उलूक टाइम्स: सरदार
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बुधवार, 30 जनवरी 2019

जरूरत नहीं है समझने की बहुत लम्बे समय से इकट्ठा किये कूड़े की उल्टी आज आ ही जा रही है


(उलूक को बहुत दूर तक दिखायी नहीं  देता है । कृपया दूर तक फैले देश से जोड़ कर मूल्याँकन करने का कष्ट ना करें। जो  लोग  पूजा में व्यस्त हैं  अपनी आँखे बंद रखें। बैकुण्ठी  के फिर से अवतरित होने के लिये मंत्र जपने शुरु करें)


कई
दिन हो गये

जमा करते करते

कूड़ा
फैलाने की

हिम्मत ही नहीं
आ पा रही है

दो हजार
उन्नीस में


सुना गया है


चिट्ठाकारी
पर
कोई

ईनाम

लेने के लिये

लाईन लगाइये


की मुनादी

करवायी
जा रही है


कई दिन से
ख्वाब में

मक्खियाँ ही
मक्खियाँ
नजर आ रही हैं


गिनना शुरु
करते ही
पता
चल रहा है

कुछ मकड़ी
हो चुकी हैं

खबरची
की खबर
बता रही है


मक्खियाँ
मकड़ी होते ही

मेज की
दूसरी ओर
चली जा रही हैं


साक्षात्कार
कर रही हैं

सकारात्मकता
के पाठ

कैसे
पढ़ाये जायेंगे

समझा रही हैं


मक्खियों
का राजा
मदमस्त है

लग रहा है
बिना अफीम
चाटे ही

गहरी नींद
आ रही है


खून
चूसने में
मजा नहीं है

खून
सुखाने के

तरीके
सिखा रही हैं


मकड़ियाँ
हो चुकी

मक्खियों के
गिरोह के

मान्यता प्राप्त
होने का सबूत

खबरचियों
की टीम
जुटा रही है


मकड़ी
नहीं हो सकी
मक्खियाँ

बुद्धिजीवियों
में अब
गिनी
जा रही हैं


इसलिये
उनके
कहने सुनने

लिखने पढ़ने
की बात

की बात
करने की

जरूरत ही
नहीं समझी
जा रही है


अखबार में

बस
मकड़ियों
की खबर

उनके
सरदार
के इशारों
से ही
छापी
जा रही है


गिरोह
की बैठकों
में तेजी
आती हुयी
नजर आ रही है


फिर किसी
बड़ी लूट की

लम्बी योजना पर
मुहर लगवाने के लिये

प्रस्ताव की
कापियाँ

सरकार
के पास
भेजी
जा रही हैं


अंग्रेजों के
तोड़ो और
राज करो
के सिद्धांत का

नया उदाहरण
पेश करने
की तैयारी है


एक
पुरानी दुकान की
दो दुकान बना कर

दो दुकानदारों
के लिये दो कुर्सी

पेश करने की
ये मारामारी है


गिरोह
की खबरें
छापने के लिये

क्या
मिल रहा है
खबरची को

खबर
नहीं बता रही है


हो सकता है

लम्बी लूट
की योजना में

उनको भी
कहा गया हो

उनकी भी
कुछ भागीदारी है


थाना कोतवाली
एफ आई आर
होने का
कोई डर हो

ऐसी बात
के लिये
कोई जगह
छोड़ी गयी हो

नजर
नहीं आ रही है


गिरोह
के मन मुताबिक
लुटने के लिये तैयार

प्रवेश
लेने वाले
अभ्यर्थियों की

हर साल
एक लम्बी लाईन

खुद ही
खुदकुशी
करने के लिये
जब
आ ही जा रही है


‘उलूक’
तू लिख

‘उलूक’
तू मत लिख

कुछ अलग
नहीं होना है
किसी भी जगह

इस देश में
सब वही है

सबकी
सोच वही है

तेरी खुजली

तुझे ही
खुजलानी है

इतनी सी अक्ल

तुझे पता नहीं

क्यों नहीं
आ पा रही है ।

चित्र साभार:
https://www.canstockphoto.com

मंगलवार, 20 नवंबर 2018

बधाई हो गुफा के दरवाजे खोल लेने के लिये अलीबाबा को सिम सिम वाली सिम सम्भाल कर रखें जल्दी ही फिर से काम आयेगी

