उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

तेरे से ये उम्मीद नहीं थी जो तू कर रहा है

क्यों रे

बहुत
उछल रहा है

सुना है

आजकल
कुछ कुछ

कहीं
लिख विख रहा है

क्या लिख रहा है

बुरी बात ये है  

कुछ भी हमें
कहीं से भी

तेरे बारे में
पता नहीं
चल रहा है

भाई
क्यों इतना
परेशान कर रहा है

बता
क्यों नहीं 
देता
साफ साफ
क्या कर रहा है

लिखता भी है
तो कुछ ऐसा

सुना गया है
जिसे कोई भी
नहीं पढ़ रहा है

जो पढ़ भी रहा है
हमे बताने के लिये
कि तू क्या कर रहा है

उसके पल्ले भी

कुछ भी नहीं
पड़ रहा है

समझ में
नहीं आ रहा है

पहले तो
कभी नहीं
किया तूने
पिछले पचास
सालों में जो

इस
उम्र में
पहुँच कर
आज तू
कर रहा है

किसने
कहा तुझसे
ऐसा करने को

ये भी
जानने का
बहुत मन
कर रहा है

कोई
नहीं बताता
कौंन है तेरे पीछे

जो तुझे
उकसा कर
ये सब
कर लेने को
मजबूर
कर रहा है

जब
कोई कहीं
कुछ नहीं
कर रहा है

किसी ने
किसी बात पर

कहीं
कुछ कहा हो
की बात पर

कहाँ
किसी को
कोई फर्क
पढ़ रहा है

गोलियाँ
चल रही हैं

लाइसेंस
होने ना होने
की बात
कौन कर रहा है

कई
मर रहे हैं

किसी ने
नहीं कहा
कि कोई बुरा
कर रहा है

फिर
तू कैसे
इतने दिनों से
मौज कर रहा है

लाइसेंस
लिखने का
किसने दे दिया तुझको

जो
मन में आये
किसी के लिये

कुछ भी
लिख मर रहा है

कितने
दिनों तक
पायेगा चैन
ओ बैचेन उलूक

जल्दी ही
लिखने लिखाने
वालों पर भी
कर लग रहा है ।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

पता होता है फूटता है फिर भी जानबूझ कर हवा भरता है


पानी में
बनते 
रहते हैं बुलबुले
कब बनते हैं कब उठते हैं 
और कब फूट जाते हैं

कोशिश करना 
भी
चाहता है 
कोई
छाँटना 
एक बुलबुला अपने लिये
मुश्किल में जैसे फँस जाता है

जब तक
नजर 
में आता है एक
बहुत सारों को 
अगल बगल से बन कर फूटता हुआ
देखता 
रह जाता है

कुछ ही देर में 
ही
बुलबुलों से 
ही जैसे सम्मोहित हो जाता है

कब बुलबुलों के 
बीच का ही
एक 
बुलबुला खुद हो जाता है
समझ ही नहीं पाता है

बुलबुलों को 
कोमल अस्थाई और अस्तित्वहीन
समझने की कोशिश में
ये 
भूल जाता है
बुलबुला एक क्षण में ही 
फूटते फूटते अपनी पहचान बना जाता है

एक फूटा नहीं 
जैसे हजार पैदा कर जाता है

ये और वो भी 
इसी तरह रोज ही फूटते हैं

रोज भरी 
जाती है हवा
रोज उड़ने की कोशिश करते हैं

अपने उड़ने की छोड़ 
दूसरे की उड़ान से उलझ जाते हैं
इस जद्दोजहद में 
कितने बुलबुले फोड़ते जाते हैं

बुलबुले पूरी जिंदगी 
में
लाखों बनते हैं 
लाखों फूटते हैं
फिर भी बुलबुले ही कहलाते हैं

ये और वो भी 
एक बार नहीं
कई बार फूटते हैं 
या फोड़ दिये जाते हैं

इच्छा आकाँक्षाओं की 
हवा को
जमा भी 
नहीं कर पाते हैं
ना वो हो पाते हैं ना ये हो पाते हैं

हवा भी यहीं 
रह जाती है
बुलबुले बनते हैं 
उड़ते भी हैं फिर फूट जाते हैं

सब कुछ
बहुत कुछ 
साफ कह रहा होता है
सब
सब कुछ 
समझते हुऐ भी 
नासमझ हो जाते हैं
फूटते ही
हवा 
भरने भराने के
जुगाड़ में
लीन और 
तल्लीन हो जाते हैं ।

चित्र साभार: https://pngtree.com/

बुधवार, 22 जनवरी 2014

"बहुत खूब ... बहते हुए शब्द कहीं दूर निकल गए पर अंत में फिर मुकाम पे ले आए आप उन्हें" दिगम्बर नसवा जी ने कहा "उलूक उवाच पर" क्या खूब कहा

'उलूक' की 20/01/2014 की पोस्ट

पर दिगम्बर नसवा जी की
टिप्पणी
"बहुत खूब ...
बहते हुए शब्द कहीं दूर निकल गए पर अंत में फिर मुकाम पे ले आए आप उन्हें ..."
पर निकले उदगार

भोगना और भोगे हुऐ को
शब्दों में  जैसे का तैसा उतार देना
हो ही नहीं पाता है

लाख कोशिश करने के बाद भी
कहीं ना कहीं
थोड़ा सा ही सही भटका ही जाता है

मनस्थिति
समय के साथ समय के अनुसार
रूप बदलने में बहुत माहिर होती है
सच कहें तो बहुत ही शातिर होती है

अपनी ही होने से भी कुछ नहीं होता है

पता होता है हर एक को अपने बारे में
बहुत कुछ साफ साफ
अपना देखा अपना लिखा
अपना जैसा ही होता है

बात तो तब होती है
जब किसी और की समझ में
थोड़ा थोड़ा सा उसमें से
निथर कर आ जाता है

लिखने और पढ़ने की आदत
हर कोई तो डाल नहीं पाता है
 
बहुत सुखी होता है
जो ना लिखता है ना पढ़ता है
बस कुछ का कुछ करता चला जाता है

एक ही शब्द घूमता हुआ एक आईना हो जाता है
एक ही के लिये हर चक्कर के बाद
एक नया अर्थ ले आता है

बिरले होते हैं जिनके लिये 
हर रास्ता एक पहचान हो जाता है

चलते चलते
कौन खो रहा है कहाँ
और कहाँ पहुँच कर
फिर से अपने को पा जाता है

सागर की गहराई को नाप लेना किसी चीज से

एक बड़ी बात हो जाने में नहीं आता है

बात तो तब होती है
जब पानी के रंग को देख कर कोई
पानी की कहानी घर बैठे बैठे सुना जाता है

