उलूक टाइम्स: धुआँ
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रविवार, 22 नवंबर 2020

धुआँ धुआँ हो कहीं हो फिर भी

 



धुआँ धुआँ सा 
जरा सा सोच में 
चला आया आज 
पता नहीं क्यों 

कोई खबर 
कहीं आग लगने की 
सुबह के अखबार में नहीं दिखी 
फिर भी 

बहुत कुछ जलता है 
ना धुआँ होता है ना आग दिखती है कहीं 
राख भी हो जाती है राख तक 
नामों निशा नहीं मिलता है कहीं 
फिर भी 

सुलगना जरूरी है 
बस कोयले का ही नहीं 
हर एक सोच का भी 
कहीं भी थोड़ा सा ही सही 
आग भी हो और राख भी हो
दूर बहुत हो 
फिर भी 

अपनी सम्भलती नहीं गाय 
दूसरे की उजाड़ जाने की चिंता में 
गलता एक आदमी दिखता है 
होता हुआ धुआँ धुआँ 
नजर नहीं आता है कहीं 
फिर भी 

बहुत सारी आग 
बहुत सारा धुआँ 
सम्भालते लोग 
आग और धुऐं की बात 
आते ही कहीं 
बातों को 
पानी और दूध की ओर 
टालते लोग 
फिर भी 

पागल ‘उलूक’ अंधा ‘उलूक’
 बेशरम ‘उलूक’ 
दिन में रात 
और रात में दिन की 
बातें करता ‘उलूक’ 
धुआँ और आग 
या आग और धुऐं की 
बातों को सम्भालता ‘उलूक’ 
फिर भी 

 फायर ब्रिगेड जरूरी है पता है 
आग हो या धुआँ हो फिर भी 
बेफिकर होकर 
चुटकुलों के साथ 
आग और धुआँ 
मुँह से निकालता ‘उलूक’ 
सिगरेट का धुआँ हो या 
धुआं यूं ही धुआं धुआं 
फिर भी 