तैयार
हो जाइये
खबर आई है

अलीबाबा की
मेहनत रंग लायी है

गुफा
खुल गयी है

अशर्फियाँ

दिखने लगी हैं
मतलब मिल गयी हैं


चालीस
चोरों का
पता नहीं
चल पा रहा है

खबर के
चलने के
बाद से ही
उनका
सरदार भी
मुँह छुपा रहा है

जल्दी ही
तराजुओं की
दुकानें खुलना
शुरु हो जायेंगी

तली में
गोंद लगाने की
जरूरत नहीं पड़ेगी

अशर्फियाँ
खुद ही आ आ
कर चिपक जायेंगी

मरजीना के
खुद के नाचने
का जमाना
अब रहा नहीं

इशारे
भर से उसके

नाचने
वालोंं की
लम्बी लाईनें
अपने आप
लगना शुरु
हो जायेंगी

बस
जरूरत है
महसूस करने की

एक
छोटी सी
गुफा को
खोल ले जाने के
छोटे छोटे
खुल जा सिम सिम को

यही मंत्र है
यही तंत्र है
हर बार
यही वाली सिम

सिम सिम की
काम में आयेंगी

जरूरत है
समझने की
ऐसी ही
छोटी छोटी गुफाएं

किस तरह बस
कुछ ही बचे महीनों में
बड़ी एक गुफा के
दरवाजे तक
पूरे देश को ले जायेंगी

फिर शुरु होगा

अलीबाबा का खेल

फिर से
सिम सिम
कहते ही
अशर्फियाँ दिखना
शुरु हो जायेंगी

लोग
करना शुरु
हो जायेंगे साफ
अपने अपने तराजू

अशर्फियों
के सपने
पुराने सालों के

फिर से हरे
हो जायेंगे

ढोल नगाड़े
पठाखे के
शोर के बीच

‘उलूक’
सोचना
शुरु कर देगा
कुछ नयी
बकवासों
के शीर्षक

अगले
पाँच सालों में
शायद उसकी
बकवासों की
घड़ी की सुई

क्या पता
उसके लिये
पच्चीस छब्बीस
सताईस बजाना
शुरु हो जायेगी।

चित्र साभार: http://www.ssdsnassau.org

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

थोड़े से शब्दों से पहचान हो जाना, बहुत बुरा होता है ‘उलूक’, कवि की पहचान हो कर बदनाम हो जाना

हर गधे के पास एक कहानी होती है 'उलूक'