पढ़ना फिर समझना किसी और के मन को
उसके लिखे शब्दों से
हर ऐसे वैसे को कहाँ आ पाता है

पर जो सीख लेता है करते करते लिखते पढ़ते
बिना काटे और चखे
कितना मीठा है एक फल
वही और वही बता पाता है

भटकना भी सँभलने का एक तरीका हो जाता है
अगर कोई प्यार से समझा ले जाता है ।

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

होने होने तक ऐसा हुआ जैसा होता नहीं मौसम आम आदमी जैसा हो गया

मौसम का मिजाज था
कोई आदमी का नहीं
मनाये जाने तक
ये गया और वो गया
कहने कहने तक
थोड़ा कुछ नहीं
बहुत कुछ हो गया
उजाला हुआ फिर
अंधेरा अंधेरा
सा हो गया
कोहरा उठा
अपने पीछे छिपा
ले गया सारे दृश्य
खुद को ही खोज लेना
जैसे बहुत दूभर हो गया
कुछ देर के लिये
थम सा गया समय
जैसे घड़ी को एक
घड़ी में कोई चाभी देने
से हो रह गया
बूँदा बाँदी होना
शुरु होना था
पानी जैसे इतने में
ही बहुत हल्का होकर
रूई जैसा हो गया
धुँधला धुँधला हुआ
कुछ कुछ होते होते
सब जैसे सुर्ख सफेद
चादर जैसा हो गया
शांत हुआ इतना हुआ
जैसे बिना साज के
सँगीतमय वातावरण
सारा हो गया
कहीं गीत लिखा गया
मन ही मन में
किसी के मन से एक
काल जैसे कालजयी
किसी और के
लिये कहीं हो गया
कहीं उकेरा गया
किसी की नर्म
अंगुलियों से एक चित्र
सफेद बर्फ की चादर पर
जिसे देख देख कर
चित्रकार ही दीवाना
दीवाना सा हो गया
एक शाम से लेकर
बस एक ही रात में
जैसे एक छोटा सा
सफर बहुत ही
लम्बा हो गया
समाधिस्त होता हुआ
भी लगा कहीं
कोई पेड़ या पहाड़
सब कुछ कुछ पल
के लिये जैसे
साधू साधू हो गया
एक लम्बी रात के
गुजर जाने के बाद
का सूरज भी होते होते
जैसे कुछ पागल
पागल सा हो गया
नहाया हुआ सा दिखा
हर कण आस पास का
जैसा कुछ कुछ गुलाबी
गुलाबी हो गया
प्रकृति के एक खेल को
खेलता हुआ जैसे
एक मुसाफिर
देर से चल रही एक
गाड़ी पर फिर से
सवार होकर
रोज के आदी सफर पर
कुछ मीठी खुश्बुओं को
मन में बसाकर
रवाना हो गया
मौसम का मिजाज
जैसे फिर से
आम आदमी के
रोज के मिजाज
का जैसा हो गया ।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

अच्छा होता है कभी कभी बिजली का लम्बा गुल हो जाना

अपनी इच्छा से
नहीं कर लेना चाहता है
बिजली गुल
कोई कभी बहुत देर के लिये

पर बिजली आदमी तो नहीं होती है
फिर भी हो जाती है बंद भी कभी कभी

दूर बहुत दूर तक अंधेरा ही अंधेरा
जैसे थम सी जाती हो जिंदगी
फिर जलते हैं दिये और मोमबत्ती
जिनकी रोशनी में कर्कश शोर नहीं होता है

जो देता है बस एक सुकून सा

बारिश के बाद का आसमान धुला धुला सा
रात को भी काला नहीं
आसमानी हो उठता है
बहुत साफ नजर आते हैं तारे

जैसे पहचान के कुछ लोग
मिल उठे हों
एक बहुत लम्बी सी जुदाई के बाद

टिमटिमाते हुऐ जैसे पूछते भी हों
हाल दिल का

इच्छा भी उठती है कहीं से बहुत तीव्र
देख लेने की और सोच लेने की

कुछ देर के लिये ही सही
तारों की बस्ती में
ढूँढ रहा हो कोई अपना ही अक्स

कुछ ही क्षण में
हो जाता है जैसे आत्मावलोकन

साफ पानी में जैसे दिखा रहा हो
सब शीशे की तरह
तेज भागती हुई  जिंदगी का सच

कुछ देर का विराम
बता देता है असलियत
खोल देता है कुछ बंद खिड़कियाँ

जिनकी तरफ देखने की भी फुरसत
नहीं होती है दौड़ते हुऐ दिनों में

और बहना महसूस होता है
कुछ ठंडी सोच का

कुछ रुक रुक कर ही सही
बहुत आगे बढ़ जाने के बाद

ऐसे ही समय महसूस होता है
अच्छा होता है कभी कभी यूँ ही लौट लेना
बहुत और बहुत पीछे की ओर भी
जहाँ से चलना शुरु हुऐ थे हम कभी

पर ऐसा होता नहीं है
बिजली रोज आती है जाती बहुत कम है
बहुत कम कभी कभी बहुत दिनो के लिये ।

शनिवार, 18 जनवरी 2014

बहुत भला होता है भले के लिये ही भला कर रहा होता है

ऐसा नहीं है कि भला 
करने वाले नहीं है
बहुत हैं बहुतों का
भला करते हैं
अब इसमें क्या बुराई है
कि ऐसा करने से
उनका भी कुछ कुछ
थोड़ा थोड़ा सा
भला हो जाता हो
सपने बेचना भी
ऐसे ही लोगों को
ही आता है
कभी सपनों के लिये
कहीं कुछ लिया
दिया गया हो
किसी कागज के
पन्ने में लिखा हुआ
नहीं पाया जाता है
 

