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शुक्रवार, 14 अगस्त 2020

अथ श्री बरगद कथा

 पता
नहीं चलता है 

मगर
कुछ लोग
समय के साथ
बरगद हो जाते हैं

ऐसा नहीं है
कि लोग
 बरगद होना नहीं चाहते हैं 

लोग
जन्म से 
बरगद ही होते हैं

बस
उगना
फिर बड़ा हो कर
विशाल आकार लेकर
आसमान और जमीन के बीच
फैल जाना

सब नहीं कर पाते हैं

कुछ
बरगद होकर
शुरु कर देते हैं

दूसरों को बरगद बनाना

इसे
 कार्यक्रम कहें या क्रियाकर्म
फर्क
ज्यादा नहीं होता है

पूरा ढिंढोरा
पीटा जाता है
समाज के हर बरगद हो चुकों को
न्यौता भेजा जाता है

नींव रखी जाती है
एक करोड़
बरगद के जंगल बनाने
और
सामाजिक पर्यावरण को बचाने

फिर
मजबूत किये जाने के
सपने दिखा कर
दूरगामी उद्देश्य का
एक बहुत बड़ा खाका
पेश किया जाता है

सांयकालीन सत्र में
अखबारी बरगदों के साथ
संगीतमय समां बंधवा कर
सुबह की खबरों का
ठेका दिया जाता है

ये सारा
खुलेआम किया जाता है
जोर शोर से पर्दे उखाड़ कर
प्रचारित प्रसारित किया जाता है

सभा समाप्त होती है
पर्दा गिरा दिया जाता है 

अब शुरु होता है
आकृष्ट करना
लोगों को
बरगद हो लेने के सुनहरे मौके का

एक
बरगदी सपना
फैलाया जाता है 
बरगद बनाने शुरु किये जाते हैं

सबसे पहले
जमीन की मिट्टी से
उसे अलग किया जाता है

चारों ओर से घेर कर
थोड़ी मिट्टी थोड़ा पानी थोड़ी हवा
की जगह में

एक
गमले में
बरगद होने के लिये
छोड़ दिया जाता है

समय काटने
के इन्तजामात
किये जाते हैं

बीच बीच में
पूरा जवान हो चुके
बरगद का चित्र दिखाया जाता है

ध्यान
बंटते ही
बढ़ते पनपते
जवान बरगद की
बढ़ती शाखाओं और जड़ों को
कलम कर दिया जाता है

बरगद बनता है
समय निकलता है 

बरगद
कब बोनसाई हो गया
‘उलूक’ 
बस ये
कोई नहीं जान पाता है

बस
ऐसे ही किसी दिन
एक नया
कोई
बरगद होने के सपने के जालों में
फंस कर चला आता है

बोनसाई
उखाड़ कर
कहीं फेंक दिया जाता है

एक
नया सपना
उगने फैलने
फिर
छंटने कटने के लिये
प्रस्तुत हो जाता है

अखबार सुबह का
 बरगद बनाने
और
जंगल उगाने के लिये
किसी को
सरकारी सम्मान मिलने के
समाचार से
पटा नजर आता है ।

