उलूक टाइम्स: बलात्कार
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बुधवार, 31 अगस्त 2016

मरे घर के मरे लोगों की खबर भी होती है मरी मरी पढ़कर मत बहकाकर

अखबार के
मुख्य पृष्ठ पर
दिख रही थी
घिरी हुई
राष्ट्रीय
खबरों से
सुन्दरी का
ताज पहने हुऐ
मेरे ही घर की
मेरी ही
एक खबर

हंस रही थी
बहुत ही
बेशरम होकर
जैसे मुझे
देख कर
पूरा जोर
लगा कर
खिलखिलाकर

कहीं पीछे के
पन्ने के कोने में
छुप रही थी
बलात्कार की
एक खबर
इसी खबर
को सामने
से देख कर
घबराकर
शरमाकर

घर के लोग सभी
घुसे हुऐ थे घर में
अपने अपने
कमरों के अन्दर
हमेशा की तरह
आदतन
इरादातन
कुंडी बाहर से
बंद करवाकर

चहल पहल
रोज की तरह
थी आँगन में
खिलखिलाते
हुऐ खिल रहे
थे घरेलू फूल
खेल रहे थे
खेलने वाले
कबड्डी
जैसे खेलते
आ रहे थे
कई जमाने से
चड्डी चड़ाये हुए
पायजामों के
ऊपर से
जोर लगाकर
हैयशा हैयशा
चिल्ला चिल्ला कर

खबर के
बलात्कार
की खबर
वो भी जिसे
अपने ही घर
के आदमियों
ने अपने
हिसाब से
किया गया
हो कवर
को भी कौन सा
लेना देना था
किसी से घर पर

‘उलूक’
खबर की भी
होती हैं लाशें
कुछ नहीं
बताती हैं
घर की घर में
ही छोड़ जाती हैं
मरी हुई खबर
को देखकर
इतना तो
समझ ही
लिया कर ।

चित्र साभार: worldartsme.com

शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

बलात्कार चीत्कार व्यभिचार पर स्मारक बनें खूब बने बनाने बनवाने में किसलिये करना है और क्यों करना है कुछ भी विचार


क्या किया जाये बहुत बार होता है
लिखा जाये या नहीं लिखा जाये

होता है होता है
एक पूरा आदमी हो जाने से ही
सब कहाँ होता है

जैसे कि एक कच्ची रह गई सोच में हो
वही सब कुछ
जो किसी और की सोच से बाहर
आता हुआ तो दिखता है
पर अपनी ऊपर की मंजिल में ही बस
उसका पता नहीं मिलता है

होता है होता है
जैसे कि बहुत सी चीज अजीब लगती होती हैं
होती हुई अपने ही आस पास
पर बनती हैं इतिहास
बैचेनी होने लगती है देख देख कर कभी
और कुछ कुछ होता है

इतिहास हो जाती हैं आदत हो जाती है
फिर कुछ नहीं होता है
आदत हो गई होती है सब कर रहे होते हैं
कुछ नहीं कह रहे होते हैं

एक सामान्य सी ही बात हो जाती है
समझ में नहीं भी आती है तब भी
बहुत अच्छी तरह आ रही है
देखी और दिखाई जाती है
दिखाना पड़ता है

जैसे अपनी और अपनों की ही बात हो जा रही है
कहा नहीं भी जाता है पर जमाना मान जाता है

शहीदों की चिताओं पर लगने वाले मेलों की बात
एक इतिहास हो जाता है

जमाना बदलता है 
बलात्कार व्यभिचार अत्याचार और
ना जाने क्या क्या
सब पर ही बनाया जाता है

स्मारक दर स्मारक
स्मारक के ऊपर स्मारक चढ़ाया जाता है
कुछ समझ में आता भी है
कुछ समझ में नहीं भी आता है ।

चित्र साभार: www.clipartlogo.com

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

इंसानियत तो बस एक मुद्दा हो जाता सरे आम दिन दोपहर की रोशनी में उसे नंगा किया जाता है अंधा ‘उलूक’ देखने चला आता है

एक नहीं 
कई बार 
कहा है
तुझसे 

दिन में मत 
निकला कर 
निकल भी 
जाता है अगर 
तो जो दिखता है 
मत देखा कर 

ऐसा देख
कर आना 
फिर यहाँ आ 
कर बताना 

क्यों करता है 
रात का
निशाचर है 
दिन वालों की 
खबर रखता है 

हर प्रहर के 
अपने नियम कानून 
बनाये जाते हैं 

दिन के दिन में 
रात के रात में 
चलाये जाते हैं 

उल्लुओं की दुनियाँ 
के कब्रिस्तान 
दिन की फिल्मों में 
ही दिखाये जाते हैं 

इंसान इंसान होता है 
इंसान ही उसे 
समझ पाते हैं 

बलात्कार होना 
लाश हो जाना 
कीड़े पड़ जाना 
लाश घर में रख कर 
आँदोलित हो जाना 

वाजिब है 
समझ में भी आता है
आक्रोश होना
अलग बात होती है
आक्रोश दिखाया जाता है

स्कूल बंद कराये जाते हैं
बाजार बंद कराये जाते हैं
बंद कराने वाले
अपने अपने रंग बिरंगे
झंडे जरूर साथ
ले कर आते हैं

अखबार वाले
समाचार
बनाने आते हैं
टी वी वाले
वीडियो
बनाने आते हैं

अगला चुनाव
दिमाग में होता है
राजनीतिज्ञ
वक्तव्य दे जाते हैं

सब कुछ साफ साफ
देख लेता है ‘उलूक’

दिन के उजाले में भी
घटना दुर्घटना
महज मुद्दे हो जाते हैं

सबके लिये
काम होता है
मुद्दे भुनाने का

बस भोगने वाले
अपने आँसू खुद
ही पी जाते हैं

इंसान का हुआ होता
है बलात्कार और
बस इंसान ही खो जाते हैं
कहीं भी नजर नहीं आते हैं

सोच में आती है
कुछ देर के लिये
एक बात
सभी अपने रंगीन
झंडों को भूलकर

किसी एक घड़ी के लिये
काले झंडे एक साथ
एक सुर में
क्यों नहीं उठा पाते हैं ।

चित्र साभर: gladlylistening.wordpress.com