बहुत भले लोग होते हैं
किसी के लिये
खुद बा खुद
सोच तक देते हैं
समझा भी देते हैं
जब ऐक सोच ही
रहा हो किसी एक
चीज को बनाने में
तो दूसरे को क्या
जरूरत है अपने
दिमाग को उसी
के लिये भिड़ाने में
आकाश होता है
उनका बहुत ही बड़ा
कोई रोक नहीं होती है
किसी के लिये भी
उनके आकाश में
उड़ान भरने की
बस एक ही बात का
रखना पड़ता है ध्यान
गुस्ताखी नहीं
होनी चाहिये कभी भी
उनके आकाश की
सीमा पार कर जाने की
सिखा भी दिया जाता है
एक आकाश होते हुऐ
एक दूसरा आकाश
नहीं बनाया जाता है
जब एक पहले से
काम में लाया
जा रहा होता है
उड़ान भरने के लिये
अपना अपना बना के
कोई अकेले अकेले जो
क्या उड़ा जाता है
भले लोगों का
आकाश भी होता है
उड़ानेंं भी होती हैं
सोच भी होती है
सपने भी होते हैं
भले लोग ही होते हैं
जो सब कुछ खुद
कर रहे होते हैं
और जिसके लिये
ये सब कुछ
हो रहा होता है
वो कुछ भी नहीं
कर रहा होता है
उसका तो बस
और बस भला
और भला ही
हो रहा होता है ।

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

समय के साथ मर जाने वाले लिखे पढ़े को छापने से क्या होगा

पेड़ की शाख पर ही
बैठ कर देखा था
जटायू ने भी
बहुत कुछ उस समय
बहुत कुछ बताया भी था
मरते मरते तक भी
राम को सीताहरण
का आँखों देखा हाल
तुलसीदास जी तो
लिख भी गये थे
रामचरित मानस में
जंगल के बीच हुआ
सारा का सारा बबाल
दूरियाँ बहुत थी
बात जाती ही थी
बहुत दूर तलक जब
निकल ही लेती थी
गजल तब भी बनती थी
संगीत भी दिया जाता था
अपसरायें भी उतर लेती थी
कभी कभी ऊपर
आसमान से नीचे
इस धरती पर
धरती पर ही जैसे
एक स्वर्ग उतर आता था
लिखा गया होगा
जरूर कहीं ना कहीं
सच भी होगा
एक कहाँनी नहीं होगी
जरूर इतिहास के किसी
मोड़ का वर्णन होगा
और इसी लिये तो
उस जमाने का राम
आज तक जिंदा होगा
औरत का अपहरण
और उसके घर से
उसके निष्काशन का बिल
उस समय की संसद में
ही पास हो गया होगा
इसी लिये बेधड़क
हिम्मती लोगों के द्वारा
आज तक प्रयोग
हो रहा होगा
बस राम राज्य की
कल्पना को कहीं
ऊपर से संशोधन
के लिये लौटा
दिया गया होगा
जटायू को दूर तक
नहीं देखने की
चेतावनी भी तभी
दे दी गई होगी
एक उल्लू भी तभी से
हर शाख पर बैठा
दिया गया होगा
और इन्ही उल्लुओं
की खबर छापने के लिये
उल्लुओं में सबसे उल्लू
को एक अखबार निकालने
के लिए कह
दिया गया होगा
इतिहास भी होगा
सीता और राम
भी चलता चलेगा
तुलसीदास की
रामचरित मानस की
रायल्टी के लिये
सुप्रीम कोर्ट का
फैसला भी होगा
उल्लूक की समझ में
नहीं आई तो बस
यही बात कि उसने
उल्लूक के अखबार
की किताब छाप लेने
को क्यों कहा होगा
शायद उसे मालूम
हो गया होगा
आने वाले समय में
कूड़े के व्यापार में ही
नुकसान कम और
नफा ज्यादा होगा !

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

क्या हुआ अगर खुद लिख कर खुद ही कोई समझ रहा है

रात रात भर
भौंक रहा है
आजकल घर का
पालतू कुत्ता
भौंक रहा है तो
भौंक रहा है
रोकने की कोशिश
भी जारी है
पर फिर भी कुछ
कहीं नहीं हो रहा है
अब जब आदमी को
मौका मिल रहा है
स्कूल जाने का
तो पढ़ लिख
ले रहा है
कोई कहीं भी उसे
रोक नहीं रहा है
जो नहीं जा पा
रहा है स्कूल
वो पढ़े लिखों की
संगत में रहकर
पढ़ने लिखने की
सोच ले रहा है
क्या बुरा कर रहा है
जहाँ तक कुछ
लिख लेने की
बात आती है
लिखना बस
चाहने तक की
बात होती है
हर कोई कुछ ना कुछ
लिख ही ले रहा है
अब कौन लिख रहा है
क्या लिख रहा है
क्यों लिख रहा है
किस पर लिख रहा है
किसी को इस सब से
कहाँ कोई मतलब
जैसा ही हो रहा है
खाना खाता है हर कोई
एक समय मिल गया
तो भी ठीक
नहीं तो कोई दो दो समय
भी अपना पेट भर रहा है
सुबह से लेकर शाम तक
कभी ना कभी फारिग
भी हो ले रहा है
चल रहा है होना ही है
इसलिये हो रहा है
किसी के फारिग
हो लेने से किसी को
क्या कोई फर्क पड़ रहा है
क्या किया जाये अगर
दिमाग किसी का
चल रहा है
चल रहा है तो
चल रहा है
कमप्यूटर के प्रिंटर का
रिफिल जो क्या है
कह दिया जाये
आज खाली हो रहा है
बाजार में नया
नहीं मिल रहा है
फर्क बस इतना है
कि पालतू कुत्ता
अकेला भौं भौं
नहीं कर रहा है
पूरी रात भौकता है
जब एक बार
शुरु कर रहा है
शहर के हर कोने से
कोई ना कोई जानवर
पालतू या आवारा
उसका साथ देने में
कोई कसर भी
नहीं कर रहा है
बात अलग है
कि उलूक के पल्ले
कुछ नहीं पड़ रहा है
इतना सोच कर बस
खुश हो ले रहा है
कि पढ़े लिखे होने का
असर कहीं तो
किसी पर पड़ रहा है !

