उलूक टाइम्स: दिमाग
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सोमवार, 20 अप्रैल 2020

पढ़ता कोई नहीं अपनी आँखों से सब पढ़ कर कोई और सुनाता है



बकवास करने में
कौन सा क्या कुछ चला जाता है 
फिर आजकल
कुछ कहने सुनने क्यों नहीं आता है 

सूरज रोज सुबह
और चाँद शाम को ही जब आता है 
अभी का अभी लिख दे
सोचने में दिन निकल जाता है 

खबरें बीमार हैं माना सभी
अखबार बीमार नजर आता है
नुस्खा बकवास भी नहीं होती
 बक देने में क्या जाता है 

ताला लगा है घर में
दिमाग बन्द हुआ जाता है 
खुले दिमाग वालों को
भाव कम दिया जाता है 

थाली में सब है
गिलास में भी कुछ नजर आता है 
भूख से नहीं मरता है कोई
मरने वालों में कब गिना जाता है 

सब कुछ लिखा होता है चेहरे पर
चेहरा किताब हो जाता है 
पढ़ना किस लिये अपनी आँखों से
सब पढ़ कर कोई और सुनाता है 

बकवास हो गया खुद एक ‘उलूक’
बकवास करना चाहता है 
खींचते ही लकीरों में चेहरा कविता का
मुँह चिढ़ाना शुरु हो जाता है।
चित्र साभार: https://favpng.com/

सोमवार, 2 सितंबर 2019

मुखौटों के ऊपर मुखौटा कुछ ठीक से बैठता नहीं ‘उलूक’ चेहरा मत लिख बैठना कभी अपना शब्दों पर




एक
भीड़
लिख रही है 

लिख रही है
चेहरे
खुद के 

संजीदा
कुछ
पढ़ लेने वाले

अलग
कर लेते हैं

सहेजने
के लिये 

खूबसूरती
किसी भी
कोण से 

बना लेते हैं
त्रिभुज
या
वर्ग 

या
फिर
कोई भी
आकृति

सीखने में
समय
लगता है 
सीखने वाले को

पढ़ने वाले 
के
पढ़ने के
क्रम

जहाँ
क्रम होना
उतना 
जरूरी नहीं होता 

जितना
जरूरी होता है 

होना
चेहरा
एक अ‍दद 

जो
ओढ़ सके
सोच 

चेहरे के
ऊपर से 

पढ़ने
वाले की
आँखों की 

आँख से
सोचने वालों
को

जरूरत
नहीं होती
दिल
और
दिमाग की 

‘उलूक’
कभाड़
और
कबाड़ में 

कौन
शब्द सही है
कौन गलत 

कोई
फर्क
नहीं पड़ता है 

लगा रह
समेटने में 
लिख लिखा कर
एक पन्ना

संजीदगी
से
संजीदा
सोच का 

बस
चेहरा
मत दे देना
अपना

कभी
किसी
लिखे के ऊपर 

मुखौटों के ऊपर
मुखौटा
कुछ
ठीक से
बैठता नहीं।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com

बुधवार, 25 जुलाई 2018

दिमाग बन्द करते हैं अपने चल पढ़ाने वाले से पढ़ कर के आते हैं

बहुत
लिख लिया
एक ही
मुद्दे पर
पूरे महीने भर

इस
सब से
ध्यान हटाते हैं


शेरो शायरी
कविता कहानी
लिखना लिखाना
सीखने सिखाने
की किसी दुकान
तक हो कर
के आते हैं

