उलूक टाइम्स: मन
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मंगलवार, 24 मार्च 2020

गले गले तक भर गये नहीं कहे जा रहे को रोक कर रखने से कौन सा उसका अचार हो लेना है


मन 
पक्का करना है बस
सोच को
संक्रमित नहीं होने देना है

भीड़ घेरती ही है
उसे कौन सा 
अपनी सोच से कुछ लेना देना है

शरीर नश्वर है
आज नहीं तो कल मिट्टी होना है

तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा
की 
याद आ रही हो सभी को
जब नौ दिशाओं से

ऐसे माहौल में
कुछ कहना जैसे ना कहना है

सिक्का उछालने वाला बदलने वाला नहीं है

चित भी उसकी पट भी उसकी
सिक्का भी उसी की तरह का

जिसे हर हाल में
रेत नहीं होने के बावजूद
सन्तुलन दिखाते मुँह चिढ़ाते
सीधा बिना इधर उधर गिरे खड़ा होना है

सकारात्मकता का ज्ञान दे रही
खचाखच हो गयी भीड़ की
चिल्ल पौं के सामने
कुछ कह देना

अपनी इसकी और उसकी 
की
ऐसी की तैसी करवा लेने का लाईसेंस
खुद अपने हस्ताक्षर कर के दे देना है

छोड़ क्यों नहीं देता है 
पता नहीं
‘उलूक’
बकवास करने के नशे को किसी तरह

गले गले तक भरे कबाड़ शब्दों को 

कौन सा
किसी सभ्य समाज के 
सभ्य ठेकेदार की 
खड़ी मूँछों को तीखी करने वाले 
तेल की धार हो लेना है ?

चित्र साभार:

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

फिर किसी की किसी को याद आती है और हम भी कुछ गीले गीले हो लेते हैं

कदम
रोक लेते हैं
आँसू भी
पोछ लेते हैं

तेरे पीछे नहीं
आ सकते हैं
पता होता है

आना चाहते हैं
मगर कहते कहते
कुछ अपने ही
रोक लेते हैं

जाना तो हमें भी है
किसी एक दिन के
किसी एक क्षण में

बस इसी सच को
झूठ समझ समझ कर
कुछ कुछ जी लेते हैं

यादें होती हैं कहीं
किसी कोने में
मन और दिल के

जानते बूझते
बिना कुछ ढकाये
पूरा का पूरा
ढका हुआ जैसा ही
सब समझ लेते हैं

कुछ दर्द होते है
बहुत बेरहम
बिछुड़ने के
अपनों से
हमेशा हमेशा
के लिये

बस इन्हीं
दर्दों के लिये
कभी भी कोई
दवा नहीं लेते हैं

सहने में
ही होते हैं
आभास उनके

बहुत पास होने के
दर्द होने की बात
कहते कहते भी
नहीं कहते हैं

कुछ आँसू इस
तरह के ठहरे हुऐ
हमेशा के लिये
कहीं रख लेते हैं

डबडबाते से
महसूस कर कर के
किसी भी कीमत पर
आँख से बाहर
बहने नहीं देते हैं

क्या करें
ऐ गमे दिल
कुछ गम
ना जीने
और
ना कहीं
मरने ही देते हैं

बहुत से परदे
कई नाटकों के
जिंदगी भर
के लिये ही
बस गिरे रहते हैं

जिनको उठाने
वाले ही हमारे
बीच से
पता नहीं कब
नाटक पूरा होने से
बस कुछ पहले ही
रुखसती ले लेते हैं ।

"750वाँ उलूक चिंतन:  आज के 'ब्लाग बुलेटिन' पर"

सोमवार, 18 अगस्त 2014

नहीं लिख पाउंगा उसके लिये कुछ भी जिसके जलवे में आदमी बन कर के कोई शामिल होता है



दिमाग से लिखना मन की बात लिखना
किताब से लिखना बेबात की बात लिखना 
सुबह सवेरे बैठ कर एक रात लिखना 
अखबार में छपने छपाने के लिये लिखना 
अलग अलग होता है भाई क्यों परेशान होता है

डाक्टर ने नहीं कहा होता है 
पढ़ने के लिये वो सब कुछ 
जो इस दुनिया में 
हर जगह किसी भी दीवार पर
ऐरे गैरे नत्थू खैरे ने 
लिखा या लिखवा दिया होता है

