आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।
चित्र साभार: www.womanthology.co.uk
गाँधारी ने
सब कुछ
बताया
कुछ भी
किसी से
नहीं छिपाया
वैसा ही
समझाया
जैसा
धृतराष्ट्र ने
खुद देखा
और देख कर
उसे दिखाया
धृतराष्ट्र
ने भी
सब कुछ
वही कहा
जो घर
घर में
रखी हुई
संजयों की
आँखोँ ने
संजयों को
दिखाया
संजयों
को जो
समझाया
गया
अपनी समझ
को बिना
तकलीफ दिये
उन्होने भी
ईमानदारी
के साथ
अपने धृतराष्ट्र
की आन
की खातिर
आगे को
बढ़ाया
परेशान
होने की
जरूरत
नहीं है
अगर
आँख वाले
को वो सब
आँख फाड़
कर देखने
से भी नजर
नहीं आया
एक नहीं
हजार
उदाहरण हैं
कुछ कच्चे हैं
कुछ पके
पकाये हैं
असम्भव
नहीं है
एक देखने
वाले को
अपनी
आँख पर
भरोसा
नहीं होना
सम्भव है
देखने वाले
की आँख का
खराब होना
आँख खराब
होने की
उसे खुद ही
जानकारी
ना होना
दूरदृष्टि
दोष होना
निकट दृष्टि
दोष होना
काला या
सफेद
मोतियाबिंद
होना
एक का
दो और
दो का एक
दिख
रहा होना
फिर ऐसे में
वैसे भी
किसी से
क्या कहना
अच्छा है
जिसे जो
दिख रहा हो
देखते
रहने देना
किसी
से कहें
या ना
कहें पर
बहुत
जरूरी है
गाँधारी को
क्या दिखा
जरूर देखने
के लिये
अपनी
आँख पर
पट्टी बाँध
कर देखने
का प्रयास
करना
आज सारे
के सारे
गाँधारी
अपने अपने
धृतराष्ट्रों
के ही
देखे हुऐ को
देख रहे हैं
एक बार फिर
सिद्ध हो गया है
कहीं के भी हों
सारे गाँधारी
एक जैसा
एक सुर
में कह रहे हैं
ऐसे में
तू भी
खुशी
जाहिर कर
मिठाई बाँट
दिमाग
मत चाट
किसने
क्या देखा
क्या बताया
इस सब को
उधाड़ना
बंद कर
उधड़े फटे
को रफू
करना सीख
कब तक
अपनी आँख
से खुद ही
देखता रहेगा
‘उलूक’
गोद में
चले जा
किसी
गाँधारी के
सीख
कर आ
किसी
धृतराष्ट्र
के लिये
आँख
बंद कर
उसकी
आँखों से
देखने
की कला
तभी होगा
तेरा और
तेरी सात
पुश्तों का
तेरी घर
गली शहर
प्रदेश देश
तक के
देश प्रेमी
संतों
का भला ।
चित्र साभार: ouocblog.blogspot.com
विश्वविद्यालय
देश के
कहाँ होते हैं
विश्व के होते हैं
सिखाये
हुऐ के
हिसाब
से होते हैं
देशप्रेम
छोड़िये
बड़े प्रेम
विश्वप्रेम
पर चल
रहे होते हैं
पर कन्फ्यूजन
भी होते हैं
और
अपनी जगह
पर होते है
चाँसलर
वाईस चाँसलर
प्रोफेसर
देश के ही
बराबर के
ही होते हैं
कभी
लगता है
देश से
भी शायद
कुछ और
बड़े होते हैं
छात्र छात्राएं
अभिभावक
दलों के
हिसाब से
अलग अलग
होते हैं
नारे लगते
समय नहीं
दिखते हैं
जरूरत भी
नहीं होती है
और
वैसे भी
पता कहाँ
किसी को
होते हैं
कोई नहीं
पूछता है
हिसाब किताब
किताबों कापियों
की दुकानों का
स्कूल कालेज
और पढ़ाई
सब
अलग अलग
विषय होते हैं
हिन्दू
मुसलमान
शहर गाँव
इलाका विशेष
ठाकुर बनिया
बामन
कुत्ता बिल्ली
के काम्बिनेशन
अलग अलग
होते हैं
कहाँ किस
का प्रयोग
करना है
वही लोग