कई साल
हो गये
बकवास
करते करते
एक ही
तरीके की

कुछ नया
आभासी
सकारात्मक
बनाने
दिखाने
के बाद
फैलाने का भी
जुगाड़ अब
लगाते हैं

घर में
लगने देते हैं आग
घुआँ सिगरेट का
समझ कर पी जाते हैं

बची मिलती है
राख कुछ अगर
इस सब के बाद भी

शरीर
में पोत कर खुद ही
शिव हो जाते हैं

उसके
घर की तरफ
इशारे करते हैं

जाम
इल्जाम के बनाते हैं

नशा हो झूमे शहर
बने एक भीड़ पागल
इस सब के पहले

अपने घर के पैमाने
बोतलों के साथ
किसी मन्दिर की
मूरत के पीछे
ले जाकर छिपाते हैं

बरसात
का मौसम है
बादलों में चल रहे
इश्क मोहब्बत की
खबर एक जलाते हैं

कहीं से भी
निकल कर आये
कोई नोचने बादलों को

पतली गली
से निकल कर कहीं
किनारे
पर बैठ नदी के
चाय पीते हैं
और पकौड़े खाते हैं

ये कारवाँ
वो नहीं रहा ‘उलूक’
जिसे रास्ते खुद
सजदे के लिये ले जाते हैं

मन्दिर मस्जिद
गुरुद्वारे चर्च की
बातें पुरानी हो गयी हैं

चल किसी
आदमी के पैरों में
सबके सर झुकवाते हैं ।

चित्र साभार: www.thecareermuse.co.in

रविवार, 25 मार्च 2018

बकवास ही तो हैं ‘उलूक’ की कौन सा पहेलियाँ है जो दिमाग उलझाने की हैं

समझदारी
समझदारों
के साथ में
रहकर

समझ को
बढ़ाने की है
पकाने की है
फैलाने की है

नासमझ
कभी तो
कोशिश कर
लिया कर
समझने की

नासमझी
की दुनियाँ
आज बस
पागल हो
चुके किसी
दीवाने की है

कुछ खेलना
अच्छा होता है
सेहत के लिये

कोई भी हो
एक खेल
खेल खेल में

खेलों की
दुनियाँ में
खेलना
काफी
नहीं है
लेकिन

ज्यादा
जरूरत
किसी
अपने को
अपना
मन पसन्द
एक खेल
खिलाने
की है
जिसकी
ताजा एक
पकी हुई
खबर
कहीं भी
किसी एक
अखबार के
पीछे के
पन्ने में
ही सही
कुछ ले दे के
छपवाने की है

कौन
आ रहा है
कौन
जा रहा है
लिखना बन्द
किये हुऐ
दिनों में
बड़ी हुई
इतनी भीड़
खाली पन्नों में
सर खपाने की है

कहना
सुनना
चलता रहे
कागज का
कलम से
कलम का
दवात से

बकवास
ही तो हैं
‘उलूक’ की
कौन सा
पहेलियाँ हैंं
जो दिमाग
उलझाने की हैं ।

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंदर कुछ और और लिखा हुआ कुछ और ही होता है


सोच कर 
लिखना 
और 
लिख कर 
लिखे पर 
सोचना 

कुछ 
एक 
जैसा ही 
तो 
होता है 

पढ़ने वाले 
को तो बस 
अपने 
लिखे का 
ही 
कुछ 
पता होता है 

एक 
बार नहीं 
कई 
बार होता है 
बार बार होता है 

कुछ 
आता है
यूूँ ही खयालों में 

खाली दिमाग 
के 
खाली पन्ने 
पर 
लिखा हुआ 
भी तो 
कुछ 
लिखा होता है 

कुछ 
देर के लिये 
कुछ 
तो कहीं 
पर 
जरूर होता है 

पढ़ते पढ़ते ही 
पता नहीं 
कहाँ 
जा कर 
थोड़ी सी 
देर में ही 

कहाँ जा कर 
सब कुछ 
कहीं खोता है 

सबके 
लिखने में 
होते हैं गुणा भाग 

उसकी 
गणित 
के 
हिसाब से 
अपना 
गणित खुद पढ़ना 
खुद सीखना 
होता है 

देश में लगी 
आग 
दिखाने के लिये 
हर जगह होती है 

अपनी 
आँखों का 
लहू 
दूसरे की 
आँख में 
उतारना होता है 

अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी 
शरम होती है 

अपने लिये 
किसी 
की 
शरम का 
चश्मा 
उतारना 
किसी 
की 
आँखों से 


कर सके कोई 
तो 
लाजवाब होता है 

वो 
कभी लिखेंगे 
जो लिखना है वाकई में 

सारे 
लिखते हैं 
उनका खुद का 
लिखना 
वही होता है 


जो कहीं भी 
कुछ भी 
लिखना ही नहीं होता है 

कपड़े ही कपड़े 
दिखा रहा होता है 
हर तरफ ‘उलूक’ 
बहुत फैले हुऐ 
ना पहनता है जो 
ना पहनाता है 

जिसका 
पेशा ही 
कपड़े उतारना होता है 

खुश दिखाना 
खुद को 
उसके पहलू में खड़े हो कर 
दाँत निकाल कर 
बहुत ही 
जरूरी होता है 

बहुत बड़ी 
बात होती है 
जिसका लहू चूस कर 
शाकाहारी कोई 

लहू से अखबार में 
तौबा तौबा 
एक नहीं 
कई किये होता है 

दोस्ती 
वो भी 
फेसबुक 
की करना 
सबके 
बस में कहाँ होता है 

इन सब को 
छोड़िये 
सब से 
कुछ अलग 
जो होता है 

एक 
फेस बुक का 
एक अलग
पेज हो जाना
होता है । 

चित्र साभार: www.galena.k12.mo.us

मंगलवार, 16 जून 2015

कब्ज पेट का जैसा दिमाग में हो जाता है बात समझ से बाहर हो जाती है

पेट में
कब्ज हो
बात
चिकित्सक
के समझ में
भी आती है

दवायें
भी होती हैं
प्राकृतिक
चिकित्सा
भी की जाती है

परेशानी का
कारण है
इससे भी
इंकार
नहीं किया
जा सकता है

बात
खुले आम
नहीं भी
की जाती है

पर
कभी कभी
किसी किसी
के बीच
विषय बन कर
बड़ी बहस
के रुप में
उभर कर
सामने से
आ जाती है