बुधवार, 15 जनवरी 2014

मकर संक्रांति दूसरी किस्त में देखिये क्या क्या हुआ

जिस बात के होने
का अंदेशा था वही
और बस वही
होता हुआ दिखा
सुबह सुबह की छोड़िये
शाम तक भी कौऐ ने
मैं आ गया हूँ नहीं कहा
वैसे तो पता था
यही होना है
कौआ पिछले कई सालों से
कहाँ मिल पा रहा है
और जरूरी नहीं है
जो एक बार हुआ हो
वही कई कई बार
होना ही होना होता हो
पर्दा उठा हो
नाटक एक हुआ हो
जली हुई मोमबत्तियाँ
अपने हाथों में लेकर
एक लड़की के लिये
जैसे कभी शहर
पागल हो गया हो
सफेद टोपियाँ ही टोपियाँ
गली गली में हल्ला गुल्ला
चोर चोर की जगह
मोर मोर हो गया हो
पर्दा जब गिर गया हो
उसके बाद किसे
को पता नहीं चला हो
क्या क्या नहीं हो गया हो
जिंदा मीट के एक
सफेद पोश व्यापारी का
रंगे हाथों पकड़ा जाना
उसी छोटे से शहर के लिये
इस बार एक छोटी
सी खबर हो गया हो
शोर शराबा टोपी मोमबत्ती
का टाईम ठंडे बस्ते
में जा कर सो गया हो
इतना काफी नहीं है क्या
समझने के लिये
क्या पता कौआ भी अब
कौआ ही ना रह गया हो
एक मुर्गा या कबूतर
जैसा कुछ हो गया हो
ऐसा होना गिना जाता होगा
किसी जमाने में
अचम्भे जैसा होने में
अब कुछ भी कैसा भी
कहीं भी हो जाना
एक नार्मल बात हो गया हो
कौआ बहुत ज्यादा
समझदार हो गया हो
लोकल मुद्दों पर प्रतिक्रिया
नहीं देकर राष्ट्रीय धारा में
गोते लगाना सीख ही गया हो
इसलिये मकर संक्रांति को
आना उसने छोड़ ही दिया हो !


मंगलवार, 14 जनवरी 2014

साल भर नहीं नहाने वाला भी आज के दिन कम से कम नहाता है

अंग्रेजी
में स्नेल
हिंदी का
होता है
घोंघा
या शँबुक

हमारे
यहाँ कह
दिया
जाता है
उसे एक
गनेल

मकर
संक्राति
के दिन
सुबह सुबह
मुनादि
घर वाली
की ओर
से कर
दी जाती है

जो बस यह
बताती है
आज के
दिन को
कहीं कहीं
नरहर भी
कह दिया
जाता है
आज के दिन
नहाना बहुत
ही जरूरी
माना जाता है

जो आज नहीं
नहा पाता है
अगले जन्म में
मनुष्य ही नहीं
बन पाता है
एक गनेल
हो जाता है

जो बहुत
ही धीरे धीरे
चलता है
कहीं भी नहीं
पहुँच पाता है

बुढ़ापा
आना
शुरु हो
चुका है
जब ये
महसूस
होने लग
जाता है
दो घंटे पहले
श्रीमती जी का
दिया आदेश
जब याद
ही नहीं
रह पाता है

किस्मत
का मारा
एक शौहर
खाने की
मेज में
बैठे हुऐ
परिवार को
खाना खाते
हुऐ देखकर
बिना नहाये ही
आज के दिन
खाना खाने
के लिये
बैठ जाता है

एक तो
काले कौओं
का त्योहार
उसपर एक
भी कौआ
कहीं भी
दूर दूर तक
नजर नहीं
आता है

होता भी
होगा कहीं
पर घर पर
बने हुऐ
पकवानों
को अब
खाने को
नहीं
आता है

जंगल
रहे नहीं
कव्वों
को सीमेंट
का जंगल
शायद
जगह जगह
उगा हुआ
पसंद भी
नहीं आता है

मेहनत से
पकाने
पड़ते हैं
बहुत सारे
पकवान
जिनको
माला में
एक पिरोया
जाता है

दूसरे दिन
मुँह अँधेरे
कौओ को
पुकारा
जाता है

कहना
होता है
“काले काले
घुघुती
माला खाले”
जो बचपन
की याद
बहुत
दिलाता है

आ जाते थे
उस समय
ढेरों कौए
कहाँ कहाँ से
इस जमाने
का कौआ
पता नहीं
कहाँ रह
जाता है

श्रीमती जी
करती हैं
बहुत सारी
मेहनत
त्योहार
मनाना बहुत
जरूरी हो
जाता है

ऐसे में
किसे नहीं
आयेगा क्रोध
अगर कोई
सौ बार
कह देने के
बाद भी
एक
शुद्ध दिन
नहा कर
ही नहीं
आ पाता है !

सोमवार, 13 जनवरी 2014

आज की बड़ बड़ “नैनीताल समाचार” वालों के लिये

बड़े बड़े अखबार
रोज सुबह घर के
दरवाजे पर हॉकर
आकर फेंक जाता है
मजबूरी होती है
उठाना ही होता है
आदमी या उसका
कोई आदमी जाकर
उठा ही लाता है
अखबार के हिसाब से
बाजार के हिसाब से
छोटी छोटी ज्यादा
बड़ी खबर कुछ कम
या खबर की कबर
की खबरें ढूँढने में
बहुत ज्यादा कुछ
मजा सा नहीं आता है
गड्ढे में घुसी हुई
कुछ गाड़ियाँ कुछ लाशें
कुछ घायल कुछ मुआवजा
कुछ अस्पताल में
मौत की सजा
सुनाये गये जच्चा बच्चा
अपने देश अपने प्रदेश
की जवानी के राज
खोल के जाता है
इंतजार रहता है
मगर कुछ छोटे
अखबारों का
जो रोज रोज नहीं
आ पाता है
कभी कभार अब
दिखने वाला डाकिये
के पास अब यही काम
ज्यादा पाया जाता है
खबरें ऐसी की पढ़कर
मजा आ जाता है
अब आप कहोगे
ऐसी कौन कौन सी
खबर होती हैं जिसे
पढ़ने में मजा
भी आता जाता है
मुख्य पृष्ठ पर एक कविता
“उदास बखत के रमोलिया”
एक जिंदा कवि
कुछ कोशिश करके
जैसे लाशों को जगाता है
चौथे पन्ने पर
थपलियाल जी का लेख
"चरित्रहीन शिक्षक कैसे
गढ़ सकेगा अच्छा समाज"
जैसे मुँह चिढ़ाता है
प्रवीण तोमर के
लेख का शीर्षक
“अध्यापक राजनीतिबाज
शिक्षा तवायफ और
समाज तमाशाबीन

पढ़कर ही दिल
गद्गद हो जाता है
जगमोहन रौतेला का लेख
“केंद्र के अधीन करने से
 कैसे सुधरेंगे विश्वविद्यालय”
सबका ध्यान कूड़े दान
हो रहे प्रदेश के
विश्वविध्यालयों की तरफ
आकर्षित कर ले जाता है
अब ये बात अलग है
एक छोटा सा अखबार
अपनी बड़ी बड़ी
खबरों के साथ
जिन पाठकों के
हाथ में जाता है
उन लोगोँ के पास
सड़ी मानसिकता
वाली बातों की खबरों को
निडरता से कह देने
वालो के लिये बस "वाह"
कह देने से ही
मामला यहीं पर
खत्म हो जाता है
जो कुछ नहीं
कर सकता कहीं
अखबार और
अखबार वालों को
“जी रया” का आशीर्वाद
खुश हो कर देते हुऐ
अपनी भड़ास
थोड़ी सी ही सही
मिटा ले जाता है ! 