चित्र साभार: https://www.patrika.com/

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रविवार, 20 अक्तूबर 2019

कबूतर को समझ आये हिसाब से अपने दिमाग से खुद को समझाये कबूतर



कुछ जंगल से शहर आये कबूतर
थोड़े शहर से शहर भगाये कबूतर

कुछ काले कुछ सफेद हो पाये कबूतर
थोड़े कुछ धोबी से रंग लगवाये कबूतर

कुछ पुराने घिसे घिसाये कबूतर 
कुछ नये पॉलिश लगवाये कबूतर

कबूतर कबूतर खेलने कबूतरों से 
ऊपर से कबूतर भिजवाये कबूतर

नीचे आ कबूतरों पर छा जाये कबूतर
कबूतर से कबूतर लड़वाये कबूतर

कुछ उड़ते जमीन में ले आये कबूतर
कुछ पैदल चलते उड़वाये कबूतर

कबूतरों के लिये कुछ कह जाये कबूतर
सुबह सबेरे समाचार हो जाये कबूतर

गुटुर गूँ गुटुर गूँ की 
चीर फाड़ करवाये कबूतर

हाय कबूतर हाय कबूतर 
कबूतर के पुतले जलवाये कबूतर

हाल-ए-कबूतरखाना 
सुनाता ‘उलूक’
कबूतर जोड़े घटाये कबूतर 
हासिल लगा जीरो पाये कबूतर ।

वैधानिक चेतावनी: किसी शिक्षण संस्थान से कबूतर का कोई समबन्ध नहीं है ।

चित्र साभार: https://www.theguardian.com

रविवार, 10 दिसंबर 2017

जानवर पैदा कर खुद के अन्दर आदमी मारना गुनाह नहीं होता है

किस लिये
इतना
बैचेन
होता है

देखता
क्यों नहीं है
रात पूरी नींद
लेने के बाद भी

वो दिन में भी
चैन की
नींद सोता है

उसकी तरह का ही
क्यों नहीं हो लेता है

सब कुछ पर
खुद ही कुछ
भी सोच लेना
कितनी बार
कहा जाता है
बिल्कुल
भी ठीक
नहीं होता है

नयी कुछ
लिखी गयी
हैं किताबें
उनमें अब
ये सब भी
लिखा होता है

सीखता
क्यों नहीं है
एक पूरी भीड़ से

जिसने
अपने लिये
सोचने के लिये
कोई किराये पर
लिया होता है

तमाशा देखता
जरूर है पर
खुश नहीं होता है

किसलिये
गलतफहमी
पाल कर
गलतफहमियों
में जीता है

कि तमाशे पर
लिख लिखा
देने से कुछ

तमाशा फिर
कभी भी
नहीं होता है

तमाशों
को देखकर
तमाशे के
मजे लेना
तमाशबीनों
से ही
क्यों नहीं
सीख लेता है

शिकार
पर निकले
शिकारियों को
कौन उपदेश देता है

‘उलूक’
पता कर
लेना चाहिये

कानून जंगल का
जो शहर पर लागू
ही नहीं होता है

सुना है
जानवर पैदा कर
खुद के अन्दर

एक आदमी को
मारना गुनाह
नहीं होता है ।

चित्र साभार: shutterstock.com

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

बुखार कैसा भी हो निकलता ही है कुछ बाहर बुदबुदाने में

बस चार
दिन की है
बची बैचेनी

फिर बजा
लेना बाँसुरी
लगा कर आग
रोम को पूरे

सब कुछ
बदल
जायेगा जब
बनेगी राख
देख लेना
मिचमिचाती
सी अगर
बन्द भी होगी
तब भी आँख

धुआँ खाँसेगा
खुद बूढ़ा
होकर जले
जंगल का
बहेगी नाक
आपदा के
पानी की
बहुत जोरों से

सारा हरा भूरा
और सारा भूरा
हरा हो लेगा
यूँ ही बातों
बातों के बीच

घुस लेंगे सारे
दीमक छोड़
कर कुतरना
जीते हुऐ और
मरे हुऐ को
जैसे थे जहाँ थे
की स्थिति में

उगना शुरु
होंगे जंगल
के जंगल
लदने लगेंगे
फल फूल
पौंधों में पेड़
बनने से
ही पहले

दौड़ेंगे उल्टे
पाँव बंदर
सुअर
और बाघ
घर वापसी
के लिये
खुशी से

दीवाली
के दीये
खनखनायेंगे
पुराने पीतल
के बने घर के
भरे लबलबा
तेल ही तेल से

उधरते घरों
के आंगन
में रम्भायेंगी
भैसें गायें और
बकरियाँ

सूखे खुरदरे
उधरते पहाड़ों
के हाड़ों से
निकलते
सारे के सारे
नदी धारे
दिखेंगे
छलछलाते

