उलूक टाइम्स: दर्द
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शनिवार, 18 जुलाई 2015

खिंचते नहीं भी हों इशारे खींचने के लिये खींचने जरूरी होते हैं

थोड़े कुछ
गिने चुने
रोज के वही
उसी तरह के
जैसे होते हैं
खाने पीने
के शौकीन
जैसे कहीं किसी
खाने पीने की
जगह ही होते हैं
यहाँ ना ढाबा
ना रोटियों पराठों
का ना दाल मखानी
ना मिली जुली सब्जी
कुछ कच्ची कुछ
पकी पकाई बातें
सोच की अपनी
अपनी किसी की
किताबें कापियाँ
कलम पेंसिल
दवात स्याही
काली हरी लाल
में से कुछ कुछ
थोड़े बहुत
मिलते जुलते
जरूर होते हैं
उम्र के हर पड़ाव
के रंग उनके
इंद्रधनुष में
सात ही नहीं
हमेशा किसी के
कम किसी के
ज्यादा भी होते हैं
दर्द सहते भी हैं
मीठे कभी कभी
नमकीन कभी तीखे
दवा लिखने वाले
सभी तो नहीं होते हैं
बहुत कुछ टपकता है
दिमाग से दिल से
छलकते भी हैं
सबके हिसाब से
सभी के शराब के
जाम हों जरूरी
नहीं होते हैं
कहना अलग
लिखना अलग
पढ़ना अलग
सब कुछ छोड़ कर
कुछ के लिये
किसी के कुछ
इशारे बहुत होते हैं
कुछ आदतन
खींचते हैं फिर
सींचते हैं बातों को
‘उलूक’ की तरह
बेबात के पता
होते हुऐ भी
बातों के पेड़ और
पौंधे नहीं होत हैं ।

चित्र साभार: all-free-download.com

बुधवार, 3 जून 2015

आदमी तेरे बस के नहीं रहने दे चीटीं से ही कुछ कभी सीख कर आया कर

तेरे पेट में
होता है दर्द
होता होगा
कौन कह रहा है
नहीं होता है
अब सबके पेट
में दर्द हो
सब पेट के
दर्द की बात करें
ऐसा भी कैसे होता है
बहुत मजाकिया है
मजाक भी करता है
तो ऐसी करता है
जिसे मजाक है
सोचने सोचने तक
इस पर हँसना भी है
की सोच आते आते
कुछ देर तक ठहर कर
देख भाल कर
माहौल भाँप कर
वापस भी चली जाती है
और उसके बाद सच में
कोई मजाक भी करता है
तब भी गुस्से के मारे
आना चाह कर भी
नहीं आ पाती है
सबके होता है दर्द
किसी का कहीं होता है
किसी का कहीं होता है
सभी को अपने अपने
दर्द के साथ रहना होता है
दर्द की राजनीति मत कर
अच्छे दर्द के कभी आने
की बात मत कर
फालतू में लोगों का
समय बरबाद मत कर
दर्द होता है तो
दवा खाया कर
चुपचाप घर जा कर
सो जाया कर
बुद्धिजीवी होने का
मतलब परजीवी
हो जाना नहीं होता है
सबको चैन की
जरूरत होती है
अपना दिमाग किसी
तेरे जैसे को
खिलाना नहीं होता है
लीक को समझा कर
लीक पर चला कर
लीक से हटता भी है
अगर
तो कहीं किसी को
बताया मत कर
चीटिंया जिंदा चीटी को
नुकसान नहीं पहुँचाती हैं
चीटियाँ उसी चींटी को
चट करने जाती हैं
जो मर जाती है ।

चित्र साभार: sanbahia.blogspot.com

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

फिर किसी की किसी को याद आती है और हम भी कुछ गीले गीले हो लेते हैं

कदम
रोक लेते हैं
आँसू भी
पोछ लेते हैं

तेरे पीछे नहीं
आ सकते हैं
पता होता है

आना चाहते हैं
मगर कहते कहते
कुछ अपने ही
रोक लेते हैं

जाना तो हमें भी है
किसी एक दिन के
किसी एक क्षण में

बस इसी सच को
झूठ समझ समझ कर
कुछ कुछ जी लेते हैं

यादें होती हैं कहीं
किसी कोने में
मन और दिल के

जानते बूझते
बिना कुछ ढकाये
पूरा का पूरा
ढका हुआ जैसा ही
सब समझ लेते हैं

कुछ दर्द होते है
बहुत बेरहम
बिछुड़ने के
अपनों से
हमेशा हमेशा
के लिये

बस इन्हीं
दर्दों के लिये
कभी भी कोई
दवा नहीं लेते हैं

सहने में
ही होते हैं
आभास उनके

बहुत पास होने के
दर्द होने की बात
कहते कहते भी
नहीं कहते हैं

कुछ आँसू इस
तरह के ठहरे हुऐ
हमेशा के लिये
कहीं रख लेते हैं

डबडबाते से
महसूस कर कर के
किसी भी कीमत पर
आँख से बाहर
बहने नहीं देते हैं

क्या करें
ऐ गमे दिल
कुछ गम
ना जीने
और
ना कहीं
मरने ही देते हैं

बहुत से परदे
कई नाटकों के
जिंदगी भर
के लिये ही
बस गिरे रहते हैं

जिनको उठाने
वाले ही हमारे
बीच से
पता नहीं कब
नाटक पूरा होने से
बस कुछ पहले ही
रुखसती ले लेते हैं ।