रविवार, 12 जनवरी 2014

मिर्ची क्यों लग रही है अगर तेरी दुकान के बगल में कोई नयी दुकान लगा रहा है

माना कि
नयी
दुकान एक

पुरानी
दुकानों के 
बाजार में
घुस कर

कोई
खोल बैठा है

पुराना ग्राहक
इतने से में ही
पता नहीं
क्यों आपा
खो बैठा है

खरीदता है
सामान भी
अपनी ही
दुकान से
धेले भर का

नयी
दुकान के
नये ग्राहकों को

खाली पीली

धौंस
पता नहीं

क्यों
इतना देता है


अपने
मतलब
के समय

एक दुकानदार
दूसरे
दुकानदार को

माल
भी
जो चाहे दे देता है


ग्राहक
एक का

बेवकूफ जैसा

दूसरे के
ग्राहक से

खाली पीली
में
ही
उलझ लेता है


पचास साठ
सालों से

एक्स्पायरी
का सामान

ग्राहकों को
भिड़ा रहे हैं


ऐसे
दुकानदारों के

कैलेण्डर

ग्राहक

अपने अपने
घर पर

जरूर लगा रहे हैं

माल सारा
दुकानदारों

के खातों में ही
फिसल के जा रहा है

बाजार
चढ़ते चढ़ते

बैठा दिया
जा रहा है


नफा ही नफा
हो रहा है


पुरानी
दुकानों को

थोड़ा बहुत
कमीशन


ग्राहकों में
अपने अपने

पहुंचा दिया
जा रहा है


ग्राहक
लगे हैं
अपनी
अपनी
दुकानो के

विज्ञापन
सजाने में


कोई
अपने घर का

कोई
बाजार का
माल
यूं ही
लुटा रहा है


क्या फर्क
पड़ता है

ऐसे में

अगर कोई

एक नई दुकान
कुछ दिन के
लिये
ही सही
यहाँ लगा रहा है


खरीदो
आप अपनी
ही
दुकान का
कैसा भी सामान


क्यों
चिढ़ रहे हो

अगर कोई
नयी दुकान

की तरफ
जा रहा है


बाजार
लुट रही है

कब से
पता है तुम्हें भी


फिर
आज ही
सबको

रोना सा
क्यों आ रहा है


बहुत जरूरी
हो गया है

अब इस बाजार में

एक
अकेला कैसे

सारी बाजार
को लूट कर


अपनो में ही
कमीशन

बटवा रहा हैं

तुम करते रहो धंधा 

अपने इलाके में
अपने हिसाब से

एक नये
दुकानदार की

दुकानदारी

कुछ दिन

देख लेने में
किसी का क्या
जा रहा है ?

शनिवार, 11 जनवरी 2014

राय देने में कहाँ कहता है कोई खर्चा बहुत ज्यादा ही होता है

कुछ ऐसा क्यों 
नहीं लिखता कभी 
जिसे एक गीत की 
तरह गाया जा सके 
तेरे ही किसी
अंदाज को
 
एक हीरो की तरह 
उस पर फिल्माया 
भी कभी जा सके 
रहने भी दीजिये 
इतना भाव भी
खाली मत बढ़ाइये 
लिखने के लिये 
लिखने वाले बहुत 
पाये जाते हैं यहा 
हजूर
हमें बख्श दीजिये
 
खजूर के पेड़ पर 
इस तरह तो ना 
मजबूर कर चढ़ाइये 
अब जब पहुँच ही 
गये हैं आप हमारी 
हिसाब लिखने 
की दुकान तक 
हमें लिखने से 
कोई मतलब नहीं 
रहता है कभी भी 
इस बात को थोड़ा 
समझते हुऐ
अब जाइये
 
श्रीमती जी भी परेशान 
किया करती थी बहुत

दिनों तक हमारे लिखने 
लिखाने को लेकर
उनसे भी बोलना 
पड़ा एक दिन इसी 
तरह से दुखी होकर 
समझा करो कभी 
हमारी भी मजबूरी 
भाग्यवान
थोड़ा सा
 
हमारी तरह होकर 
तुम तो सारा कूड़ा 
रसोई का कूड़ेदान में 
डालकर फारिग 
हो जाती हो 
कुछ ना कुछ 
कर धर कर 
हमसे कुछ तो 
होता नहीं कहीं भी 
फिलम भी अब 
बनती है हर कोई 
किसी ना किसी 
विलेन को ही लेकर 
वही निकलता है 
गली से अंत में 
देखने सुनने वालों 
का भगवान होकर 
गीत भी उसका 
लिखता वही है 
संगीत भी उसी का 
सुनाई देता है 
सब नाचते गाते हैं 
उसी को कंधों पर
अपने रख कर 
हीरो कहीं पिटता है 
कहीं बरतन उठाता 
हुआ दिखाई देता है 
गीत हीरो पर 
फिल्माया
गया हुआ
 
क्या आपको
अब भी
 
कहीं दिखाई
देता है
 
या समझ
लूँ मैं
 
इस बात
को इस तरह
 
की मुझ में
ही आपको
 
आज का कोई 
विलेन एक 
दिखाई देता है | 


शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

सब कुछ जायज है अखबार के समाचार के लिये जैसे होता है प्यार के लिये

समाचार
देने वाला भी
कभी कभी
खुद एक
समाचार
हो जाता है

उसका ही
अखबार
उसकी खबर
एक लेकर
जब चला
आता है

पढ़ने वाले
ने तो बस
पढ़ना होता है

उसके बाद
बहस का
एक मुद्दा
हो जाता है

रात की
खबर जब
सुबह तक
चल कर
दूर से आती है

बहुत थक
चुकी होती है
असली बात
नहीं कुछ
बता पाती है

एक कच्ची
खबर
इतना पक
चुकी होती है

दाल चावल
के साथ
गल पक
कर भात
जैसी ही
हो जाती है

क्या नहीं
होता है
हमारे
आस पास

पैसे रुपिये
के लिये
दिमाग की
बत्ती गोल
होते होते
फ्यूज हो
जाती है

पर्दे के
सामने
कठपुतलियाँ
कर रही
होती हैं
तैयारियाँ

नाटक दिखाने
के लिये
पढ़े लिखों
बुद्धिजीवियों
को जो बात
हमेशा ही
बहुत ज्यादा
रिझाती हैं