गहन
बात है
तभी तो
‘पीकू’ जैसी
फिल्म में तक
दिखाई जाती है

जतन
कर लेते है
करने वाले भी

फिर भी
किसी ना
किसी तरह
सुबह उठने के
बाद से लेकर
दिन भर में
किसी ना किसी
समय निपटा
भी ली जाती है

ये सब
पढ़ कर
समझता है
और
समझ में आता
भी है एक
जागरूक
सुधि पाठक को

यहीं पर
‘उलूक’
की बक बक
पटरी से
उतरती हुई
भी नजर
आती है

बात
कब्ज से
शुरु होती है

वापस
लौट कर
कब्ज पर ही
आ जाती है

प्रश्न
उठ जाये
अगर किसी क्षण
दिमाग में हो रहे
कब्ज की बात
को लेकर

बड़ी
अजीब सी
स्थिति हो जाती है

लिख लिखा
कर भी
कितना
निकाला जाये

क्या
निकाला जाये

उम्र के
एक मोड़
पर आकर

अपने
आस पास
में जब
कोई नई बात
समझने के लिये
नहीं रह जाती है ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

सोमवार, 4 मई 2015

बावरे लिखने से पहले कलम पत्थर पर घिसने चले जाते हैं

बावरे
की कलम
बेजान
जरूर होती है

पर
लिखने पर
आती है तो
बावरे की
तरह ही
बावरी हो
जाती है

बावरों
की दुनियाँ के
बावरेपन को
बावरे ही
समझ पाते हैं

जो बावरे
नहीं होते हैं
उनको
कलम से
कुछ लेना देना
नहीं होता है

जो भी
लिखवाते हैं
दिमाग से
लिखवाते हैं

दिमाग
वाले ही उसे
पढ़ना भी
चाहते हैं

बावरों
का लिखना
और दिमाग
का चलना

दोनों
एक समय में
एक साथ
एक जगह
पर नहीं
पाये जाते हैं

बावरा होकर
बावरी कलम से
जब लिखना शुरु
करता है
एक बावरा

कलम
के पर भी
बावरे हो कर
निकल जाते हैं

उड़ना
शुरु होता है
लिखना भी
बावरा सा

क्या लिखा है
क्यों लिखा है
किस पर
लिखा है
पढ़ने वाले
बावरे
बिना पढ़े भी
मजमून को
भाँप जाते हैं

‘उलूक’
घिसा
करता है
कलम को
रोज पत्थर पर

पैना
कुछ लिख
ले जाने
के आसार
फिर भी कहीं
नजर नहीं आते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartpanda.com

शनिवार, 25 अप्रैल 2015

जो खटकता है वही ला कर लिख पटकता है



दिमागी तरंग 
दिखाती है रंग बिना पिये भंग 

जब भी कहीं
कुछ खटकता है 
झटका जोर का मगर
धीरे से 
कहीं किसी को लगता है 

लिखा जाता है
कुछ अपने हिसाब से 

अपना
गणित पढ़ने वाला
अपने हिसाब से 
उस सवाल को हल करने लगता है 

बहुत से शब्दों के
पेटेंट हो चुके हैं 
कौन
किस पर जा कर चिपकता है 
पता कहाँ चलता है 

झाड़ू है
सफाई है भारत है अभियान है 
बेमौसम
बारिश है ओले हैं तूफान है 
कहाँ
पता चलता है
कौन कहाँ जा लटकता है 

लटकना
डूबना कूदना तो समझ में आता भी है 
बस हवा हवा में
कई बातों का हवाई जहाज 
दिमाग के
ऊपर से होकर पता नहीं
कहाँ जा उतरता है

उसके
सिर में इसका चमचा
इसके
सिर में उसका चमचा 
कौन से
लटकने झटकने
को ला कर पटकता है 

जगह जगह
हो रही लूट खसोट पर
आँख बंद कर
‘उलूक’ के
कुछ कह देते ही 
मौका पाकर
उसे नोचने खसोटने को 
समझदार होशियर
एक
तुरंत झपटता है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

