उलूक टाइम्स

बुधवार, 5 सितंबर 2012

शिक्षक दिवस

माता पिता
समाज
परिवेश
घर गाँव
शहर देश

पता नहीं

यहाँ तक
आते आते
किसने क्या
क्या
पढ़ाया 

शिक्षक दिवस
पर आज
अपने गुरुजनों
के साथ साथ

हर वो शख्स
मुझे याद आया

जिसने
कुछ ना कुछ
अच्छा बुरा
मुझे
सिखाया 

कोशिश
भी की
सीखने की
कुछ कुछ
हमेशा

पर
रास्ता
अपने
गुरु का
दिया हुआ
ही अपनाया

यहाँ तक
बेरोकटोक

शायद
इसी लिये
चल के
आराम से
आ पाया

आसपास
अपने

बोली भाषा
और
पहनावे
को
आज जब

मैं
खुद नहीं
समझ पाया

प्रश्न उठना
ही था
मन के कोने
में कहीं

पूछ बैठा
उसी समय
अपने आप से
वहीं के वहीं

शिक्षा
दी हो
शायद यही
मैंने ही
सब कुछ इन्हें

वही इन
सब के
व्यवहारों में
परिलक्षित हो
सामने से
है आया ।

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

सामान नहीं बस दुकानदार चाहिये

राशन की
दुकान पर
हो रही
मारामार हो
गैस और
कैरोसिन
के लिये
लगी लम्बी
कहीं एक
कतार हो

जब प्रश्न
जीवन और
जीने का
हो जाता है
जरूरी होता है
इसलिये
भीड़ होने
के बावजूद
हर कोई
चला जाता है

दूसरी तरफ
एक भीड़
उस दुकान
पर जाकर
पता नहीं
कोई क्यों
लगाता है

जहां होता
है बस
काम में
ना आने वाला
ढेर सारा
कुछ सामान

कुछ सड़
गया होता है
और
बचा हुआ
आउट
आफ डेट
हो गया
होता है

राशन
और
कैरोसिन
लेने
जाने वाला
उस दुकान
के बगल से
गुजर के
रोज जाता है
थोड़ा दिमाग
लगाता है
उसको
साफ साफ
अंदाज
आ जाता है

इस तरह की
दुकानों पर
हर कोई
सामान ही
खरीदने
को नहीं
आता है

कोई दिखाने
के लिये
चिड़िया के
पंख खरीद
भी अगर
ले जाता है

असली में
वो तो
दुकानदार
के लिये
वहाँ जाता है

उसके बाद
फिर कोई
प्रश्न किसी
के दिमाग में
कहाँ रह
जाता है ।

सोमवार, 3 सितंबर 2012

अच्छी दिखे तो डूब मर

घरवाली
की आँखें
एक अच्छे
डाक्टर को
दिखलाते हैं

काला चश्मा
एक बनवा के
तुरंत दिलवाते हँ

रात को भी
जरूरी है
पहनना

एक्स्ट्रा
पैसे देकर
परचे में
लिखवाते हैं

दिखती हैं
कहीं भी
दो सुंदर
सी आँखें

बिना
सोचे समझे ही
कूद जाते हैं

तैराक होते हैं
पर तैरते नहीं
बस डूब जाते हैं

मरे हुऎ
लेकिन कहीं
नजर नहीं आते हैं

आयी हैं
शहर में
कुछ
नई आँखे

खबर पाते ही

गजब के
ऎसे कुछ
कलाकार

कूदने
की तैयारी
करते हुऎ

फिर
से हाजिर
हो जाते हैं

हम
बस यही
समझ पाते हैं

अच्छे
पिता जी
अपने बच्चों को

तैरना
क्यों नहीं
सिखाते हैं ।

रविवार, 2 सितंबर 2012

स्टिकर

कपड़े पुराने
हो जाते हैं
कपडे़ फट
भी जाते हैं

कपडे़ फेंक
दिये जाते हैं
कपडे़ बदल
दिये जाते हैं

कुछ लोग
फटे हुऎ कपडे़
फेंक नहीं
भी पाते हैं

पैबंद लगवाते हैं
रफू करवाते हैं
फिर से पहनना
शुरु हो जाते हैं

दो तरह के लोग
दो तरह के कपडे़

कोई नहीं करता

फटे कपड़ों 
की कोई बात

जाड़ा हो या

फिर हो बरसात

जिंदगी भी

फट जाती है
जिंदगी भी
उधड़ जाती है

एक नहीं

कई बार
ऎसी स्थिति
हर किसी की
हो जाती है

यहाँ मजबूरी

हो जाती है

जिंदगी फेंकी

नहीं जाती है
सिलनी पड़ती है
रफू करनी पड़ती है

फिर से मुस्कुराते हुऎ

पहननी पड़ती है

अमीर हो या गरीब

ऎसा मौका आता है

कभी ना कभी

कहीं ना कहीं
अपनी जिंदगी को
फटा या उधड़ा हुआ
जरूर पाता है

पर दोनो में से

कोई किसी को
कुछ नहीं बताता है

आ ही जाये कोई

सामने से कभी
मुँह मोड़ ले जाता है

सिले हुऎ हिस्से पर

एक स्टिकर चिपका
हुआ नजर आता है

पूछ बैठे कोई कभी

तो खिसिया के
थोड़ा सा मुस्कुराता है

फिर झेंपते हुऎ बताता है

आपको क्या यहाँ
फटा हुआ कुछ
नजर आता है

नया फैशन है ये

आजकल इसे
कहीं ना कहीं
चिपकाया ही
जाता है

जिंदगी

किसकी
है कितनी 

खूबसूरत
चिपका हुआ
यही स्टिकर
तो बताता है ।

शनिवार, 1 सितंबर 2012

तेरी रोटी रोटी थी पर खोटी थी

अपनी एक
रोटी बनाना
टेढ़ी मेढ़ी
मोटी सूखी
स्वाद के साथ
उसको खाना
खुशी मनाना
किसी का इसको
ना देख पाना
उसका घीं का
डब्बा एक लाना
ला लाकर
सबको दिखाना
एक दिन
एक जगह पर
खाने के लिये
सबको बुलाना
सारे सूखी रोटी
वालों का
इक्ट्ठा होकर
वहाँ जाना
घीं वाले का
अपनी रोटी के
साथ वहाँ आना
टेढ़ी मेढ़ी रोटी
वालों को
डब्बा दिखाना
घीं लेकिन
अपनी रोटी
पर लगाना
सूखी रोटी
वालों का
दुखी बहुत
हो जाना
अपनी रोटी
लेकर वापस
अपने घर
आ जाना
घीं के डब्बे
वाले का
जम कर
गाली खाना
जो नहीं
गया कहीं
उसका अपनी
रोटी पर
इतराना
रोटी थी पर
खोटी थी
मुहावरे का
जन्म कहीं
हो जाना ।