उलूक टाइम्स

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

हमेशा होता है जैसा उससे कुछ अनोखा नहीं होगा


तुम को लगता होगा
कभी तुम पर लिखा हुआ होगा यहाँ पर शायद कुछ

उसे लगता होगा 
हो सकता है उसके लिये ही कहा गया हो कुछ

पर समय पर लिखा गया कुछ भी
किसी पर भी नहीं लिखा होता है

जो हो रहा होता है उसे तो होना ही होता है

और तुम पर कुछ लिख लेने का साहस होने के लिये
अंदर से बहुत मजबूत होना होता है

चौराहे पर खड़े होकर खीजने वालों के लिये
चार रास्ते होते हुऐ भी  कहीं रास्ता नहीं होता है

हर तरफ से लोग आते हैं और चले जाते हैं
सभी को अपनी मंजिलों का पता होता है

जिसे भटकना होता है
उसके लिये एक ही रास्ता बहुत होता है

ना कहीं मंजिल होती है
ना ही कोई ठिकाना होता है

आना और जाना
उसे भी आता है बहुत अच्छी तरह

जाना किस के लिये और कहाँ होता है
बस यही और यही पता नहीं होता है

परसों गुजरा था इसी चौराहे से
आज फिर जाना होगा
आने वाले कल में भी
इसी रास्ते में कहीं ना कहीं ठिकाना होगा

सब दिखायेंगे
अपने अपने रास्ते
पर जिसे खोना होगा हमेशा की तरह
उसके आने जाने का रास्ता
इस बार भी
पिछली बार की तरह ही
उनहीं गिने चुने निशानेबाजों के निशाने होगा

ऐसे में मत सोच लेना गलती से भी
 कोई तुम पर या फिर उस पर लिख रहा होगा

कुछ ही दिन हैं बचे इंतजार कर 'उलूक'
हर चौराहे पर 
सारा सब कुछ बहुत साफ साफ लिखा होगा ।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

शिकायत करने की हर बात पर बीमारी हो गई हो जिसे उसका इलाज ही नहीं कहीं हो पाता है

मलाई लूटने के
मौके बहुत मिलते हैं
बिल्लियों को
सालों साल तक
एक ही जगह से
दूध लूटने का मौका
कभी कभी आता है
क्यों नहीं सीखते हो
इस बात से
थोड़ा बहुत कुछ
दुकान अपनी बंद कर
कुछ दिनों के
लिये ही सही
सड़क किनारे एक
खोमचा क्यों नहीं
आजकल लगाता है
देने या ना देने
जाने या ना जाने
का दस्तूर बहुत
पुराना हो गया है
थोपे गये कबूतरों
को उड़ाने में
किसी का बताये
तो सही कोई
क्या जाता है
शेर बाघों को
जंगल का रास्ता
दिखा दिखा कर
सियारों ने कर
लिया हो जब
हर शहर गाँव
कस्बों से अपना
मजबूत नाता है
सियार हूँ
सियारों के लिये हूँ
सियारों के द्वारा
सियारों का जैसा
करने और कहने में
फिर काहे को शर्माता है
क्या करेगा
उलूक
तेरे पास भी कुछ
तो काम की
कमी लगती है
दुनियाँ हमेशा से
ऐसे ही चलती है
तू भी पागलों की
तरह रोज एक
ना एक शिकायत
ले कर चला आता है
सोचता भी नहीं है
कुछ भी हो
कैसा भी हो
काम करना निभाना
थोड़ा सा भी
क्या कहीं इस तरह
से छोड़ा जाता है
तेरे लगती रहती
है मिर्ची हमेशा
लगती रहे
पता है तुझे भी
तेरे जैसों को
कौन यहाँ और वहाँ
भी मुँह लगाता है ।  

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

सवाल सिस्टम और व्यवस्था का जब बेमानी हो जाता है


कैसे बनेगा कुछ नया उस से 
जिसके शब्दों की रेल में 
गिनती के होते हैं 
कुछ ही डब्बे 

और
उसी रेल को लेकर वो 
सफर करता हो हमेशा ही 
एक इंटरसिटी की यात्रा की तरह 

अपने घर से मौहल्ले बाजार होते हुऐ 
शहर की इस गली से उस गली में 
निकलते हुऐ 

वही रोज की गुड मोर्निंग वही मुस्कुराहटें 

वही पैदल चलने वालों को रौंदने की इच्छा करते हुऐ 
सड़क पर दौड़ते दो पहिये चार पहिये 

कुछ कुत्ते कुछ सांड कुछ पुलिस वाले बेचारे 
नेताओं की ओर से मुँह फेरते हुऐ 
बच्चों और लड़कियों को सीटी बजाकर 
उनके वाहनो को खदेड़ने के करते हुऐ इशारे 

मंदिरों के सामने से उनको ढकती 
खड़ी होती सड़क पर पहँच कर 
दुकाने निकालती 
चालीस फीट उँचाई के नियम को 
तोड़ती बिखेरती मीनारें 

