उलूक टाइम्स: भस्म
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सोमवार, 31 जुलाई 2023

टाईटैनिक के डूब लेने का मुहूरत कहीं ना कहीं तो लिखा होता है


 
माना कि कोई
कितना भी सांप हो लेता है
एक लम्बे समय तक कुण्डली मार लेने के बाद  
सीधे हो कर लौटना आसान नहीं होता है

सांप होना काटने की आदत होना
अलग अलग बातें होती हैं
और हर सांप जहरीला हो
ये भी जरूरी नहीं होता है

सावन का महीना 
शिव के लिए होता है
सांप बस गले में लपटने के लिए भी होता है
भस्म मलने के लिए होती है
भस्मासुर हर पहर का
उसी पहर में भस्म नहीं होता है
जिसमे उसे मलने के लिए शिव खडा होता है

अजीब सी बातें हैं अजीब सी आदतें हैं
अजीब सा समा है अजीब से मेहमा है
क्या होता है अगर तजुर्बा नहीं होता है

शब्द हुंकार के डमरू में सुनाई देते हैं
उसके लिए कान खड़े हों
ये भी कहीं लिखा नहीं होता है

एक लंबा समय लगता है पूँछ को टेडे होने में
सीधे कर लेने के सपने देख लेने  का
कोई समय नहीं होता है

रेत पर बने महल कई सालों तक यूं ही खड़े रह सकते हैं
किसने कह दिया
इस बार की आंधी ने पहले से अगर आगाह कर भी दिया होता है

हजारों कश्तियां होती हैं समुन्दर में कही ना कहीं
जहां और जब डूबना होता है
वो समाचार अखबार में कभी भी
बहुत पहले से नहीं होता है

‘उलूक’ इंतज़ार कर 
खुश हो कर सोच ले
इस बार नहीं तो अगले किसी बार

टाईटैनिक के डूब लेने का मुहूरत
कहीं ना कहीं तो लिखा होता है|


चित्र साभार:
https://www.deviantart.com/


रविवार, 19 जुलाई 2015

हाशिये भी बुरे नहीं होते हैं अगर खुद ही खींचे गये होते हैं

हाशिये खुद ही बनें
खुद के लिये खुद ही
समझ में आ जायें
खुद चला चले कोई
मानकर कुछ
निशानों को हाशिये
और फिर खुद ही
खींच ले लक्ष्मण रेखा
हाशिये के पार
निकल लेने के बाद
सोच कर कि भस्म
वैसे भी कोई नहीं होता
रावण तक जब
नहीं हो सका
हाशियों में धकेलने
के मौके की तलाश में
रहने वालों के लिये
हाशिये माने भी
नहीं रखते हैं
एक जैसे ही रेंगते हुऐ
समझ में आने वाले
समझ लेते हैं रेंगना
एक दूसरे का बहुत
ही आसानी से
बहुत जल्दी और
आनन फानन में
खींच देते हैं एक
काल्पनिक हाशिया
सीधा खड़ा होने की
कोशिश में लगे
हुऐ के लिये और
जब तक समझ पाये
जमीन की हकीकत
खड़े होने की कोशिश
में धकियाये हुआ
हाशिये के पार से
देखता हुआ नजर
आता है खुद को ही
लक्ष्मण भी नहीं
होता है कहीं
रेखाऐं भी दिखती
नहीं हैं बस
महसूस होती हैं
क्या बुरा है ऐसे में
सीख लेना ‘उलूक’
पहले से ही खुद ही
चल कर खड़े हो लेना
हाशिये के पार
खुद खींच कर
खुद के लिये
एक हाशिया।

चित्र साभार: www.slideshare.net

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

कभी किसी बेखुदी में ऐसा भी हो जाता है

बताने की जरूरत
नहीं है उसे जिसे
पता है वो एक
अच्छा वक्ता नहीं है
बताने की जरूरत
नहीं है एक अच्छा
लेखक होना भी
जिसके बस में नहीं है
फिर भी अपने अंदर ही
सब कुछ जला कर
भस्म कर लेना और
पोत लेना उसी राख को
अपने मुँह बालों
और शरीर पर
शिव ना भी हो सके कोई
शिव की बारात का
एक पिशाच भूत
हो जाना क्या
कम नहीं होता है
जिसको और सिर्फ
जिसको पता होता है
शिव का गरल पीना
उसकी मजबूरी नहीं
बस उसकी आदतों में
शामिल एक आदत
आदतन हो गई है
जिसे केवल तिनेत्र धारी
शिव जानता है
और वो भी 
जो
अपने अंदर की राख
को मलता चला जाता है
अपने ही चेहरे पर
जैसे कुछ लिखा
जा रहा हो
सफेद मिट्टी से
काली जमीन पर
वो सब 
जिसे
दोनो देख रहे होते हैं
एक ताँडव में
और एक राख में
लिखा सुना देखा
सब एक ही जगह पर
बताने समझने की
जरूरत के बिना
अपने अपने खेल
अपने अपने शौक
अब चुनाव और वोट से
दोनो को क्या मतलब
कोई जीते कोई हारे
क्या करना है
और क्या होना है
ना किसी को कैलाश
पर्वत पर जा कर
कोई कथा करनी है
ना ही शिव और
उसके भूत के पास
इतनी फुरसत
और क्यों बर्बाद करे
ईश अपनी उर्जा
चींंटियों को खदेड़ने में
तू भी
उलूक
भंग की पिनक में जैसे
पता नहीं क्या
उड़ान भर ले जाता है
रहने दे लिखता रह
क्या फर्क पड़ता है
अगर किसी के
समझ में कुछ
भी नहीं आता है ।