उलूक टाइम्स: पेड़
पेड़ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पेड़ लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

जरूरी है जिंदा ना रहे बौद्धिकता


क्या
परेशानी है
किसी को

अगर
कोई

अपने
हिसाब
का
सवेरा

अपने
समय
के
हिसाब से

करवाने
का

दुस्साहस
करता है

उनींदे
सूरज को

गिरेबान खींच

ला
कर
रख देना

अपनी
सोच की
दिशा के
छोर पर

और
थमा देना

उसके
हाथ में

अपने
बहुमत से
निर्धारित
किया गया

उसके
समय का
सरकारी आदेश

उसके
चमकने का कोण

और
ताकत

उसे बता कर

समय से पहले
पौंधे
पर

पैदा हो गयी
कली की
पंखुड़ियों
को

आदेशित
कर
खुल लेने
का

और

तुरंत
बन जाने
के लिये

एक फूल

किसी के
हिसाब
का

समय से पहले
पैदा
हुऐ बच्चे
को

मैराथन
में दौड़ लेने

या
उनके

उड़ने
की
कल्पना
 बेचने की

बिना पंखों के

सब संभव है

बस
बैठा दीजिये

हर
सुखा दिये गये
जवान पेड़
की
फुनगी पर

एक कबूतर

एक निशान
लगा हुआ
एक रंग
की
एक या दो लाईन का

जरूरी है
कबूतर ने
उजाड़ी हो
कोई एक
फलती फूलती डाल

जिसके हों
 कहीं ना कहीं
उसके चेहरे पे
निशान
बौद्धिकता 
जिंदा
ना रहे

ठानकर

मरे
ना भी

तो 
भी
घिसटती रहे

ताउम्र

जिसे
देखते रहें

लाईन पड़े
कबूतर

अट्टहास
करते हुऐ

‘उलूक’
जरूरी है

अंधों
का
रजिस्टर
बनना भी

जो
रात में
देख लेते हैं
ऊल जलूल

तेरी तरह।

चित्र साभार: 

रविवार, 15 जुलाई 2018

किसी किसी आदमी की सोच में हमेशा ही एक हथौढ़ा होता है

दो और दो
जोड़ कर
चार ही तो
पढ़ा रहा है
किसलिये रोता है

दो में एक
इस बरस
जोड़ा है उसने
एक अगले बरस
कभी जोड़ देगा
दो और दो
चार ही सुना है
ऐसे भी होता है

एक समझाता है
और चार जब
समझ लेते हैं
किसलिये
इस समझने के
खेल में खोता है

अखबार की
खबर पढ़ लिया कर
सुबह के अखबार में

अखबार वाले
का भी जोड़ा हुआ
हिसाब में जोड़ होता है

पेड़
गिनने की कहानी
सुना रहा है कोई
ध्यान से सुना कर
बीज बोने के लिये
नहीं कहता है

पेड़ भी
उसके होते हैं
खेत भी
उसके ही होते हैं

हर साल
इस महीने
यहाँ पर यही
गिनने का
तमाशा होता है

एक भीड़ रंग कर
खड़ी हो रही है
एक रंग से
इस सब के बीच

किसलिये
उछलता है
खुश होता है

इंद्रधनुष
बनाने के लिये
नहीं होते हैं

कुछ रंगों के
उगने का
साल भर में
यही मौका होता है

एक नहीं है
कई हैं
खीचने वाले
दीवारों पर
अपनी अपनी
लकीरें

लकीरें खीचने
वाला ही एक
फकीर नहीं होता है

उसने
फिर से दिखानी है
अपनी वही औकात

जानता है
कुछ भी कर देने से
कभी भी यहाँ कुछ
नहीं होना होता है

मत उलझा
कर ‘उलूक’
भीड़ को
चलाने वाले
ऐसे बाजीगर से
जो मौका मिलते ही
कील ठोक देता है

अब तो समझ ले
बाजीगरी बेवकूफ

किसी किसी
आदमी की
सोच में
हमेशा ही एक
हथौढ़ा होता है ।

चित्र साभार: cliparts.co

शुक्रवार, 1 दिसंबर 2017

एक और साल अपना दिसम्बर लिये सामने से नजर आता है

कितना
कुछ
यूँ ही छूट
जाता है

समय पर
लिखा ही
नहीं जाता है

चलते चलते
सड़क पर
अचानक
कुछ पक
पका जाता है

कहाँ रखो
सम्भाल कर

कलम कापी
रखने का
जमाना
याद आता है

लकीरें खींचना
आने ना आने
का सवाल
कहाँ उठता है

लकीरें खींचने
वाला शिद्दत
के साथ
हर पेड़ की
छाल पर
उसी की
शक्ल खोद
जाता है

किसी के
यहाँ भी होने
और उसी के
वहाँ भी होने
से ही जिसके
होने का मुरीद
जमाना हुआ
जाता है

जानते बूझते
हुऐ उसे
पूजा जाता है
किसी को वो
कहीं भी नजर
नहीं आता है

किसी का यहाँ
भी नहीं होना
और उसी का
वहाँ भी नहीं होना
उसके पूज्य होने
का प्रमाण
हो जाता है

