उलूक टाइम्स: मुद्दा
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सोमवार, 15 जून 2015

मुद्दा पाप और मुद्दा श्राप

पापों
को धोने
का साबुन
अगर बाजार में
उतारा जायेगा

कोई बतायेगा

आज
के दिन
उस साबुन
का नाम

किसके
नाम पर
रखा जायेगा

साबुन
बिकेंगे
अपने ही पूरे
देश में

या
विदेशों में
ले जा कर भी
बेचा जायेगा

सीधे सीधे
खरीदेगा
आदमी
साबुन

खुद
अपने लिये
जा कर
किसी दुकान से

या
राशन कार्ड में
दिलवाया जायेगा

बहुत
सी बातें हैं
नई नई
आती हैं

अंदाज नहीं
लग पाता है
किसको कितना
भाव दिया जायेगा

पाप
के साथ
श्राप भी
बिकने
की चीज है
बड़ी काम की
पुराने युगों की

श्राप
देने लेने
का फैशन भी
क्या कभी
लौट कर आयेगा

पापी
बेचेगा श्राप
खुद बनाकर
अपनी दुकान पर

या
गलती से
किसी ईमानदार
के हाथ में
ठेका लग जायेगा

कितने
तरह के श्राप
बिकेंगे बाजार में

किसके
नाम का श्राप
सबसे खतरनाक
माना जायेगा ?

चित्र साभार: churchhousecollection.blogspot.com

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

अभी ये दिख रहा है आगे करो इंतजार क्या और नजर आता है

हमाम
के चित्र 

बाहर
ही बाहर
तक दिखाना
तो समझ
में आता है

पता नहीं
कैमरे वाला
क्यों
किसी दिन
अंदर तक
पहुँच जाता है

कब कौन
सी बात को
कितना
काँट छाँट
कर दिखाता है

सामने बैठे
ईडियट
बाक्स के

ईडियट
‘उलूक’ को
कहाँ कुछ
समझ में
आता है

बहुत बार
बहुत से
झाडुओं
की कहानी

झाडू‌
लगाने वालों
के मुँह से
सुन चुका
होना ही
काफी
नहीं होता है

गजब की
बात होती है
जब झाड़ू
लगाने वाला
झाड़ू लगाने
से पहले
खुद ही कूड़ा
फैलाता है