और अंत में 
वही रोज का तालाब 
जिसके किनारे से लगा होता है एक बोर्ड 
यहाँ मछली पकड़ना सख्त मना है 

और कोई भी जहाँ मछली पकड़ता हुआ 
कहीं भी नजर नहीं आता है 

मछलियां अपने आप फंसना फंसाना सीखती है 

कोई किसी से कुछ नहीं कहता है 
या कहो कहना ही नहीं चाहता है 
या नहीं कह पाता है 

कुर्सियाँ भी तो हर जगह होती ही हैं
किनारे किनारे 
उन पर कोई भी कभी भी कहीं भी बैठ जाता है 

बस कुछ गोलियांं रखता है अपने पास 
सबको बाँटता चला जाता है 

गोली देने में कोई जात पात 
कोई ईमान धर्म भी नहीं देखा जाता है 
सब कुछ लोकतांंत्रिक तरीके से किया जाता है

अब 
‘उलूक’ का तो 
रोज का यही काम रह जाता है 
रोज शुरु करता है अपनी यात्रा 
रोज जाता है मछलियां देखता है 
और वापिस भी आ जाता है 

रेल के कुछ डब्बों को आगे पीछे करता हुआ 
दूसरे दिन के लिये एक रेल बनाता है 

ऐसे में कोई कैसे उम्मीद करता है 

कुछ नया खुद का बनाया हुआ 
रेल का एक डब्बा ही सही 
कोई क्यों नहीं किसी को दिखाता है । 

चित्र साभार:

बुधवार, 2 अप्रैल 2014

समझाने वाले की बात को समझना जरूरी समझा जाता है

पूरी जिंदगी बीतती है  
किसी की कुछ कम
किसी की कुछ ज्यादा
लम्बी ही खींचती है
पर समझ में सबके
सबकुछ अपने अपने
हिसाब का कम या
ज्यादा आ ही जाता है
फिर भी कोशिश
जारी रहती है
समझाने वाले की
हमेशा ही कुछ
ना कुछ समझाने की
सामने वाले को भी
समझाने वाला समझ
में पूरा ही आता है
ये बात अलग है
पता होता है
समझाने वाले को भी
जो वो समझाना
किसी को भी चाहता है
खुद की समझ में
उसके भी जिंदगी भर
बस वही नहीं आ पाता है
समझने वाला पूरी जिंदगी
समझाने वाले से
पीछा नहीं छुड़ा पाता है
समझाने वाले के साथ
भी कोई ना कोई
एक रंगीन छतरी लेकर
जरूर ही इधर या उधर
खड़ा हुआ पाया जाता है
एक श्रँखला बन जाती है
कबूतर के आगे कबूतर
कबूतर के पीछे कबूतर
और बीच वाला कबूतर
अपनी जान साँसत में
हमेशा इस तरह
फँसा ले जाता है
ना निगला जाता है
ना उगला जाता है 

उलूक आधी सदी 
बीत गई तुझे
समझते समझते
तू ही कुछ शरम
कर लेता कुछ
समझ ही लेता
समझाने वालों को
शरम आने की बात
तेरी सोच में भी
कैसे आ जाती है
समझाने वाला
समझने वाले से
हमेशा बीस ही
माना जाता है । 

मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

‘माफ करना हे पिता’ लेखक ‘शँभू राणा’ प्रकाशक ‘नैनीताल मुद्र्ण एवं प्रकाशन सहकारी समिति’ वितरक ‘अल्मोड़ा किताब घर, अल्मोड़ा’ मूल्य 175 रु मात्र

बहुत शोर
होता है 
रोज ही
उसका
जिसमें
कहीं भी
कुछ नहीं
होता है

मेरे कस्बेपन
से गुजरते हुए
बिना बात के
बात ही बात में
शहर हो गये
जैसे शहर में

जिसकी किसी
एक गली में
कोई ऐसा भी
कहीं रहता है

जो ना अपना
पता देता है
किसी को
ना किसी के
पास उसके
होने का ही
कोई पता
होता है

शर्मीला
या खुद्दार
कहने से
भी कुछ
नहीं होता है

दुबला पतला
साधारण
सा पहनावा
और
आठवीं
तक चलने
की बात
बताता
और
सुनाता चला
होता है

कलम के
बादशाह
होने वाले
के पास
वैसे भी
खूबसूरती
कुछ
नाज नखरे
बिंदास
अंदाज और
तख्तो ताज
जैसा कुछ भी
नहीं होता है

ज्यादा
कुछ नहीं
कहना होता है

जब
शँभू राणा
जैसा बेबाक लेखक
कलम का जादूगर
सामने से होता है

शहर है गली है
गाँव है आदमी है
या होने को है कुछ
कहीं बस जिसको
पता होता है

हर चीज की नब्ज
टटोलने का आला
जिसकी कलम में
ही कहीं होता है

कुछ लोग होते हैं
बहुत कुछ होते हैं
जिनको पढ़ लेना
सबके बस में ही
नहीं होता है

कई तमगों
के लिये बने
ऐसे लोगों
के पास ही
इस देश में
कोई तमगा
नहीं होता है ।