दुर्भाग्य होता
है उसका जो
यहाँ का यहाँ
और
उसका भी
जो वहाँ का वहाँ
रहने की सोच से
बाहर  ही नहीं
निकल पाता है

दुनियाँ ऐसे
आने जाने
वालों के
पद चिन्हों
को ढूँढती है
जिन पर
चल देने वाला
बहुत दूर तक
कहीं पहुँचा
दिया जाता है

इधर से जाने
उधर से आने
उधर से जाने
इधर से आने
वालों को

खड़े खड़े
दूर से
आते जाते हुऐ

देखते रहने
वाले ‘उलूक’
की बक बक
चलती चली
जाती है

फिर से एक
और साल
इसी तरह
इसी सब में
निकलने के लिये
दिसम्बर का
महीना सामने
लिये खड़ा
हो जाता है ।

चित्र साभार: Can Stock Photo

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

आदमी सोचते रहने से आदमी नहीं हुआ जाता है ‘उलूक’

एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के

फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना

कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है

जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ

इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है

फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा

निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है

खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है

पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है

आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है

भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये

रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये

उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती 

ही हैं

आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'

कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी

तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।

चित्र साभार: Free Clip art

रविवार, 5 जून 2016

विश्व पर्यावरण दिवस चाँद पर मनाने जाने को दिल मचल रहा है

कल रात चाँद
सपने में आया
बहुत साफ दिखा
जैसे कोई दूल्हा
बारात चलने
से पहले रगड़
कर हो नहाया
लगा जैसे
किसी ने कहा
आओ चलें
 चाँद पर जाकर
लगा कर आयें
कुछ चित्र
कुछ पोस्टर
कुछ साफ पानी के
कुछ स्वच्छ हवा के
कुछ हरे पेड़ों के
शोर ना करें
हल्ला ना मचायें
बस फुसफुसा
कर आ जायें
कुछ गीत
कुछ कवितायें
फोड़ कर आयें
हौले से हल्के
फुल्के कुछ भाषण
जरूरी भी है
जमाना भी यहाँ का
बहुत संभल
कर चल रहा है
अकेले अब कुछ
नहीं किया जाता है
हर समझदार
किसी ना किसी
गिरोह के साथ
मिल बांट कर
जमाने की हवा
को बदल रहा है
घर से निकलता है
जो भी अंधेरे में
काला एक चश्मा
लगा कर
निकल रहा है
सूक्ष्मदर्शियों की
दुकाने बंद
हो गई हैंं
उनके धंधों
का दिवाला
निकल रहा है
दूरदर्शियों की
जयजयकार
हो रही है
लंका में सोना
दिख गया है
की खबर रेडियो
में सुना देने भर से
शेयर बाजार में
उछालम उछाला
चल रहा है
यहाँ धरती पर
हो चुका बहुत कुछ
से लेकर सब कुछ
कुछ दिनों में ही इधर
चल चलते हैं ‘उलूक’
मनाने पर्यावरण दिवस
चाँद पर जाकर
इस बार से
यहाँ भी तो
बहुत दूर के
सुहाने ढोल नगाड़े
बेवकूफों को
दिखाने और
समझाने का
बबाला चल रहा है ।

चित्र साभार: islamicevents.sg

सोमवार, 23 मई 2016

लिखना हवा से हवा में हवा भी कभी सीख ही लेना

कफन
मरने के
बाद ही
खरीदे
कोई

मरने
वाले के लिये
अच्छा है

सिला सिलाया
मलमल का
खूबसूरत सा
खुद पहले से
खरीद लेना

जरूरी है
थोड़ा सा कुछ
सम्भाल कर
जेब में उधर
ऊपर के लिये
भी रख लेना

सब कुछ इधर
का इधर ही
निगल लेने से
भी कुछ नहीं होना

अंदाज आ ही
जाना है तब तक
पूरा नहीं भी तो
कुछ कुछ ही सही
यहाँ कितना कुछ
क्या क्या
और किसका
सभी कुछ
है हो लेना

रेवड़ियाँ होती
ही हैं हमेशा से
बटने के लिये
हर जगह ही

अंधों के
बीच में ही
खबर होती
ही है

अंधों के
अखबारों में
अंधों के लिये ही

आँख वालों
को इसमें
भी आता है
ना जाने
किसलिये इतना
बिलखना रोना

लिखने वाले
लिख गये हैं
टुकडे‌ टुकड़े में
पूरा का पूरा
आधे आधे का
अधूरा भी
हिसाब सारा
सब कुछ कबीर
के जमाने से ही

कभी तो माना
कर जमाने के
उसूलों को
‘उलूक’

किसी एक
पन्ने में पूरा
ताड़ का पेड़
लिख लेने से
सब कुछ
हरा हरा
नहीं होना ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शनिवार, 18 जुलाई 2015