पैजामे और टोपी देख कर 
लिखने वाले की बात पर क्यों चला जाता है

यहाँ हर कोई 
बिना कपड़े का ही आता है 
जैसा होता है उसी तरह आता है

अपने हिसाब किताब को देख कर
दुनियाँ को पागल बनाता है

कपड़े 
के बिना जो होता है 
उसे गूगल का 
शब्दकोश क्या कहता है 
उससे क्या करना होता है

सीधे सीधे 
नंगा कह देना 
अच्छा नहीं होता है 

दुनियाँ 
ऐसे लोगों से ही चल रही है

एक 
तू है ‘उलूक’
अपनी बेवकूफियों को
हरे पत्तों से ढकने में लगा रहता है 

अखबार में छपे 
कबूतरों के मनन चिंतन से
परेशान मत हुआ कर
कबूतर अपने घोंसले में 
अपनी ही बीट पर सोता है

जनता 
उस की तरह की ही
उस की 
वाह वाही में लगी रहती है

जिनको 
पता सब होता है
वो उनकी तरह का ही होता है

अल्पसंख्यक 
बस एक संख्या है
उसी ने बिल्ली की तरह 
खंभा ही तो बस एक नोचना होता है ।

मंगलवार, 27 मई 2014

बस थोड़ी सी मुट्ठी भर स्पेस अपने लिये


बचने के लिये
इधर उधर रोज देख लेना
और कुछ कह देना कुछ पर
आसान है

अचानक सामने टपक पड़े
खुद पर उठे सवाल का
जवाब देना आसान नहीं है

जरूरी भी नहीं है प्रश्न कहीं हो 
उसका उत्तर कहीं ना कहीं होना ही हो

एक नहीं ढेर सारे अनुत्तरित प्रश्न
जिनका सामना नहीं किया जाता है

नहीं झेला जाता है
किनारे को कर दिया जाता है
कूड़ा कूड़ेदान में फेंक दिया जाता है

कूड़ेदान के ढक्कन को फिर
कौन उठा कर उसमें झाँकना दुबारा चाहता है

जितनी जल्दी हो सके
कहीं किसी खाली जगह में फेंक देना ही
बेहतर विकल्प 
समझा जाता है

सड़ांध से बचने का एकमात्र तरीका
कहाँ फेंका जाये

निर्भर करता है
किस खाली जगह का उपयोग
ऐसे में 
कर लिया जाये

बस यही खाली जगह या स्पेस
ही होता है एक बहुत मुश्किल प्रश्न

खुद के लिये जानबूझ कर अनदेखा किया हुआ

पर हमेशा नहीं होता है
उधड़ ही जाती है जिंदगी रास्ते में कभी यूँ ही
और खड़ा हो जाता है यही प्रश्न बन कर

एक बहुत बड़ी मुश्किल बहुत बड़ी मुसीबत
कहीं कुछ खाली जगह अपने आप के लिये

सोच लेना शुरु किया नहीं कि
दिखना शुरु हो जाती हैं कंटीली झाड़ियाँ

कूढ़े के ढेरों पर लटके हुऐ बेतरतीब
कंकरीट के जंगल जैसे
मकानों की फोटो प्रतिलिपियों से भरी हुई जगहें
हर तरफ चारों ओर
मकानों से झाँकती हुई कई जोड़ी आँखे

नंगा करने पर तुली हुई
जैसे खोज रही हों सब कुछ
कुछ संतुष्टी कुछ तृप्ति पाने के लिये

पता नहीं पर शायद होती होगी
किसी के पास कुछ
उसकी अपनी खाली जगह
उसके ही लिये

बस बिना सवालों के
काँटो की तार बाड़ से घिरी बंधन रहित

जहाँ से बिना किसी बहस के
उठा सके कोई
अपने लिये अपने ही समय को
मुट्टी में
जी भर के देखने के लिये
अपना प्रतिबिम्ब

पर मन को भी नंगा कर
उसके 
आरपार देख कर मजा लेने वाले
लोगों से भरी इस दुनियाँ में
नहीं है 
सँभव होना
ऐसी कोई जगह जहाँ अतिक्रमण ना हो

