उलूक टाइम्स

शनिवार, 5 जुलाई 2014

रस्म है एक लिखना लिखाना जो लिखना होता है वो कभी नहीं लिखना होता है



रोज लिखना जरूरी है क्या
क्यों लिखते हो रोज
ऐसा कुछ जिसका कोई मतलब नहीं होता है

कभी देखा है
लिखते लिखते लेखक खुद के लिखे हुऐ का
सबसे पुराना सिरा
बहुत पीछे कहीं खो देता है

क्या किया जा सकता है

वैसे तो एक लिखने वाले ने
कुछ कहने के लिये ही
लिखना शुरु किया होता है

लिखते लिखते कलम
बहुत दूर तक चली आती है
कहने वाली बात
कहने से ही रह जाती है

सच कहना कहाँ इतना आसान होता है
कायर होता है बहुत कहने वाला
कुछ कहने के लिये बहुत हिम्मत
और एक पक्का जिगर चाहिये होता है

लगता नहीं है
खुद को इस नजर से देखने में
उसे कहीं कोई संकोच होता है
उसे बहुत अच्छी तरह से पता होता है
सच को सच सच लिख देने का क्या हश्र होता है

किसी का उसी के अपने ही पाले पौसे
उसके ही चारों ओर रोज मडराने वाले
चील कौओं गिद्धों के नोच खाये जाने की
खबर आने में कोई संदेह नहीं होता है

बाकी जोड़ घटाना गुणा भाग जो कुछ भी होता है
इस आभासी दुनियाँ में
सब कुछ आभासी लिखने तक ही अच्छा होता है

सच को देखने सच को समझने
और सच को सच कहने की इच्छा
रखने वाला ‘उलूक’
तेरे जैसे की ही बस सोच तक ही में कहीं होता है

उसके अलावा अगर
ऐसा ही कोई दूसरा कहीं ओर होता है
तो उसके होने से कौन सा कहीं कुछ गजब होता है

लिखना लिखाना तो चलता रहता है
जो कहना होता है
वो कौन कहाँ किसी से
सच में कह रहा होता है ।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

अकेले अपनी बातें अपने मुँह के अंदर ही बड़बड़ाते रह जाते हैं

परेशानी खुद
को भी होती है
परेशानी सब
को भी होती है
जब कोई खुद
अपने जैसा
होने की ही
कोशिश करता है
और सबका
जैसा होने से
बचता रहता है
बकरी की माँ
बहुत ज्यादा दिन
खैर नहीं मना पाती है
खुद के द्वारा
खुद ही हलाल
कर दी जाती है
सब के द्वारा
तैयार किया गया
रास्ता हमेशा ही
सीधा होता है
कोई खड़पेंच
उसमें कहीं भी
नहीं होता है
सब एक दूसरे के
सहारे पार हो जाते हैं
गँगा नहाये बिना ही
बैकुँठ पहुँचा
दिये जाते है
अपनी मर्जी से
अपने टेढ़े मेढ़े
रास्ते में जाने वाले
बस चलते ही
रह जाते हैं
रास्ता होता है
बस उनके साथ
रास्ते के साथ
ही रह जाते हैं
चलना शुरु
जरूर करते हैं
लेकिन पहुँच
कहीं भी
नहीं पाते हैं
‘उलूक’ किसी को
कहीं भी पहुँचाने
के लिये अकेले
चलने वाले
कभी भी
काम में नहीं
लाये जाते हैं
सब के साथ
सब की
मर्जी के बिना
ईश्वर भी मंदिर
में बैठे रह जाते हैं ।

