उलूक टाइम्स: बैठे बैठे
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रविवार, 8 सितंबर 2013

शब्द हमेशा सच नहीं बोल रहा होता है

ऎसे ही
बैठे बैठे
कोई
कुछ नहीं
कह देता है

ऎसे ही
बिना सोचे
कोई
कुछ भी
कहीं भी
लिख नहीं
देता है

बांंधने
पढ़ते हैं
अंदर
उबलते हुवे
लावों से
भरे हुऎ
ज्वालामुखी

बहुत कुछ
ऎसा भी
होता है जो
सबके सामने
कहने जैसा ही
नहीं होता है

कहीं नहीं
मिलते हैं
खोजने
पड़ते हैं
मिलते जुलते
कुछ
ऎसे शब्द

खींच सकें
जो उन गन्दी
लकीरों को
शराफत से
पहना कर
कुछ
ऎसे कपडे़
जिस के
आर पार
सब कुछ
साफ साफ
दिख रहा
होता है

पर ये सब
कर ले जाना
इतना
आसान भी
नहीं होता है

शब्द खुद
ही उतारते
चले जाते हैं
शब्दों के कपडे़

शब्द
मौन होकर
ऎसे में कुछ नहीं
कह रहा होता है

चित्र
जीवित होता है

वर्णन करना
उस जीवंतता का
लिखने वाले को ही
जैसे नंगा
कर रहा होता है

क्या किया जाये

लिखने वाले
की मजबूरी को
कोई कहाँ
समझ रहा होता है

अंदर ही अंदर
दम तोड़ते
शब्दों पर
शब्द ही जब
तलवार खींच
रहा होता है

शब्दों के
फटने की
आहट से ही
लिखने वाला
बार बार चौंक
रहा होता है

इसी अंतरद्वंद से
जब रचना का जन्म
हो रहा होता है

सच
किसी कोने में
बैठ कर
रो रहा होता है

जो निकल के
आ जाता है
एक पन्ने में
वो कुछ कुछ
जरूर होता है

पर एक पूरा
सच होने से
मुकर रहा
होता है ।