उलूक टाइम्स: तिरछी
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रविवार, 25 मई 2014

रेखाऐं खींच कर कह देना भी कहना ही होता है

पूरी जिंदगी
ना सही
कुछ ही दिन
कभी कभी
कुछ आड़ी तिरछी
सौ हजार ना सही
दो चार पन्नों
में ही कहीं
पन्ने में नहीं
कहीं किसी दीवार
में ही सही
खींच कर
जरूर जाना
जाने से पहले
जरूरी भी
नहीं है बताना
वक्त बदलता है
ऐसा सुना है
क्या पता
कोई कभी
नाप ही ले
लम्बाईयाँ
रेखाओं की
अपनी सोच
के स्केल से
और समझ में
आ जाये उसके
कुछ बताने के लिये
हमेशा जरूरी
नहीं होती हैं
कुछ भाषाऐं
कुछ शब्द
दो एक सीधी
रेखाओं के
आस पास
पड़ी रेखाऐं
होना भी
बहुत कुछ
कह देता है
हमेशा नहीं
भी होता होगा
माना जा सकता है
पर कभी कहीं
जरूर होता है
समझ में आते ही
एक या दो
या कुछ और
रेखाऐं रेखाओं के
आसपास खींच देने
वाला जरूर होता है
रेखाऐं बहुत मुश्किल
भी नहीं होती हैं
आसानी से समझ
में आ जाती है
बहुत थोड़े से में
बहुत सारा कुछ
यूँ ही कह जाती हैं
जिसके समझ में
आ जाती हैं
वो शब्द छोड़ देता है
रेखाओं का
ही हो लेता है ।