चित्र साभार: http://clipart-library.com/s

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

एक साल बेमिसाल और फिर बिना जले बिना सुलगे धुआँ हो गया



मुँह 
में दबी 
सिगरेट से 

जैसे 

झड़ती 
रही राख 

पूरे 
पूरे दिन 
पूरी रात 

फिर एक बार 

और 

सारा 
सब कुछ 
हवा हो गया 

एक 
साल और 

सामने सामने से 

मुँह 
छिपाकर 
गुजरता हुआ 

जैसे 
धुआँ हो गया 

थोड़ी कुछ 
चिन्गारियाँ
उठी 

कुछ
लगी आग 

दीवाली हुयी 

आँखों
की 
पुतलियों में 

तैरती 
बिजलियाँ 
सी
दिखी 

खेला गया 
चटक गाढ़ा 
लाल रंग 

बहता दिखा 
गली सड़कों में 

गोलियों 
पत्थरों से भरे 
गुलाल से 

उमड़ता
जैसे फाग 

आदमी को 

आदमी से 

तोड़ता हुआ 
आदमी 

आदमी 
के 
बीच का 

एक 

आदमी 
उस्ताद 

पता
भी 
नहीं चला 

आदमी 
आदमी 
के
सर 
पर चढ़ता 

दबाता 
आदमी 
को
जमीन में 

एक 
आदमी 

आदमी
का 
खुदा हो गया 

देखते 
देखते 

सामने 
सामने 
से
ही 

ये गया 
और 
वो गया 

सोचते सोचते 

धीमे धीमे 

दिखाता 
अपनी
चालें 

कितनी 
तेजी के साथ 

देखो 
कैसे 

धुआँ
हो गया 

‘उलूक’ 
मौके ताड़ता 
बहकने के 

कुछ 
रंगीन सपने 
देखते देखते 

रात के 
अंधेरे अंधेरे 
ना
जाने कब 

खुद ही 
काला 
सफेद हो गया 

पता 
भी नहीं चला 

कैसे
फिर से एक 

पुराना 
साल 

नये 
साल के 
आते ना आते 

बिना 
लगे आग 

बिना सुलगे ही 

बस 
धुआँ
और 

धुआँ हो गया । 

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

स्टेज बहुत बड़ा है आग देखने वालों की भीड़ है ‘उलूक’ तमाशा देख मदारी का


किस लिये
ध्यान देना

कई
दिशाओं में

कई कई
कोसों तक
बिखरे हुऐ

सुलगते
छोटे छोटे
कोयलों
की तरफ

ना
आग ही
नजर आती है

ना ही
नजर आता है
कहीं
धुआँ भी
जरा सा

बेशरम
कोयले
समय भी
नहीं लेते हैं

कब
राख हो जाते हैं

कब
उड़ा ले जाती है
हवा

निशान भी
इतिहास
हो जाते हैं

इतिहास
लिखे जाने से
पहले ही

अपने
घर से
कहीं
 बहुत दूर
लगी

बहुत
बड़ी
लपट की
बड़ी आग

होती है
काम की आग

आकर्षित
करते हैं
उसके रंग

चित्र भी
अच्छे आते हैं
कैमरे से

कलाकार
की
तूलिका भी
दिखा सकती है
कमाल

आग को
रंगों में उतार कर
कागज पर

लगता तो है

कहीं
कुछ जला है

धुँआ
भी हुआ है

और
सोच भी
हो पाती है
कुछ
पानी पानी सी

कौन सा
गीला
करना होता है
समय को
शब्दों से

और
कहाँ
लिखा होता है

किसी की भी
मोटी
पूज्यनीय
किताब में

कि
जरूरी होता है
उड़ा देना
राख को
गरमी
रहते रहते

इत्मीनान
भी कोई
चीज होती है

इतिहास
के लिये
ना सही

बही खाते में
लिख कर
जमा कर लेने
से भी
फायदा होता है

साठ सत्तर
दशक बाद
कोई भी
 किसी पर भी
लगा देगा
इल्जाम

चकमक पत्थर
घिस घिसा कर
आग लगाने का

‘उलूक’
तमाशा देख
मदारी का

स्टेज
बहुत बड़ा है

आग
देखने वालों की
भीड़ है

वैसे भी

आग
किसी को
सोचनी जो
क्या है

सोच लेने
से भी
कुछ
जलता
नहीं है 

ठंड रख।

चित्र साभार: https://pngtree.com

मंगलवार, 21 मई 2019

लगती है आग धीमे धीमे तभी उठता है धुआँ भी खत्म कर क्यों नहीं देता एक बार में जला ही क्यों नहीं दे रहा है


