उलूक टाइम्स: पकड़
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सोमवार, 18 मई 2015

सच होता है जिंदा रहने के लिये ही उसे रहने दिया जाता है

एक आदमी
पकड़ता है
दौड़ते हुऐ
शब्दों में से
कुछ शब्द
जानबूझ कर
छोड़ते हुऐ
नंगे शब्दों को
जिनमें छुपा
होता है उसके
खुद का सच
रंगीन और काले
सफेद कपड़ों में
लिपटे हुऐ शब्द
हर जगह
नजर आते हैं
हर कोई उठाते
समय उन्ही
को उठाता है
भूखे नंगे गरीब
चिढ़चिढ़े शब्दों
को अच्छा भी
नहीं लगता है
खुले आम
शराफत से
अपने को एक
शरीफ दिखाने
वाले शब्द पकड़ने
वाले शब्दमार
की सोच के
जाल से पकड़ा जाना
फिर भी कभी कभी
लगने लगता है
शायद किसी दिन
दौड़ते दौड़ाते
कुछ हिम्मत
आ जायेगी
शब्द पकड़ने की
रोज की कोशिश
कुछ रंग लायेगी
और सजाये जा
सकेंगे अपने ही
चेहरे के नकाब
को उतार देने
वाले शब्द
‘उलूक’ सोचने में
क्या जाता है
नंगापन होता है
रहेगा भी
किसी से कहाँ
कुछ उसपर
कभी लिखा
भी जाता है
दौड़ भी होती
रहती है
पकड़ने वाला
पकड़ता भी
कहाँ है
बस दिखाता है
पकड़ में उसके
कुछ कभी भी
नहीं आ पाता है ।

चित्र साभार: technostories.wordpress.com

बुधवार, 21 मई 2014

मुट्ठी बंद दिखने का वहम हो सकता है पर खुलने का समय सच में आता है



अंगुलियों
को 

मोड़कर 
मुट्ठी बना लेना 

कुछ भी
पकड़ 
लेने
की
शुरुआत 

पैदा होते हुऐ 
बच्चे
के साथ 

आगे भी
चलती 
चली जाती है 

पकड़
शुरु में 
कोमल होती है 

होते होते
बहुत
कठोर
हो जाती है 

किसी भी
चीज को 
पकड़ लेने की सोच 

चाँद
भी पकड़ने
के 
लिये
लपक जाती है 

पकड़ने की
यही 
कोशिश
कुछ 
ना कुछ
रंग 
जरूर दिखाती है 

आ ही
जाता है 
कुछ ना कुछ 
छोटी सी मुट्ठी में 

मुट्ठी
बड़ी और बड़ी 
होना
शुरु हो जाती है 

सब कुछ हो 
रहा होता है 

बस
आँख बंद 
हो जाती है 

फिर
आँख और 
मुट्ठी 
खुलना शुरु 
होती है

जब 
लगने लगता है 
बहुत कुछ

जैसे
हवा पानी 
पहाड़ अपेक्षाऐं 
मुट्ठी में आ चुकी हैं 

और
पकड़ 
उसके बाद 
यहीं से

ढीली 
पड़ना शुरु 
हो जाती है 

‘उलूक’
वक्र का 
ढलना
यहीं से 
सीखा जाता है 

वक्र का
शिखर 
मुट्ठी से बाहर 
आ ही जाता है 

उस समय
जब 
सभी कुछ
मुट्ठी 
में
समाया हुआ 

मुट्ठी में
नहीं 
मिल पाता है 

अपनी अपनी
जगह 
जहाँ था

वहीं
जैसे 
वापस
चला जाता है 

अँगुलियाँ
सीधी 
हो
चुकी होती हैं 

जहाज
के
उड़ने का 
समय
हो जाता है ।


चित्र साभार:
 http://www.multiversitycomics.com/

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

झपट लपक ले पकड़

जमाना
वाकई में
बड़ी तेजी से
बदलता
जा रहा है

कौआ
कबूतर को
राजनीति
सिखा रहा है

कबूतर
अब चिट्ठियाँ
नहीं पहुंचाया
करता है

कौवा भी
कबूतर को
खाया नहीं
करता है

कौवा
उल्लुओं का
शिकार करने
की नयी
जुगत
बना रहा है

कौवा
कबूतर
भेज कर
उल्लूओं को
फंसा रहा है

ये पक्षियों
को क्या होता
जा रहा है

पारिस्थितिकी
को क्यों इस तरह
बिगाड़ा जा रहा है

"आदमी की
संगत का असर 

पक्षियों का
राजनीतिक
सफर"

मूँछ मे
ताव देता
एक प्रोफेसर
टेढ़े टेढ़े मुंह से
हंसता हुवा
यू जी सी की
संस्तुति हेतु
एक करोड़
की परियोजना
बना रहा है।