एक दिमाग कम खर्च कर के दिमाग को दिमागों की बचत कराता है

बुद्धिजीवी
की एक
खासियत
ये होती है

वो अपने
दिमाग को
कम काम
में लाता है

जानता है बचाना
खर्च होने से
दिमाग को

एक समूह
में उनके
एक समय में
एक ही अपने
दिमाग को
चलाता है

पता होता है
चल रहा है दिमाग
किसका किस समय

उस समय
बाकी सब
का दिमाग
बंद हो जाता है

पढ़ना लिखना
जितना ज्यादा
किया होता है जिसने

उसका दिमाग
उतना अपने को
बचाना सीख जाता है

सबसे ज्यादा
दिमाग बचाने
का तरीका

सबसे बड़े स्कूल के
मास्टर को ही आता है

एक छोड़ता है
राकेट एक

किसी ऐसी बात का
जिसके छूटते ही
उसके नहीं
होने का आभास
सबको हो ही जाता है

कोई कुछ
नहीं कहता है
हर कोई
बंद कर दिमाग

राकेट के
मंगल पर
कहीं उतरने
के खयालों में
खो जाता है


पढ़ने पढ़ाने वाले

सबसे बड़े स्कूल के
मास्टरों के
इस खेल को
देखकर
छोटे मोटे स्कूलों

के मास्टरों का
वैसे ही
दम
फूल जाता है


मास्टरों के
बंद दिमाग

होते देखकर
पढ़ने लिखने
वाला
मौज में आ जाता है


जब पिता ही
चुप हो जाये

किसी समाज में
बेटे बेटियों के
बोलने के लिये

क्या कुछ कहाँ
रह जाता है


वैज्ञानिक
सोच का ही

एक कमाल
है यह भी


एक दिमाग
बुद्धिजीवी का

कितने दिमागों
का
फ्यूज
इस तरह
उड़ाता है


दिमाग ही

दिमागी खर्च

बचा बचा कर

इस तरह

बिना दिमाग का

एक
नया
समाज बनाता है ।


चित्र साभार: www.clipartpanda.com

बुधवार, 12 नवंबर 2014

बंदर ने किया जो भी किया अच्छा किया दिमाग कहीं भी नहीं लगाया

कल परसों
का कूड़े दान
खाली नहीं
हो पाया

बंदरों ने
उत्पात मचा
मचा कर
दूरभाष का
तार ही
काट खाया

बहुत कुछ
पकाने का
ताजा सामान
एक ही दिन में
बासी हो आया

वैसे भी
यहाँ की इस
अजब गजब
दुनियाँ में
कहाँ पता
चलता है

कौन क्यूँ गया
यहाँ आकर
और
कौन क्यूँ कर
आँखिर यहाँ से
चले जाने के बाद
भी लौट लौट कर
फिर फिर यहाँ आया

बंदरों का देखिये
कितना अच्छा है
जहाँ मन किया
वहाँ से कूद लिये

जहाँ मन नहीं हुआ
खीसें दिखा कर
आवाज निकाल
सामने वाले को
बंदर घुड़कियाँ
दे दे कर डराया

कुछ करने की
तीव्र इच्छा कहीं
किसी कोने
में ही सही

होने वालों को
कर लेने से
वैसे भी कौन
है रोक पाया

बंदरों से ही
शुरु हुआ आदमी
बनने का क्रम

कितना आदमी
बना कितना
बंदर बचा
किसी ने किसी को
इस गणित को
नहीं समझाया

‘उलूक’ रात में
अवरक्त चश्मा
लगाने की सोचता
ही रह गया

ना दिन में
देख पाया
ना ही रात में
देख पाया ।

चित्र साभार: www.picturesof.net

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

दिमाग का भार याद रख और दिल का हलका फूल मत भूल

अपने
भारी हो गये
सिर को

हलका
करने के लिये


अच्छा
रास्ता है
रास्ते पर
ला कर
रख देना

बेकार
पड़े हुऐ
पत्थर की तरह

आने जाने
वालों के
देखने समझने
के लिये

और
कुछ के ठोकर
खाने के लिये भी

सब
करते हैं
अपने अपने
हिसाब से

कुछ
के छोटे मोटे कंकड़

कुछ
के थोड़े बड़े

कुछ
के तेरे
जैसे अझेल

अब
किया
क्या जाये

माना कि
जरूरी होता है

बोझ
कम कर लेना
थोड़ा थोड़ा ही सही
पूरा का पूरा नहीं भी

पर
कभी कभी
दूसरों के
बारे में भी
सोच लेना

इंसानियत
का एक नियम
तो होता ही है

माना कि
गंगा साफ
कर लेने
की सोच लेना
सबके बस में
नहीं होता है

फिर भी
अपने घर
की नालियाँ
और उसके
बहाव को
बाधित करते

कचरे के
टुकड़े मुकड़े
उठा कर
किनारे
रख लेना भी

नियम
में ही आता है

छोटा ही सही
च्यूइंगम को
खींच कर लम्बा
कर दिया हो तो
वापस
मुँह की ओर भी
ले जा लेना
कभी कभी
सही होता है