कल फिर
कविता से
मुलाकात
हो पड़ी

बीच
रास्ते में
पता नहीं
रास्ता रोककर

ना जाने
क्यों
हो रही थी खड़ी

हमेशा ही
कविता से
बचना चाहता हूँ

फिर भी
पता नहीं

कहाँ
जा कर

किस
खराब
घड़ी में

उसी के
आगे पीछे
अगल बगल
कहीं

अपने को
उलझन में
खड़ा पाता हूँ

समझाते
समझाते
थक जाता हूँ
कवि नहीं हूँ

बस
थोड़ा बहुत
लिखना पढ़ना
कर ले जाता हूँ

सीधे सीधे
भड़ास निकालना
ठीक नहीं होता है

चोर के मुँह
चोर चोर कहकर
नहीं लिपट पाता हूँ

डरना भी
बहुत जरूरी है
सरदारों से भी
और उनके
गिरोहों से भी

नये
जमाने के

इज्जतदारों से

किसी तरह

अलग रहकर

अपनी
इज्जत

लुटने से
बचाता हूँ


बख्श
क्यों नहीं
देते होंगे

कवि
और
उनकी
कविताएं

कुछ एक
शब्दों के
अनाड़ी
खिलाड़ियों को

टूट जाते हैं
जिनसे भूलवश

कुल्हड़
भावनाओं
के यूँ ही
बेखुदी
में कभी
करते हुऐ
बेफजूल
इशारों को

पचने में
सरल सी
बातों से होती
बदहजमी को
जरा सा भी
समझ नहीं
पाता हूँ

कविताओं
की भीड़ से

दूर से ही

बस
उनसे नजरें
मिलाना
चाहता हूँ

कविता
अच्छी लगती है

पढ़ भी
ली जाती है

कभी कभी
थोड़ा बहुत
समझ में भी
आ जाती है

मजबूरियाँ
नासमझी की

बड़ी बड़ी
उलझी हुई 
लटें भी
सुलझा
कर कभी

आश्चर्यचकित

भी कर जाती हैं

पता नहीं
‘उलूक’
की
आड़ी तिरछी
लकीरें
बेशरम सी

क्यों
जान बूझ कर
कविताओं
की भीड़ में
जा जाकर
फिर फिर
खड़ी
हो जाती हैं

बहुत
असहज
महसूस
होने लगता है

ऐसे ही में
जब
एक कविता

सड़क
के बीच
खड़ी होकर
कुछ
रहस्यमयी
मुस्कुराहट
के साथ

कवि और
कविताओं
के बहाने

तबीयत
के बारे में
पूछना शुरु
हो जाती है । 


चित्र साभार:
http://www.poetrydonkey.com/

रविवार, 12 नवंबर 2017

बकवास ही कर कभी अच्छी भी कर लिया कर

किसी दिन तो
सब सच्चा
सोचना छोड़
दिया कर

कभी किसी
एक दिन
कुछ अच्छा
भी सोच
लिया कर

रोज की बात
कुछ अलग
बात होती है
मान लेते हैं

छुट्टी के
दिन ही सही
एक दिन
का तो
पुण्य कर
लिया कर

बिना पढ़े
बस देखे देखे
रोज लिख देना
ठीक नहीं

कभी किसी दिन
थोड़ा सा
लिखने के लिये
कुछ पढ़ भी
लिया कर

सभी
लिख रहे हैं
सफेद पर
काले से काला

किसी दिन
कुछ अलग
करने के लिये
अलग सा
कुछ कर
लिया कर

लिखा पढ़ने में
आ जाये बहुत है
समझ में नहीं
आने का जुगाड़
भी साथ में
कर लिया कर

काले को
काले के लिये
छोड़ दिया कर
किसी दिन
सफेद को
सफेद पर ही
लिख लिया कर

‘उलूक’
बकवास
करने
के नियम
जब तक
बना कर
नहीं थोप
देता है
सरदार
सब कुछ
थोपने वाला

तब तक
ही सही
बिना सर पैर
की ही सही
कभी अच्छी भी
कुछ बकवास
कर लिया कर ।

चित्र साभार: BrianSense - WordPress.com

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कविता और छंद से ही कहना आये जरूरी नहीं है कुछ कहने के लिये जरूरी कुछ उदगार होते हैं



बहुत
अच्छे होते हैं 
समझदार
होते हैं 

किसी
अपने 
जैसे के लिये 
वफादार
होते हैं 

ज्यादा
के
लिये नहीं 
थोड़े थोड़े
के लिये 

अपनी
सोच में 
खंजर
और 
बात में लिये 
तलवार
होते हैं 

सच्चे
 होते हैं 

ना खुदा
के
होते हैं 
ना भगवान
के
होते हैं 

ना दीन
के
होते हैं 
ना ईमान
के
होते हैं 

बहुत
बड़ी
बात होती है 

घर में
एक
नहीं भी हों 

चोरों के
सरदार
के 
साथ साथ

चोरों के 
परिवार
के
होते हैं 

रोज
सुबह के 
अखबार
के
होते हैं 

जुबाँ से
रसीले 
होठों से
गीले 

गले
मिलने को 
किसी के भी 
तलबगार
होते हैं 

पहचानता है 
हर कोई

समाज 
के लिये
एक 
मील का पत्थर 
एक सड़क 

हवा में
 बिना 
हवाई जहाज 
उड़ने
के लिये 
भी
तैयार होते हैं 

गजब
होते हैंं 
कुछ लोग 

उससे गजब 
उनके
आसपास 

मक्खियों
की तरह 
किसी
आस में 
भिनाभिनाते 

कुछ
कुछ के 
तलबगार
होते हैं 

कहते हैं

किसी 
तरह लिखते हैं 

किसी तरह 
ना
कवि होते हैं 
ना
कहानीकार होते हैं 

ना ही
किसी उम्मीद 

और
ना किसी
सम्मान 
के
तलबगार
होते हैं 

उलूक
तेरे जैसे
देखने

तेरे जैसे
सोचने 

तेरा जैसे
कहने वाले 

लोग
और आदमी 
तो

वैसे भी
नहीं 
कहे जाने चाहिये 

संक्रमित
होते हैं 

बस बीमार

और 
बहुत ही 
बीमार होते हैं । 

चित्र साभार: cliparts.co

शनिवार, 23 फ़रवरी 2013

सुधर जा


सुधर जा

कुछ नया पढ़ कुछ नया पढ़ा

जमाने के साथ जा
गेरुआ कपड़ा दिखा
तिरंगे की सरकार बनवा 
करोड़ों खा लिये को गलिया
हजार के नोट की गड्डी घर ले जा

सुधर जा
बहुत ज्यादा मत खिसिया
वो पढ़ा
जो कहीं भी किताबों में नहीं है लिखा

समुंदर देख कर आ
नल पे लगी कतार को हटवा
नहीं कर सकता है
तो किसी को ठेकेदार बनवा

सुधर जा

कुछ चेले चपाटे बनवा
दूसरों के पीछे लगा
अपनी रोटी सेक उनको पागल बना

सुधर जा

कुछ भी हो जा
कुछ उधर दे के आ कुछ इधर दे जा

तेरी कोई नहीं सुनता
तू फेसबुक में खाता बना

ब्लाग में फूलों की फोटो दिखा
हजार निष्क्रिय दोस्त बना
चार के लाईक पर इतरा

जो हमेशा देता है इज्जत
उस सरदार को दुआ देता जा

सुधर जा।

https://www.facebook.com/Masti-comedy-express