उलूक टाइम्स

रविवार, 5 जुलाई 2015

कागज कलम और दवात हर जगह नहीं पाया जाता है

लिखा जाये
फिर
कुछ
खुशबू
डाल कर
महकाया
जाये

किसलिये
और क्यों
लिखा जाये
उसके जैसा
जिसके लिखे
में से 
खुशबू 
भी आती है

लिखे में
से
खुशबू  ?

अब आप
को भी
लग
रहा होगा

लिखने वाला
ही है
रोज का

आज शायद
ज्यादा ही
कुछ सनक
गया होगा

सनक तो
होती ही है
किसी को
कम होती है
किसी को
ज्यादा
होती है

कोई
आसानी से
मान लेता है
पूछते ही
क्या
सनकी हो
तुरंत ही
अपने दोनो
हाथ खड़े
कर लेता है

कोई ज्यादा
सनक जाता है
सनक ही
सनक में
ये भी
भूल जाता है
कि है
कि नहीं है

किसी के
पूछते ही
सनकी हो
कि नहीं हो
भड़भड़ा कर
भड़क जाता है

असली
लेखक
और
लेखक
हो रहे
लेखक का
थोड़ा सा
अंतर इसी
जगह पर
नहीं लिखने
पढ़ने वाला
बस
एक प्रश्न
बिना बंदूक
के दाग कर
पता कर
ले जाता है

होता
वैसे कुछ
नुकसान
जैसा
किसी को
कहीं देखा
नहीं जाता है

पूछने वाला
मुस्कुरा कर
पीछे लौट
जाता है

सनकी
अपनी
सनक
के साथ
व्यवस्था
में पुरानी
अपनी ही
बनी बनाई
में लगने
लगाने में
फिर से
लग
जाता है

यही
कारण है
कागज
कलम
और
दवात
हर जगह
नहीं पाया
जाता है ।

चित्र साभार: www.unwinnable.com

शनिवार, 4 जुलाई 2015

पीछे का पीछे ही ठीक है आगे देखने वाले ही आगे जाते हैं

लौट कर
देखने की चाह
अपने ही बनाये
हुऐ शब्दों के
रास्ते पर
बस एक चाह
ही रह जाती है

लौटा जाता नहीं है
पीछे से शब्दों की
एक बहुत ही लम्बी
सी कतार रह जाती है

मुड़ कर
देखना भी
आसान
नहीं होता है

गरदन
अपनी नहीं
अपने ही लिखे
शब्दों की टेढ़ी
होती सी
नजर आती है

चलना शुरु
करती है
जिंदगी भी
अपने खुद के
ही पैरों पर
हमेशा ही आगे
की ओर ही

पीछे देखने की
सोचने सोचने तक
पूरी हो जाती है

बहुत कुछ
चलता है
साथ में
शब्दों के
बनते बिगड़ते
रास्तों में

अपने बहुत कम
ही रह पाते है
अपने जैसों को
छाँटते हुऐ
साथ बदलते
बदलते शब्द भी
रास्ते बदलते
चले जाते हैं

कैसे लौटे कोई
देखने के लिये
अपने ही ढूँढे हुऐ
शब्दों के पिटारों में
दीमक जिंदगी के
किसने देखें हैं
क्या पता शब्दों को
चाटते हुऐ ही
साथ में चलते
चले जाते हैं

मिटता हुआ
चलता है समय भी
दिखता कुछ
भी नहीं है
हम भी तुम भी
और सभी
धुंधले होते ही
चले जाते हैं

आगे के शब्दों पर
नजर रहना ही
ठीक लगता है
पीछे लिखे हुऐ
महसूस कराते हैं
जैसे कुछ
खींचते हैं
कुछ खींच
कर गिराते हैं ।

चित्र साभार: imageenvision.com

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

लिखना कुछ कुछ दिखने के इंतजार के बाद कुछ पूरा कुछ आधा आधा

अपना कुछ लिखा होता
कभी अपनी सोच से
उतार कर किसी
कागज पर जमीन पर
दीवार पर या कहीं भी
तो पता भी रहता
क्या लिखा जायेगा
किसी दिन की सुबह
दोपहर में या शाम
के समय चढ़ती धूप
उतरते सूरज
निकलते चाँद तारे
अंधेरे अंधेरे के समय
के सामने से होते हैं
सजीव ऐसे जैसे को
बहुत से लोग
उतार देते हैं हूबहू
दिखता है लिखा हुआ
किसी के एक चेहरे
का अक्स आईने के
पार से देखता हो
जैसे खुद को ही
कोशिश नहीं की
कभी उस नजरिये
से देखने की
दिखे कुछ ऐसा
लिखे कोई वैसा ही
आदत खराब हो
देखने की
इंतजार हो होने के
कुछ अपने आस पास
अच्छा कम बुरा ज्यादा
उतरता है वही उसी तरह
जैसे निकाल कर
रोज लाता हो गंदला
मिट्टी से सना भूरा
काला सा जल
बोतल में अपारदर्शी
चिपका कर बाहर से
एक सुंदर कागज में
सजा कर लिख कर
गंगाजल ताजा ताजा ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