"750वाँ उलूक चिंतन:  आज के 'ब्लाग बुलेटिन' पर"

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

आँख में ही दिखता है पर बाजार में भी बिकता है अब दर्द

आँख में झाँक कर
दिल का दर्द
देख कर आ गया
मुझे पता है तू
अंदर भी बहुत सी
जगहों पर जा कर
बहुत कुछ देख सुन
कर वापस आ गया
कितना तुझे दिखा
कितना तूने समझा
मुझे पता नहीं चला
क्योंकि आने के बाद
तुझसे कुछ भी कहीं भी
ऐसा कुछ नहीं कहा गया
जिससे पता चलता
किसी को कि
तू गया तो
इतने अंदर तक
कैसे चला गया
और बिना डूबे ही
सही सलामत पूरा
वापस आ गया
जमाने के साथ
नहीं चलेगा तो
बहुत पछतायेगा
किसी दिन अंदर गया
वाकई में डूब जायेगा
वैसे किसी की
आँखों तक
नहीं जाना है
जैसी बात
किसी किताब
ने बताई नहीं है
कुऐं के मुडेर से
रस्सी से पानी
निकाल लेने में
कोई बुराई नहीं है
बाल्टी लेकर कुऐं
के अंदर भी जाते थे
किसी जमाने के लोग
पर अब कहीं भी
उस तरह की साफ
सफाई और
सच्चाई नहीं है
आ जाया कर
आने के लिये
किसी ने नहीं रोका है
पर दलदल में उतरने में
तेरी भी भलाई नहीं है
जो दिखता है
वो होता नहीं
जो होता नहीं
उसी को बार बार
दिखाने की रस्म
लगता है अभी तक
तुझे किसी ने भी
समझाई नहीं है
कितने जमाने
गुजर गये और
तुझे अभी तक
जरा सी भी
अक्ल आई
नहीं है ।

शुक्रवार, 21 जून 2013

मदद कर मदद के लिये मत चिल्ला



अरे !
तू तो
मत चिल्ला
हमेशा ही तो
है यहाँ रहता
तू थोडे़ ना
है कहीं फंसा
अपनी गिनती
आपदाग्रस्तों में
मत करवा
मान भी जा
सड़कें बह गयी
सब पानी में
तो क्या हुआ
कहीं को मत जा
सैलानियों की
मदद कर
आधे बड़ आ
राष्टृ की धारा में
हमेशा ही है
जब तू बहा
छोटी बात
इस समय
तो मत उठा
पहाडी़ पहाडो़
का दर्द समझ
बस पहाडी़
राज्य एक बना
देश के नाम
पर करता रहा है
हमेशा जब तू
जान कुर्बान
आज भी मौका
जब मिला है
शहीद हो जा
वैसे भी करना है
एक दिन यहाँ
से पलायन तुझे
घर बह गया तेरा
अच्छा हुआ
खंडहर की
फोटो बनने
से तो रह गया
कल वो सड़क
फिर बनायेगा
कुछ अपना लेगा
कुछ ऊपर
दे आयेगा
तू फिर से
मंदिर को सजा
धार्मिक पर्यटन की
सोच को बढा़
हिमालय के रंग
अभी भी बदलेंगे
सूरज के साथ
हमेशा की तरह
कुछ नये पोस्टर
और छपवा
देश पर आयी
है आफत जब
कभी पहले भी
तूने कभी
कदम पीछे
कहाँ है खीँचा
एक बार फिर
कदमताल करने
का मन बना
वक्तव्य छप
रहे हैं चुनिंदा
यहाँ छपे
हैं जो आज
कल के
अखबार में
तू भी
कोशिश कर
एक दो
कमेंट दे जा
फेसबुकिया
ट्विटिया
कुछ भी कर ले
बस हल्ला
मत मचा ।

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

पकौड़ी




दर्द जब होता है हर कोई दवाई खाता है
तुझे क्या ऎसा होता है कलम उठाता है ।

रोशनी के साथ मिलकर ही इंद्रधनुष बनाता है
अंधेरे में आँसू भी हो तो पानी हो जाता है ।

सपना देखता है एक तलवार चलाता है
लाल रंग की स्याही देखते ही डर जाता है ।

सोच को चील बना ऊँचाई पर ले जाता है
ख्वाब चीटियों से भरा देख कर मुर्झाता है ।

हुस्न और इश्क की कहानी बहुत सुनाता है
अपनी कहानी मगर हमेशा भूल जाता है ।

बहुत सोचने समझने के बाद समझाता है
समझने वाला हिसाब लेकिन खुद लगाता है ।

दुखी होता है जब जंगल निकल जाता है
डाल पर उल्लुओं को देख कर मुस्कुराता है ।

रोज का रोज मान लिया जलेबी बनाता है
पकौड़ी बन गई कभी किसी का क्या जाता है ।
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 जलेबी तो हो गयी पकौड़ी 

अब इस पर

रविकर जी की

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मजा लीजिये





रोज जलेबी खा रहा, हो जाता मधुमेह |
इसीलिए दिखला रहा, आज पकौड़ी नेह |

आज पकौड़ी नेह, खूब चटकारे मारे |
लेता जम के खाय, रात बार बड़ा डकारे |

सके न चूरन फांक, जगह जो पूरी फुल है |
बैठा जाके शाख, यही तो इसका हल है ||
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चित्र साभार: 
peurecipes.blogspot.com