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गुरुवार, 22 जनवरी 2015

खुले खेतों में शौच विज्ञापनों की सोच दूरदर्शन रेडियो और समाचार दोनो जगह दोनो की भरमार अपनी अपनी समझ अपने अपने व्यापार

रेल की
पटरी पर
दौड़ती हुई
एक रेलगाड़ी
एक दिशा में

और
दूर जाते
उल्टी 

दिशा में
भागते हुऐ
पेड़ पौँधें
मैदान खेत
पहाड़
सब कुछ
और
बहुत कुछ

अपना देश
अपने दृष्य
अपनी सोच भी
दौड़ती हुई
साथ में
रुकती हुई कुछ
अटकते हुऐ
मजबूर करते हुऐ

सोचने के लिये
कुछ शौच पर भी

सामने दिखते हुऐ
खुले आकाश के नीचे
शौच पर बैठे हुऐ
एक के बाद एक
थोड़े से नहीं
बहुत से लोगों को

सूरज
और उसकी
रोशनी का भी
कोहरे से छुपने
का एक
असफल प्रयास
हो रहा हो जैसे

थरथराती
निकलती
दौड़ती
रेलगाड़ी
बेखबर
जैसे
दिखते हुऐ पर
कुछ कहने की
उसे जरूरत नहीं

और
शौच पर
क्या कुछ
कहा जाये

हर चीज पर
कुछ लिख
लिया जाये
इसकी भी
मजबूरी नहीं

फिर गर्व
होता हुआ
सा कुछ कुछ
घर पर बने
शौचालयों पर

और कुछ
कुछ इतना
पढ़े लिखे
भी होने पर

सोच सके जो
शौच की सोच
शौच और
शौचालय पर
दिखाये जा रहे
विज्ञापनों को

अंतर उनमें
और मुझ में
बस इतना
वो विज्ञापन
देखते हैं
और
चले आते हैं
खुले आकाश
के नीचे

और मैं
अपनी
बंद सोच
के साथ
शौच के बाद
दूरदर्शन
पर बैठा
देख रहा
होता हूँ
एक विज्ञापन
शौच की
सोच का

अब शौच
भी कोई
विषय है
सोच कर
कुछ लिख
लेने के लिये
कौन समझाये
किस को ?

चित्र साभार: www.michellehenry.fr

बुधवार, 12 नवंबर 2014

एक सोच पैदा होती है साथ लेकर अपना ताबूत अपने साथ

जब तक ईमानदारी
के साथ सहजता से
बता ना दे कोई कुछ
इस तरह कि
चेहरे पर ना बने
कोई शिकन
और आँखे भी
चुगली ना करें
सोच किसकी
कितनी गहरी है
किसी की खुद के
डूबने के लिये है
या किसी को
डुबोने के लिये है
या पार लगाने
के लिये
बिना सोचे समझे
इस को भी
उस को भी
या किसी को भी
तूफानों में भी
बहुत प्यार से
प्यार के साथ
इस जहाँ से
उस जहाँ
ना जाने
कहाँ कहाँ
होते हुऐ
तब तक कुछ
सोचा भी
नहीं जाता है
अंधेरे बंद कमरे
सोच के
जहाँ रोशन दान
भी एक खुला
छोड़ा नहीं जाता है
और सोच की
कब्र खोदने के
सारे औजार
रखे जाते हैं
वो भी जंग लगे हुऐ
सम्भाल कर
कई साल तक
सालों साल तक
ताबूत भी कई
बंद पड़े हो
एक नहीं कई कई
खाली इंतजार में
मरने की
किसी सोच के
जो बन सके
एक लाश
बंद होने के लिये
इन खाली ताबूतों में
कितनी गजब
की बात है
आदमी के मरने
के बाद ताबूत
का इंतजाम
करना पड़ता है
मरी हुई सोच
ताबूत के
साथ साथ
जन्म लेना
शुरु कर देती है ।

चित्र साभार: http://pixgood.com

बुधवार, 5 नवंबर 2014

हद हो गई बेशर्मी की देखिये तो जरा ‘उलूक’ को रविवार के दिन भी बेवकूफ की तरह मुस्कुराता हुआ दुकान खोलने चला आयेगा

