उलूक टाइम्स: नीरो
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शनिवार, 6 नवंबर 2021

रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

 


सब कुछ समेटने के चक्कर में बहुत कुछ बिखर जाता है
जमीन पर बिखरी धूल थोड़ी सी उड़ाता है खुश हो जाता है

आईने पर चढ़ी धूल हटती है कुछ चेहरा साफ नजर आता है
खुशफहमियाँ बनी रहती हैं समय आता है और चला जाता है

दिये की लौ और पतंगे का प्रेम पराकाष्ठाओं में गिना जाता है
दीये जलते हैं पतंगा मरता है बस मातम नजर नहीं आता है

झूठ एक बड़ा सा हसीन सच में गिन लिया जाता है
लबारों की भीड़ के खिलखिलाने से भ्रम हो जाता है

पर्दे में रखकर खुराफातें अपनी एक होशियार खुद कभी आग नहीं लगवाता है
रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

कोई कुछ कर ले जाता है
कोई कुछ नहीं कर पाता है तो कुछ लिखने को चला आता है
कुछ समझ ले कुछ समझा ले खुद को ही ‘उलूक’
हर बात को किसलिये यहां रोने चला आता है ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

कैसे नहीं हुआ जा सकता है अर्जुन बिना धनुष तीर और निशाने के

जरूरी नहीं है
अर्जुन ही होना
ना ही जरूरी है
हाथ में धनुष
और
तीर का होना
 कोई जरूरी
नहीं है किसी
द्रोपदी के लिये
कहीं कोई स्व्यंवर
का होना
आगे बढ़ने के लिये
जरूरी है बस
मछली की आँख
का सोच में होना
खड़े खड़े रह गये
एक जगह पर
शेखचिल्ली की
समझ में समय
तब आता है जब
बगल से निकल
कर चला गया
कोई धीरे धीरे
अर्जुन हो गया है
का समाचार बन
कर अखबार में
छ्पा हुआ
नजर आना
शुरु हो जाता है
समझ में आता है
कुछ हो जाने
के लिये
आँखों को खुला
रख कर कुछ
नहीं देखा जाता है
कानों को खुला
रख कर
सुने सुनाये को
एक कान से
आने और दूसरे
कान से जाने
का रास्ता
दिया जाता है
कहने के लिये
अपना खुद का
कुछ अपने पास
नहीं रखा जाता है
इस का पकाया
उस को और
उस का पकाया
किसी को खिला
दिया जाता है
नीरो की तरह
बाँसुरी कोई
नहीं बजाता है
रोम को
खुद ही
अपने ही
किसी से
थोड़ा थोड़ा
रोज जलाये
जाने के तरीके
सिखला जाता है
एक दो तीन
दिन नहीं
महीने नहीं
साल हो जाते हैं
सुलगना
जारी रहता है
अर्जुन हो गये
होने का प्रमाण
पत्र लिये हुऐ
ऐसे ही कोई
दूसरी लंका के
सोने को उचेड़ने
की सोच लिये
राम बनने के लिये
अगली पारी की
तैयारी के साथ
सीटी बजाता हुआ
निकल जाता है
‘उलूक’
देखता रह
अपने
अगल बगल
कब मिलती है
खबर
दूसरा निकल
चुका है मछली
की आँख की
सोच लेकर
अर्जुन बनने
के लिये
अर्जुन के
पद चिन्हों
के पीछे
कुछ बनने
के लिये
फिर
एक बार
रोम को
सुलगता रहने
देने का
आदेश किस
अपने को
दे जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Kid

रविवार, 2 फ़रवरी 2014

कुछ ना इधर कुछ ना उधर कहीं हो रहा था

लिखा हुआ
पत्र एक
हाथ में
कोई लिया
हुआ था

किस समय
और कहाँ पर
बैठ कर
या खड़े होकर
लिखा गया था

शांति थी साथ में
या बहुत से लोगो
की बहस सुनते हुऐ
कुछ अजीब सी
जगह से बिना
सोचे समझे ही
कुछ लिख विख
दिया गया था

कितनी पागल
हो रही थी सोच
किस हाल में 

शरीर बहक
रहा था

नहा धो कर
आया हुआ
था कोई
और खुश्बू से
महक रहा था

बह रही
थी नाक
छींकों
के साथ
जुखाम
बहुत
जोर का
हो रहा था

झगड़ के
आया था
कोई कहीं
आफिस में
बाजार में
या घर की
ही मालकिन से
पंगा हो रहा था

नीरो की
बाँसुरी भी
चुप थी
ना कहीं
रोम ही
जल रहा था

सब कुछ
का आभास
होना इस
आभासी
दुनियाँ में
कौन सा
जरूरी
हो रहा था

अपनी अपनी
खुशी
छान छान
कर कोई
अगर
एक छलनी
को धो रहा था

दुखी और बैचेन
दूसरा कोई कहीं
दहाड़े मार मार
कर रो रहा था

बहुत सी जगह
पर बहुत कुछ
लिखा हुआ पढ़ने
का शायद कुछ
ऐसा वैसा ही
असर हो रहा था

पत्र हाथ में
था उसके
पर पढ़ने का
बिल्कुल भी मन
नहीं हो रहा था

अपने अपने
कर्मो का
मामला होता है

कोई इधर तो
कोई उधर पर
खुद ही
ढो रहा था ।

शनिवार, 16 मार्च 2013

सब हैं नीरो जा तू भी हो जा

हर शख्स के पास
होती है आँख
हर शख्स अर्जुन
भी होता है
तू बैचेन आत्मा
इधर उधर
देखता है
फिर फिरता
रोता है
किसने कहा
तुझसे ठेका
तेरा ही होता है
जब सारे
अर्जुन लगे हैं
तीर निशाने पर
लगाने के लिये
अपनी अपनी
मछलियों की
आँखों में
तेरे पेट में
किस बात
का दर्द होता है
युधिष्ठिर भी है
भीम भी है
नकुल भी है
सहदेव भी है
कृ्ष्ण कैसे
नहीं होंगे
द्रोपदी भी है
चीर भी है
हरण होना भी
स्वाभाविक है
पर ये सब अब
अर्जुनों के तीर
के निशाने नहीं होते
सारे अर्जुनों की
अपनी अपनी मछलियाँ
अपनी अपनी आँख
धूप में सुखा रही हैं
तीर गुदवा रही हैं
खुश हैं बहुत खुश हैं
और तू तेरे पास कोई
काम कभी नहीं होता है
तू तो बस दूसरों की
खुशी देख देख
कर रोता है
कोशिश कर
मान जा
दुनिया को
भाड़ मे घुसा
अपनी भी
एक मछली बना
उसकी आँख
में तीर घुसा
मछली को
भी कुछ दे
कुछ अपना
भी ले
रोम मे
रह कर रोम
में आग लगा
बाँसुरी बजा
सब कर रहे हैं
तू भी कर
मान जा
मत इतरा ।