खिंचते नहीं भी हों इशारे खींचने के लिये खींचने जरूरी होते हैं

थोड़े कुछ
गिने चुने
रोज के वही
उसी तरह के
जैसे होते हैं
खाने पीने
के शौकीन
जैसे कहीं किसी
खाने पीने की
जगह ही होते हैं
यहाँ ना ढाबा
ना रोटियों पराठों
का ना दाल मखानी
ना मिली जुली सब्जी
कुछ कच्ची कुछ
पकी पकाई बातें
सोच की अपनी
अपनी किसी की
किताबें कापियाँ
कलम पेंसिल
दवात स्याही
काली हरी लाल
में से कुछ कुछ
थोड़े बहुत
मिलते जुलते
जरूर होते हैं
उम्र के हर पड़ाव
के रंग उनके
इंद्रधनुष में
सात ही नहीं
हमेशा किसी के
कम किसी के
ज्यादा भी होते हैं
दर्द सहते भी हैं
मीठे कभी कभी
नमकीन कभी तीखे
दवा लिखने वाले
सभी तो नहीं होते हैं
बहुत कुछ टपकता है
दिमाग से दिल से
छलकते भी हैं
सबके हिसाब से
सभी के शराब के
जाम हों जरूरी
नहीं होते हैं
कहना अलग
लिखना अलग
पढ़ना अलग
सब कुछ छोड़ कर
कुछ के लिये
किसी के कुछ
इशारे बहुत होते हैं
कुछ आदतन
खींचते हैं फिर
सींचते हैं बातों को
‘उलूक’ की तरह
बेबात के पता
होते हुऐ भी
बातों के पेड़ और
पौंधे नहीं होत हैं ।

चित्र साभार: all-free-download.com

शनिवार, 27 जून 2015

मौन की भाषा को बस समझना होता है किसी की मछलियों से कुछ कहना नहीं होता है

बोलते बोलते बोलती
बंद हो जाती है जब
किसी की अपनी ही
पाली पोसी मछलियाँ
तैरना छोड़ कर
पेड़ पर चढ़ना
शुरु हो जाती हैं
वाकई बहुत
मुश्किल होता है
घर का माहौल
घर वालों को
ही पता होता है
जरूरी नहीं
हर घर में किसी
ना किसी को कुछ
ना कुछ लिखना
भी होता है
हर किसी का
लिखा हर कोई
पढ़ने की कोशिश
करे ऐसा भी
जरूरी नहीं होता है
संजीदा होते हैं
बहुत से लोग
संजीदगी ओढ़ लेने
का शौक भी होता है
और बहुत ही
संजीदगी से होता है
मौन रहने का
मतलब वही नहीं
होता है जैसा
मौन देखने वाले
को महसूस होता है
मछलियाँ एक ही
की पाली हुई हों
ऐसा भी नहीं होता है
एक की मछलियों
के साथ मगरमच्छ
भी सोता है
पानी में रहें या
हवा में उड़े
पालने वाला उनके
आने जाने पर
कुछ नहीं कहता है
जानता है मौन रखने
का अपना अलग
फायदा होता है
लंबी पारी खेले हुऐ
मौनी के मौन पर
बहुत कह लेने से
कुछ नहीं होता है
कहते कहते खुद
अपनी मछलियों को
आसमान की ओर
उछलते देख कर
बहुत बोलने वाला
बहुत संजीदगी के साथ
मौन हो लेता है
बोलने वाले के साथ
कुछ भी बोल देने वालों
के लिये भी ये एक
अच्छा मौका होता है
ग्रंथों में बताया गया है
सारा संसार ही एक
मंदिर होता है
कर्म पूजा होती है
पूजा पाठ करते समय
वैसे भी किसी को
किसी से कुछ नहीं
कहना होता है
मछलियाँ तो
मछलियाँ होती हैं
उनका करना
करना नहीं होता है ।

चित्र साभार: all-free-download.com

मंगलवार, 6 जनवरी 2015

नदी में लगी आग और मछलियों की मटरगश्ती

नदी में आग
लगी हुई है
और मछलियाँ
पेड़ पर चढ़ कर
सोई हुई हैं

अब आप कहेंगे
नदी में किसने
आग लगाई
मछलियाँ पेड़ पर 

किसने चढ़ाई

अरे इतना भी नहीं
अगर जानते हो
तो इधर उधर
लिखे लिखाये को
छलनी हाथ में
लेकर क्यों छानते हो

होना वही होता है
जो राम ने रचा
हुआ होता है

राम कौन है
पूछने से पहले
सोच लेना होता है
रहना होता है या
नहीं रहना होता है

राम को तो
माननीय
कुरैशी जी
तक जानते हैं
और जो राम को
नहीं जानते हैं
उनको वो बहुत ही
बदनसीब मानते हैं

अब ये नहीं कहना
मुझको नहीं पता है
अखबार में मुख्य पृष्ठ
पर उनका ऐसा ही
कुछ वक्तव्य छपा है

उनका हर हितैशी
उस अखबार के
पन्ने को फ्रेम करवा
कर मंदिर की दीवार
में मढ़ रहा है
जिनको पता है
देवों की धरती पर
राम का जहाज
उतरवाने का कोई
जुगाड़ कर रहा है