कुछ दिन के लिये
छुट्टी पर चला जा
इधर उधर घूम
घाम कर आ जा
कुछ देख दाख
कर आयेगा
शायद उसके बाद
तुझसे कुछ अच्छा सा
कुछ लिख लिया जायेगा
सब के लिखने को
नहीं देखता है
हर एक लिखने
वाले की एक
सोच होती है
जब भी कुछ
लिखना होता है
कुछ ना कुछ
सोच कर ही
लिखता है
किसी सोच पर
लिखता है
तेरे से लगता है
कुछ कभी नहीं
हो पायेगा
तेरा लिखना
इसी तरह
हर जगह
कूड़ा करेगा
फैलता ही
चला जायेगा
झाड़ू सारे
व्यस्त हैं
पूरे देश के
तू अपनी
आदत से बाज
नहीं आयेगा
बिना किसी सोच के
बिना सोचे समझे
इसी तरह लेखन को
दो मिनट की मैगी
बना ले जायेगा
एक दिन
खायेगा आदमी
दो दिन खायेगा
आखिर हो ही
जायेगी बदहजमी
एक ना एक दिन
तेरे लिखे लिखाये
को देख कर ही
कुछ इधर को और
कुछ उधर को
भाग निकलने
के लिये हर कोई
कसमसायेगा
किसी डाक्टर ने
नहीं कहा है
रोज ही कुछ
लिखना है
बहुत जरूरी
नहीं तो बीमार
सीमार पढ़ जायेगा
अपनी ही अपनी
सोचने की सोच से
थोड़ा बाहर
निकल कर देख
यहाँ आने जाने
वाला बहुत
मुस्कुरायेगा
अगर सफेद पन्ने
के ऊपर सफेदी ही सफेदी
कुछ दिनों के लिये तू
यूँ ही छोड़ जायेगा
बहुत ही अच्छा होगा
‘उलूक’ सच में अगर
तू कुछ दिनों के लिये
यहाँ आने के बजाय
कहीं और को चला जायेगा ।

चित्र साभार: http://www.bandhymns.com

शनिवार, 25 अक्तूबर 2014

आशा का एक दिया जलाना है जरूरी सोच में ही जलायेंगे

एक ही सच
से हट कर
कभी सोचें
कुछ देर के
लिये ही सही
जरूरी है
सोचना
एक दिया
और उससे
बिखरती रोशनी
अपने ही
अंदर कहीं
पालना और
बचाना भी
सोच की ही
हवा के थपेड़ों से
बहुत सारे हों
बहुत रोशनी हो
जरूरी नहीं है
एक ही हो
छोटा सा ही हो
मिट्टी से बना
ना भी हो
तेल भी नहीं
और बाती
भी नहीं हो
बस जलता
हुआ हो
सोच की
ही लौ से
सोच की ही
रोशनी हो
जरूरी है
झूठ से भरे
बाहर के दिये
बेचते हुऐ
रोशनी हर जगह
दीपावली आयेगी
दीपावली जायेगी
बाजार दीपों
के जलेंगे
रोशनी के लिये
रोशनी में ही
रोशनी से बिकेंगे
समेट कर रोशनी
के धन को कुछ
रोशनी से
चमक उठेंगे
रोशनी सिमट जायेगी
रोशनी में ही कहीं
कुछ देर में ही
दिये भी समेटे जायेंगे
बहुत जरूरी है
दिया अंतर्मन का
जला रहना
अगले साल की
दीपावली में
नहीं तो शायद
दिये जलाना भी
क्या पता
भूल जायेंगे
दिया एक
सोच का
सोच में जला
रहना जरूरी है बहुत
जलायेंगे तो ही
समझ पायेंगे ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

क्या किया जाये ऐसे में अगर कोई कहीं और भी मिल जाये

रिश्ते शब्दों के
शब्दों से भी
हुआ करते हैं
जरूरी नहीं
सारे रिश्तेदार
एक ही पन्ने में
कहीं एक साथ
मिल बैठ कर
आपस में बातें
करते हुऐ
नजर आ जायें
आदमी और
उसकी सोच की
पहुँच से दूर
भी पहुँच जाते हैं
एक पन्ने के
शब्दों के रिश्ते
किसी दूसरे के
दूसरे पन्ने की
तीसरी या चौथी
लाईन के बीच में
कहीं कुछ असहज
सा भी लगता है
कुछ शब्दों का
किसी और की
बातों के बीच
मुस्कुराना
कई बार पढ़ने
के बाद बात
समझ में आती
हुई सी भी
लगती है
बस पचता
नहीं है शब्द का
उस जगह होना
जैसे किसी के
सोने के समय
के कपड़े कुछ
देर के लिये
कोई और पहन
बैठा हो
उस समय एक
अजीब सी इच्छा
अंदर से बैचेन
करना शुरु
कर देती है
जैसे वापस
माँगने लगे कोई
अचानक पहने
हुऐ वस्त्र
आँखे कई बार
गुजरती हैं
शब्दों से इसी तरह
कई लाईनों के
बीच बीच में
बैठे हुऐ रिश्तेदारों
के वहाँ होने की
असहजता के बीच
मन करता है
खुरच कर क्यों ना
देख लिया जाये
क्या पता
नीचे पन्ने पर
कुछ और लिखा हुआ
समझ में आसानी
से आ जाये
‘उलूक’ तेरे चश्में में
किस दिन किस
तरह की खराबी
आ जाये
तेरे रिश्तेदार
कौन कौन से
शब्द है और
कहाँ कहाँ है
शायद किसी
की समझ में
कभी गलती
से आ ही जाये।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

