सोच कर
लिखना
और
लिख कर
लिखे पर
सोचना
कुछ
एक
जैसा ही
तो
होता है
पढ़ने वाले
को तो बस
अपने
लिखे का
ही
कुछ
पता होता है
एक
बार नहीं
कई
बार होता है
बार बार होता है
कुछ
आता है
यूूँ ही खयालों में
खाली दिमाग
के
खाली पन्ने
पर
लिखा हुआ
भी तो
कुछ
लिखा होता है
कुछ
देर के लिये
कुछ
तो कहीं
पर
जरूर होता है
पढ़ते पढ़ते ही
पता नहीं
कहाँ
जा कर
थोड़ी सी
देर में ही
कहाँ जा कर
सब कुछ
कहीं खोता है
सबके
लिखने में
होते हैं गुणा भाग
उसकी
गणित
के
हिसाब से
अपना
गणित खुद पढ़ना
खुद सीखना
होता है
देश में लगी
आग
दिखाने के लिये
हर जगह होती है
अपनी
आँखों का
लहू
दूसरे की
आँख में
उतारना होता है
अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी
शरम होती है
अपने लिये
किसी
की
शरम का
चश्मा
उतारना
किसी
की
आँखों से
कर सके कोई
तो
लाजवाब होता है
वो
कभी लिखेंगे
जो लिखना है वाकई में
सारे
लिखते हैं
उनका खुद का
लिखना
वही होता है
जो कहीं भी
कुछ भी
लिखना ही नहीं होता है
कपड़े ही कपड़े
दिखा रहा होता है
हर तरफ ‘उलूक’
बहुत फैले हुऐ
ना पहनता है जो
ना पहनाता है
जिसका
पेशा ही
कपड़े उतारना होता है
खुश दिखाना
खुद को
उसके पहलू में खड़े हो कर
दाँत निकाल कर
बहुत ही
जरूरी होता है
बहुत बड़ी
बात होती है
जिसका लहू चूस कर
शाकाहारी कोई
लहू से अखबार में
तौबा तौबा
एक नहीं
कई किये होता है
दोस्ती
वो भी
फेसबुक
की करना
सबके
बस में कहाँ होता है
इन सब को
छोड़िये
सब से
कुछ अलग
जो होता है
एक
फेस बुक का
एक अलग
पेज हो जाना
होता है ।
एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है
सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है
चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है
ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है
तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं
चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना
कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं
विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है
इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है
आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है
तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं
चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं
जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी
श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी
बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है
दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है
चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है
‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है
‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में
थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।
चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com
प्रश्न उठना और
उठते प्रश्न को
तुरंत पूछ लेना
बहुत अच्छी बात है
लेकिन
किसी के लिये
समझना जरूरी है
किसी के लिये
बस एक मजबूरी है
प्रश्न कब पूछा जाये
किस से पूछा जाये
क्यों पूछा जाये
सबसे बड़ी बात
यह देखना
पूछने के लिये
उठे प्रश्न की
क्या औकात है
वैसे जैसा
साफ नजर आता है
पूछे गये प्रश्न से
पता चल जाता है
प्रश्न नियत होते हैं
उत्तर नियत होते हैं
प्रश्न पूछने वाले
नियत होते हैं
उत्तर देने वाले
नियत होते है
बस थोड़े से कुछ
दो चार बेवकूफ
सब कुछ समझते
बूझते हुऐ एक दूसरे
के साथ प्रश्नों की
अंताक्षरी फिर भी
खेल रहे होते हैं
रोज ही दूरदर्शन
में दूर से दर्शन होते है
बहस के लिये
हर तरफ की तरफ से
अपने अपने मुर्गे
खड़े किये होते हैं
किसी की कलगी
रंगीन होती है
किसी किसी ने
रामनामी दुपट्टे
ओढ़े हुऐ होते हैं
मुरगे लढ़ाने वाला
परदे के पीछे से
कहीं किसी अदृष्य
धागे से बंधा होता है
सामने से मगर
कठपुतलियों को
घो रहा है का जैसा
आभास दे रहा होता है
उसे पता होता है
वो खुद भी एक
कठपुतले के
हाथों खेल रहा
कठपुतला होता है
प्रश्न उठाये कोई
अपने आस पास से
एक नहीं अनेक