राम तो ऊपर से
नीचे को आना
भी शुरु हो गये है
पर तबादले की
खबर सुनकर
भद्रजन ठीक समय
पर सड़कों को छोड़
पैदल सड़कों पर
चलना शुरु कर गये हैं

ऐन मौके पर राम के
जहाज के पैट्रोल का
पैसा देने वाले
मुकर गये हैं
राम भी सुना है
देवभूमी की ओर
आने के बजाये
पूरब की ओर
जाना शुरु हो गये हैं

कुछ भी हो
जब से आये हैं
पालने राज्य को
राम राम करते करते
राममय हो गये हैं

आते आते तो
किये ही कई काम
कई काम जाते जाते
भी जाने से पहले
की तारीखें लिख
कर कर गये हैं

कुछ छप्पर वालों
को छप्पर फाड़
कर दे गये हैं
कुछ पक्की
छत के मकान
छ्प्पर लगवाने
लायक भी नहीं
रह गये हैं

उन्ही की कृपा है
दो चार गधे घोड़े
की बिरादरी में
शामिल हो गये हैं
और दो चार घोड़े
गधों में मिलाने
के काबिल हो गये हैं

उनके आने पर
कौन कितना
खुश हुआ है और
उनके जाने पर
किस को कितना
दुख: हुआ है
जो है सो है
होनी को तो होना है
आप को लेकिन
परेशान नहीं होना है
पानी में लगी आग से
पानी का कुछ
नहीं होना है

और मछलियाँ
तो मछलियाँ है
कहीं भी चली जायेंगी

आज पेड़ पर
चढ़ी दिख रही है
कल को आसमान
में उड़ जायेंगी
तेरे को तेरे घर में
और मेरे को
मेरे घर में ही
बस रोना है ।

चित्र साभार: www.bigstockphoto.co

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

कभी लिख तो सही पेड़ जंगल मत लिख डालना लिखना बस एक या डेढ़ दो पेड़

पेड़ के इधर पेड़
पेड़ के उधर पेड़
बहुत सारे पेड़
एक दो नहीं
ढेर सारे पेड़
चीड़ के पेड़
देवदार के पेड़
नुकीली पत्तियों
वाले कुछ पेड़
चौड़ी पत्तियों
वाले कुछ पेड़
सदाबहार पेड़
पतझड़ में
पत्तियाँ झड़ाये खड़े
कई कई हजार पेड़
आदमी के आस
पास के पेड़
बहुत दूर
आदमी की पहुँच
से बाहर के पेड़
पेड़ के पास
के आदमी
आदमी और पेड़
पेड़ और आदमी
आदमी के
पास के आदमी
पेड़ के पास के
कुछ खुश
कुछ उदास पेड़
पेड़ से कुछ नहीं
कहते कभी
भी कुछ पेड़
आदमी से
कुछ नहीं लेते
कभी भी कुछ पेड़
आदमी से सभी कुछ
कह देते आदमी
जमीनों पर खुद ही
उग लेते
पनप लेते पेड़
जमीनों से कटते
उजड़ते पेड़
आदमी के
हाथ से कटते पेड़
आदमी के हाथ से
कटते आदमी
आदतन आदमी
के होते सभी पेड़
पेड़ को
जरूरत ही नहीं
पेड़ के होते
नहीं आदमी
पेड़ के होते
हुऐ सारे पेड़
पेड़ ने कभी
नहीं मारे पेड़
इंसानियत के
उदाहरण पेड़
इंसान के सहारे
एक ही नहीं
सारे के सारे पेड़
‘उलूक’ तेरी तो
तू ही जाने
किस ने तेरी सोच
में से आज
क्यों और
किसलिये
निकाले पेड़ ही पेड़ ।

चित्र साभार: imageenvision.com

गुरुवार, 25 सितंबर 2014

लिखा होता है कुछ और ही और इशारे कुछ और जैसे दे रहा होता है

कारवाँ कुछ ऐसे
जिनके शुरु होने
के बारे में पता
नही होता है
ना ही पता होता है
उनकी मंजिल का
बस यूँ ही होते होते
महसूस होता है
शामिल हुआ होना
किसी एक ऐसी
यात्रा में जहाँ कहीं
कुछ नहीं होता है
आसपास क्या
कहीं दूर दूर
बहुत दूर तक
घने जंगल के बीच
पेड़ों के बीच से
आती रोशनी की
किरणों से बनते
कोन या फिर
सरसराती
हवाओं का शोर
गिरते पानी की
छलछलाहट
या फिर झिंगुरों
की आवाज
सबका अलग
अलग अपना
अस्तित्व
समझने की
जरूरत कुछ भी
नहीं होती है
फिर भी अच्छा सा
महसूस होता है
कभी कभी गुजर
लेना कुछ दूर तक
बहुत सारे चलते
कारवाओं के बीच
से चुपचाप
बिना कुछ कहे सुने
लिखते लिखते
बन चुके शब्दों के
कारवाओं के बीच
निशब्द कुछ शब्द
भी यही करते हैं
मौन रहकर कुछ
कहते भी हैं और
नहीं भी कहते हैं
समझने की कोशिश
करना हमेशा जरूरी
भी नहीं होता है
कभी कभी किसी का
लिखा कुछ नहीं भी
कह रहा होता है
पढ़ने वाला बस
एक नजर कुछ
देर बिना पढ़े
लिखे लिखाये
को बस देख
रहा होता है
समझ में कुछ
नहीं भी आये
फिर भी एक
सुकून जैसा कहीं
अंदर की ओर
कहीं से कहीं को
बह रहा होता है
महसूस भी कुछ
हो रहा होता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