बुधवार, 8 अक्तूबर 2014

तालाब में क्यों कूदा नदी में जा कर क्यों नहीं नहा आया

इस पर कुछ
लिख कर जब
उसको पढ़ाया

बत्तीस लाईन
पढ़ने में उसने
बस एक डेढ़
मिनट लगाया

थोड़ा
सिर हिलाया
थोड़ा इधर
थोड़ा उधर घुमाया

कुछ देर लगा
जैसे कुछ सोचा
फिर आँखों
को मींचा

दायें हाथ
की अंगुलियों से
अपने बायें कान
को भी खीँचा

ऐनक उतार कर
रुमाल से पोंछा
कंधे पर हाथ
रख कर कुछ
अपनी ओर खींचा

बहुत अपनेपन से
मुँह के पास
मुँह ले आया

फुसफुसा कर
हौले से बस
इतना ही पूछा

बरखुर्दार !
ये सब करना
तुमको किसने
सिखाया

कब से शुरु किया
और ये सब
करने का विचार
तुम्हें कैसे आया

अच्छा किया मैंने
जो मैं इधर को
जल्दी चला आया

बहुत से लोगों ने
बहुत सी चीजों में
बहुत कुछ कमाया

लिखना ही था
तूने ‘उलूक’
तो फिर मुझे
पहले क्यों नहीं
कुछ बताया

इस पर तो सबने
सब कुछ कब से
लिख लिखा दिया

उस पर कुछ
लिखने का तू
कभी क्यों नहीं
सोच पाया ।

चित्र साभार: http://www.clipartguide.com

सोमवार, 29 सितंबर 2014

सोच तो सोच है सोचने में क्या जाता है और क्या होता है अगर कोई सोच कर बौखलाता है


अपने कुछ भी सोचे हुऐ पर
कुछ नहीं कह रहा हूँ

मेरे सोचे गये कुछ पर 

कुछ उसके अपने नजरिये से
सोच दिये गये पर 
कुछ सोच कर कहने की कोशिश कर ले रहा हूँ

बड़ी अजीब सी पहेली है

एक 
एक का अपना खुद का सोचना है

और दूसरा 
एक के कुछ सोचे हुऐ पर 
किसी दूसरे का कुछ भी सोच लेना है

अब कुछ सोच कर ही कुछ लिखा जाता है

बिना सोचे कुछ लिख लेने वाला होता भी है 
ऐसा सोचा भी कहाँ जाता है

कहने को तो 
अपनी सोच के हिसाब से
किसी पर भी कोई भी कुछ भी कह जाता है

दूसरा
उस हिसाब पर सोचने लायक भी हो
ये भी जरूरी नहीं हो जाता है

इसलिये
सोचने पर किसी के 
रोक कहीं लगाई भी नहीं जाती है 
सोच सोच होती है समझाई भी नहीं जाती है

अपनी अपनी सोच में 
सब अपने हिसाब से सोच ही ले जाते हैं

दूसरे की सोच से
सोचने वाले भी होते हैंं थोड़े कुछ
अजूबे होते भी हैं
और इसी दुनियाँ में पाये भी जाते हैं

‘उलूक’
तेरे सोच दिये गये कुछ पर
अगर कोई अपने हिसाब से कुछ सोच लेना चाहता है

तो वो जाने उसकी सोच जाने 
उसके सोचने पर
तू क्यों अपनी सोच की टाँग
घुसाना चाहता है

बिना सोचे ही कह ले जो कुछ कहना चाहता है

होना कुछ भी नहीं है कहीं भी
किसी की सोच में कुछ आता है या नहीं आता है ।

चित्र साभार: http://www.canstockphoto.com

रविवार, 28 सितंबर 2014

इसकी उसकी करने का आज यहाँ मौसम नहीं हो रहा है


किसी
छुट्टी के दिन 

सोचने की भी
छुट्टी कर लेने
की सोच लेने में
क्या बुरा हो रहा है 

सोच के
मौन हो जाने का
सपना देख लेने से 
किसी को कौन कहाँ रोक रहा है 

अपने
अंदर की बात 
अपने अंदर ही
दफन कर लेने से 
कफन की बचत भी हो जाती है 

दिल
अपनी जगह से
चेहरा अपनी जगह से 
अपने अपने हिसाब का 
हिसाब किताब
खुद ही अगर कर ले रहा है 

रोज ही
मर जाती हैं कई बातें सोच की
भगदड़ में दब दबा कर 

बच बचा कर
बाहर भी आ जाने से भी 
कौन सा उनके लिये
कहीं जलसा
स्वागत का कोई हो रहा है 