सपने बेचने
निकले हैं अपने
खुद के
लोग कुछ
थोड़े से
खरीददार
सारे सब
लगे हैं
साथ में
अपने

अपने
हिसाब से
अपनी
किताबें
पढ़ कर
समझ कर
गणित
दो में दो
जोड़ कर
करने पाँच
सात या
और
ज्यादा
जितना
हो सके
जहाँ तक

चल तैयार
हो ले तू भी
‘उलूक’
लगाने
स्याही
कहीं
थोड़ी सी
अपने भी
गवाही देगें
सुना हैं
रंग नाखूनों के
आने वाले
दिनो में
उत्सवों में
जीत के
पहाड़ों की।

चित्र साभार: Freepik

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

कभी लिख तो सही पेड़ जंगल मत लिख डालना लिखना बस एक या डेढ़ दो पेड़

पेड़ के इधर पेड़
पेड़ के उधर पेड़
बहुत सारे पेड़
एक दो नहीं
ढेर सारे पेड़
चीड़ के पेड़
देवदार के पेड़
नुकीली पत्तियों
वाले कुछ पेड़
चौड़ी पत्तियों
वाले कुछ पेड़
सदाबहार पेड़
पतझड़ में
पत्तियाँ झड़ाये खड़े
कई कई हजार पेड़
आदमी के आस
पास के पेड़
बहुत दूर
आदमी की पहुँच
से बाहर के पेड़
पेड़ के पास
के आदमी
आदमी और पेड़
पेड़ और आदमी
आदमी के
पास के आदमी
पेड़ के पास के
कुछ खुश
कुछ उदास पेड़
पेड़ से कुछ नहीं
कहते कभी
भी कुछ पेड़
आदमी से
कुछ नहीं लेते
कभी भी कुछ पेड़
आदमी से सभी कुछ
कह देते आदमी
जमीनों पर खुद ही
उग लेते
पनप लेते पेड़
जमीनों से कटते
उजड़ते पेड़
आदमी के
हाथ से कटते पेड़
आदमी के हाथ से
कटते आदमी
आदतन आदमी
के होते सभी पेड़
पेड़ को
जरूरत ही नहीं
पेड़ के होते
नहीं आदमी
पेड़ के होते
हुऐ सारे पेड़
पेड़ ने कभी
नहीं मारे पेड़
इंसानियत के
उदाहरण पेड़
इंसान के सहारे
एक ही नहीं
सारे के सारे पेड़
‘उलूक’ तेरी तो
तू ही जाने
किस ने तेरी सोच
में से आज
क्यों और
किसलिये
निकाले पेड़ ही पेड़ ।

चित्र साभार: imageenvision.com

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

लिखा होता है कुछ और ही और इशारे कुछ और जैसे दे रहा होता है

कारवाँ कुछ ऐसे
जिनके शुरु होने
के बारे में पता
नही होता है
ना ही पता होता है
उनकी मंजिल का
बस यूँ ही होते होते
महसूस होता है
शामिल हुआ होना
किसी एक ऐसी
यात्रा में जहाँ कहीं
कुछ नहीं होता है
आसपास क्या
कहीं दूर दूर
बहुत दूर तक
घने जंगल के बीच
पेड़ों के बीच से
आती रोशनी की
किरणों से बनते
कोन या फिर
सरसराती
हवाओं का शोर
गिरते पानी की
छलछलाहट
या फिर झिंगुरों
की आवाज
सबका अलग
अलग अपना
अस्तित्व
समझने की
जरूरत कुछ भी
नहीं होती है
फिर भी अच्छा सा
महसूस होता है
कभी कभी गुजर
लेना कुछ दूर तक
बहुत सारे चलते
कारवाओं के बीच
से चुपचाप
बिना कुछ कहे सुने
लिखते लिखते
बन चुके शब्दों के
कारवाओं के बीच
निशब्द कुछ शब्द
भी यही करते हैं
मौन रहकर कुछ
कहते भी हैं और
नहीं भी कहते हैं
समझने की कोशिश
करना हमेशा जरूरी
भी नहीं होता है
कभी कभी किसी का
लिखा कुछ नहीं भी
कह रहा होता है
पढ़ने वाला बस
एक नजर कुछ
देर बिना पढ़े
लिखे लिखाये
को बस देख
रहा होता है
समझ में कुछ
नहीं भी आये
फिर भी एक
सुकून जैसा कहीं
अंदर की ओर
कहीं से कहीं को
बह रहा होता है
महसूस भी कुछ
हो रहा होता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