यहाँ तक
जहाँ अपनी ही खाली जगह को
खुद ही घेर कर हमारी सोच
घुसी रहती है

दूसरों की खाली जगहों के पर्दे
उतार फेंकने के पूर जुगाड़ में
जोर शोर से ।

चित्र सभार: https://nl.pinterest.com/

गुरुवार, 16 अगस्त 2012

भ्रम एक शीशे का घर

हम जब
शरीर
नहीं होते हैं
बस मन
और
शब्द होते हैं

तब लगता है
शायद ज्यादा
सुन्दर और
शरीफ होते हैं

आमने सामने
होते हैं
जल्दी समझ
में आते हैं
सायबर की
दुनियाँ में
कितने
कितने भ्रम
हम फैलाते हैं

पर अपनी
आदत से हम
क्योंकी बाज
नहीं आते हैं
इसलिये अपने
पैतरों में
अपने आप ही
फंस जाते हैं

इशारों इशारो
में रामायण
गीता कुरान
बाइबिल
लोगों को
ला ला कर
दिखाते हैं

मुँह खोलने
की गलती
जिस दिन
कर जाते हैं
अपने
डी एन ऎ का
फिंगरप्रिंट
पब्लिक में
ला कर
बिखरा जाते हैं

भ्रम के टूटते
ही हम वो सब
समझ जाते हैं

जिसको समझने
के लिये रोज रोज
हम यहाँ आते हैं

ऎसा भी ही
नहीं है सब कुछ
भले लोग कुछ
बबूल के पेड़ भी
अपने लिये लगाते हैं

दूसरों को आम
की ढेरियों पर
लाकर लेकिन
सुलाते हैं

सौ बातों की
एक बात अंत में
समझ जाते हैं

आखिर हम
हैं तो वो ही
जो हम वहाँ हैं
वहाँ होंगे
कोई कैसे
कब तक बनेगा
बेवकूफ हमसे

यहाँ पर अगर
हम अपनी बातों
पर टाई
एक लगाते हैं
पर संस्कारों
की पैंट
पहनाना ही
भूल जाते हैं ।

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

बातें ही बातें

लिख लिख
कर अपनी
बातों को
अपने से ही
बातें करता हूँ

फिर
दिन भर पन्ना
खोल खोल
कई कई बार
पढ़ा करता हूँ

मेरी बातों
को लेकर
वो सब भी
बातेंं करते हैं

मैं बातेंं ही
करता रहता हूँ
बातों बातों
में कहते
रहते हैं

इन सारी
बातों की
बातों से
एक बात
निकल कर
आती है

बातें
करने का
अंदाज किसी का
किसी किसी
की आँखों में
चुभ जाती है

कोई कर भी
क्या सकता है
इन सब बातों का

वो सीधे कुछ
कर जाते हैं
वो बातें कहाँ
बनाते हैं

मैं कुछ भी
नहीं कर
पाता हूँ
बस केवल
बात बनाता हूँ

फिर
अपनी ही
सारी बातों को
मन ही मन
पढ़ पाता हूँ

फिर
लिख पाता हूँ
कुछ बातें

कुछ बातें
लिख लिख
जाता हूँ

कुछ
लिखने में
सकुचाता हूँ

बस अपने से
बातें करता हूँ

बातों की बात
बनाता हूँ

बस बातें ही
कर पाता हूँ।

सोमवार, 18 जनवरी 2010

मन प्रदूषण

मेरे मन
के
ग्लेशियर
से

निकलने
वाली गंगा

तेरे प्रदूषण
को
घटते बढ़ते

हर पल
हर क्षण
महसूस किया
है मैंने

भोगा है
तेरे गंगाजल
के
काले भूरे
होते हुवे 
रंग को

विकराल 
होते हुवे 

तेरी शांत 
लहरों को

बदलते हुवे
सड़ांध में

तेरी
भीनी भीनी
खुश्बू को

और ऎसे
में अब

मेरी 
सांस्कृ्तिक
धरोहर

मैं खुद
ही चाहूंगा

ये
ग्लेशियर
खुद बा खुद
सूख जाये

ताकि मेरे
मन से 
बहने वाली
पवित्र गंगे

तू मैली
ना कहलाये ।