कई बार पढ़ दी गई 
किताबों के कपड़े
ढीले होना शुरु हो ही जाते हैं 

दिखता है
बिना पढ़े
सँभाल के रख दी गई 

एक किताब
का
एक एक पन्ना 

चिपके हुऐ एक दूसरे को
बहुत प्यार से छू रहा है 

जलने
क्यों नहीं देता
किसी दिन दिल को
कुछ देर के लिये यूँ ही ‘उलूक’ 

भरोसा रखकर
तो देख किसी दिन
राख
हमेशा नहीं बनती हर चीज 

सोचने में क्या जाता है
जलता हुआ दिल है
और पानी
बहुत जोर से कहीं से चू रहा है 

सोचने की छुट्टी
किसी एक छुट्टी के दिन 
सोच लेने से

कौन सा क्या 
इसका उसका कहीं हो रहा है । 

चित्र साभार: http://www.gograph.com

रविवार, 21 सितंबर 2014

बीमार सोच हो जाये तो एक मजबूत शब्द भी बीमार हो जाता है

शब्दों का
भी सूखता
है खून
कम हो
जाता है
हीमोग्लोबिन

शब्द भी
हमेशा
नहीं रह
पाते हैं
ताकतवर

झुकना शुरु
हो जाते हैं
कभी
लड़खड़ाते हैं
कई बार
गिर भी
जाते हैं

बात इस
तरह की
कुछ पचती
नहीं है
अजीब सी
ही नहीं
बहुत ही
अजीब सी
लगती है

पर क्या
किया जाये
कई बार
सामने वाले
के मुँह से
निकलते
मजबूत
शब्द भी
मजबूर
कर देते हैं
विवश
कर देते हैं
सोचने के लिये
कि
बोलने वाला
बहुत ही
खूबसूरत
होता है
सभ्य भी
दिखता है
उम्र पक
गई होती है
और
सलीका
इतना कि
जूते की
सतह में
सामने
वाले का
अक्स
दिखता है

फिर भी
बोलना
शुरु करता
है तो
गिरना
शुरु हो
जाते हैं
वो शब्द भी
जो बहुत
मजबूत
शब्द माने
जाते हैं

इतिहास
गवाह
होता है
किसी एक
खाली धोती
पहनने वाले
शख्स के
द्वारा
मजबूती से
पूरी देश
की जनता
से बोले
जाते हैं

सुनने वाले
को देते
हैं उर्जा
बीमार
से बीमार
को खड़े
होने की
ताकत
दे जाते हैं
और
 वही शब्द
निकलते
ही किसी
के मुँह से
खुद ही
बीमार
हो जाते हैं
लड़खड़ाने
लगते हैं
और
कभी कभी
गिरना
भी शुरु
हो जाते हैं

एक
शब्द ही
जैसे खुद
अपनी ऊर्जा
को पचा
जाता है
अर्थी के
साथ चल
रहे लोगों के
मुँह से
निकलता
 ‘राम नाम सत्य है’
जैसा हो
जाता है ।