जिस पर्दे
के आगे
चल रही
होती है
राम की
एक कथा

उसी पर्दे
के पीछे
सीता के
साथ
बहुत ही
अनहोनी
होती चली
जाती है

नाटक
चलता ही
चला जाता है

जनता
के लिये
जनता
के द्वारा
लिखी हुई
कहानियाँ
ही बस
दिखाई
जाती हैं

पर्दा
उठता है
पर्दा
गिरता है
जनता
उसके उठने
और गिरने
में ही भटक
जाती है

कठपुतलियाँ
रमी होती है
जहाँ नाच में
मगन होकर

राम की
कहानी ही
सीता की
कहानी से
अलग कर
दी जाती है

नाटक
देखनेवाली
जनता
के लिये ही
उसी के
अखबार में
छाप कर
परोस दी
जाती है

एक ही
खबर
एक ही
जगह की
दो जगहों
की खबर
प्यार से
बना के
समझा दी
जाती है ।

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

पल्टी मार लेना कभी भी बहुत आसान होता है

इस जहाँ में
मौसम का असर
किसी भी मुद्दे पर
दिखाई देता है
किसी के बारे में
एक राय कायम
कर लेना वाकई
एक बहुत ही
टेढ़ी खीर होता है
अपने आस पास
हर शख्स के बारे में
ज्यादातर सबको ही
सब कुछ पता होता है
आदमी ही आदमी को
समझने की कोशिश में
एक नहीं कई भूल
कर ही देता है
गलतफहमियां भी
होती ही है
किसी ना किसी को
कभी ना कभी
कौन इस बात को
बहुत ज्यादा
तूल देता है
बहुत उठा पटक
करते हैं लोग बाग
यूं भी फितरत
में किसी ने
क्या पाया है
कई बार ये भी
पता नहीं होता है
जो भी होता है
जैसा भी होता है
इन सब के बावजूद
कहीं ना कहीं कोई
कुछ अजीब सा
भी तो होता है
बदलता नहीं है
कुछ भी कभी भी
एक साफ सीधी
लकीर सा होता है
किसी भी परिस्थिति
और देशकाल का
उसपर कुछ भी
असर नहीं होता है
समय के कठिन से
कठिन प्रश्नो का
जिसके पास एक
बहुत सरल सा
उत्तर होता है
कभी तो बदलेगा
किसी बात को
लेकर ऐसा आदमी
सोचने वाला सोचता है
बस नहीं कहता है
कुछ ऐसा गजब
का होता है जो भी
उसकी सोच का भी
अजब का एक
नजरिया होता है
सच में होता है
सोचने का दायरा
किसी किसी का
जिसके लिये एक
आकाश भी छोटा
और बहुत छोटा
सा होता है
हर किसी का
तो जरूरी नहीं
पर होता है
कोई खुशकिस्मत
भी कहीं ना कहीं
जो जरूर होता है
जिसके आस पास
उसका कोई एक
साथी कुछ कुछ
ऐसा जरूर होता है
राजनीति के किसी
काम का बिल्कुल
भी नहीं होता है
बस यही और यही
तो एक आम
आदमी होता है | 

बुधवार, 8 जनवरी 2014

समझ में कहाँ आता है जब मरने मरने में फर्क हो जाता है

एक आदमी के
मरने की खबर
और एक औरत
के मरने की खबर
अलग अलग खबरें
क्यों और कैसे
हो जाती होंगी
मौत तो बस
मौत होती है
कभी भी अच्छी
कहाँ होती है
चाहे पूरी उम्र
में होती है
या कभी थोड़ी
जल्दी में होती है
कभी कहीं एक
आदमी मर जाता है
मातम पसरा सा
नहीं दिख पाता है
कुछ कुछ सुकून
सा तक नजर
कहीं कहीं आता है
फुसफुसाते हुऐ एक
कह ही जाता है
ठीक ही हुआ
बीबी और बच्चों
के हक में हुआ
जो हुआ जैसा हुआ
अब ये क्या हुआ
उधर एक औरत
मर जाती है
बूढ़ी भी नहीं
हो पाती है
मातम चारों ओर
पसर जाता है
हर कोई कहता
नजर आता है
बहुत बुरा हो गया
बच्चों का आसरा
ही देखिये छिन गया
ऐसा हर जगह हो
जरूरी नहीं होता है
पर जहाँ होता है
कुछ कुछ इसी
तरह का होता है
“उलूक” के
दिमाग का बल्ब
जब कभी इस तरह
फ्यूज हो जाता है
घर का “गूगल”
सरल शब्दों में
उसे समझाता है
जो आदमी मरा
अपने कर्मो से मरा
बुरा हुआ पर
उसका दोष बस
उसको ही जाता है
और जो औरत
मरी वो भी
आदमी के ही
कर्मों से मरी
उसका दोष भी
आदमी को ही
दिया जाता है
आदमी के और
औरत के मरने में
बस यही फर्क
हो जाता है
अब मत कहना
बस यही तो
समझ में नहीं
आ पाता है ।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