सोमवार, 16 सितंबर 2013

बाघ तू तो खाली बाघ हो रहा है

सुबह से शोर
मच रहा है
शहर के किसी
मौहल्ले में आज
झाड़ियों के बीच
एक बाघ
दिख रहा है
ऐसा आज
पहली बार
नहीं हो रहा है
कि बाघ आबादी
के बीच में
आकर के
घुस रहा है
या तो बाघ
जंगल में बहुत
हो रहे हैं
या जंगल में
बाघ बहुत
बोर हो रहे हैं
इसीलिये शायद
जंगल छोड़
शहर की ओर
हो रहे हैं
बाघ को कौन
समझाये जाकर
कि शहर के लोग
भी अब बहुत
बाघ हो रहे हैं
बाघ कुछ भी
नहीं है
उनके सामने
बताया नहीं
जा सकता कि
वो कितने
घाघ हो रहे हैं
कंकरीट के जंगल
शहर में हर ओर
बो रहे हैं
बाहर से मुलायम
दिखा कर अंदर से
कठोर हो रहे हैं
बाघ माना कि
तेरे पास खाने को
नहीं हो रहा है
तभी तो तू शहर
की ओर हो रहा है
शहर में लेकिन
बस वो ही बाघ
हो रहा है
जिसका पेट पूरे
गले गले तक
भरा हो रहा है
तू तो बाघ है
और रहेगा भी
बाघ हमेशा ही
पर वो जब जब
लाल देख रहा है
तब तब वो एक
बाघ हो रहा है ।

सोमवार, 29 जुलाई 2013

सभी देखते हैं, मोर नाचते हैं. कितने बाँचते हैं !

सभी को दिखाई
दे जाते हैं रोज
कहीं ना कहीं
कुछ मोर उनके
अपने जंगलों
में नाचते हुऎ
सब लेकिन
कहाँ बताते है
किसी और को
जंगल में मोर
नाचा था और
उन्होने उसे
नाचते हुए
देखा था
बस एक तेरे
ही पेट में
बातें जरा सा
रुक नहीं
पाती हैं
मोर के नाच
खत्म होते ही
बाहर तुरंत
निकल के
आती हैं
पता है तू
सुबह सुबह
जंगल को
निकल के
चला जाता है
शाम को लौट
के आते ही
मोर के नाच
की बात रोज
का रोज यहाँ
पर बताता है
बहुत सारे
मोर बहुत से
जंगलो में रोज
नाचते हैं
बहुत सारे
लोग मोर
के नाच को
देखते हैं फिर
मोर बाँचते हैं
कुछ मोर
बहुत ही
शातिर माने
जाते हैं
अपने नाचने
की खबर
खुद ही
आकर के
बता जाते हैं
क्यों बताते हैं
ये बात
सब की
समझ में
कहाँ आ
पाती है
कभी दूसरे
किसी जंगल
से भी एक
मोर नाचने
की खबर
आती है
यहाँ का
एक मोर
वहां बहुत
दिनो से
नाच रहा है
कोई भी
उसके नाच
को पता
नहीं क्यों
नहीं बाँच
रहा है
तब जाके
हरी बत्ती
अचानक ही
लाल हो
जाती है
बहुत दिनों
से जो बात
समझ में
नहीं आ
रही थी
झटके में
आ जाती है
मोर जब
भी कहीं
और किसी
दूसरे जंगल
में जाना
चाहता है
अपना नाच
कहीं और
जाकर दिखाना
चाहता है
जिम्मेदारी
किसी दूसरे को
सौंपना नहीं
चाहता है
बिना बताये
ही चला
जाता है
बस दूसरे
मोर को
जंगल में
नाचते रहना
का आदेश
फोन से
बस दे
जाता है
इधर उसका
मोर नाच
दिखाता है
उधर उसका
भी काम
हो जाता है
सब मोर
का नाच
देखते हैं
किसी को
पता नहीं
चल पाता है ।

