में 

मिलेगा जरूर
कुछ राख कुछ धुआँ
कुछ टुकड़े बचे बीड़ी के भी
कौन लिखता है हिसाब बही कहाँ रखी है 

बेचैनी  लिखने में भी दिख जाता है चैन
चैन से नहीं लिखा कर बैचनी यूँ ही खदानों तक में 

खोदना तुम को आता है
किसे मालूम है जरूरी है कुदालें भी किसे पता है कहाँ रखी हैं 

‘उलूक’ जानता है
चैन है ही नहीं कहीं सारे 
बेचैन हैं बताते नहीं हैं 

लिखा करना जरूरी है चैन
अपने लिये ना सही
बेचैन के लिये सही बेचैनी है पता है कहाँ रखी है।

चित्र साभार: https://webstockreview.net/

रविवार, 20 अप्रैल 2014

वोट देना है जरूरी बहुत महंगा वोट हो रहा है

बहुत ज्यादा नहीं
बस थोड़ा बहुत
ही तो हो रहा है
कहीं कुछ हो रहा है
तभी तो थोड़ा सा
खर्चा भी हो रहा है
आय व्यय
लेखा जोखा
कोई कहीं भी
बो रहा है
तुझे किस बात
की परेशानी है
तू किस के टके
पैसे के लिये
रो धो रहा है
देश का सवाल है
देश के लिये
ही हो रहा है
कुछ किताबों में
लिखा जा रहा है
कुछ बाहर बाहर
से ही इधर उधर
भी हो रहा है
मेहनत का नतीजा है
खून और पसीना
एक हो रहा है
पाँच साल में
पाँच सौ गुना
बताना जरा सोच कर
और किधर हो रहा है
शेयर बाजार में
उतार और चढ़ाव
इस से ही हो रहा है
तेरे देश के ही
नव निर्माण के लिये
नया बाजार नई दुकानों
और नये दुकानदारों
के साथ तैयार अब
फिर से हो रहा है
वोटरों की संख्या से
कुल खर्चे को भाग
क्यों नहीं दे रहा है
पता चलेगा तुझे
वोट का भाव
इस बार कितना
ज्यादा हो रहा है
पाँच साल में
हजार का करोड़
कहाँ हो रहा है
देश वाले ही हैं
जिनकी तरक्की में
तेरा योगदान भी
तो हो रहा है
उठ ‘उलूक’
दिन में बैठा
चैन से कैसे
तू सो रहा है
देने क्यों नहीं
जा रहा है वोट
वोट देने से
कौन सा कोई
शहीद हो रहा है ।

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

भूख भगा डबलरोटी सोच और सो जा


उसे ये बता कर 
कि कल रात से बगल में मेरे
वो भूखा है सोया हुआ
मुझे
अपनी आफत 
नहीं बुलानी है

जो एक्स्पायरी डेट 
छपे हुऎ
डिब्बा बंद 
खाना
बनाने की
तकनीक का कंंसेप्ट सीखकर

मेरे और
मेरे आस पास के
भूखे लोगों को
तमीज सिखाने भिजवाया गया है

वो
चाँद सोचता है
और बस चाँद ही खोदता है

भूखों के लिये
रोटी के सपने 
तैयार करने वाली मशीन का कंंसेप्ट
उसे 
देने वाला

अब
भूखों को उलझाता है
इधर जब
ये प्यार से झुनझुना बजाता है

इस तरह
उसपर से बोझ सारा
अपने ऊपर ले आता है

चिन्ता सारी 
त्याग कर
वो चैन से चाँद खोदने
चाँद की ओर चला जाता है

ऐसे ही धीरे धीरे
एक सभ्य समाज का निर्माण
हम 
भूखों के लिये हो जायेगा

क्योंकि
बहुत से 
लोगों को
चाँद 
सोचने का
मौका 
हथियाने का तमीज आ जायेगा

मैं और मेरे जैसे 
भूखे भी
सीख लेंगे
एक दिन चाँद की
तरफ देखने की हिम्मत कर ले जाना
और भूखे पेट
लजीज खाने के सपने बेच कर
चैन से सो जाना । 

चित्र साभार: https://publicdomainvectors.org/

रविवार, 10 जून 2012

लेखक मुद्दा पाठक


कोई
चैन से 
लिखता है
कोई बैचेनी 
सी दिखाता है

डाक्टर 
के पास 
दोनो ही
में से
कोई 
नहीं जाता है

लिख लेने 
को ही
अपना 
इलाज बताता है 



विषय
हर 
किसी का
बीमारी
है 
या नहीं 
की 
जानकारी 
दे जाता है

कोई मकड़ी 
की
टाँगों में 
उलझ जाता है

कोई किसी 
की
आँखों में 
घुसने का 
जुगाड़ बनाता है

किसी को 
सत्ता पक्ष 
से
खुजली 
हो जाती है

विपक्षियों 
की
उपस्थिति
किसी पर 
बिजली गिराती है

पाठक भी 
अपनी पूरी
अकड़ दिखाता है

कोई क्या 
लिखता है
उस पर 
कभी कभी
दिमाग लगाता है

जो खुद 
लिखते हैं
वो लिखते 
चले जाते हैं

कुछ नहीं 
लिखने वाले

इधर उधर 
नजर मारते
हुवे

कभी 
नजर आ जाते हैं

हर मुद्दे पर 
कुछ ना कुछ
लिखा हुवा 
मिल
ही जाता है

गूगल 
आसानी से 
उसका पता 
छाप ले जाता है

किसी को 
एक
पाठक भी 
नहीं मिल पाता है

कोई सौ सौ 
को लेकर
अपनी ट्रेन 
बनाता है

कुछ भी हो 
लिखना पढ़ना 
बिना रुके
अपने रास्ते 
चलता चला 
जाता है

मुद्दा भी 
मुस्कुराता है

अपने
काम पर 
मुस्तेदी से 
लगा हुवा

इसके बाद
भी 
नजर आता है।