मंगलवार, 24 जून 2014

रोज एक नई बात दिखती है पुराने रोज हो रहे कुछ कुछ में

ये पता होते
हुऐ भी कि
बीज हरे भरे
पेड़ पौँधे के
नहीं है जो
बो रहे हैं
उनसे बस
उगनी हैं
मिट्टी से
रेत हो चुकी
सोच में कुछ
कंटीली झाड़ियाँ
जिनको काटने
के लिये कभी
पीछे मुड़ के
भी किसी ने
नहीं देखना है
उलझते रहे
पीछे से आ रही
भीड़ की सोच
के झीने दुपट्टे
और होते रहे
बहुत कुछ
तार तार
समय के
आर पार
देखना शुरु
कर लेना
सीख लेने
से भी कुछ
नहीं होता
अपने से शुरु
कर अपने में
ही समाहित
कर लेने में
माहिर हो कर
कृष्ण हो चुके
लोगों को अब
द्रोपदी के चीर
के इन्ही सोच
की झड़ियों में
फंस कर उधड़ना
देख कर शंखनाद
करना कोई नई
बात नहीं है
तुझी को आदत
डालनी पड़ेगी
बहरे होने की
नहीं हो सकता
तो चीखना सीख
एक तेज आवाज
के साथ जो
आज के कृष्ण
के शंख का
मुकाबला कर सके
तू नहीं तो
कृष्ण ही सही
थोड़ा सा
खुश रह सके ।

रविवार, 18 मई 2014

लिख लिया कर लिखने के दिन जब आने जा रहे होते हैं

घर पर गिरने
गिरने को हो
रहे सूखे पेड़ों
को कटवा लेने
की अनुमति
लेने की अर्जी
पिछले दो साल से
सरकार के पास
जब कहीं सो
रही होती है
पता चलता है
सरकार उलझी होती है
कहीं जिंदा पेड़ों के
धंधेबाजों के साथ
इसी लिये मरे हुऐ
पेड़ों के लिये
बात करने में
देरी हो रही होती है
देवदार के जवान पेड़
खुले आम पर्दा
महीन कपड़े
का लगाकर
शहीद किये
जा रहे होते हैं
जरूरत ही नहीं
पड़ती है धूल की
आँखों में झोंकने
की किसी के
कटते पेड़ों के
बगल से
गुजरते गुजरते
आँखें जब कहीं
ऊपर आसमान
की ओर हो
रही होती हैं
बहुत लम्बे समय
से चल रहा होता
है कारोबार
पेड़ों की जगह
उगाये जा रहे होते हैं
कंक्रीट के खम्बे
एक की जगह चार चार
शहर के लोग ‘महान’ में
कट रहे जंगलों की
चिंता में डूबते
जा रहे होते हैं
अपने घर में हो रहे
नुकसान की बात कर
अपनी छोटी सोच का
परिचय शायद नहीं
देना चाह रहे होते हैं
उसी के किसी आदमी
के आदमी के आदमी
ही होते हैं जिसके लिये
लोग आँख बंद कर
ताली बजा रहे होते हैं
ऐसे ही समय में
‘उलूक’ कुछ
तेरे भी जैसे होते हैं
जो कहीं दूर किसी
दीवार पर कबूतर
बना रहे होते हैं ।

बुधवार, 16 अप्रैल 2014

लिख आ कहीं जा कर किसी पेड़ की छाल पर ये भी

ईश्वर के
उस पुजारी
की तरफ
मत देख

जिसे उसके
मंदिर की
जिम्मेदारी
दी गई है

उसका पूजा
करने का
तरीका तुझे
पसंद नहीं भी
हो सकता है

पर यज्ञ
हो रहा है
एक बहुत
विशाल

ईश्वर को
लेकर नहीं
नरक हो
चुके लोकों
के उद्धार
करने के लिये

अवतरित
होने की प्रथा
में परिवर्तन कर
पास किया
जा चुका है

ईश विधेयक
नहीं भेजता
भक्तों के
अवलोकन
के लिये कभी

भक्तों का
विश्वास उसकी
ताकत होती है

आहुति देने
के सामान
के बारे में
पूछ ताछ
करना
सख्त मना है

आचार संहिता
और
सरकार के
भरोसे को
तोड़ने वाले को
जेल भेजने
के लिये
बहुत से कानून
उसने अपने
भक्तों को
बांंटे हुऐ हैं