यानि कि
सिर पर
भार लेना भी ठीक

और उसे
कभी अपनी जगह
पर रहने देकर

दिल की भी
एक छोटी सी बात
कर लेने में भी

कोई
हर्ज नहीं है

है ना ।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com

सोमवार, 18 अगस्त 2014

नहीं लिख पाउंगा उसके लिये कुछ भी जिसके जलवे में आदमी बन कर के कोई शामिल होता है



दिमाग से लिखना मन की बात लिखना
किताब से लिखना बेबात की बात लिखना 
सुबह सवेरे बैठ कर एक रात लिखना 
अखबार में छपने छपाने के लिये लिखना 
अलग अलग होता है भाई क्यों परेशान होता है

डाक्टर ने नहीं कहा होता है 
पढ़ने के लिये वो सब कुछ 
जो इस दुनिया में 
हर जगह किसी भी दीवार पर
ऐरे गैरे नत्थू खैरे ने 
लिखा या लिखवा दिया होता है

पैजामे और टोपी देख कर 
लिखने वाले की बात पर क्यों चला जाता है

यहाँ हर कोई 
बिना कपड़े का ही आता है 
जैसा होता है उसी तरह आता है

अपने हिसाब किताब को देख कर
दुनियाँ को पागल बनाता है

कपड़े 
के बिना जो होता है 
उसे गूगल का 
शब्दकोश क्या कहता है 
उससे क्या करना होता है

सीधे सीधे 
नंगा कह देना 
अच्छा नहीं होता है 

दुनियाँ 
ऐसे लोगों से ही चल रही है

एक 
तू है ‘उलूक’
अपनी बेवकूफियों को
हरे पत्तों से ढकने में लगा रहता है 

अखबार में छपे 
कबूतरों के मनन चिंतन से
परेशान मत हुआ कर
कबूतर अपने घोंसले में 
अपनी ही बीट पर सोता है

जनता 
उस की तरह की ही
उस की 
वाह वाही में लगी रहती है

जिनको 
पता सब होता है
वो उनकी तरह का ही होता है

अल्पसंख्यक 
बस एक संख्या है
उसी ने बिल्ली की तरह 
खंभा ही तो बस एक नोचना होता है ।

बुधवार, 23 जुलाई 2014

क्योंकि खिड़कियाँ मेरे शहर के पुराने मकानों में अब लोग नई लगा रहे थे

अपने
बच्चों को
समझाने में
लगे हुऐ
एक माँ बाप

उनको
उनसे उनकी
दिमाग की
खिड़की खोलने
को कहते हुऐ
जोर लगा कर
कुछ समझा रहे थे

लग नहीं
रहा था
कुछ ऐसा
जैसे बच्चे
कुछ सुनना
भी चाह रहे थे

माँ बाप
बच्चों की
तरफ देख कर
कुछ बोल रहे थे

बच्चे
अपने घर के
पड़ोस के मकान
की खिड़कियों की
तरफ देख कर
मुस्कुरा रहे थे

खिड़कियों
के बारे में
शायद माँ बाप से
ज्यादा पता था उनको

घर से लेकर
स्कूल तक
जाते जाते

रोज ना जाने
कितनी
खिड़कियों को
खुलते बंद होते
देखते हुऐ आ रहे थे

समझ रहे थे
स्कूल में गुरु लोग
खिड़कियों को
खोलने की विधि का
प्रयोग प्रयोगशाला
में करवाना चाह रहे थे

उसी बात
को लेकर
घर के लोग
घर पर भी
खिड़कियों
की बात
कर कर के
दिमाग खा रहे थे

सोच रहे थे
समझ रहे थे
हिसाब किताब भी
थोड़ा बहुत लगा रहे थे

पुराने
मकानो की
खिड़कियों
की तुलना
नये मकानो की
खिड़कियों से
किये जा रहे थे

माँ बाप
की चिंताओं
को जायज
मान ले रहे थे
देख रहे थे
समझ रहे थे

पुरानी
खिड़कियों के
कब्जे जंग खा रहे थे

खुलते जरूर थे
रोज ना भी सही
कभी कभी भी

लेकिन आवाजें
तरह तरह की
खुलने बंद होने
पर बना रहे थे

खिड़कियाँ
दरवाजे
समय के साथ
पुराने लोगों के
पुराने हो जा रहे थे

शायद
इसी लिये
सभी लोग नयी
पौँध से उनकी

अपनी अपनी
खिड़कियों को खोल
कर रखने की अपेक्षा
किये जा रहे थे

‘उलूक’
की समझ में
नहीं आ रहा था
कुछ भी

उसे उसके
पुराने मकान
के खंडहर में
खिड़की या
दरवाजे नजर ही
नहीं आ रहे थे ।

सोमवार, 21 जुलाई 2014

प्रतियोगिता के लिये नहीं बस दौड़ने के लिये दौड़ रहा होता है

चले जा रहे हैं
दौड़ लगा रहे हैं
भाग रहे हैं

कहाँ के लिये

किसलिये
कहाँ जा
कर पहुँचेंगे


अब ऐसे ही

कैसे बता देंगे

दौड़ने तो दो

सब ही तो
दौड़ रहे हैं

बता थोड़े रहे हैं

मुल्ला की दौड़

मस्जिद तक होती है
पंडित जी की दौड़
मंदिर तक होने की
बात ना कही गई है
ना ही कहीं लिखी गई है

