उलूक टाइम्स

मंगलवार, 31 मार्च 2015

कोई नयी कहानी नहीं अपना वही पुराना रोना धोना ‘उलूक’ आज फिर सुना रहा था


लाऊडस्पीकर से भाषण बाहर शोर मचा रहा था

अंदर कहीं मंच पर एक नंगा 
शब्दों को खूबसूरत कपड़े पहना रहा था

अपनी आदत में शामिल कर चुके
इन्ही सारे प्रपंचों को रोज की पूजा में 

एक भीड़ का बड़ा हिस्सा घंटी बजाने
प्रांंगण में ही बने एक मंदिर की ओर आ जा रहा था

कविताऐं शेर और गजल से ढकने में माहिर अपने पापों को
आदमी आदमी को इंसानियत का पाठ सिखा रहा था

एक दिन की बात हो
तो कही जाये कोई नयी बात है 
आज पता चला 
फिर से एक बार ढोल नगाड़ों के साथ
एक नंगा हमाम में नहा रहा था

‘उलूक’ कब तक करेगा चुगलखोरी
अपनी बेवकूफियों की खुद ही खुद से

नाटक चालू था कहीं
जनाजा भी तेरे जैसों का
पर्दा खोल कर निकाला जा रहा था

तालियांं बज रही थी वाह वाह हो रही थी
कबाब में हड्डी बन कर
कोई कुछ नहीं फोड़ सकता किसी का

उदाहरण एक पुरानी कहावत का
पेश किया जा रहा था

नंगों का नंगा नाच नंगो को
अच्छी तरह समझ में आ रहा था ।

चित्र साभार: pixshark.com

रविवार, 29 मार्च 2015

बेशर्म शर्म

 


आसान नहीं लिख लेना चंद लफ्जों में
उनकी शर्म और खुद की बेशर्मी को

उनका शर्माना जैसे दिन का चमकता सूरज 
उनकी बेशर्मी
बस कभी कभी किसी एक ईद का छोटा सा चाँद

और खुद की बेशर्मी देखिये
कितनी बेशर्म
पानी पानी होती जैसे उसके सामने से ही खुद
अपने में अपनी ही शर्म

पर्दादारी जरूरी है बहुत जरूरी है
पर्दानशीं के लिये 
उसे भी मालूम है
और इसका पता बेशर्मों को भी है

बहुत दिन हो गये
कलम भी कब तक      
बेशर्मी को छान कर शर्माती हुई
बस शर्म ही लिखे

अच्छा है उनकी बेशर्मी बनी रहे
जवान रहे पर्दे में रहे जहाँ रहे
जो सामने दिखे उस शर्म को महसूस कर

‘उलूक’बेशर्मी से अपनी खींसे निपोरता हुआ
रात के अंधेरे में
कुछ इधर से उधर उड़े कुछ उधर से इधर उड़े ।

चित्र साभार: www.dreamstime.com

शनिवार, 14 मार्च 2015

तेरे लिखे हुऐ में नहीं आ रहा है मजा

बहुत कुछ लिख रहे हैं
बहुत ही अच्छा
बहुत से लोग यहाँ
दिखता है आते जाते
लोगों का जमावाड़ा वहाँ
कुछ लोग कुछ भी
नहीं लिखते हैं
उनके वहाँ ज्यादा
लोग कहते हैं आओ
यहाँ और यहाँ
क्या किया जा सकता है
उस के लिये जब
किसी को देखना पड़ता है
जब चारों ओर का धुआँ
सोचना पड़ता है धुआँ
और मजबूरी होती है
लिखना भी पड़ता है
तो बस कुछ धुआँ धुआँ
रोज कोई ना कोई
खोद लेता है अपने लिये
कहीं ना कहीं एक कुआँ
किस्मत खराब कह लो
या कह लो कुछ भी तो
नहीं है कहीं भी कुछ हुआ
अच्छा देखने वाले
अच्छे लोगों के लिये
रोज करता है कोई
बस दुआ और दुआ
दिखता है सामने से
जो कुछ भी खुदा हुआ
कोशिश होती है
छोटी सी एक बस
समझने की कुछ
और समझाने की कुछ
फोड़ना पड़ता है सिर
‘उलूक’ को अपने लिये ही
आधा यहाँ और आधा वहाँ
होता किसी के आस पास
वो सब कहीं भी नहीं है
जो होता है
अजीब सा हमेशा
कुछ यहाँ
और कुछ वहाँ
देखने वालों की जय
समझने
वालों की जय
होने देने
वालों की जय
ऊपर वाले
की जय जय
उसके होने का
सबूत ही तो है
जो कुछ हो रहा है
यहाँ और वहाँ ।