रविवार, 12 मई 2013

अच्छी सोच छुट्टी के दिन की सोच

अखबार आज
नहीं पढ़ पाया


हौकर शायद
पड़ौसी को
दे आया


टी वी भी
नहीं चल पाया
बिजली का
तार बंदर ने
तोड़ गिराया


सबसे अच्छा
ये हुआ कि
मै काम पर
नहीं जा पाया


आज
रविवार है
बड़ी देर में
जाकर
याद आया


तभी कहूँ
आज सुबह
से अच्छी बातें
क्यों सोची
जा रही हैं


थोड़ा सा
रूमानी
हो जाना
चाहिये
दिल की
धड़कन
बता रही है


बहुत कुछ
अच्छा सा
लिखते हैं
कुछ लोग


कैसे
लिखते होंगे
बात अब
समझ में
आ रही है


लेखन
इसीलिये
शायद
कूड़ा कूड़ा
हुआ
जा रहा है


अखबार हो
टी वी हो
या समाज हो
जो कुछ
दिखा रहा है


देखने
सुनने वाला
वैसा ही होता
जा रहा है


कुछ
अच्छी सोच
से अगर अच्छा
कोई लिखना
चाह रहा है


अखबार
पढ़ना छोड़
टी वी बेच कर
जंगल को क्यों
नहीं चले
जा रहा है ?

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

मुख्य पृष्ठ का मुख्य समाचार हल्द्वानी शहर में घुसा तेंदुआ कह रहा है आज हर अखबार

अखबारों ने सारे
आज मुख्य पृष्ठ पर
जंगल का तेंदुआ
शहर के बीच
में घुसा हुआ
एक दिखाया
जंगल के ठेकेदारों
को बुलवा कर
पिंजरे में उस
बेचारे को
जबरदस्ती कर
फिर फंसवाया
लिखा था
फिर से जंगल में
लेजाकर
छोड़ दिया जायेगा
बहुत सारे
तेंदुओं से
मिल लिया है
यहाँ आकर
दुबारा से
हिम्मत करके भी
यहाँ कभी ही
शायद आयेगा
उसे कहाँ पता था
जंगल के तेंदुऎ
धोखेबाजी करके
यहाँ रोज ही
फसाये जाते हैं
शहर में भी
तो हैं तेंदुऎ
जो रोज अखबार
में दिखाये जाते हैं
पर तेंदुऎं है
करके कभी
बताये तक
नहीं जाते हैं
पिंजरे उनके लिये
कहीं भी कभी भी
नहीं लगाये जाते हैं
शिकार घेर घेर कर
उनके लिये ले जाये
जरूर जाते हैं
कुछ बेवकूफ खुद
बा खुद उनकी
माँद में जा कर
घुस जाते हैं
शिकार हो जाते हैं
और मुस्कुराते हैं
कुछ इलाके
कुछ तेंदुओं
के लिये
छोड़ दिये
जाते हैं
एक इलाके
के तेंदुऎ
दूसरे के इलाके
की तरफ आँख
भी नहीं उठाते हैं
सारे तेंदुऎ
नोचते हैं
भरे हुए पेटों से
जो कुछ भी
नोच पाते हैं
खुले आम
शहर के बीच
सड़क
चलती जनता
को भी वो
जरूर ही
नजर आते हैं
नोच खसोट करते
हुऎ ये सारे तेंदुऎ
अखबार में भी
दिखाये जाते हैं
पर ये भी तेंदुऎ हैं
करके कभी भी
किसी को बताये
तक नहीं जाते हैं ।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

