उलूक टाइम्स

शनिवार, 2 नवंबर 2013

कुछ भी कभी भी कहीं भी प्रेरणा दे जाता है

कमप्यूटर स्क्रीन पर ब्लिंक
करता हुआ कर्सर
दिल की धड़कन के साथ
आत्मसात हो जाता है
पता चलता है ये
जब कभी अचानक
महसूस होने लग जाता है
जैसे शब्द खुद वही
गड़ता चला जाता है
टंकित हाथ की अंगुलियों
से उसे करवाता है
हौले से कुछ दिल और
दिमाग पर छा जाता है
दिखता है सामने से
लिखता हुआ जैसे
कलम की एक
नोक हो जाता है
लिखने वाला जैसे
उसके इशारे का बस
गुलाम हो जाता है
कमप्यूटर में सामने से
खुले एक पन्ने पर
झपझपाता हुआ
कर्सर दिल
अजीज हो जाता है
स्वागत करता है
खुले हुऐ पन्ने में
सबसे पहले मिलने
को चला आता है
बात शुरु
भी करता है
लिखनेवाला
थक जाता है
और वो एक बात
के पूरी होते ही
उतनी ही उर्जा के
साथ फिर से
झपझपाना
शुरु हो जाता है
कुछ और कहो ना
जैसे कहना चाहता है ।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

एक जैसा महसूस हो सबको जरूरी नहीं होता

रंग रोगन साफ
सफाई और घर
गन्ने की बनी
सुंदर सी लक्ष्मी
गणेश पूजा अर्चना
मिट्टी के दिये
तेल बाती मोमबत्तियां
चकरी फुलझड़ियां
सजी संवरी गृहणियां
उत्साह से सरोबार
बच्चे जवान बुड्ढे
बुड़िया लड़के लड़कियां
मन के अंदर जगमगाहट
झिलमिलाती बाहर
की रोशनियाँ
सजे हुऐ लबालब
भरे हुए बाजार
बर्तन भांडे कपड़े
लत्तों की भरमार
ये सब देखा था
कुछ ही दिन पहले
की जैसी हो बात
आज भी बहुत कुछ
वहीं का वहीं है
मशीन उगलने
लगी हैं लक्ष्मी
रोशनी से आँखें
चकाचौंध हैं
पठाके हैं कान फोड़
आवाज है धुआं है
घबराहट है जैसे
रुक रही सांस है
दीपावली रोशनी का
खुशी का त्योहार
तब भी था अब भी है
बस बदली बदली
लगता है एक ही चीज
पहले जहां होता था
इंतजार किसी के
आने का बेकरारी से
इंतजार आज भी होता है
पर बैचेनी के साथ
उतना ही उसी के
आकर चले जाने का ।

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

दिवाला होना किस चीज का अच्छा होता है

महीने के
अंतिम दिन
तक आते
जेब का
दिवाला होना
कुछ समझ
में आता है
सोच से
दिवालिया
होने के लिये
दिन साल
महीने को
कहां गिना
जाता है

बहुत
होते हैं
जेब से
दिवालिये
पर अपनी
सोच का
जनाजा
कभी
निकलने
नहीं
देते हैं

सोच का
दिवाला
खुद ही
निकाल
जेब के
हवाले
करने
वाले
पर
हर जगह
होते हैं
और
कम नहीं
होते हैं
ज्यादा
होते हैं
और
बहुत
होते हैं

सोच के
होने को
आज कौन
भाव देता है
सबकी
नजर में
जेब होती है
और
हर जेब
का भाव
बस वही
जैसे आज
बाजार में
प्याज
होता है

जो भी
होता है
बस एक
बाजार
होता है
चढ़ता है
कुछ कहीं
कहीं कुछ
उतर रहा
होता है

सबकी
अपनी
फितरत है
कहाँ इसका
फर्क पड़
रहा होता है

कहीं सोच
मर रही
होती है
कहीं
जनाजा
सोच का
लेकर सामने
से ही कोई
गुजर रहा
होता है

बहुत कुछ
होता है
किसी के
लिये जो
किसी के
लिये कुछ
भी कहीं
नहीं
होता है ।

बुधवार, 30 अक्तूबर 2013

विनम्र श्रद्धांजलि राजेंद्र जी

एक सदी के अंदर एक
ज्यादा से ज्यादा दो
बहुत हो गया तो तीन
से ज्यादा को कभी भी
नहीं गिना जाता है
राजेंद्र यादव हिंदी साहित्य
का एक ऐसा ही स्तम्भ
जब यूं ही चला जाता है
उसको पढ़ने की कोशिश
करता हुआ एक
छोटा सा आदमी
समझ भी कुछ
कहां पाता है
ऐसे भीषण व्यक्तित्व
का कहा हुआ एक
वाक्य एक किताब के
बराबर हो जाता है
सुबह सवेरे समाचार पत्र में
लिखा हुआ कुछ कुछ
ऐसा जब सामने आता है
“जो तटस्थ हैं समय लिखेगा
उनका भी अपराध”
वाह निकलता है मुंह से
और सारा दिन सोचने में
ही निकल जाता है
जरूर लिखेगा बहुत लिखेगा
तटस्थ ही तो है एक
जिसे बस खुद के बारे
में ही सोचना आता है
लिखा जायेगा बहुत हो जायेगा
पता चलेगा इतिहास का भी
कैसे कैसे कूड़ा बनाया जाता है
एक तटस्थ अपनी
छोटी सोच को लेकर
माफी मांगते हुऐ फिर भी
अपनी विनम्र श्रद्धांजलि
देना ही चाहता है ।

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

बात ही अजीब हो तो कोई कैसे समझ पायेगा

कई बार
बहुत सारे
विषय
हो जाते हैं

लिखने
लिखने तक
सारे के
सारे ही
भूले जाते हैं

सोच ही
रहा था
आज उनमें
से किस पर
अच्छा सा कुछ
लिखा जायेगा

किसे
मालूम था
कुत्ता
आज ही
कहीं से
मार खा
कर चला
आयेगा

जानता था
विज्ञान को
समझना
बहुत मुश्किल
नहीं कभी
हो पायेगा

पता नहीं था
आस पास का
मनोविज्ञान ही
हमेशा
कुछ यूं
घुमायेगा

और एक
अजीब सा
इत्तेफाक
ये हो जायेगा

डाकिया
जितनी बार
अच्छी खबर
का एक
पोस्टकार्ड
ला कर
घर पर
दे जायेगा

शुभकामनाओं
की उम्मीद
किसी से ऐसे में
कोई कैसे
कर पायेगा

जब
हर अच्छी
खबर के बाद
किसी के
घर का
कुत्ता

हमेशा ही
मार
कहीं से खा
कर चला
आयेगा ।