अब ऐसे में
‘उलूक'
तू यही कहेगा

किसी भी
पुजारी का
आदमी नहीं है

किसी मंदिर
मस्जिद
गुरुद्वारे चर्च से
तुझे कुछ लेना
और देना नहीं है

तो समझ ले
तेरी सारी
परेशानी की
जड़ तू खुद है

इसीलिये
तुझको
राय दी
जा रही है

तेरे और
तेरे जैसे
थोड़े बहुत
कुछ और
बेवकूफों को
बताने के लिये

यज्ञ
हो रहा है
मान ले
आहुति
देने को
तैयार रह

ईश्वर
और भक्तों
की सत्ता को
मत ललकार

पागल
हो जायेगा
आहुति
का सामान
बाजार में भी
मिलता है
खरीद डाल

बिल की
मत सोच
नेकी कर
कुऐं में
डाल दी गई
चीजों की लिस्ट

कभी किसी
जमाने में
खुदाई में
जरूर निकल
कर के आयेंगी

आगे तेरी
ही पीढ़ी में
किसी को
ताम्र पत्र
दिलाने
के काम
आ जायेंगी
ठंड रख।

बुधवार, 19 मार्च 2014

लहर दर लहर बहा सके बहा ले अपना घर

ना पानी की
है लहर
ना हवा की
है लहर
बस लहर है
कहीं किसी
चीज की है
कहीं से कहीं
के लिये चल
रही है लहर
चलना शुरु
होती है लहरें
इस तरह की
हमेशा ही नहीं
बस कभी कभी
लहर बनती
नहीं है कहीं
लहर बनाई
जाती है
थोड़ा सा
जोर लगा कर
कहीं से कहीं को
चलाई जाती है
हाँकना शुरु
करती है लहर
पत्ते पेड़ पौंधों
को छोड़ कर
ज्यादातर भेड़
बकरी गधे
कुत्तों पर
आजमाई जाती
है लहर
बहना शुरु
होता है
कुछ कुछ
शुरु में
लहर के
बिना भी
कहीं को
कुछ इधर
कुछ उधर
बाद में कुछ
ले दे कर
लहराई जाती
है लहर
आदत हो चुकी
हो लहर की
हर किस को
जिस जमीन पर
वहाँ बिना लहर
दिन दोपहर
नींद में ले
जाती है लहर
कैसे जगेगा
कब उठेगा
उलूक नींद से
जगाना मुश्किल
ही नहीं
नामुमकिन है तुझे
लहर ना तो
दिखती है कहीं
ना किसी को
कहीं दिखाई
जाती है लहर
सोच बंद रख
कर चल उसी
रास्ते पर तू भी
हमेशा की तरह
आपदा आती
नहीं है कहीं
भी कहीं से
लहर से लहर
मिला कर ही
हमेशा से लहर
में लाई जाती
है लहर
लहर को सोच
लहर को बना
लहर को फैला
डूब सकता है
डूब ही जा
डूबने की इच्छा
हो भी कभी भी
किसी को इस
तरह बताई नहीं
जाती है लहर
हमेशा नहीं चलती
बस जरूरत भर
के लिये ही
चलाई जाती
है लहर ।

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

समय के साथ मर जाने वाले लिखे पढ़े को छापने से क्या होगा

पेड़ की शाख पर ही
बैठ कर देखा था
जटायू ने भी
बहुत कुछ उस समय
बहुत कुछ बताया भी था
मरते मरते तक भी
राम को सीताहरण
का आँखों देखा हाल
तुलसीदास जी तो
लिख भी गये थे
रामचरित मानस में
जंगल के बीच हुआ
सारा का सारा बबाल
दूरियाँ बहुत थी
बात जाती ही थी
बहुत दूर तलक जब
निकल ही लेती थी
गजल तब भी बनती थी
संगीत भी दिया जाता था
अपसरायें भी उतर लेती थी
कभी कभी ऊपर
आसमान से नीचे
इस धरती पर
धरती पर ही जैसे
एक स्वर्ग उतर आता था
लिखा गया होगा
जरूर कहीं ना कहीं
सच भी होगा
एक कहाँनी नहीं होगी
जरूर इतिहास के किसी
मोड़ का वर्णन होगा
और इसी लिये तो
उस जमाने का राम
आज तक जिंदा होगा
औरत का अपहरण
और उसके घर से
उसके निष्काशन का बिल
उस समय की संसद में
ही पास हो गया होगा
इसी लिये बेधड़क
हिम्मती लोगों के द्वारा
आज तक प्रयोग
हो रहा होगा
बस राम राज्य की
कल्पना को कहीं
ऊपर से संशोधन
के लिये लौटा
दिया गया होगा
जटायू को दूर तक
नहीं देखने की
चेतावनी भी तभी
दे दी गई होगी
एक उल्लू भी तभी से
हर शाख पर बैठा
दिया गया होगा
और इन्ही उल्लुओं
की खबर छापने के लिये
उल्लुओं में सबसे उल्लू
को एक अखबार निकालने
के लिए कह
दिया गया होगा
इतिहास भी होगा
सीता और राम
भी चलता चलेगा
तुलसीदास की
रामचरित मानस की
रायल्टी के लिये
सुप्रीम कोर्ट का
फैसला भी होगा
उल्लूक की समझ में
नहीं आई तो बस
यही बात कि उसने
उल्लूक के अखबार
की किताब छाप लेने
को क्यों कहा होगा
शायद उसे मालूम
हो गया होगा
आने वाले समय में
कूड़े के व्यापार में ही
नुकसान कम और
नफा ज्यादा होगा !