नोट: किसी शायर के शेर नहीं हैं ‘उलूक’ के लकड़बग्घे हैं पेशे खिदमत

शराफत
ओढ़ कर
झाँकें

आईने में
अपने ही घर के

और देखें

कहीं
किनारे से

कुछ
दिखाई तो
नहीं दे रहा है
----------------------------

पता
मुझको है
सब कुछ

अपने बारे में

कहीं
से कुछ
खुला हुआ थोड़ा सा

किसी
और को

बता ही
तो
नहीं दे रहा है
-----------------------------


खुद को
मान लें खुदा

और
गलियाँयें
गली में ले जाकर

किसी को भी घेर कर

कौन सा
कोई
थाना कचहरी

ले जा ही
जो क्या ले रहा है
---------------------------------


बदल रही है
आबो हवा
हर मोहल्ले शहर 

छोटे बड़े की

किस लिये अढ़ा है

मुखौटा
नये फैशन का

खुद के
लिये भी

सिलवा ही
क्यों नहीं ले रहा है
-------------------------------


बहुत अच्छा
कोई है

बहुत दूर है

चर्चा बड़ी है
बड़ा जोर है

श्रृँ
खला की
उसकी सोच का
अन्तिम छोर
पास का

दिखा रहा है
कितना मोर है

जँगल
में उसके
नाचने का
अंदाज अच्छे का

समझ में
आ रहा है

समझा ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------


पेट
भरना भी
जरूरी है पन्नों का

कुछ भी
खिलाना
गलत है
या सही है

सोचना बेकार है

भूख मीठी
होती है भोजन से

रोज
कुछ ना कुछ

खिला ही
क्यों नहीं दे रहा है
-----------------------------


शेर
हर तरफ से
लिखे जा रहे हैं
शेरों के लिये

बहुत हैं
शायर यहाँ

कुछ नयी चीज लिख

“लकड़बग्घे” ही सही

लिख कर
दिखा 
ही
क्यों नहीं दे रहा है
----------------------


‘उलूक’
आँख के अंधे

रख
क्यों नहीं लेता
नाम अपना
नया कुछ नयन सुख जैसा

बस
दो ही दिन
के बाद में
मत कह बैठना

कुछ भी कहीं
अपने
मतलब का

सुनाई
क्यों नहीं दे रहा है
-------------------------------

चित्र साभार: https://pngtree.com

मंगलवार, 3 अक्तूबर 2017

ये मिर्च बड़ी है मिर्च मिर्च ये मिर्च बड़ी है मिर्च

शुरुआत में

आओ मिर्च
के कारोबार
को अपनायें

आओ
मिर्ची सोचें
मिर्ची सोचवायें

 आओ
मिर्ची लगायें
मिर्ची लगवायें

आओ
मिर्ची बोयें
मिर्ची उगायें

आओ
मिर्ची दिखायें
मिर्ची बतायें

आओ
मिर्ची समझें
मिर्ची समझायें

बीच में

आओ
मिर्ची तुलवायें
मिर्ची धुलवायें

आओ
मिर्ची तोड़ें
मिर्ची सुखायें

आओ
मिर्ची बटवायें
मिर्ची पकवायें

आओ
मिर्ची खायें
मिर्ची खिलायें

आओ
मिर्ची लायें
मिर्ची फैलायें

और
अन्त में

आओ
मिर्च जलायें
धुआँ उड़ाये

आओ
मिर्च के गुच्छे में
निम्बू बँधवायें

आओ
‘उलूक’ की
राई मन्तर
करवायें ।

 चित्र साभार: 123RF.com

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

बुखार कैसा भी हो निकलता ही है कुछ बाहर बुदबुदाने में

बस चार
दिन की है
बची बैचेनी

फिर बजा
लेना बाँसुरी
लगा कर आग
रोम को पूरे

सब कुछ
बदल
जायेगा जब
बनेगी राख
देख लेना
मिचमिचाती
सी अगर
बन्द भी होगी
तब भी आँख

धुआँ खाँसेगा
खुद बूढ़ा
होकर जले
जंगल का
बहेगी नाक
आपदा के
पानी की
बहुत जोरों से

सारा हरा भूरा
और सारा भूरा
हरा हो लेगा
यूँ ही बातों
बातों के बीच

घुस लेंगे सारे
दीमक छोड़
कर कुतरना
जीते हुऐ और
मरे हुऐ को
जैसे थे जहाँ थे
की स्थिति में

उगना शुरु
होंगे जंगल
के जंगल
लदने लगेंगे
फल फूल
पौंधों में पेड़
बनने से
ही पहले

दौड़ेंगे उल्टे
पाँव बंदर
सुअर
और बाघ
घर वापसी
के लिये
खुशी से

दीवाली
के दीये
खनखनायेंगे
पुराने पीतल
के बने घर के
भरे लबलबा
तेल ही तेल से

उधरते घरों
के आंगन
में रम्भायेंगी
भैसें गायें और
बकरियाँ

सूखे खुरदरे
उधरते पहाड़ों
के हाड़ों से
निकलते
सारे के सारे
नदी धारे
दिखेंगे
छलछलाते

सपने बेचने
निकले हैं अपने
खुद के
लोग कुछ
थोड़े से
खरीददार
सारे सब
लगे हैं
साथ में
अपने

अपने
हिसाब से
अपनी
किताबें
पढ़ कर
समझ कर
गणित
दो में दो
जोड़ कर
करने पाँच
सात या
और
ज्यादा
जितना
हो सके
जहाँ तक

चल तैयार
हो ले तू भी
‘उलूक’
लगाने
स्याही
कहीं
थोड़ी सी
अपने भी
गवाही देगें
सुना हैं
रंग नाखूनों के
आने वाले
दिनो में
उत्सवों में
जीत के
पहाड़ों की।

चित्र साभार: Freepik

गुरुवार, 12 नवंबर 2015

अपनी समझ से जो जैसा समझ ले जाये पर दीपावली जरूर मनाये

रोशनी
ही रोशनी

इतनी
रोशनी
आँखें
चुधिया जायें

शोर ही शोर
इतना शोर

सुनना सुनाना
कौन किस से कहे

कान के पर्दे
फटने से कैसे
बचाये जायें

घुआँ धुआँ
आसमान

रात के तारे
और चाँद
की बात
करना बेकार

जब लगे
सुबह का
सूरज
धीमा धीमा
शरमाता सा

जाड़ों
में जैसे
खुद ही
ठिठुरता
कंंपकपाता

शाम
होने से
पहले ही
निढाल हो
ढल जाये

बूढ़ा
साँस
लेने के
लिये तड़पे
निढाल हो जाये

चिड़िया
कबूतर
डर कर
प्राण ही
छोड़ जायें

घर के
निरीह
जानवर
भयभीत से

दबाये हुऐ
पूँछें अपनी

इस
चारपाई
के नीचे से
निकल कर
दूसरी
चारपाई

किसी
कोठरी के
अंधेरे कोने में
शरण लेते
हुऐ नजर आयें

लक्ष्मी
घर की
करे इंतजार

बाहर की
लक्ष्मी के
आने का

नारायण
और
आदमी
दोनो
एक दिन
के आम
आदमी हो जायें

खुशी
होनी ही
चाहिये
बाँटने के
लिये पास में

किसी को
जरूरत है
या नहीं

एक अलग
ही मुद्दा
हो जाये

दो रास्तों
के बीच के
पेड़ की सूखी
टहनी पर
बैठा ‘उलूक’