सुबह सुबह कसरत

के लिये दौड़ना
नाश्ता पानी कर के
दफ्तर को दौड़ना
दफ्तर से घर को
वापस दौड़ना भी
कहीं दौड़ने में आता है

असली दौड़ तो

दिमाग से होती है
उसी दौड़ के लिये
हर कोई दिमागी
घोड़ों को दौड़ाता है

अब बात उठती है

घोड़े दिखते
तो नहीं हैं

दौड़ते हुऐ बाहर
आस पास किसी
के भी कहीं भी

शायद दिमाग में

ही चले जाते होंगे

दिमाग में कैसे

चले जाते होंगे
कितनी जगह
होती होगी वहाँ

जिसमें घोड़े जैसी

एक बड़ी चीज को
दौड़ाते होंगे

‘उलूक’ को सब का

तो नहीं पता होता है

उसके दिमाग में तो

उसका गधा ही हमेशा
उसके लिये
दौड़ रहा होता है

कहाँ जाना है

कहाँ पहुँचना है से
उसको कोई मतलब
ही नहीं होता है

उसका दौड़ना बस

गोल चक्करों में
हो रहा होता है

एक जगह से रोज

शुरु हो रहा होता है
घूमते घामते
उसी जगह फिर से
शाम तक पहुँच
ही रहा होता है

घोड़े दौड़ाने वाले

जरूर पहुँच
रहे होते हैं
रोज
कहीं ना कहीं


वो अलग बात है

लेकिन
‘उलूक’ का गधा

कहाँ पहुँच गया है
हर कोई
अपने अपने

घोड़ों से जरूर
पूछ रहा होता है

सोमवार, 9 जून 2014

दुनियाँ है रंग अपने ही दिखाती है

भैंस के बराबर
काले अक्षरों को
रोज चरागाह पर
चराने की आदत
किसी को हो जाना
एक अच्छी बात है
अक्षरों के साथ
खेलते खेलते
घास की तरह
उनको उगाना
शुरु हो जाना
बहुत बुरी बात है
बिना एक सोच के
खाली लोटे जैसे
दिमाग में शायद
हवा भी रहना
नहीं चाहती है
ऐसे में ही सोच
खाली में से
खाली खाली ही
कुछ बाहर निकाल
कर ले आती है
उसी तरह से जैसे
किसी कलाकार की
कूँची किसी एक को
एक छोटा सा झाड़ू
जैसा नजर आती है
साफ जगह होने से
कुछ नहीं होता है
झाड़ने की आदत
से मजबूर सफाई
को तक बुहारना
शुरु हो जाती है
बहुत कुछ होता है
आसपास के लोगों
के दिमाग में
और हाथ में भी
पर मंद बुद्धी का
क्या किया जाये
वो अपनी बेवकूफियों
के हीरों के सिवाय
कुछ भी देखना
नहीं चाहती है
और क्या किया जाये
‘उलूक’ तेरी इस
फितरत का जो
सोती भी है
सपने भी देखती है
नींद में होने के
बावजूद आँखे
पूरी की पूरी खुली
नजर भी आती हैं ।

मंगलवार, 13 मई 2014

बहुत कुछ ऐसे वैसे भी कह दिया जाता है बाद में पता चल ही जाता है

कई बार समझ में
नहीं आ पाता है
खाली स्थान
ही स्थान है या
किसी का गोदाम है
बिना किराये का
जिसमें कोई आ कर
रोज भूसा रख जाता है
कुछ कीमती सामान
रख कर जा रहा हूँ
पोटली में बांध कर
खोल कर बिल्कुल भी
नहीं देखना है जैसी
राय जाते जाते
जरूर दे जाता है
अक्ल हीनता का
आभास कभी
नहीं होता जिनको
उनसे आदतन
हो ही जाता है
भरोसा करना
ऐसे में ही हमेशा से
बहुत ज्यादा महँगा
पढ़ जाता है
कागज कलम दवात
लेकर रोज पेड़ के
नीचे बैठा जाता है
अब सोच का
क्या किया जाये
ऐसा जैसा भी तो
सोचा ही जाता है
रोज सबेरे मुँह अंधेरे
भी तो दिशा मैदान
आदमी ही जाता है
क्या निकाला कैसा था
क्या कभी किसी घर के
आदमी को भी
आकर कोई बताता है
अपनी पेट की बात
अपने तक रख
ही ले जाता है
पर उसमें एक सच
तो जरूर समाहित
माना ही जाता है
जैसा खाया होता है
उसी तरह का
बाहर भी आता है
कलम से निकलने
वाला लेकिन
बहुत बार वो सब
नहीं निकल पाता है
पोटली खाली थी या
किरायेदार गोबर सँभाल
कर निकल जाता है
पता ही नहीं चलता
होनी लिखने की जगह
कब बहुत कुछ
अनहोनी हो जाता है
ढोल की पोल खोलने
वाला खोल तो
बहुत कुछ जाता है
बाद में आता है और
पक्का अंदाज आ पाता है
कुछ ढोलों को तो
पहले से ही पूरा ही
खुला रखा जाता है ।