शनिवार, 11 जनवरी 2014

राय देने में कहाँ कहता है कोई खर्चा बहुत ज्यादा ही होता है

कुछ ऐसा क्यों 
नहीं लिखता कभी 
जिसे एक गीत की 
तरह गाया जा सके 
तेरे ही किसी
अंदाज को
 
एक हीरो की तरह 
उस पर फिल्माया 
भी कभी जा सके 
रहने भी दीजिये 
इतना भाव भी
खाली मत बढ़ाइये 
लिखने के लिये 
लिखने वाले बहुत 
पाये जाते हैं यहा 
हजूर
हमें बख्श दीजिये
 
खजूर के पेड़ पर 
इस तरह तो ना 
मजबूर कर चढ़ाइये 
अब जब पहुँच ही 
गये हैं आप हमारी 
हिसाब लिखने 
की दुकान तक 
हमें लिखने से 
कोई मतलब नहीं 
रहता है कभी भी 
इस बात को थोड़ा 
समझते हुऐ
अब जाइये
 
श्रीमती जी भी परेशान 
किया करती थी बहुत

दिनों तक हमारे लिखने 
लिखाने को लेकर
उनसे भी बोलना 
पड़ा एक दिन इसी 
तरह से दुखी होकर 
समझा करो कभी 
हमारी भी मजबूरी 
भाग्यवान
थोड़ा सा
 
हमारी तरह होकर 
तुम तो सारा कूड़ा 
रसोई का कूड़ेदान में 
डालकर फारिग 
हो जाती हो 
कुछ ना कुछ 
कर धर कर 
हमसे कुछ तो 
होता नहीं कहीं भी 
फिलम भी अब 
बनती है हर कोई 
किसी ना किसी 
विलेन को ही लेकर 
वही निकलता है 
गली से अंत में 
देखने सुनने वालों 
का भगवान होकर 
गीत भी उसका 
लिखता वही है 
संगीत भी उसी का 
सुनाई देता है 
सब नाचते गाते हैं 
उसी को कंधों पर
अपने रख कर 
हीरो कहीं पिटता है 
कहीं बरतन उठाता 
हुआ दिखाई देता है 
गीत हीरो पर 
फिल्माया
गया हुआ
 
क्या आपको
अब भी
 
कहीं दिखाई
देता है
 
या समझ
लूँ मैं
 
इस बात
को इस तरह
 
की मुझ में
ही आपको
 
आज का कोई 
विलेन एक 
दिखाई देता है | 


मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

पानी से अच्छा होता अगर दारू पर कुछ लिखवाता


हर कोई तो पानी 
पर लिख रहा है

अभी अभी का 
लिखा हुआ पानी पर
अभी का अभी
उसी 
समय जब मिट रहा है

तुझे ही पड़ी है 
ना जाने क्यों
कहता जा रहा है पानी सिमट रहा है

जमीन के नीचे 
बहुत नीचे को चला जा रहा है

पानी की बूंदे 
तक शरमा रही हैं
अभी दिख रही हैं अभी विलुप्त हो जा रही हैं
उनको पता है 
किसी को ना मतलब है ना ही शरम आनी है

सुबह सुबह की 
ओस की फोटो
तू भी कहीं लगा होगा खींचने में
मुझे नहीं लगता है 
किसी और को पानी की कहीं भी याद कोई आनी है

इधर आदमी लगा है 
ईजाद करने में
कुछ ऐसी पाईप लाइने
जो घर घर में जा कर
पैसा ही पैसा बहाने को बस रह जानी हैं

तू भी देख ना कहीं 
पैसे की ही धार को
हर जगह आजकल 
वही बात काम में बस किसी के आनी है

पानी को भी कहाँ 
पड़ी है
पानी की 
अब कोई जरूरत
आँखे भी आँखो में पानी लाने से
आँखो को ही परहेज करने को
जब कहके 
यहाँ अब जानी हैं

नल में आता तो है 
कभी कभी पानी
घर पर नहीं आता है तो कौन सा गजब ही हो जाना है
बस लाईनमैन की जेब को गरम ही तो करवाना है
तुरंत पानी ने दौड़ कर आ जाना है

मत लिया कर इतनी 
गम्भीरता से किसी भी चीज को
आज की दुनियाँ में 
हर बात नई सी जब हो जा रही है

हवा पानी आग 
जमीन पेड़ पौंधे
जैसी बातें सोचने वाले लोगों के कारण ही
आज की पीढ़ी
अपनी अलग पहचान नहीं बना पा रही है

पानी मिल रहा है पी 
कुछ मिलाना है मिला
खुश रह
बेकार की बातें मत सोच कुछ कमा धमा

होगा कभी 
युद्ध भी अगर
पानी को 
लेकर कहीं
वही मरेगा सबसे पहले
जो पैसे का नल नहीं लगा पायेगा
पैसा होगा तो वैसे भी प्यास नहीं लगेगी

