उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2014

विवेकानन्द जी आपसे कहना जरूरी है बधाई हो उस समय जब आपकी सात लाख की मूर्ति हमने अपने खेत में आज ही लगाई हो

अखबार खरीद कर
रोज घर लाने की
आदत पता नहीं
किस दिन तक
यूँ ही आदत
में शामिल रहेगी
पहले दिन से ही
पता रहती है जबकि
कल किसकी कबर
की खबर और
किस की खबर
की कबर बनेगी
मालूम रहता है
आधा सच हमेशा
आधे पन्ने में
लिख दिया जाता है
वैसे भी पूरी बात
बता देने से
बात में मजा भी
कहाँ रह जाता है
एक पूरी कहानी
होती है
एक मंदिर होता है
और वो किसी
एक देवता के
लिये ही होता है
देवता की खबर
बन चुकी होती है
देवता हनीमून से
नहीं लौटा होता है
मंदिर की भव्यता
के चर्चे से भरें होंगे
अखबार ये बात
अखबार खरीदने
वाले को पता होता है
मंदिर बनने की जगह
टाट से घिरी होती है
और एक पुराना
कैलैण्डर वहाँ
जरूर टंका होता है
वक्तव्य दर वक्तव्य
मंदिर के बारे में भी
और देवता
के बारे में भी
उनके होते हैं
जिनका देवताओं
पर विश्वास कभी
भी नहीं होता है
रसीदें अखबार में
नहीं होती हैं
भुगतान किस को
किया गया है
बताना नहीं होता है
किस की
निविदा होती है
किस को
भुगतान होता है
किस का
कमीशन होता है
किस ने
देखना होता है
कुत्तों की
जीभें होती हैं
बिल्लियों का
रोना होता है
‘उलूक’
तेरी किस्मत है
तुझे तो हमेशा
ही गलियों में
मुहँ छिपा कर
रोना होता है |

चित्र साभार : http://marialombardic.blogspot.com/

गुरुवार, 30 अक्तूबर 2014

कभी कुछ भी नहीं होता है कहने के लिये तब भी कुछ कुछ कह दिया जाता है


महीने की
अंतिम साँस लेने की
आवाजें आनी शुरु होती ही हैं
अंतिम सप्ताह के अंतिम दिनों में

और मरता भी है महीना
अठाईस से तीस नहीं भी तो
पक्का सौ प्रतिशत इक्तीस दिनों में

लिखने वाले कई होते हैं
रसोई के
खाली होते जा रहे डिब्बों पर
ध्यान नहीं देते हैं
भूख मर भी जाती है
खाली बीड़ी के बंडल के खोल रह जाते हैं

बीड़ी
धुआँ हो कर हवा में उड़ जाती है
बंडल की राख 
खाली चाय के टूटे कपों की
तलहटी में चिपक जाती है

जितनी बढ़ती है बैचेनी
उतनी कलम पागल होना शुरु हो जाती है

कलम का पागल हो जाना
सबको नजर भी नहीं आता है

ऐसे ऐरे गैरे लिखने वालों के बीच
पागलों का डाक्टर भी नहीं जाता है

एक नहीं कई कई हैं
गली गली में हैं 
मुहल्ले मुहल्ले में जिनके हल्ले हैं

अच्छा है
चिट्ठों के बारे में
उनको कोई नहीं बताता है

‘उलूक’
परेशान मत हो लगा रह
किसी को पता नहीं है
तू यहाँ रोज आता है रोज जाता है

चिट्ठागिरी है
कोई शेयर बाजार नहीं है
लिखने लिखाने का भाव
ना चढ़ता है ना ही कोई उतार पाता है