शनिवार, 10 मई 2014

आईडिया आ रहा है तो मेरे बाप का क्या जा रहा है

कहते हैं एक
अच्छा आईडिया
बदल सकता है
किसी की भी दुनिया
पर आईडिया
आये कहाँ से
प्रश्न उठ रहा हो
अगर किसी के
खाली दिमाग में
ऐसे ही समय में
तो लगता है
प्रश्न भी बेरोजगार
हो सकते है
कहीं भी मन करे
उठ खड़े भी
हो सकते हैं
इसलिये कभी कभी
पाठक के ऊपर भी
भरोसा कर ही
लेना चाहिये
कुछ बात जो
समझ में नहीं
आ रही हो
बेझिझक होकर
पूछ लेना चाहिये
अब मजाक
मत उड़ाइयेगा
अपना समझ कर
ही बताइयेगा
सोच में आ रहा है
देश भक्ति के
छोटे छोटे पैकेट
बनाकर फुटकर में
बेचने का मन
चाह रहा है
दाम बहुत ज्यादा
नहीं रखे जायेंगे
आजकल वैसे भी
एक के साथ एक
फ्री लेने देने का
जमाना छा रहा है
अब किसी एक को
तो लेनी ही
पड़ेगी सारे देश में
ऐजैंसियाँ बाटने
की जिम्मेदारी
किससे सौदा
किया जाये
बस यही समझ
में नहीं आ पा रहा है
रोज लाता है ‘उलूक’
कौड़ी बेकार की
आज भी कोई
नई चीज नहीं
उठा रहा है
आभारी रहेगा
जिंदगी भर
अगर आपके
दिमाग में भी
कोई नया आईडिया
इस मुद्दे पर
आ जा रहा है
मुफ्त में बाँटने की
बात नहीं कह रहा हूँ
सौदा देशभक्ति
का होना है
कर लेंगे कम बाकी
बाद में मिल बैठ कर
कौन किसी को
इस बात को
जनता को बताने
के लिये जा रहा है ।

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

अपने दिमाग ने अपनी तरह से अपनी बात को अपने को समझाया होता है

कल का लिखा
जब कोई नहीं
पढ़ पाया होता है

फिर क्यों आज
एक और पन्ना

और उठा कर
ले आया होता है

कितनी बैचेनी
हो जाती है
समझ में ही
नहीं आती है

बस यही बात
कई बार
बात के ऊपर
बात रखकर
जब फालतू में
इधर से उधर
घुमाया होता है

पता होता है
होता है बहुत कुछ
बहुत जगहों पर

पर तेरे यहाँ का
हर आदमी तो जैसे
एक अलग देश से
आया हुआ होता है

तेरी समस्याओं
का समाधान
शायद होता हो
कहीं किसी
हकीम के पास

आम आदमी
कहीं भी किसी
चिकित्सक ने
तेरी तरह का नहीं
बताया होता है

नहीं दिख रहा है
कोई बहुत दिनों से
काम में आता हुआ

अलग अलग दल के
महत्वपूर्ण कामों
के लिये बहुत से
लोगों को बहुत सी
जगहों पर भी तो
लगाया होता है

हैलीकाप्टर उतर
रहा हो रोज ही
उस खेत में जहाँ पर

अच्छा होता है
अगर  किसी ने
धान गेहूँ जैसा
कुछ नहीं कहीं
लगाया होता है

आसमान
से उड़ कर
आने लगते हैं
गधे भी कई बार 


उलूक ऐसे में ही
समझ में आ जाता है
तेरी बैचेनी का सबब

खुदा ने
इस जन्म में
तुझे ही बस
एक गधा नहीं
खाली बेकार
का लल्लू
यानि उल्लू
इसीलिये शायद
बनाया होता है

अपनी अपनी
किस्मत
का खेल है प्यारे

कुछ ही
भिखारियों
के लिये
कई सालों में
एक मौका

बिना माँगे
भीख मिल
जाने का
दिलवाया
होता है ।  

सोमवार, 31 मार्च 2014

अपने खेत की खरपतवार को, देखिये जरा, देश से बड़ा बता रहा है

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग
हैल्लो हैल्लो ये लो 

घर पर ही हो क्या?
क्या कर रहे हो?