चित्र साभार: http://expresslyspeaking.wordpress.com/

शनिवार, 20 सितंबर 2014

खाना पीना और सोना ही बस जरूरी होता है

रजिस्टर में
जैसे करने हों
उपस्थिति
के हस्ताक्षर

और डालना हो
समय और दिँनाक भी

लिखने का
मतलब
बस इतना ही
नहीं होता है

हाँ
कभी कभी
अवकाश
सरकारी
भी होता है

सरकारी
ना सही
गैर सरकारी
भी होता है

बहुत से
कारण
भी होते हैं

बहुत से लोग
कभी भी कुछ भी
नहीं लिखते हैं

किसने कह दिया
लिखना बहुत ही
जरूरी होता है

दवाईयाँ भी होती हैं
मरीज भी होता है
मर्ज भी होता है
मौत भी होती है

जिंदा
दिखता भी है
और मरा हुआ
भी होता है

सोच में
रोक टोक
नहीं होती है
सोचने वाला ही
घोड़ा होता है

उसके
हाथ में ही
चाबुक होता है
लगाम भी वही
लगाता है

किसी और को
कुछ भी पता
नहीं होता है

किसी के
सोच का
यही सरपट
दौड़ने वाला घोड़ा

किसी के लिये
बस एक धोबी का
लद्दू गधा होता है

और
गधे को कैसे
पाला जाता है

उस पर
बहुत कुछ
बताने के लिये
उसके पास
बहुत कुछ होता है

ऐसे सभी
घुड़सवारों का
अपना एक
गिरोह होता है

जिनके पास
ना तो घोड़ा होता है
ना कोई गधा होता है

इन सब का काम
सोच के घोड़े
दौड़ाने वालों के
घोड़ों को

उनकी
सोच में ही
दौड़ा दौड़ा कर
बेदम कर
गिरा देना होता है

और इस
सब के लिये
उनके पास
सोच में
दौड़ते घोड़ों
को गिराने का
हथौड़ा होता है

‘उलूक’ तू जाने
तेरी सोच जाने
पता नहीं
किस डाक्टर ने
कह दिया
है तुझसे

कि
ऊल जलूल
भी हो सोच में
कुछ भी

तब भी
लिखना
जरूरी होता है ।

चित्र साभार: http://www.briskpost.com/

सोमवार, 15 सितंबर 2014

बात एक नहीं है अलग है वो इधर से उधर जाता है और ये उधर से इधर आता है

कितना कुछ ही नहीं
बहुत कुछ बहुत अच्छा
लिखा हुआ बहुत सी
जगहों पर नजर आता है
सोच में पढ़ जाती है
खुद की सोच ही
वैसा ही सब कुछ
मुझसे भी क्यों नहीं
लिखा जाता है
लिखना शुरु करो नहीं
कि दिन भर का देखा सुना
सामने से आ जाता है
दूरदर्शन रेडियो अखबार
में भी आता है बहुत कुछ
मगर हमेशा और ही
और कुछ आता है
उन सबकी होती है
अपनी अपनी सोच पर पकड़
फिसलती हुई सोच को
पकड़ कर जकड़ना भी
जिनको अच्छी तरह आता है
कोशिश हमेशा ही होती है
चलने की सीधे सीधे ही
पता ही नहीं चलता
कौन सा मोड़ सोच में
मोच ले आता है
कहीं भी किसी भी
पन्ने में वो सब
नहीं लिखा दिखता है
जो लगभग हर चेहरे के
पारदर्शी मुखौटे के
पीछे नजर आता है
लगने लगता है
ऐसे ही समय में
जैसे बस ‘उलूक’ ही
दिवास्वपनों का
खोमचा जानबूझ
कर लगाता है
अपनी अपनी
प्रायिकता होती है
होनी भी चाहिये
कोई खाने पीने और
कोई पीने खाने को
अच्छा बताता है
किसी को आदत
हो जाती है
नशा करने की
किसी पीने की
या खाने की चीज से
किसी को लिखने
लिखाने से ही
नशा हो जाता है
नशा होना ही
इस तरह का
कलम को कहाँ से
कहाँ बहका ले जाता है
फूल की सोचता है सोच में
मगर कलम तक आते आते
गाजर का हलुआ हो जाता है
समझ में आ ही गया होगा
उससे अच्छा कुछ मुझसे
कभी क्यों नहीं लिखा जाता है ।

चित्र साभार: http://wecort.com/

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

होते होते नहीं मजा तो है होने के बाद कुछ देर में कुछ कुछ कहने का


दिन भर की बौखलाहटें 
उथल पुथल हुई सोच 

बारिश के बाद के
छोटे छोटे नाले 
मटमैला पानी उथली नदी 
कंकड़ पत्थर धूल धक्कड़ का साम्राज्य 

पारदर्शी जल के
ज्ञान के दर्शन का हरण 
थोड़ी खलबली कठिन एक परीक्षा 
जल की खुद की हलचल की समीक्षा 

बस इंतजार और इंतजार 
ठहराव तक सवरने का 
मिलावट के कुछ कर गुजरने का 
मिट्टी के दूर तक कहीं बहने का 

पत्थर का गहराई में जा ठहरने का
आहिस्ता आहिस्ता 
तमाशा जल के भरे पूरे यौवन के खिलने का 

एक दिन की बात नहीं
रोज का काम 
एक कफन में एक जेब सिलने का 

पता चलना
उसी तरह उथले पानी के निथरने का 
दिखना शुरु होना आर पार 

खबर छपना
ढके हुऐ सब कुछ के पारदर्शी होने का 
अंदाज वही हर बार की तरह 
वैसा हमेशा सही