इधर
राशन खत्म होता है हर महीने
महीना पूरा होने से कुछ दिन पहले ही हमेशा

उधर लिखने वालों के बाजार में
एक शब्द के साथ कई शब्दों को
मुफ्त में दिया जाता है

चिट्ठागिरी है
कोई दादागिरी नहीं है
ज्यादा पता भी नहीं है अभी लोगों को

तब तक
जब तक यहाँ भी
निविदाओं को आमंत्रित नहीं किया जाता है ।

चित्र साभार: juiceteam.wordpress.com

बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

दो शादी करने के भी होते हैं फायदे कभी कभी छठ पूजा ने इतना तो समझाया

छठ पूजा
पर खबर
चल रही थी

मतलब
की बात

कुछ भी
नहीं निकल
रही थी

अचानक
सूत्रधार ने
कुछ
ऐसा बताया

कान पहले
दायाँ हिला
फिर बायाँ भी

ऐसा लगा
कुछ नया
सा हाथ में
फिसल कर
चला आया

इतना कुछ
इधर उधर का
लिखा पढ़ा
कहीं कुछ भी
काम में नहीं आया

तब जाकर
कुछ सोच कर
कुछ नया

सीखने
पढ़ने का
मन बनाया

शादी हुऐ
हो गये
इतने बरस

इतनी
छोटी सी
बात पर
ध्यान
नहीं जा पाया

सूर्य देवता
की भी थी
दो पत्नियाँ

किसी भी
पत्नी ने
अपने पति को

इस बात को
पता नहीं
क्यों नहीं बताया

इतनी उर्जा
इतनी शक्ति

कैसे
इस सब
के बाद भी
जमा किया
सूरज अपने में

साथ साथ सारी
सृष्टि में भी
बाँट पाया

कभी भी नहीं
हुआ ऐसा
सुबह किसी दिन
थोड़ा देर से हो
निकल कर आया

महान
देवता सूर्य
और उनकी
महान पत्नियाँ

ऊषा
और प्रत्यूषा
को नमन
करते हुऐ

छठ पूजा के
मौके पर

उलूक
ने भी
सम्मान में
हाथ जोड़ कर
अपना सर झुकाया

शायद
आ जाती हो
शक्ति बहुत
एक के बाद
दूसरी करने पर

ये बात जरूर
इस बात से
समझ पाया

बस केवल
दूसरी करने की
शक्ति और हिम्मत
ही नहीं जुटा पाया

हर पर्व कुछ ना
कुछ समझाता है
कौन बताता है
किसकी समझ में
क्या है आया।



चित्र साभार:
www.royalty-free-clip-art-of.com

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2014

आये आये देर से भी आये तो भी दुरुस्त ही आये आये तो सही चाहे कुछ भी ना कह जाये



अभी भी देर नहीं हुई 
देर कभी भी नहीं होती 
जब भी समझ में आ जाये तभी सुबह हो जाये 

पर
रुका कहाँ कहाँ जाये 
किसके लिये रुका जाये 

कहाँ
जरूरी है चलते चलना 

कहाँ
जरूरी है कुछ कुछ रुकना 
कुछ देर के लिये ही सही
बस बिना बात यूँ ही ठहर लिया जाये 

पूछा भी
किससे जाये कौन सही बताये 
कई पीढ़ियाँ
सामने ही अपने गुजरती चली जायें 

रुकी हुई कहीं भी कोई भी नहीं जो रस्ता दिखाये 

सब कुछ चलता ही चला जाये 
चलना ही सही रुकना है नहीं
किताब में भी लिखा नजर आये 
गिरता भी है कहीं कोई
किसी रास्ते पर कहीं कोई नहीं बताये 

फलसफा जिंदगी का
एक खोटा सिक्का
कभी सीधा गिरे कभी उल्टा हो जाये 

गलतफहमियाँ बनी रहें
जिसका जैसा मन कर वैसा समझ ले जाये 

कोई
उधर जा कर उसका पढ़े
कोई
इधर आ कर इधर का पढ़ ले जाये 

क्या फर्क पढ़ना है
किसी की समझ में अगर कुछ भी ना आ पाये 

आना जाना बना रहे
रोज ना भी सही दो चार दिन बाद ही आ जाये 
रुकना मना है

आ जाये अगर
तो याद करके बिना भूले भटके
चला भी जाये । 

चित्र साभार: www.instantfundas.com

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

दिमाग का भार याद रख और दिल का हलका फूल मत भूल

अपने
भारी हो गये
सिर को

हलका
करने के लिये


अच्छा
रास्ता है
रास्ते पर
ला कर
रख देना

बेकार
पड़े हुऐ
पत्थर की तरह

आने जाने
वालों के
देखने समझने
के लिये

और
कुछ के ठोकर
खाने के लिये भी

सब
करते हैं
अपने अपने
हिसाब से

कुछ
के छोटे मोटे कंकड़

कुछ
के थोड़े बड़े

कुछ
के तेरे
जैसे अझेल

अब
किया
क्या जाये

माना कि
जरूरी होता है

बोझ
कम कर लेना
थोड़ा थोड़ा ही सही
पूरा का पूरा नहीं भी

पर
कभी कभी
दूसरों के
बारे में भी
सोच लेना

इंसानियत
का एक नियम
तो होता ही है

माना कि
गंगा साफ
कर लेने
की सोच लेना
सबके बस में
नहीं होता है

फिर भी
अपने घर
की नालियाँ
और उसके
बहाव को
बाधित करते

कचरे के
टुकड़े मुकड़े
उठा कर
किनारे
रख लेना भी

नियम
में ही आता है

छोटा ही सही
च्यूइंगम को
खींच कर लम्बा
कर दिया हो तो
वापस
मुँह की ओर भी
ले जा लेना
कभी कभी
सही होता है

यानि कि
सिर पर
भार लेना भी ठीक

और उसे
कभी अपनी जगह
पर रहने देकर

दिल की भी
एक छोटी सी बात
कर लेने में भी

कोई
हर्ज नहीं है

है ना ।

चित्र साभार: http://www.shutterstock.com