बहुत
अच्छी तरह
से आती है
कुछ बाते
कभी कभी
समझ में
बेवकूफों
को भी

पर क्या
किया जाये

कुछ
बेवकूफों के
कहने
कहाने पर

बेवकूफ
कह रहा है
क्यों सुनते हो

बात में
दम नजर
नहीं आता है
जैसा ही
कुछ कुछ
कह दिया
जाता है

और
कुछ लोग
कुछ भी नहीं
समझते हैं
या समझना
ही नहीं
चाहते हैं

भेड़ के
रेहड़ के
भेड़ हो
लेते हैं

पता
होता है
उनको
बहुत ही
अच्छी
तरह से

भीड़ की
भगदड़
में मरने
में भी
मजा
आता है

कोई माने
या ना माने
बहुत
बोलने से
कुछ
नहीं भी
होता है

फिर भी
बोलते बोलते

कलाकारी से
एक कलाकार

बहुत सफाई से
मुद्दे चोरों के भी

चुरा चुरा कर
चोरों को ही
बेच जाता है ।

चित्र साभार: imageenvision.com

सोमवार, 10 मार्च 2014

आशा और निराशा के युद्ध का फिर एक दौर आ रहा है

जाति धर्म
और समप्रदाय
से ऊपर ही
नहीं उठ
पा रहा है
सोलहवीं लोकसभा
का आगाज
होने को है
आदमी के लिये
बस आदमी ही
एक मुद्दा अभी
तक भी नहीं
हो पा रहा है
कुर्सी है सामने
कुत्ते की हड्डी
की तरह पड़ी जैसे
छूटने के मोह
को ही नहीं
त्याग पा रहा है
टिकट के महा
घमासान में
मूल्यों की
धज्जियाँ भी
कुत्तों की तरह
ही झगडते हुऐ
हवा में उड़ा रहा है
साफ साफ सबको
नजर आ रहा है
वोटर भी कई
बार से यही
सब कुछ
देखता हुआ ही
तो आ रहा है
वोट दे रहा है
एक अंग़ूठा छाप
की तरह हमेशा
पर साक्षर ही
नहीं होना
चाह रहा है
पूँजीवादी समाजवादी
साम्यवादी जनवादी
होने में कोई
बुराई नहीं है
पर देश के लिये
कोई नहीं है ऐसा
जो देश वाद
फैला रहा है
फंसा हुआ है
हर कोई किसी
ना किसी के
जाल में इस तरह
थोड़े से अपने
फायदे के लिये
खुद ही उलझने
का बस एक
जुगाड़ लगा रहा है
देश के लिये सोचने
की सोच खुले में
निकल कर ही
होती है "उल्लूक"
पर कोई कहाँ
खुले आकश में
निकलना चाह रहा है
बर्तन में रखा हुआ
पानी सड़ जाता है
कुछ दिनों में हमेशा
किसी की इच्छा
ही नहीं है थोड़ी
ना ही कोई
आधी सदी के
पुराने पानी को
बदलना चाह रहा है
आदमी का मुद्दा
आदमी के द्वारा
आदमी के लिये
जहाँ अब तक
हो ही जाना चहिये
उसी जगह
हर आदमी
हैवानो के लिये
फिर से एक बार
रेड कार्पेट फूलों भरी
बिछाने जा रहा है ।

शुक्रवार, 15 जून 2012

कुछ नहीं

अच्छा तो फिर 
आज क्या कुछ 
नया यहाँ लिखने
को ला रहे हो
या रोज की तरह
आज भी हमको
बेवकूफ बनाने
फिर जा रहे हो
ये माना की
बक बक आपकी
बिना झक झक
हम रोज झेल
ले जाते हैं
एक दिन भी नागा
फिर भी आप
कभी नहीं करते
कुछ ना कुछ
बबाल ले कर
यहाँ आ जाते हैं
लगता है आज कोई
मुद्दा आपके हाथ
नहीं आ पाया है
या फिर आपका
ही कोई खास
फसाद कहीं कुछ
करके आया है
कोई बात नहीं
कभी कभी ऎसा
भी हो ही जाता है
मुर्गा आसपास
में होता तो है
पर हाथ नहीं
आ पाता है
आदमी अपनी
जीभ से लाख
कोशिश करके भी
अपनी नाक को
नहीं छू पाता है
लगे रहिये आप
भी कभी कमाल
कर ले जायेंगे
कुछ ऎसा लिखेंगे
कि उसके बाद
एक दो लोग
जो कभी कभी
अभी इधर को
आ जाते हैं
वो भी पढ़ने
नहीं आयेंगे
कुछ कहना लिखना
तो दूर रहा
सामने पढ़ ही गये
किसी रास्ते में
देखेंगे आपको जरूर
पर बगल की गली से
दूसरे रास्ते में खिसक
कर चले जायेंगे
बाल बाल बच गये
सोच सोच कर
अपने को बहलायेंगे।

रविवार, 10 जून 2012

लेखक मुद्दा पाठक


कोई
चैन से 
लिखता है
कोई बैचेनी 
सी दिखाता है

डाक्टर 
के पास 
दोनो ही
में से
कोई 
नहीं जाता है

लिख लेने 
को ही
अपना 
इलाज बताता है 



विषय
हर 
किसी का
बीमारी
है 
या नहीं 
की 
जानकारी 
दे जाता है

कोई मकड़ी 
की
टाँगों में 
उलझ जाता है

कोई किसी 
की
आँखों में 
घुसने का 
जुगाड़ बनाता है

किसी को 
सत्ता पक्ष 
से
खुजली 
हो जाती है

विपक्षियों 
की
उपस्थिति
किसी पर 
बिजली गिराती है

पाठक भी 
अपनी पूरी
अकड़ दिखाता है

कोई क्या 
लिखता है
उस पर 
कभी कभी
दिमाग लगाता है

जो खुद 
लिखते हैं
वो लिखते 
चले जाते हैं

कुछ नहीं 
लिखने वाले

इधर उधर 
नजर मारते
हुवे

कभी 
नजर आ जाते हैं

हर मुद्दे पर 
कुछ ना कुछ
लिखा हुवा 
मिल
ही जाता है

गूगल 
आसानी से 
उसका पता 
छाप ले जाता है

किसी को 
एक
पाठक भी 
नहीं मिल पाता है

कोई सौ सौ 
को लेकर
अपनी ट्रेन 
बनाता है

कुछ भी हो 
लिखना पढ़ना 
बिना रुके
अपने रास्ते 
चलता चला 
जाता है

मुद्दा भी 
मुस्कुराता है

अपने
काम पर 
मुस्तेदी से 
लगा हुवा

इसके बाद
भी 
नजर आता है।