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

किसी ने तो देखा सुना होगा किसी का ढोलक या सितार हो जाना

लकड़ी
पर चढ़ी 

एक
मरे जानवर
की खाल हो

खूँटियों
पर कसे

कुछ
लोहे के
तार हों

कर्णप्रिय
संगीत
लहरियाँ हों
ढोलक हो
सितार हो

जिंदा
शरीर
के गले से
निकलता
सुरीला
संगीत हो

नर्तकी के
कोमल पैरों में
बंधे घुँघरूओं
की खनकती
आवाज हो

जरूरी
होता है
कहीं ना कहीं
कुछ खोखला होना

और
होना
होता है
किसी को
पारंगत
पीटने में
या
खींचनें में

आना
होता है
खोखलेपन से
निकलते हुऐ
खालीपन को
दिशा देना

आसान
नहीं होता है

अपने
अंदर से
निकलती हुई
आवाजों को
खुद ही सुनना
और
खुद ही समझना

कुछ
काम नहीं आता

जिंदगी का
पीटने और
खींचने में
पारंगत
हो जाना

कौन
बता पाता है

उसे
कब समझ
में आता है

अपने
खुद के ही
अंदर का
सबकुछ
खाली हो जाना

और
उसी पल
खालीपन से
सब कुछ
भर भरा जाना

खोखला
हो जाने
के बावजूद भी

संगीत का
बहुत ही
बेसुरा
हो जाना ।

बुधवार, 2 जुलाई 2014

श्रद्धांजलि मौन होती है जाने वाला सुकून से चल देता है (सुशील, रायपुर, के निधन पर)

मृत्यू तो रोज 
ही होती है
रोज मरता है
एक आदमी
कहीं अंदर से
या बाहर से
आभास होता है
परवाह नहीं
करता है
सूखी हुई
आँखों से कुछ
टपकता भी है
ना नमकीन
होता है ना
मीठा होता है
बस कुछ होने
भर का एक
अहसास होता है
चिर निद्रा में
उसे भी सोना
ही होता है जो
उम्र भर सोने
की कोशिश में
लगा रहता है
ऐसी एक नहीं
ढेर सारी मौतों
का कोई भी
प्रायश्चित कहीं
भी नहीं होता है
इन सभी मृत्युओं
के बीच अपने किसी
बहुत नजदीकी
की मृत्यू से
आहत जब
कोई होता है
कोई शब्द
नहीं होता है
बस एक
मौन रोता है ।

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

सार्वभौमिक है प्रश्न वाचक चिन्ह भाषा कुछ और होने से क्या हो जाता है

बहुत सारे प्रश्न 
ऐसे ही रोज
बेकार के समय
में उठते हैं
साबुन के
बुलबुलों की तरह
और फूट जाते हैं
काले सफेद
रंग बिरंगे
सुंदर कुरूप
लुभावने डरावने
और पता नहीं
कैसे कैसे
हर बुलबुला
छोड़ जाता है
एक प्रश्न चिन्ह
और वही
प्रश्न चिन्ह कहीं
किसी और प्रश्न के
बुलबुले में जा कर
लटक जाता है
ऐसे प्रश्नों के
उत्तर भी
होते हैं या नहीं
पता नहीं चल पाता है
आज तक किसी को
लिखते हुऐ नहीं देखा
कहीं भी अपने
ऐसे ही प्रश्नो को
सब के पास
सबके अपने अपने
प्रश्न होते हैं
पूछ्ना तो बहुत
दूर की बात
कोई दिखाना तक
नहीं चाहता है
शायद छपे कभी
कोई ऐसे ही प्रश्नों
की कोई किताब कहीं
और पता चले
अलग अलग तरह के
लोगों के अपने अपने
अलग अलग प्रश्न
क्योंकि आपस में
मिलजुल कर किये
काम से बहुत कुछ
बहुत बार निकल
कर आता है
‘उलूक’ के लिये तो
प्रश्न हमेशा ही
ब्रह्म हो जाता है
बस दूसरों में से
प्रश्न खोदने वाले
लोगों के लिये
एक प्रश्न जैसे
किसी का आखेट
करना हो जाता है
प्रश्न ही बुझाता है
उनकी रक्त पिपासा
प्रश्न पूछते ही
ऐसे लोगों के चेहरे पर
रक्त दौड़ जाता है
ऐसा रक्तिम चेहरा
और संतोष भाव ही
उनको ईश्वर
तुल्य बनाता है
वो बात अलग है
उनके ईश्वर बनते ही
सामने वाला डरना
शुरु हो जाता है
पर किसी का
विद्वान होना भी
यहीं पर उसके
प्रश्नो के कुदाल
से ही नजर आता है
क्योंकि उनके पास
तो बस उत्तर
ही होते हैं
किसी को इस
बात से क्या करना
अगर वो खुद को
प्रश्न वाचक चिन्ह
के साथ लटका
हुआ हमेशा पाता है ।