पड़े होते है
लेकिन प्रश्न पूछने
वाले हजार मील
दूर के पत्थर को
देख रहे होते हैं
अपना कुछ अपनी
सोच से बने वो
जमाने लद रहे होते हैं
समय की बलिहारी है
ऐसे समय में गधे सारे
अपने अपने गधों की
लीद कुरेद रहे होते हैं
अपने गधे की लीद
की खुश्बू के नशे में
इतना झूम रहे होते हैं
सावन के सारे अंधे
जैसे हरी घास के
ढेर पर कूद रहे होते हैं
‘उलूक’
नोच सकता है
तू भी जितना
नोच ले प्रश्नों को
प्रश्नों के कपड़े
वैसे भी नहीं होते हैं
अपने आस पास से
उठे प्रश्नों पर आँख मूँद
और पूछ कहीं
आसमान के
नीले रंग पर
या सुबह की
सुर्ख धूप पर
या कुछ और
वो सब
जो भी तुझे
प्रश्न पूछना
सीखे हुऐ
लोगो द्वारा
तुझसे पूछने
के लिये
सुझाया जाता है
आसपास के
ज्वलंत प्रश्नों से
जल जाने से अच्छा
किसी का सुझाया
किसी का बताया
प्रश्न पूछने से
साँप को मारना
और लाठी को टूटने
से बचाना भी सीखा
सिखाया जाता है
सबक भी मिलता है
बहुत दूर का
पूछा गया एक
छोटा सा प्रश्न
हमेशा अपने घर के
बड़े बड़े निरुत्तर
कर देने वाले प्रश्नो से
बचाना भी सिखाता है ।
चित्र साभार: worldartsme.com
भाई कोई
नई चीज नहीं है
सबको ही देश की
पड़ी ही होती है
सभी देश के
भक्त होते हैं
देश के बारे में
ही सोचते हैं
देश के लिये ही
उनके पास
वक्त ही वक्त
होता है
झंडा देश का
बस उनके लिये
प्राण होता है
फहराना उसे
ऐसे लोगों के लिये
रोज का ही
काम होता है
बहुत बड़ी
बात होती है
देश के बारे में
सोचते सोचते
बीच में समय
अगर कुछ
निकाल ले जाते हैं
क्या बुराई है इसमें
अगर कुछ अपने
और अपने परिवार
के लिये भी थोड़ा
सा चुन्नी भर इस सब
के बीच कर
के ले जाते हैं
परिवार छोटा सा
या बहुत बड़ा भी
हो सकता है
कैसे बनाना है
काम करने कराने
पर निर्भर करता है
कहीं जाति से काम
चल जाता है
कहीं इलाका
काम में आता है
कहीं इलाके की
जाति काम में
आ जाती है
कहीं जाति का
इलाका काम
में आता है
किसी को गिराना हो
परिवार की खातिर
तो उसे बताना भी
नहीं कुछ पड़ता है
मजबूरी में उसे
उसके किसी इलाके
खास का होने का
खामियाजा उठाना
जरूर पड़ता है
चोर सारे एक से
एक मुहर वाले
पता नहीं कैसे
एक हो जाते हैं
समाज के अन्दर के
किसी ईमानदार का
पाजामा बहुत आसानी
से खींच ले जाते हैं
चोर के फोटो
अखबार के मुख्य पृष्ठ
पर रोज ही होते हैं
पाजामा उतरे हुऐ
लोग शरम से खुद
ही मर जाते हैं
जमाना पाजामा पाजामा
खेल रहा होता है
बेशरम हाथी के
ऊपर बैठा मुकुट पहन
आईसक्रीम
पेल रहा होता है
‘उलूक’ तू फिक्र
क्यों करता है
हाल अपने पैजामे
का देख कर
तेरे सभी चाहने
वालों में से सबसे
पहला तेरा ही
पैजामा खींचने की
फिराक में कब से
तेरे नखरे फाल्तू में
झेल रहा होता है ।
चित्र साभार: whiterocksun.com
मुद्दई जैसे जैसे
सुस्त हो रहे होते हैं
मुद्दे भी उतनी ही
तेजी से चोरी
हो रहे होते हैं
मुद्दे बिल्ली के
शिकार मोटे
तगड़े किसी चूहे
जैसे हो रहे होते हैं
बहुत उछल कूद
कर भी लेते हैं
मगर शिकार
शिकारी बिल्ले के
जबड़े में फंस कर
ही हो रहे होते हैं
किताबें मोटी कुछ
बगल में दबाकर
किताब पढ़ने वाले
ज्ञान समेट बटोर
कर जबर्दस्ती
फैला दे रहे होते हैं
काम कराने वाले
मगर अखबार की
पुरानी रद्दी से ही
अपने किये गये
कर्मों की धूल
रगड़ रगड़ बिना पानी
के धो रहे होते हैं
बेवकूफ आदमी
आदमी के सहारे
आदमी को फँसाने
की तिकड़मों को
ढो रहे होते हैं
समझदार के देश में
गाँधी पटेल नेता जी
की आत्माओं को
लड़ा कर जिंदा
आदमी की किस्मत
के फैसले हो रहे होते हैं
जमीन बेच रहा हो
कौड़ियों के मोल कोई
इसका यहाँ इसको
और उसका वहाँ उसको
इज्जत नहीं लुट रही है
जब इसमें किसी की
और मोमबत्तियों को
लेकर लोगों की सड़कों
में रेलमपेल के खेल
नहीं हो रहे होते है
फिर तेरी ही अंतड़ियों
में मरोड़ किसलिये
और क्यों हो रहे होते हैं
मुद्दे शुरु होते समय
कीमत कहाँ बताते हैं अपनी
गरम होने में समय लेते हैं
समाचार में आते आते
बिकना शुरु हुऐ नहीं
खबर देते हैं अरबों
करोड़ों के हो रहे होते हैं
‘उलूक’ अपनी अक्ल
मत घुसेढ़ा कर हर जगह
हर बात पर उस जगह
जहाँ घोड़ों की जगह
गधो के दाम बहुत
ऊँचे हो रहे होते हैं ।
चित्र साभार: www.colourbox.com