क्षमा विष्णु शर्मा : संशोधन पञ्चतन्त्र के लिये


कल
की दावत में 
बस लोमड़ी दिखी थाली के साथ

पर
नजर नहीं आया 
कहीं बगुला अपनी सुराही के साथ 

विष्णु शर्मा 
तुम्हारा पञ्चतन्त्र 
इस जमाने में पता नहीं क्यों 
थोड़ा सा कहीं पर कतरा रहा है 

पैंतरे 
दिखा दिखा कर के नये 
नये छेदों से पता नहीं 
कहाँ से कहाँ घुस जा रहा है 

कुछ दिनों से 
क्योंकि
लोमड़ी और बगुला साथ नजर आ रहे हैं 

दावत में 
एक दूसरे को अपने अपने
घर भी नहीं बुला रहे हैं 

किसी तीसरी जगह 
साथ साथ दोनो अपनी उपस्थिति 
जरूर दर्ज करा रहे हैं 

लोमड़ी
अपनी थाली ले कर चली आ रही है 

बगुला भी 
सुराही दबाये बगल में 
दिख जा रहा है 

ना बगुला 
अपनी सुराही 
लोमड़ी की तरफ बढ़ाता है 

ना ही लोमड़ी
बगुले को 
थाली में खाने के लिये बुलाती है 

पर मजे की बात है 
दोनो ही मोटे होते जा रहे हैं 

दोनो ही 
कुछ ना कुछ लेकिन जरूर खा रहे हैं 

बहुत 
समझदार 
हो गये हैं सारे जानवर जंगल के 

विष्णु शर्मा जी 
फिर से आ जाओ 
नया पञ्चतन्त्र लिखो और देख लो 

जंगल राज 
कैसे जंगल से 
आदमी में घुस के आ गया है 

और 
जानवर 
आदमी बन के आदमी के अंदर 
पूरा का पूरा छा गया है । 

चित्र साभार: https://hubpages.com/

शुक्रवार, 1 जून 2012

मुर्गी की दाल

समझदार मुर्गी
अपनी सूरत
और सेहत को
कभी नहीं
बढा़ती है
दुश्मनी होती है
जिस मुर्गी से
उसे खूब
खिलाती और
पिलाती है
वैसे तो हर बाडे़
में मुर्गियाँ ही
मुर्गियाँ हर तरफ
फड़फडा़ती हैं
लेकिन हर मुर्गी
की तरफ हर
किसी की नजर
कहाँ जाती है
ये वाकई
समझदारी
की बात सभी
के द्वारा
बताई जाती है
एक कानी मुर्गी
ही मुर्गियों के
द्वारा रानी
चुनवायी जाती है
बाड़े की सेहतमंद
खूबसूरत मुर्गी
सबकी नजर में
लाई जाती है
चाहने वालों
के हाथों कहीं
ना कहीं कटवा
दी जाती है
मर खप
जब जाती है
फिर पकवाई
भी जाती है
खाने वालों के
नखरे सहती है
और दाल
बताई जाती है
कानी मुर्गी
इसी बीच कहीं
जंगल में जाकर
नाच आती है
जंगल में मोर
नाचा की
एक खबर
अखबार
में आती है
कितने आसान
तरीके से
घर की मुर्गी
दाल बराबर
सबको समझा
जाती है।

सोमवार, 23 अप्रैल 2012

आहा मेरा पेड़

मुर्गे
मुर्गियां
कबूतर तीतर
मेरे पेड़ की
एक मिसाल हैं

हर एक
अपना
अपनी
जगह पर
धर्म निभाते हैं

मुर्गियां
मुर्गियों के साथ
कबूतर
कबूतर के साथ
हमेशा
ही पाये जाते हैं
कव्वे
कव्वों से ही
चोंच लड़ाते हैं
धर्म
निरपेक्षता का एक
उत्तम
उदाहरण दिखाते हैं