समय खुद लिखे हुऐ का मतलब भी बदलता चला जाता है

बहुत जगह
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है

जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है

सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ

पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल

या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर

हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है

कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है

इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है

और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है

हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है

बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ

उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है

यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर

लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है

पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ

उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है

इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है

हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है

छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है

समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।

सोमवार, 6 जनवरी 2014

वो क्या देश चलायेगा जिसे घर में कोई नहीं सुना रहा है

सुबह सुबह
बहुत देर तक
बहुत कुछ कह
देने के बाद भी
जब पत्नी को
पतिदेव की ओर से
कोई जवाब
नहीं मिल पाया
मायूस होकर उसने
अपनी ननद
की तरफ मुँह
घुमाते हुऐ फरमाया
चले जाना ठीक रहेगा
पूजा घर की तरफ
भगवान के पास जाकर
नहीं सुना है कभी भी
कोई निराश है हो पाया
भगवान भी तो बस
सुनता रहता है
कभी भी कुछ
कहाँ कहता है
बिना कुछ कहे भी
कभी कभी बहुत कुछ
ऐसे ही दे देता है
पतिदेव जो बहुत देर से
कान खुजला रहे थे
बात शुरु होते ही
कान में अँगुली
को ले जा रहे थे
बहुत देर के बाद दिखा
डरे हुऐ से कुछ
नजर नहीं आ रहे थे
कहीं मुहँ के कोने से
धीमे धीमे मुस्कुरा रहे थे
बोले भाग्यवान
कर ही देती हो तुम
कभी ना कभी
सौ बातों की एक बात
जिसका नहीं हो सकता है
मुकाबला किसी के साथ
देख नहीं रही हो
आजकल अपने
ही आसपास
सब भगवान का
दिया लिया ही तो
नजर आ रहा है
सारे बंदर लिये
फिर रहे हैं अदरख
अपने अपने हाथों में
मदारी कहीं भी
नजर नहीं आ रहा है
तुझे भी कोशिश
करनी चाहिये
भगवान से
ये सब कुछ कहने की
भगवान आजकल
बिना सोचे समझे
किसी को भी
कुछ ना कुछ
दिये जा रहा है
जितना नालायक
सिद्ध कर सकता है
कोई अपने आप को
आजकल के समय में
उतनी बड़ी जिम्मेदारी
का भार उठा रहा है
सब तेरे भगवान
की ही कृपा है
अनाड़ियों से बनवाई
गयी पकौड़ियों को
सारे खिलाड़ियों को
खाने को मजबूर
किया जा रहा है
वाकई जय हो
तेरे भगवान जी की
कुछ करे ना करे
झंडे डंडो में बैठ कर
चुनावों में कूदने
के लिये तो
बड़ा आ रहा है
पति भी होते हैं
कुछ उसके जैसे
उन्ही को बस
पति परमेश्वर
कहा जा रहा है
बहुत ज्यादा
फर्क नहीं है
कहने सुनने में
तेरी मजबूरी है
कहते चले जाना
कोई नहीं सुन
पा रहा है
पति भी भेज रहा है
चिट्ठियाँ डाक से
इधर उधर तब से
डाकिया लैटर बाक्स
खोलने के लिये ही
नहीं आ रहा है ।

रविवार, 5 जनवरी 2014

होता तो है मतलब का पता पर समझ में नहीं आ पाता है

मकड़ियां होती ही हैं
सामने से, आस पास
या कहीं दूर पर भी
जहाँ तक नजर
में आ जाती हैं
अब होती हैं
तो होती हैं
और किसी के कहीं
होने में किसी का
दोष नहीं होता है
अब क्या करें वो भी
उनको भी कहाँ
पता होता है
कोई उनको जब तब
देख परख रहा होता है
आज अचानक
ऐसी ही कुछ मकड़ियों
की स्ट्रेटेजी का ख्याल
पता नहीं कहाँ
से आ गया
ऐसा होता है
सोये हुऐ मन में
भी बहुत कुछ
सोया रहता है
पर जो वास्तव में
सोया सोया हुआ
सा नहीं होता है
स्ट्रेटेजी किसी के लिये
रणनीति हो जाती है
किसी को एक
कपट विद्या
नजर आती है
कोई युद्ध-कला
समझाता है
किसी के लिये वही
युद्ध-कौशल हो जाता है
शराफत से बताने
वाला कार्यनीति
कह ले जाता है
बाबा “उलूक” भी
क्या करे ऐसे में
जो कुछ देखना
सुनना नहीं चाहता है
वो सब उसी दिन के
सुबह सुबह के
अखबार के मुख्यपृष्ट
पर छप के आ जाता है
अब अगर एक मकड़ी
के हाथ में किसी को
मछली पकड़ने का
तागा और सामान
नजर आता है
तो इसमें कौन सा
अनर्थ हो जाता है
मकड़ी भी तो
छोड़ सकती है
जाल बुनना और
मक्खी चूसना
क्या पता मछली
फंसाने में उसको
अब और ज्यादा
मजा आता है
खिसियाता हुआ
खुद को कुछ
इस तरह समझाता है
तू लगा रह चूसने में
शाकाहार सा कुछ
हरी घास के मैदानों में
बहुत कुछ तेरे जैसों के
लिये पाया जाता है
तुझे जब पकड़नी ही
नहीं है मक्खी या मछली
तो फिर काहे को बेकार में
स्ट्रेटेजी का सही मतलब
समझना चाहता है ।

शनिवार, 4 जनवरी 2014

ठीक नहीं किया जैसा किया जाता रहा था वैसा ही क्यों नहीं किया

एक काम के
बहुत ही
सुचारू रूप से
समय से पहले ही
पूरा हो जाने पर
साहब का पारा
सातवें आसमान
पर चला गया
तहकीकात करवाने
के लिये एक
खासम खास को
समझा दिया गया
पूछने को कहा गया
इतनी जल्दी
काम को बिना
सोचे समझे
किससे पूछ कर
पूरा करा लिया गया
रुपिया पैसा जबकि
जरूरत से ज्यादा
ही था दिया गया
बताना ही पढ़ेगा
आधे से ज्यादा
कैसे बचा कर
वापिस लौटा
दिया गया
पूछताछ करने पर
खासम खास ने
कुछ कुछ ऐसा
पता लगा लिया
रोज उसी काम को
सफाई से निपटा
ले जाने वाला
इस बार पत्नी के
बीमार हो जाने
के कारण मजबूरी
में छुट्टी पर
था चला गया
काम करवाना चूंकि
एक मजबूरी थी
एक नये आदमी को
काम पर इसलिये
लगा दिया गया
बेवकूफ था
दुनियादारी से
बेखबर था
ईमानदार था
कैसे निपटाना है
ऐसे काम को
किसी और से
राय लेने तक
पता नहीं
क्यों नहीं गया
हो ही जाना था
काम को इस बार
जैसे हुआ करता था
हमेशा ही वैसा
कुछ भी नहीं हुआ
फल लगा पेड़ पर
पका हुआ था
सब से देखा भी गया
बैचेनी बड़ी फैली
पूरे निकाय में
कहा गया झुंझलाहट में
ये सब जो भी हुआ
बहुत अच्छा नहीं हुआ
फर्जीवाड़ा नहीं कर
सकता हो
जो इतना भी
फर्जियों के बीच में
सालों साल रहकर
ऐसे दीवाने को
किसने और कैसे
काम करने का
ठेका दे दिया गया
तहकीकात करने वाले
ने जब सारी बातों
का खुलासा किया
तमीज सीखने की
बस सलाह देकर
ऐक नेक आदमी को
काम से हमेशा
के लिये
हटा दिया गया
साथ में बता
दिया गया
बच गया
इतना ही किया गया
खुश्किस्मत था
आरोप कोई भी
लिख कर किसी
के द्वारा नहीं
दिया गया ।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2014