कभी ऐसा भी 
कभी कभी कहीं कहीं 
कह लेने का । 

चित्र: गूगल से साभार ।

रविवार, 24 अगस्त 2014

आईने के पीछे भी होता है बहुत कुछ सामने वाले जिसे नहीं देख पाते हैं

कहा जाता
रहा है

आज
से नहीं
कई सदियों से

सोच
उतर आती है
शक्ल में

दिल की बातें
तैरने लगती हैं
आँखों के पानी में

हाव भाव
चलने बोलने से
पता चल जाता है

किसी
के भी ठिकाने
का अता पता

बशर्ते
जो बोला या
कहा जा रहा हो
वो स्वत: स्फूर्त हो

बस
यहीं पर
वहम होना
शुरु हो जाता है

दिखने
लगता है
पटेल गाँधी सुभाष
भगत राजगुरु
और
कोई ऐसी ही
शख्सियत

उसी तरह
जैसे बैठा हो कोई
किसी सनीमा हॉल में

और
चल रही हो
पर्दे पर कोई फिल्म

हो रही हो
विजय सच की
झूठ के ऊपर

वहम
वहम बने रहे
तब तक सब कुछ
ठीक चलता है

जैसे
रेल चल रही
होती है पटरी पर

लेकिन
वहम टूटना
शुरु होते ही हैं

आईने
की पालिश
हमेशा काँच से
चिपकी नहीं
रह पाती है

और
जिस दिन से
काँच के आर पार
दिखना शुरु
होने लगता है

काँच
का टुकड़ा
आईना ही
नहीं रहता है

काँच
का टुकड़ा
एक सच होता है

जो
आईना कभी भी
नहीं हो सकता है

उसे
एक सच
बनाया जाता है

एक
काँच पर
पालिश चढ़ा कर

बहुत
कम होते हैं
लेकिन होते हैं
कुछ बेवकूफ लोग

जो
कभी भी
कुछ नहीं
सीख पाते हैं

जहाँ
समय के साथ
लगभग सभी लोग
थोड़ा या ज्यादा
आईना हो ही जाते हैं

उनके
पार देखने की
कितनी भी कोशिश
कर ली जाये

वो
वही दिखाते हैं
जो वो होते ही नहीं है

और
ऐसे सारे आईने
एक दूसरे को
समझते बूझते हैं

कभी
एक दूसरे के
आमने सामने
नहीं आते हैं

जहाँ
भी देखिये
एक साथ

एक
दूसरे के लिये
कंधे से कंधा
मिलाये
पाये जाते हैं ।

शनिवार, 12 जुलाई 2014

लिखने की भी क्लास होती है लिखते लिखते पता हो ही जाता है

कहीं भी कोई
जमीनी हकीकत
नहीं दिखती है
किसी भी पन्ने में
वैसे दिखनी भी
नहीं चाहिये
जो हकीकत है
वो सोच में
नहीं होती है
कहीं भी किसी के
उसके होने ना
होने का पता
कुछ हो जाने
के बाद ही
चलता है
मिट्टी से लिख
देने से कोई
जमीन से थोड़ा
जुड़ा हुआ दिखने
लग जाता है
खूबसूरत और
मासूम चेहरे से ही
ज्यादातर आदमी
धोखे में आ जाता है
कर नहीं सकता है
मान लिया कुछ ऊँचा
हाई क्लास की सोच
को सोचने में खाली
जेब से क्या
चला जाता है
कहा क्या किसी ने
ऊँची सोच का कोई
सरकारी कर कहीं
लगाया जाता है
याद करता क्यों नहीं
अपने से पहली
एक पीढ़ी को
और देखता क्यों नहीं
एक आगे की सीढ़ी को
कितना बदल चुका है
सब कुछ समाज में
भाई समझा कर
कुछ पाने के लिये
ये जमाना अब
कुछ भी कर
लेना चाहता है
एक तू बेशरम है
‘उलूक’
निकल कोशिश तो कर
तेरे कुछ भी लिखे में
बस वही मिडिल क्लास
नजर आता है और
तेरा सब कुछ लिखा
इसी तरह कब
कूड़ेदान में फैंकने
के लायक हो जाता है
देखने वाला कहता
कुछ नहीं है पर
इशारों में बहुत कुछ
बता ही जाता है ।

सोमवार, 30 जून 2014

चिट्ठियाँ हैं और बहुत हो गई हैं

चिट्ठियाँ  इस जमाने की 
बड़ी अजीब सी हो गई हैं 

आदत रही नहीं 
पड़े पड़े पता ही नहीं चला एक दो करते 
बहुत बड़ा एक कूड़े का ढेर हो गई हैं 

कितना लिखा क्या क्या लिखा 
सोच समझ कर लिखा तौल परख कर लिखा 

किया क्या जाये अगर पढ़ने वाले को ही 
समझ में नहीं आ पाये 
कि 
उसी के लिये ही लिखी गई हैं 

लिखने वाले की भी क्या गलती 
उससे उसकी नहीं बस अपनी अपनी ही
अगर कही गई है 

ऐसा भी नहीं है कि पढ़ने वाले से पढ़ी ही नहीं गई हैं 

आखों से पढ़ी हैं मन में गड़ी हैं 
कुछ नहीं मिला समझने को तो पानी में भिगो कर
निचोड़ी तक गई हैं 

उसके अपने लिये कुछ नहीं मिलने के कारण
कोई टिप्पणी भी नहीं करी गई है 

अपनी अपनी कहने की 
अब एक आदत ही हो गई है 
चिट्ठियाँ हैं घर पर पड़ी हैं बहुत हो गई हैं 

भेजने की सोचे भी कोई कैसे ऐसे में किसी को 
अब तो बस उनके साथ ही 
रहने की आदत सी हो गई है ।