जंगल के
कानून
किसी को भी
नहीं पढ़ाये जाते हैं
बड़े छोटे
का कोई भेद
नहीं किया जाता है
कभी कभी
उल्लू को भी
राजा बनाया जाता है

कोई
झगड़ा फसाद
नहीं होता है
मेरे पेड़ पर कभी
सरकारी चावल
ताकत के अनुसार
घौंसलों में ही
पहुंचा दिया जाता है

पेड़
के अंदर
कोई लाल बत्ती
नहीं लगाता है

जंगल
जाने पर ही
लाल बत्ती है करके
बस शेर को ही बताता है

कोई किसी
को कभी
थोड़ा सा भी
नहीं डराता है
जिसकी जो
मन में आये
कर ले जाता है

बहुत ही
भाईचारा है,
आनन्द ही
आ जाता है
साल के
किसी दिन जब
सफेद कौआ
काले कौऎ को
साथ लेकर
कबूतर के
घर जाता हुवा
दिखाई दे जाता है।

मंगलवार, 13 मार्च 2012

मिल गया मिल गया .. लीडर

बिल्लियों
की
लड़ाई में
बंदर रोटी
खा गया

बिल्लियों
के
रिश्तेदारों
को
बहुत रोना
आ गया

यहाँ का
बंदर
मलाई खुद
जब
खाता नहीं

बिल्लियों
को बंदर
इसी लिये
भाता नहीं

साँस्कृतिक
जंगल में
उदासी सी
छा गयी

बहुत से
जानवरों
को
मूर्छा जैसी
आ गयी

आगे
बंदर अब
बिल्लियों
को नचायेगा
या
बिल्लियों द्वारा
बंदर
फंसाया जायेगा

यह तो
आने वाला
समय ही
बता पायेगा

लेकिन
अफसोस

बहुत सी
स्थानीय
बिल्लियों
का कटोरा
वापिस
पांच साल
के लिये
फिर से
उल्टा
हो जायेगा

मुझे
वाकई में
बहुत ही
रोना आयेगा ।

बुधवार, 15 फ़रवरी 2012

सारे कुकुरमुत्ते मशरूम नहीं हो पाते हैं

जंगल
में उगते हैं

कुकुरमुत्ते

कोई
भाव नहीं
देता है

उगते
चले
जाते हैं


बिना
खाद
पानी के

शहर
में सब्जी
की दुकान पर

मशरूम
के नाम पर

बिक जाते हैं
कुकुरमुत्ते

अच्छे
भाव के साथ

चाव से
खाते हैं लोग

बिना
किसी डर के

गिरगिट
की तरह
रंग
बदल लेना

या फिर

कुकुरमुत्ता
हो जाना

होते
नहीं हैं
एक जैसे

बहुत से
गिरगिट

रंग बदलते
चले जाते हैं

इंद्रधनुष
बनने की
चाह में

पर उन्हेंं
पता ही
नहीं चल
पाता है

कि
वो

कब
कुकुरमुत्ते
हो गये

कुकुरमुत्तों
की भीड़
में उगते हुवे

मशरूम
भी नहीं
हो पाये।

सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

बाघ

जंगल में बाघ कम
होते जा रहे हैं
इस बात से लोग
आदमी को डरा रहे हैं
पहाड़ो में बाघ ने
आजकल आदमी
खाना भी शुरू कर
दिया है
फिर बाघ के कम
होने पर तो खुशी
होनी चाहिये
आदमी तो मातम
मना रहा है
तमाम तरह के
उपाय अपना
रहा है
बाघ का समाप्त होना
आदमी के लिये
खतरे की घंटी है
बताया जा रहा है
बाघ इस बात से
बेखबर होकर
फिर भी कस्बों
शहर की ओर
आ रहा है
खामखाह में
मारा जा रहा है
अरे कोई बाघ
को समझाने
क्यों नहीं जा
रहा है
बाघ को जंगल में
ही जाना चाहिये
बाघ ही को मार के
खाना चाहिये
जैसे आदमी आदमी
को खा रहा है
फिर भी संख्या में
दिन पर दिन
बढ़ता जा रहा है।

