उलूक टाइम्स: चौराहा
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मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

एक ही जैसी कहानी कई जगह पर एक ही तरह से लिखी जाती है कोई याद दिलाये याद आ जाती है

घर से शहर की
तरफ निकलते
एक चौराहा
हमेशा मिलता है
जैसे बहुत ही
नजदीक का कोई
रिश्ता रखता है
चौराहे के पास
पहुँचते ही हमेशा
सोचा जाता है
किस रास्ते से
अब चला जाये
सोचा ही जाता है
एक थोड़ा सा लम्बा
पर धीमी चढ़ाई
दूसरी ऊँची सीढ़ियाँ
नाम बावन सीढ़ी
पता नहीं कभी
रही होंगी बावन
पर अब गिनते
गिनते छप्पन
कभी ध्यान हटा
गिनने से तो
अठावन भी
हो जाती हैं
दो चार सीढ़ियाँ
ऊपर नीचे गिनती
में हो जाने से
कोई खास परेशानी
होती हो ऐसी भी
बात कभी कहीं
नजर नहीं आती है
पर कुछ जगहें
बहुत सी खास
बातों को लिये हुऐ
एक इतिहास ही
हो जाती हैं
भूगोल बदलता
चला जाता है
कुछ पुरानी बातें
कभी अचानक
एक दिन कब
सामने आ कर
खड़ी हो जाती हैं
बता के नहीं
आ पाती हैं
'बाबू जी दो रुपिये
दो चाय पियूँगी'
नगरपालिका की
एक पुरानी
सफाई कर्मचारी
हाथ फैलाती थी
पैसे मिले नहीं
आशीर्वादों की झड़ी
शुरु हो जाती थी
क्या मजबूरी थी
क्यों आती थी
उसी जगह पर
एक गली
शराब की दुकान
की तरफ भी
चली जाती थी
बहुत से लोग
निकलते थे
निकलते ही
चले जाते थे
कुछ नहीं देते थे
बस कहते जाते थे
क्यों दे रहे हो
शाम होते ही ये
शराब पीने को
चली जाती है
पर कभी देखी
नहीं किसी जगह
कोई औरत भी
लड़खड़ाती है
बहुत दिन से
खयाल किया है
इधर बुढ़िया अब
नजर नहीं आती है
सीढ़िया चढ़नी
ही पड़ती हैं
अक्सर चढ़ी जाती हैं
छोर पर पहुँचते
पहुँचते अँगुलियाँ
जेब में सिक्के
टटोलने शुरु
हो जाती हैं
पान से लाल
किये होठों वाली
उस औरत का
ख्याल आते ही
नजर शराब की
दुकान की तरफ
जाने वाली गली
की तरफ अनजाने
में मुड़ जाती हैं
पता नहीं किस
की सोच का
असर सोच
को ये सब
करवाती है ।