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

बंदर बहुत हो गये है

बंदर बहुत
हो गये हैं
सड़क पर हैं 

तख्तियाँ लिये हुऐ
आदमी और 

औरतों की भीड़
आदमी के पास 

ही सही चलो
मुद्दे तो कुछ 

नये हो गये हैं
जुटी थी भीड़ 

इस से पहले भी
किसी का साथ 

देने के लिये कहीं
पता भी नहीं 

चला भीड़ को भी
और बनाने
वाले को भी
भीड़ के बीच
में से हट कर
कई लोग इधर 

और उधर जा जा
कर खड़े हो गये हैं
मुद्दे सच में
लग रहा है
कुछ नये पैदा
हो ही गये हैं
शहर और गाँव की
गली गली में
बंदर बहुत हो गये हैं
अचंभा होना
ही नहीं था
देख कर अखबार
सुबह सुबह का
होने ही थे
'उलूक' तेरे भी
छोटे राज्य
के बनते ही
सपने एक अंधे के
सारे ही हरे
हो गये हैं
बंदर बहुत हो गये हैं
बचे हैं साल
बस कुछ कम ही
सुनाई देना है
बस सब यही ही
उनके इधर हो गये हैं
इनके उधर हो गये हैं
समय के साथ
बदलने ही हैं
चोले पुराने तक तो
अब बिकने भी
शुरु हो गये हैं
बंदर बहुत हो गये हैं
मुद्दा गरम है बंदर का
राम नाम जपना
सिखाने को उनको
नये कुछ विध्यालय
भी खुलना
शुरु हो गये हैं
नये मुद्दे नये
तरीके के
नये जमाने
के हो गये हैं
बंदर बहुत हो गये हैं ।



चित्र साभार: www.cartoonpitu.top

गुरुवार, 12 मार्च 2015

आदमी की खबरों को छोड़ गधे को गधों की खबरों को ही सूँघने से नशा आता है


अब ये तो नहीं पता कि कैसे हो जाता है
पर सोचा हुआ कुछ कुछ आगे आने वाले समय में
ना जाने कैसे सचमुच ही सच हो जाता है

गधों के बीच में 
रहने वाला गधा ही होता है
बस यही सच पता नहीं हमेशा 
सोचते समय कैसे भूला जाता है

गधों का राजा 
गधों में से ही
एक 
अच्छे गधे को छाँट कर ही बनाया जाता है

इसमें कोई गलत 
बात नहीं ढूँढी जानी चाहिये
संविधान गधों का गधों के लिये ही होता है
गधों के द्वारा गधों के लिये ही बनाया जाता है

तरक्की भी गधों 
के राज में गधों को ही दी जाती है
एक छोटी कुर्सी से छोटे गधे को बड़ी कुर्सी में बैठाया जाता है

छोटी कुर्सी के लिये 
एक छोटा मगर पहले से ही
जनप्रिय बनाया और लाईन पर लगाया गधा बैठाया जाता है

सब कुछ सामान्य 
सी प्रक्रियाऐं ही तो नजर आती है
बस ये समझ में नहीं आ पाता है जब खबर फैलती है
किसी गधे को कहीं ऊपर बैठाये जाने की
‘उलूक’
तुझ गधे को पसीना  आना क्यों शुरु हो जाता है ?

चित्र साभार: www.clipartof.com