पानी नहीं भी 
होगा कहीं तब भी
कुछ अजब 
गजब नहीं हो जायेगा
ज्यादा से ज्यादा 
शरम से जमीन के थोड़ा और नीचे की ओर चला जायेगा

और फिर
एक बेशरम 
चीर हरण करेगा
किसी को भी कुछ नहीं होगा
बस
पानी ही खुद में पानी पानी हो जायेगा ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

दीमक है इतनी जल्दी हरियाली देख कर कैसे हार जायेगा

सड़े हुऐ पेड़
की फुनगी पर
कुछ हरे
पत्ते दिखाई
दे रहे हैं

का समाचार लेकर
अखबारी दीमक
दीमकों की
रानी के पास
डरते डरते
जा पहुँचा

उसके मुँह पर
उड़ रही हवा
को देखकर
रानी ने अपने
मंत्री दीमक
को इशारा
करके पूछा

क्या बात है
क्या हो गया
इस को देख कर
तो लग रहा है
जैसे कहीं कोई
बहुत बड़ा तूफान
है आ बैठा

मंत्री मुस्कुराया
थोड़ा उठा
रानी जी के
नजदीक पहुँच कर
कान में फुसफुसाया

महारानी जी
कुछ भी कहीं
नहीं हुआ है
इसको थोड़ी
देर के लिये
कुछ मतिभ्रम सा
कुछ हो गया है

दो चार हरे पत्ते
पेड़ पर देख कर
क्या आ गया है

सारा जंगल हरा
हो जाने वाला है
सोच कर ही
फालतू में
चकरा गया है

आप क्यों
बेकार में
परेशान होने
जा रही हैं

कुछ मजबूत
दीमकों को
आज से
नई तरह से
काम शुरु करने
का न्योता
भेजा गया है

हमारे दीमक
इतना चाट चुके
हैं पेड़ की लकड़ी को

वैसे भी चाटने
के लिये कहीं
कुछ बचा क्या है

पुराने दीमकों को
छुट्टी पर इसलिये
कल से ही
भेज दिया गया है

नये दीमक
नई उर्जा से
चाटेंगे पेड़ के
कण कण को

यही संदेश
हर कोने कोने पर
पहुँचा दिया गया है

पीले दीमक
पीछे को
चले जा रहे हैं

लाल दीमक
झंडा अपना
अब लहरा रहे हैं

इस
बेवकूफ को
क्या पता
कहाँ कहाँ
इस युग में
क्या से क्या
हो गया है

पेड़ को भी
पता नहीं
आज ही
आज में
ना जाने
क्या हो गया है

बुझते हुऐ दिये
की जैसे एक
लौ हो गया है

चार हरे पत्तों से
क्या कुछ हो जायेगा

बेवकूफ
जानता ही नहीं

नया दीमक
लकड़ी के
साथ साथ
हरे पत्ते
सलाद
समझ कर
स्वाद से
खा जायेगा ।

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

अपेक्षाऐं कैसी भी किसी से रखने में क्या जाता है

दो टांगों पर
चलता 
चला जाऊं अपनी ही 
जिंदगी भर
ऐसा 
सोचना तो
समझ में 
थोड़ा थोड़ा आता है 

सर के बल चल कर 
किसी के पास पहुंचने की
किसी की अपेक्षा 
को
कैसे पूरा 
किया जाता है 

पता कहां 
चल पाती हैं 
किसी की अपेक्षाऐं 
जब अपेक्षाऐं रखना अपेक्षाऐं बताना
कभी 
नहीं हो पाता है 

अपने से जो होना 
संभव कभी नहीं हो पाता है
वही 
सब कुछ
किसी से 
करवाने की अपेक्षा रखते हुऐ
आदमी 
दुनियां से विदा भी हो जाता है 

पर अपेक्षा भी 
कितनी कितनी 
अजीब से अजीब कर सकता है सामने वाला 
ऐसा किसी 
किताब में लिखा हुआ भी नहीं बताया जाता है 

इधर आदमी 
तैयार कर रहा होता है अपने आप को
किसी 
का गधा बनाने की 

उधर अगला 
सोच रहा होता है 
आदमी के शरीर में बाल उगा कर
उसे 
भालू बनाने की 

क्या करे कोई बेचारा 
किसी को किसी की अपेक्षाओं का सपना 
जब नहीं आता है

अपेक्षाऐं
किसी से रखने 
का मोह
कभी कोई 
त्याग ही नहीं पाता है 

अपेक्षाऐं होती 
हैं अपेक्षाऐं रह जाती हैं 

हमेशा अपेक्षाऐं 
रखने वाला 
बस खीजता है खुद अपने पर झल्लाता है 

ज्यादा से ज्यादा 
क्या कर सकता है कर पाता है
दो घूंट के बाद 
दीवारों पर अपने ही घर की कुछ 
कुछ गालियां लिख ले जाता है

सुबह होते 
होते उसे भी मगर भूल जाता है

और अपेक्षाओं के पेड़ को 
अपने ही 
फिर से सींचना
अपेक्षाओं से शुरु हो जाता है ।