कुछ नहीं
बस खेत में
कुछ सब्जी
लगाई है
बहुत सारी
खरपतवार
अगल बगल
पौंधौं के
बिना बोये
उग आई है
उसी को
उखाड़ रहा हूँ
अपनी और
अपने खेत
की किस्मत
सुधार रहा हूँ 


आज तो
वित्तीय वर्ष
पूरा होने
जा रहा है
हिसाब
किताब
उधर का
कौन बना
रहा है?


तुम भी
किस जमाने
में जी रहे
हो भाई
गैर सरकारी
संस्था यानी
एन जी ओ
से आजकल
जो चाहो
करवा लिया
जा रहा है
कमीशन
नियत होता है
उसी का
कोई आदमी
बिना तारीख
पड़ी पर्चियों
पर मार्च की
मुहर लगा
रहा है
अखबार
नहीं पहुँचा
लगता है
स्कूल के
पुस्तकालय
का अभी
तक घर
में आपके
पढ़ लेना
चुनाव की
खबरों में
लिखा भी
आ रहा है
किसका कौन
सा सरकारी
और कौन सा
गैर सरकारी
कहाँ किस
जगह पर
किस के लिये
सेंध लगा रहा है
कहाँ कच्ची हो
रही हैं वोट और
कहाँ धोखा होने
का अंदेशा
नजर आ रहा है 


भाई जी
आप ने भी तो आज
चुनाव कार्यालय की
तरफ दौड़ अभी तक
नहीं लगाई है
लगता है तुम्हारा ही
हिसाब किताब कहीं
कुछ गड़बड़ा रहा है
आजकल जहाँ मास्टर
स्कूल नहीं जा रहा है
डाक्टर अस्पताल से
गोल हो जा रहा है
वकील मुकदमें की
तारीखें बदलवा रहा है
हर किसी के पास
एक ना एक टोपी या
बिल्ला नजर आ रहा है
अवकाश प्राप्त लोगों
के लिये सोने में
सुहागा हो जा रहा है
बीबी की चिक चिक
को घर पर छोड़ कर
लाऊड स्पीकर लिये
बैठा हुआ नजर
यहाँ और वहाँ भी
आ रहा है
जोश सब में है
हर कोई देश के
लिये ही जैसे
आज और अभी
सीमा पर जा रहा है
तन मन धन
कुर्बान करने की
मंसा जता रहा है
वाकई में महसूस
हो रहा है इस बार
बस इस बार
भारतीय राष्ट्रीय चरित्र
का मानकीकरण
होने ही जा रहा है
लेकिन अफसोस
कुछ लोग तेरे
जैसे भी हैं ‘उलूक’
जिंन्हें देश से बड़ा
अपना खेत
नजर आ रहा है
जैसा दिमाग में है
वैसी ही घास को
अपने खेत से
उखाड़ने में एक
स्वर्णिम समय
को गवाँ रहा है ।

बुधवार, 12 मार्च 2014

तेरा जैसा उल्लू भी तो कोई कहीं नहीं होता

                                                                        
अब भी समय है
समझ क्यों नहीं लेता
रोज देखता रोज सुनता है
तुझे यकीं क्यों नहीं होता

ये जमाना
निकल गया है बहुत ही आगे
तुझे ही रहना था बेशरम इतने पीछे
कहीं पिछली गली से ही कभी चुपचाप
कहीं को भी
निकल लिया होता

बहुत बबाल करता है 
यहाँ भी और वहाँ भी
तरह तरह की
तेरी शिकायतों के पुलिंदे में 
कभी कोई छेद क्यों नहीं होता

सीखने वाले
हमेशा लगे होते हैं
सिखाने वालों के आगे पीछे
कभी तो सोचा कर
तेरे से सीखने वाला कोई भी
तेरे आस पास क्यों नहीं होता
  
बहुत से अपने को
 मानने लगे हैं अब सफेद कबूतर
सारे कौओं को पता है ये सब
काले कौओ के बीच में रहकर
काँव काँव करना
बस एक तुझसे ही क्यों नहीं होता

पूँछ उठा के
देखने का जमाना ही नहीं रहा अब तो
एक तू ही पूँछ की बात हमेशा पूछता रहता है
जान कर भी
पूँछ हिलाना अब सामने सामने कहीं नहीं होता

गालियाँ खा रहे हैं सरे आम सभी कुत्ते
सब को पता है
आदमी से बड़ा कुत्ता कहीं भी नहीं होता

कभी तो सुन लिया कर दिल की भी कुछ "उलूक"
दिमाग में बहुत कुछ होने से कुछ नहीं होता ।

चित्र साभार: https://vector.me/