दूर शहर
में कहीं

लगी
हुई आग
और रोशनी
के फर्क
को समझने
के लिये

दीपासन
लगाया हुआ
नजर आये

जैसा भी है
मनाना है
आईये दीप
जलायें
दीप पर्व
धूम धड़ाके
धूऐं से ही
सही मनायें ।

www.clipartsheep.com

बुधवार, 6 मई 2015

क्यों कभी कोई कहीं आग से ही आग को गरम कर रहा होता है

आग होती है
थोड़ी सी कहीं
कहीं थोड़ी सी
बस राख होती है
कहीं धीमा सा
सुलगता हुआ
नरम एक
कोयला होता है
कहीं थोड़ा सा धुआँ
और बस कुछ
धुआँ होता है
कहीं जलता है
खुद का ही
कुछ खुद ही
के अंदर कहीं
जलने वाले को
पता होता है
कहीं कुछ कुछ
जल रहा होता है
कहीं दिखती है लपट
कहीं दिखता नहीं है
कुछ भी कहीं पर
कहीं कुछ बातों में
निकल बूँद बूँद
टपक रहा होता है
‘उलूक’ अपनी आग
लेकर साथ में अपने
इसकी आग से
उसकी आग में
आग लगने की
चिंता कर रहा होता है ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2015

कुछ देर के लिये झूठ ही सही लग रहा है वो सुन रहा है

सुना है

उसने
फतवा दिया है

और इसने
नहीं लिया है

ऐसा
क्यों किया है

बस
यही नहीं
कह रहा है

इसके
फतवे को
ना लेने से

उसका
रक्तचाप
बढ़ रहा है

उसने
बताया
नहीं है

लेकिन
चेहरे पर
दिख रहा है

राजनीति
कर रहा है

और
धर्म को
अनदेखा
कर रहा है

ये
कौन सा
नया पैंतरा है

ना
ये कह रहा है
ना
वो कह रहा है

कुछ
तो है
हवा में
जो ताजा है
और नया है

पुराने
बासी का
चेहरा
उतर रहा है

बस
थोड़ा सा
इंतजार
करने का
अपना ही
मजा है

होने
वाला है
जरूर
कुछ नया है

खुशी
की बात
बस इतनी है
साफ लग रहा है

जैसे
आदमी अब
अपने घर
लौट रहा है

चोला
फट रहा है
सारा दिख रहा है

बहुत
हो गई
आतिशबाजी
धुआँ हट रहा है

धुँधला
ही सही
कुछ कुछ कहीं

कहीं से
आसमान
दिख रहा है

‘उलूक’

नशा
करना अच्छा है

बहुत बुरा
तब है

जब
बताये
कोई
कि
उतर रहा है ।

चित्र साभार: www.firstpost.com

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

कल फोड़ने के लिये रखे गये पठाकों को कोई पानी डाल डाल कर आज धो रहा है

फेशियल किया हुआ
एक एक चेहरा
चमक चमक कर
फीका होना
शुरु हो रहा है
उन सब चेहरों
पर सब कुछ
जैसे बिना जले
भी धुआँ धुआँ
सा हो रहा है
नजर फिसलना
शुरु हो गई है
चेहरे से
चेहरे के ऊपर
रखा हुआ चेहरा
देखना ही
दूभर हो रहा है
दिखने ही
वाला है सच में
सच का झूठ
और झूठ का सच
ऐसा जैसा ही
कुछ हो रहा है
ऐसे के साथ
वैसा ही कुछ कुछ
अब बहुत साफ साफ
दिखाई भी दे रहा है
उधर खोद चुके हैं
खाई खुद के लिये
इधर भूल गये शायद
उनका अपना ही
खोदा हुआ कुआँ
भरा भरा सा हो रहा है
उड़ गई है नींद रातों की
कोई कह नहीं पा रहा है
परेशान हो कर
दिन में ही कहीं
किसी गली में
खड़े खड़े बिजली के
खम्बे से सहारा
ले कर सो रहा है
गिर पड़ा है मुखौटा
शेर का मुँह के ऊपर से
बिल्ले ने लगाया हुआ है
साफ साफ पता
भी हो रहा है
सिद्धांतो मूल्यों की जगह
गाली गलौच करना
बहुत जरूरी हो रहा है
बहुत ज्यादा हो गया
बहुत कुछ उस की ओर को
अब इसकी ओर भी कुछ
होने का अंदेशा हो रहा है
जो भी हो रहा है ‘उलूक’
तेरे हिसाब से बहुत ही
अच्छा हो रहा है
दो चार दिन की बात है
पता चल ही जायेगा
दीदे फाड़ कर
बहुत हंसा वो
अब दहाड़े मार मार
कर रो रहा है ।