कुछ देशी इलाज करवा बहुत फालतू बातें आजकल कर रहा है

समय
बदला है
तरीके
भी बदले हैं
उसी तरह
उसके
साथ साथ

बस
नहीं बदली है
तो तेरी समझ

समझा कर

पहले
जो कुछ भी
हुआ करता था
उस समय के
हिसाब से ही
हुआ करता था

अब
उस समय
का हिसाब
इस समय
भी सही हो

इस बात को
समय कभी भी
किसी से भी

किसी
जमाने में भी
कहीं नहीं
कहा करता था

लौह पुरुष
हुआ था
कहते हैं
कोई कभी

किसे पता है
कितना लोहा
उसमें हुआ
करता था

एक
कोई और
धोती पहना हुआ
एक चश्मा लगाये
लाठी लेकर

सच की
वकालत
भी करता था

होता था
बहुत कुछ
स्वत: स्फूर्त

अपने आप
ऊपर से
नीचे की
ओर ही नहीं

विपरीत
दिशाओं में भी
खुद का खुद
कुछ कुछ
बहा करता था

समय
बदल गया है

लौह पुरूष
नहीं भी
बन रहा है

चिंता
मत किया कर

लौहा
पूरे देश से
कोई आज भी
जमा कर रहा है

बनेगा
कुछ ना कुछ

सच की
वकालत
बिना लाठी चश्में
और धोती के भी

कोई कोई
कर रहा है

बस बताना
पड़ रह है

एक दो नहीं
पूरी एक
भीड़ के द्वारा

कि कोई
कुछ कर रहा है
और ईमानदारी
से ही कर रहा है

एक तू है
अभी भी
पुराने
तरीकों पर
ना जानें क्यों
अढ़ रहा है

सोच
कितने लोगों
से उसे
कहलवाना
पड़ रहा है

संचार तंत्र
का भी सहारा
जगह जगह
लेना पड़ रहा है

दस लोगों का
ईमानदारी का दिया
हुआ प्रमाण पत्र भी
क्या तेरे पल्ले
नहीं पड़ रहा है

जब
कह दिया गया है
छपा दिया गया है
टी वी में तक
दिखा दिया गया है

तब भी
तू बेकार में
मण मण
कर रहा है ।

गुरुवार, 2 जनवरी 2014

थोड़े समय में देख भी ले बेवकूफ कौन क्या से क्या हो जा रहा है

ऊपर वाला
सुना है
आजकल
बात बात में
परेशान
हो जा रहा है


नीचे वाला
पता नहीं
इतना भी
क्यों नहीं
समझ
पा रहा है

परेशानियाँ
माना कि
उसकी
अपनी
खुद की
बनाई हुई
सब नजर
आती हैं

किसी ने
कभी उसे
क्यों नहीं
टोका कि
इतने सारे
अवतार क्यों
अपने वो
बनाये
जा रहा है

हर दूसरे
को छोड़
तीसरा
अपने
आप को
उसका ही
आदमी एक
बता रहा है

उल जलूल
सारे फजूल
कामों को
नियमों को
ताक में
रख कर
करवा रहा है

बेवकूफ
होगा
वो भी
आम
आदमी
की तरह

”उलूक”
का भेजा
बस
इतनी सी
बात को
नहीं पचा
पा रहा है

उधर
एक आदमी
लगा हुआ है
पूरे देश को
ही बदलने
के फिराक में

इधर
तुझसे
चवन्नी
भर का
ईमान
अपना
नहीं बिक
पा रहा है

सुधर जा
अभी भी
समय है
तेरे ही
खुद के
हाथ में

खुली
हथेली
ले कर
कफन
ओढ़ कर
जब चलेगा
एक लम्बे
सफर पर

सब कहेंगे
देखो जरा
एक
बेवकूफ
अपनी
बेवकूफी
के कारण
आज खाली
जेब और
खाली हाथ
जा रहा है !

बुधवार, 1 जनवरी 2014

किसी के यहाँ होना शुरु हो गया है क्या कुछ नया यहाँ तो आज भी अंधेरा हो रहा था

हर साल की तरह
पिछले साल के
अंतिम दिन
वैसा ही कुछ
महसूस हुआ
जैसा पिछले
के पिछले
और उससे
कई पिछले
सालों में था लगा
कुछ ऐसा जैसे
साल बीतते ही
अगले दिन से
जुराब पैर का
उल्टा खुद ही
हो जाने वाला हो
फटा हुआ
ऐड़ी का हिस्सा
अपने आप
सिल सिला कर
पूरा हो जाने वाला हो
खुशी के मारे
थर्टी फर्स्ट का
सुरूर कुछ और
सुर्ख होता चला गया
एक के बाद एक
नहीं पीने वाला
भी पता नहीं
कितना कितना
और क्या क्या
पीता चला गया
सब पी रहे थे
कुछ ना कुछ
बिना सोचे समझे
कहीं शराब थी
नशा नहीं था
कहीं पानी था
और बेहिसाब
हो रहा नशा
ही नशा था
सभी को
लग रहा था
बस आज की
रात गुजर जाये
किसी तरह से
कल से तो कुछ
नये तरह के
साल का पदार्पण
पुराने साल की
जगह पर हो रहा था
सुबह आँख
खुलते खुलते
नशेड़ियों का नशा
जब धीरे धीरे
हवा हो रहा था
सूरज निकला था
उसी तरह से
जैसे बरसों से
पूरब के एक कोने
से निकल रहा था
आईना भी उसी तरह
से बस चुपचाप था
कुछ भी नया
नहीं कह रहा था
सारे डर अंदर
के वहीं कहीं
कोने में जमे हुऐ
नजर आ रहे थे
जहाँ बरसों से
अंंधेरा अंधेरा
बस अंधेरा ही
हो रहा था
उन सब के
बारे में ही
सोच में मोच
आती दिखना शुरु
हो जा रही थी
जिन्हे देखते हुऐ
हमेशा ही कुछ
अजीब अजीब सा
पता नहीं किस
जमाने से हो रहा था
पहला ही
दिन था शायद
इसीलिये विश्वास
नहीं हो रहा था
क्या पता
दो एक दिन
और लगें कुछ
और बदलने
सम्भलने में
आज तो कुछ वैसा
वैसा ही हो रहा था
जैसा पिछले साल के
तीन सौ पैसठ दिनों
में रोज हो रहा था ।