उलूक टाइम्स: सम्भला
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गुरुवार, 19 जून 2014

‘सात सौंवा पन्ना’

पता नहीं चला
होते होते
कब हो गये

एक दो करते
सात सौ
करीने से
लगे हुऐ पन्ने

एक के
बाद एक
बहुत सी
बिखरी
दास्तानों के

अपने ही
बही खातों
से लाकर
यहाँ बिखराते
बिखराते

बिखरे
या सम्भले
किसे मालूम
पर कारवाँ बन
गया एक जरूर

सलीके दार
पन्नों का
सुबह से
शुरु हुआ
बिना थके
चलने में
लगा हुआ

शाम ढलने
की चिंता
को कहीं
मीलों पीछे
छोड़कर

जिंदगी
की किताबों
के पुस्तकालय
में पड़ी हुई
धूल भरी
बिखरी हुई
किताबों के
जखीरे
बनाता हुआ

जिसे कभी
जरूरत
नहीं पड़ेगी
पलटने की
खुद तुझे ‘उलूक’

जिसे
अभी मीलों
चलना है
बहुत कुछ
बिखरते हुऐ
को यहाँ ला कर
बिखेरने के लिये

कल परसों
और बरसों
यहाँ इस
जगह पर
सात सौ से
सात हजार के
सफर में
बस इस
उम्मीद
के साथ
कि बहुत
कुछ बदलेगा
बहुतों के लिये

और बहुत कुछ
बिखरेगा भी
तेरे यहाँ ला कर
बिखेरने के लिये ।