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

बंदर

बंदर
अब जंगल में
नहीं पाये जाते हैं

पहाड़
के कस्बे में
कूड़े के ढेर पर
खाना ढूंढते हुऐ
देखे जाते हैं

बंदर
देख रहा है
गाँव के घर को
टूटता हुवा

गाँव
के लोगों को
मैदान की ओर
फूटता हुवा

बंदर
को भी
आदमी का
व्यवहार

अब
बहुत अच्छी
तरह समझ मेंं
आने लगा है

नकलची बंदर

कोशिश कर
अपने को
आदमी ही
बनाने लगा है

ऎसा ही
होता रहा
तो वो दिन
दूर नहीं

जब
आप देखेंगे
बंदर सपरिवार
पहाड़ छोड़
देहरादून को
जाने लगा है

वैसे भी
बंदर अब
बंदर नहीं
रह गया है

प्राकृतिक
भोजन और
रहन सहन के बिना

अब
आदमी जैसा
ही हो गया है

बंदर
के बच्चे
बच्चों की
तरह प्यारे
कोमल
दिखाई दिया
करते थे कभी

कूड़े
के ढेर से
शुरू किया
है पेट भरना
बंदर ने जब से

बच्चे
भी हो गये हैं
उसके बूढे़ से
रूखे सूखे से तब से

आदमी
का बच्चा
भी दिखने लगा
है जैसा अभी

बंदर
जानता है
आदमी ने
पहाड़ को
बनाना नहीं है

जंगल
को पनपाना
भी नहीं है

आदमी
तो व्यस्त है

खबरे सिलने
बनाने में

बंदर के
उजड़ने
की खबर
अखबार टी वी
पर दिखाने में

जंगल
पर डाक्यूमेंटरी
बनवाने में

जानवरों
के नाम पर
फंड उगवाने में

एन जी ओ
चलाने में

बंदर ने भी
छोड़ दिया
आदमी पर
करना विश्वास

जंगल
को छोड़
बंदर चल दिया
लेकर एक नयी आस

बनाने
मैदानी शहर में
एक आलीशान
आशियाना

इससे पहले
आदमी
समझ सके
बंदर समझ चुका है

और बंदर
को भी ना पडे़
कुछ भी
अपनी तरफ से
फाल्तू में
उसको समझाना।

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

हाथी का स्वागत है।

पेडो़ के कटने से
जंगल के हटने से
हाथी परेशान है
खाने की कमी है
इसलिये गांव की
तरफ रुझान है
आदमी से टकरा रहा है
आदमी उसको
जंगल को भगा रहा है
मैदान में घमासान है
पहाड़ तो पहाड़ हैं
रह गये सिर्फ हाड़ हैं
खबर कुछ नई
इस प्रकार है
हाथी भी अब
पहाडो़ पर आने
को तैयार है
ये खुशी की बात है
यहां जगह की
बहुत इफरात है
आदमी को पहाड़
से वैसे भी क्या
काम है
हाथी यहाँ आयेगा
चैन की बंसी बजायेगा
आदमी वैसे भी
यहां बहुत दिनो
तक अब नहीं
टिक पायेगा
सरकार का सर दर्द
भी जायेगा
फिर गैरसैंण कोई
नहीं चिल्लायेगा
जंगल को बचायेंगे
हाथी का पहाड़ मे
बड़ा घर बनायेंगे
कुछ खुद ही चले
जा रहे हैं पहाड़ से
बचे कुचे लोगों को
मिलकर हम भगायेंगे
पहाड़ को बचायेंगे।