बुधवार, 11 जून 2014

रोज होती है मौत रोज ही क्रिया कर्म रोज बनती हैं अस्थियाँ

रोज होती है मौत 
रोज ही क्रिया कर्म 
रोज बनती हैं अस्थियाँ
विसर्जित होने के लिये 

जिनको कभी भी नहीं मिलना होता है 
कोई संगम
प्रवाहित होने के लिये 

कपड़े से मुँह बंद कर रख दी जाती हैं 
मिट्टी के घड़े में रखी हुई हैं सोच कर 
अपने ही अगल बगल कहीं 

महसूस करने के लिये कि
हैंं आस पास कहीं 

दिखते रहने के लिये
पर दिखाई नहीं जाती हैं 
किसी को भी कभी भी

इसलिये नहीं
कि कोई दिखाना नहीं चाहता है 
बल्कि इसलिये
कि दिखा नहीं पाता है 

सभी के पास होते हैं
अपने अपने अस्थियों के 
गले गले तक भरे मिट्टी के कुछ घड़े 
फोड़ने के लिये 

पर ना तो
घड़ा फूटता है कभी 
ना ही राख फैलती है कहीं
किसी गंगाजल में 
प्रवाहित होने के लिये 

बस
एक के बाद एक 
इकट्ठा होते चले जाते हैं 
अस्थियों के घड़े 
कपड़े से मुँह बंद किये हुऐ 

जिसमें अस्थियाँ 
हड्डियों और माँस की नहीं 
एक सोच की होती हैं 

और
रोज ही
किसी पेड़ पक्षी
या आसपास उड़ती धूल मिट्टी
की बात को लेकर 
लिख ही लेता है कोई यूँ ही कुछ

और रोज बढ़ जाता है
एक अस्थि का घड़ा 
अगल बगल कहीं 
कपड़े से बंधा हुआ 

बंद किये हुऐ
एक सोच को 
जो बस
दफन होने के लिये 
ही जन्म लेती है । 

चित्र साभार: https://hindi.oneindia.com/

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

जब तक सोच में कुछ आये इधर उधर हो जाता है

अपने सपने का
सनीमा बना कर
बाजार में
खुले आम
पोस्टर लगा
देने वाले के
बस में नहीं
होती हैं
उँचाईयाँ  

टूटी हुई सीढ़ियों
से गुजरना
और नीचे
देख देख कर
उनसे उलझने
की उसकी मजबूरी
उसकी आदत में
शामिल होती है
झुंड में शामिल
नहीं होने का
फायदा उठाते हैं
कुछ काले सफेद
सपनों को बोकर
रँगीन सपने बनाकर
दिखाने वाले लोग
जिनके लिये बहुत
जरूरी होती हैं
खाइयाँ और कुछ
टूटी हुई सीढ़ियाँ भी
क्योंकि उन सब को
पीछे देखने की
आदत नहीं होती है
और ना ही सीढ़ियों
की टूट फूट ही
रोक पाती है
उनके कदमों को
वो देखते हैं बस
पैर रखने भर
की जगह और
चढ़ते हुऐ झुंड
का एक कंधा
जिनके हाथ
और पैर देखने
में लगी हुई
आँखों को नजर
ही नहीं आ
पाती हैं उनकी
आँखे और
इशारे इशारे में
काम हो जाता है
क्योंकि इशारे
का अधिकार
सूचना के अधिकार
में नहीं आता है
और झुँड में से
कोई एक ऊपर
चला जाता है
बीच में रह जाती है
टूटी हुई सीढ़ियाँ
जिसके आस पास
  

खिसियाया हुआ
सा “उलूक”
एक कागज और
एक कलम लिया हुआ
अपना सिर खुजाता
हुआ नजर आता है । 

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

एक बहादुर को एक कायर भी कभी सलामी देता है

बेशरमों के
कर्मों को
अपने सिर पर
ले लेता है
एक जाँबाज के
दिल में ही
ऐसा कोई
जज्बा होता है
सोच में ऐसा
करने की सोच
का कीड़ा वैसे
तो बहुत बहुतों
के होता है
पर कर ही
लेने वाला
लाखों करोड़ों में
एक होता है
जगह छूटती
नहीं है कोई खाली
कभी भी ऐसा
नहीं होता है
लपकने के लिये
लाईन में लगा हुआ
तुरत फुरत लपक
ही लेता है
काम कभी
रुकते नहीं किसी के
होने या नहीं होने से
किसी के छोड़ के
जाने का गम भी
किसी को नहीं होता है
कुछ दिन बहाते हैं
कुछ घड़ियाल आँसू
लगा कर कुछ रसायन
आँखो के नीचे से
किसी ईमानदार अफसर
के चले जाने से
हर कोई खुश
ही होता है
कुछ के समझ में
आता है दर्दे दिल
एक बीमार का
जिसके आस पास
उसी तरह का
एक बाजार होता है
लुट रहा हो देश
बहुत धीरे धीरे
हल्ला मचा मचा कर
झंडे लहराने वालों का
मजमा खड़ा होता है
हिम्मत नहीं है
किसी की जो
शाबाशी दे सके तुझे
"एडमिरल जोशी"
तेरा जैसा जाँबाज
सदियों में ही
एक होता है
कोई कुछ कहे
या ना कहे से
क्या होता है
तेरी जैसी सोच
रखने वाले को ही
बहुत अफसोस होता है
कुछ नहीं कहना है
“उलूक” को भी
इससे ज्यादा यहाँ
इस देश में
अब जो होता है
वो किसी और के
देश में नहीं होता है ।