चित्र साभार: www.123rf.com

रविवार, 18 अगस्त 2013

हर कोई जानता है वो क्यों जल रहा है

कहीं कुछ जल रहा है कहीं कुछ जल रहा है
कहीं लग चुकी है आग कहीं धुआँ निकल रहा है

तेरा दिल जल रहा है मेरा दिल जल रहा है
इसका दिल जल रहा है उसका दिल जल रहा है

कोई आग पी रहा है कोई धुआँ उगल रहा है
कहीं शहर जल रहा है कहीं गाँव जल रहा है

आग ही आग है सामने अपना घर जल रहा है
जैसा वहाँ जल रहा है वैसा यहाँ जल रहा है

हर कोई जानता है कितना क्या जल रहा है
क्यों जल रहा है और कहाँ जल रहा है

वो इससे जल रहा है ये उससे जल रहा है
उतनी आग दिख रही है जिसका जितना जल रहा है

अपनी आग लेकर आग से कोई कहाँ मिल रहा है
जिसको जहाँ मिल रहा है वो वहां जल रहा है

कितनी आग उसकी आग है पता कहाँ चल रहा है
हर कोई ले एक मशाल अपने साथ चल रहा है

इसके लिये जल रहा है उसके लिये जल रहा है
अपने भोजन के लिये बस उसका चूल्हा जल रहा है

कौन अपनी आग से कहीं कुछ बदल रहा है
किसको पड़ी है इस बात की कि देश जल रहा है

कहीं कुछ जल रहा है कहीं कुछ जल रहा है
कहीं लग चुकी है आग कहीं धुआँ निकल रहा है ।

शनिवार, 11 अगस्त 2012

श्रीमती जी की एक राय

लिख लिख 
और लिख
लिखता ही 

चला जा
पर तुझे वो कुछ 

नहीं है पता 
जो मुझको है पता
बस लिखने से
नहीं होने वाला है
तेरा कुछ भला
इन चार लोगों की
दी हुई टिप्पणियों
पर मत इतरा
कुछ मेरी भी
कभी सुनता जा
कुछ करना ही
चाहता है तो
जूते नये ब्राँडेड
लेकर आ
पालिश लगा
कर चमका
ऎसा एक ही दिन
नहीं करना है
समझ जा
इसे अपनी
रोज की
एक आदत बना
कोट की जेब
वो भी ऊपर वाली
में सफेद रुमाल भी
एक अटका
जरा सा धूल
नजर आये
कहीं भी जूते पर
तो थोड़ा रुक जा
रुमाल फिरा
और जूता चमका
व्यक्तित्व की
एक झलक होता है
किसी का
चमकता हुआ जूता
हींग लगे ना फिटकरी
सबसे सस्ता भी
होता है ये तरीका
जूते पर
कर भरोसा
अब भी समय है
समझ जा
लिखने को
मत आजमा
किसी को नहीं
आता है
तेरे लिखे में
कोई मजा
एक बार अपनी
श्रीमती के
कहने को
भी तो आजमा
फिर देख
कैसे उठता है
लोगों के
दिल से धुआँ ।

शुक्रवार, 23 मार्च 2012

धुआँ

जरूरी नहीं 
कुछ जले और धुआँ भी उठे

धुऎं का धुआँ बनाना तो
और भी मुश्किल काम है

कब कौन क्या जला ले जाता है
किसी को पता नहीं चल पाता है

हर कोई अपना धुआँ बनाता है
हर कोई अपना धुआँ फैलाता है

कहते हैं 
आग होगी तो धुआँ भी उठेगा

माहिर लोग 
इन सब बातो को नहीं मानते हैं

वो तो 
धुऎं का धुआँ बनाना 
बहुत ही अच्छी तरह जानते हैं

बहुत बार
धुआँ धुऎं में ही मिल जाता है
कौन किसका धुआँ था 
पता नहीं लग पाता है

ये भी जरूरी नहीं 
हर चीज जल कर धुआँ हो जाये
बिना जले भी कभी कभी धुआँ देखा जाता है

धुऎं का धुआँ बनाकर धुआँ देखने वाला 
खुद कब धुआँ हो जाता है
ये धुआँ जरूर बताता है।

चित्र साभार: imgarcade.com