सारे पढे‌ लिखे लिखते हैं कविता और कवि भी होते हैं

टेढ़ा मेढ़ा
लिखा हुआ
हो कहीं पर
जिसका कोई
मतलब नहीं
निकल रहा हो


जरूरी नहीं
होता है
कि वो एक
कवि का
लिखा हुआ
लिखा हो

जिसे कविता
कहना शुरु
कर दिया
जाये और
तुरन्त ही
कुछ लोग
दूसरे लिखने
पढ़ने वाले
करने लगें
चीर फाड़

जैसे गलत
तरीके
से मर गये
या
मार दिये
गये जानवर
या
आदमी को
खोल कर
देखा जाता है
मरने के बाद

जिसे कहा
जाता है
हिंदी में
शव परीक्षा

इसलिये यहाँ
पोस्टमोर्टम
कहना उचित
प्रतीत होता है

चलन में है
और
पढ़ा लिखा
वैसे भी
हिंदी में
कहे गये को
कम ही
समझता है

अब ‘उलूक’
क्या जाने
ये भी कवि है
और
वो भी कवि है

सब कविता
लिखते हैं
अपनी अपनी
इसमें दोष
किसका है

उसका
जो कवि है
या उसका
जिसको
आदत है

वो मजबूरी
में किसी
रोज कुछ
ना कुछ
जो लिख
मारता है

कभी
कुत्ते पर
कभी
चूहे पर
और कभी
उसी तरह के
किसी
जानवर पर
जिसके
नसीब में
कुर्सी लिखी
होती है

लेकिन इन
सब में
एक बात
अटल सत्य है

टेढ़ा मेढ़ा
लिखने वाला
गलती से
लिखना पढ़ना
सीख भी
गया हो
कभी झूठ
नहीं बोलता है

उससे
कभी नहीं
कहा जाता
है कि
उसका
किसी कवि
से ही
ना ही किसी
कविता से ही

भगवान
कसम
कहीं कोई
रिश्ता
होता है

सब कवि
होते हैं
जो कविता
करते हैं

सबसे बड़े
बेवकूफ
तो वही
होते हैं  ।

चित्र साभार: www.stmatthiaschool.org

बुधवार, 1 जुलाई 2015

किसको क्या लगता है लगता होगा लगता रहे सोचने से अच्छा है कर लेना

अच्छा होता है
कुछ लिख लिखा
कर बंद कर देना
किताब के
पन्नों को
हो सके तो
चिपका देना
या सिल लेना
सुई तागे से
चारों तरफ से
ताकि खुलें
नहीं पन्ने
शब्दों को हवा
पानी लगना
अच्छा नहीं होता
बरसात में वैसे भी
नमी ज्यादा
होने से सील
जाती हैं चीजें
खत्म हो जाता
है शब्दों का
कुरकुरापन
गीले भीगे हुऐ
शब्द गीले
कागजों से
चिपके हुऐ
आकर्षित नहीं
करते किसी को
क्या देखने
क्या समझने
किसी के लिखे
हुऐ शब्द
शब्द तो
शब्द होते हैं
शब्दकोष में
बहुत होते हैं
इसके शब्द इसके
उसके शब्द उसके
करता रहे कोई
अपने हिसाब से
आगे पीछे
बनाता रहे
आँगन मकान
चिड़िया तूफान
दूसरों के शब्दों
से बनी इमारत
देख कर रहना
वैसे भी सीखा
नहीं जाता
अपने अपने मकान
खुद ही बनाना
खुद उसमें रहना
खुद सजाना
सँवारना अच्छा है
सबकी अपनी
किताब अपने ही
गोंद से चिपकी हुई
अपने पास ही
रहनी चाहिये
खुले पन्ने हवा में
फड़फड़ाते आवाज
करते हुऐ अच्छे
नहीं समझे जाते हैं
ऐसा पढ़ाया तो
नहीं गया है यहाँ
इस जगह पर
पर ऐसा ही जैसा
कुछ महसूस होता है
सही है या गलत
पता नहीं है अभी
पहली बार ही कहा है
किसी और को भी
ऐसा लगता है
चिपकी किताबों के
चिपके पन्नों को
गिनता भी तो
कोई नहीं है यहाँ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com