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

हिमालय देखते देखते भी अचानक भटक जाती है सोच गंदे नाले की ओर


शायद
किसी 
सुबह हो या किसी शाम को ढलते 
सूरज दिखे

लालिमा सुबह की
चमकती सफेद चाँदी के रंग में
या फिर
स्वर्ण की चमक से ढले हुऐ हिमालय
कवि सुमित्रानंदन की तरह सोच भी बने

क्या जाता है 
सोच लेने में
वरना दुनियाँ ने कौन सी सहनी है
हँसी मुस्कुराहट 
किसी के चेहरे की बहुत देर तक

कहते हैं
समय 
खुद को ही बदल चुका है
और बढ़ी है भूख भी बहुत

पर
लगता कहाँ है
सारे के सारे
गली मुहल्ले से लेकर
शहर की 
पौश कौलोनी के
उम्दा ब्रीड के कुत्तों के मुँह से टपकती लार
उनके भरे हुऐ पेटों के आकार से भी प्रभावित कभी नहीं होती

सभी को नोचते 
चलना है माँस
सूखा हो या खून से सना
पुराना हो सड़ गया हो या ताजा भुना हुआ

बस खुश नहीं 
दिखना है कोई चेहरा
मुस्कुराता 
हुआ बहुत देर तक

क्योंकि
जो सिखाया 
पढ़ाया जा रहा है
वो सब
किताब 
कापियों तक सिमट कर रह गया
और
 नहीं तैयार हुई 
कुछ ममियाँ
नुची हुई
मुस्कुराहटों 
के चेहरों के साथ

समय और इतिहास 
माफ नहीं करेगा इन सभी भूखों को

जो तैयार हैं 
नोचने के लिये कुछ भी कहीं भी 
अपनी बारी के इंतजार में
सामने रखे हुऐ कुछ सपनों की लाशों को
दुल्हन बना कर सजाये हुऐ।

चित्र साभार: 
https://www.istockphoto.com/

गुरुवार, 20 फ़रवरी 2014

नहीं सोचना है सोच कर भी सोचा जाता है बंदर, जब उस्तरा उसके ही हाथ में देखा जाता है

योग्यता के मानक
एक योग्य व्यक्ति
ही समझ पाता है

समझ में बस ये
नहीं आता है
“उलूक” ही
क्यों कर ऐसी ही
समस्याओं पर
अपना खाली
दिमाग लगाता है

किसी को खतरा
महसूस हो ऐसा
भी हो सकता है

पर हमेशा एक
योग्य व्यक्ति
अपने एक प्रिय
बंदर के हाथ में
ही उस्तरा
धार लगा कर
थमाता है

जब उसका
कुछ नहीं जाता है
तो किसी को
हमेशा बंदर
को देख कर
बंदर फोबिया
जैसा क्यों
हो जाता है

अब भरोसे में
बहुत दम होता है
इसीलिये बंदर को
जनता की दाढ़ी
बनाने के लिये
भेज दिया जाता है

नीचे से ऊपर तक
अगर देखा जाता है
तो बंदर दर बंदर
उस्तरा दर उस्तरा
करामात पर
करामात करता
हुआ नजर आता है

सबसे योग्य
व्यक्ति कहाँ पर
जा कर मिलेगा
पता ही नहीं
लग पाता है

बंदरों और उस्तरों
का मजमा पूरा
ही नहीं हो पाता है

यही सब हो रहा
होता है जब
अपने आसपास

दिल बहुत खुश
हो जाता है बस
यही सोच कर
अच्छा करता है
वो जो दाढ़ी कभी
नहीं बनवाता है

योग्यता बंदर
और उस्तरे के
बारे में सोच
सोच कर खुश
होना चाहिये
या दुखी का
निर्णय ऊपर
वाले के लिये
छोड़ना सबसे
आसान काम
हो जाता है

क्योंकि गीता में
कहा गया है
जो हो रहा है
वो तो ऊपर वाला
ही करवाता है

“उलूक” तुझे
कुछ ध्यान व्यान
करना चाहिये
पागल होने वाले
को सुना है
बंदर बहुत
नजर आता है ।