जानते हैं
जिनके
हिसाब किताब
के बही खाते
एक जैसे ही
और कुछ
अलग होते हैं
प्रयोग
जातियों पर
जितने
विश्वविद्यालयों
में होते हैं
और कहीं भी
नहीं दिखते हैं
ना ही कहीं होते हैं
कुत्ता
फालतू मे
गाली
खाता है
हमेशा ही
लेकिन वो
सही में कुछ
इस तरीके के ही
गली के कुत्ते होते हैं
नारे उगते हैं
पता नहीं
कहाँ किस
खेत में
बस दिखते हैं
उगते हुऐ
देश द्रोही
के नाम पर
सारों में
से कुछ
छोड़ कर
सारे के सारे
अन्दर हो
रहे होते हैं
जय हो देश की
देश प्रेमियों की
उनके पैजामों
के अन्दर
की हवा में
उनके उगाये
मटर हरे हरे
हो रहे होते हैं
देश का
खून पीने
के लिये
लगाये गये
नलों से
टपकने वाले
खून के चर्चे
कहीं भी नहीं
हो रहे होते हैं
पाले हुऐ
सरकार के
सरकारी लोगों के
काम देख कर भी
अनदेखे हो रहे होते हैं
जो नियम
से करते है
नियम को
देखसुन कर
नियम के
हिसाब से
ऐसे सारे
के सारे
देशद्रोही
देश के
कोने कोने मे
रो रहे होते हैं
माफ करियेगा
'उलूक'
जानता है
तेरे शहर में
तेरे मोहल्ले में
तेरे घर में
इस तरह
के जलवे
हो भी
और
नहीं भी
हो रहे होते हैं
लिखने दे
बबाल ना कर
मत बता
मुझे मेरे हाल
मुझे पता है
तेरे जैसे
ना हो
सकते हैं
ना होंगे
ना हो
रहे होते हैं ।
चित्र साभार: www.gograph.com
सोच कर
लिखना
और
लिख कर
लिखे पर
सोचना
कुछ
एक
जैसा ही
तो
होता है
पढ़ने वाले
को तो बस
अपने
लिखे का
ही
कुछ
पता होता है
एक
बार नहीं
कई
बार होता है
बार बार होता है
कुछ
आता है
यूूँ ही खयालों में
खाली दिमाग
के
खाली पन्ने
पर
लिखा हुआ
भी तो
कुछ
लिखा होता है
कुछ
देर के लिये
कुछ
तो कहीं
पर
जरूर होता है
पढ़ते पढ़ते ही
पता नहीं
कहाँ
जा कर
थोड़ी सी
देर में ही
कहाँ जा कर
सब कुछ
कहीं खोता है
सबके
लिखने में
होते हैं गुणा भाग
उसकी
गणित
के
हिसाब से
अपना
गणित खुद पढ़ना
खुद सीखना
होता है
देश में लगी
आग
दिखाने के लिये
हर जगह होती है
अपनी
आँखों का
लहू
दूसरे की
आँख में
उतारना होता है
अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी
शरम होती है
अपने लिये
किसी
की
शरम का
चश्मा
उतारना
किसी
की
आँखों से
कर सके कोई
तो
लाजवाब होता है
वो
कभी लिखेंगे
जो लिखना है वाकई में
सारे
लिखते हैं
उनका खुद का
लिखना
वही होता है
जो कहीं भी
कुछ भी
लिखना ही नहीं होता है
कपड़े ही कपड़े
दिखा रहा होता है
हर तरफ ‘उलूक’
बहुत फैले हुऐ
ना पहनता है जो
ना पहनाता है
जिसका
पेशा ही
कपड़े उतारना होता है
खुश दिखाना
खुद को
उसके पहलू में खड़े हो कर
दाँत निकाल कर
बहुत ही
जरूरी होता है
बहुत बड़ी
बात होती है
जिसका लहू चूस कर
शाकाहारी कोई
लहू से अखबार में
तौबा तौबा
एक नहीं
कई किये होता है
दोस्ती
वो भी
फेसबुक
की करना
सबके
बस में कहाँ होता है
इन सब को
छोड़िये
सब से
कुछ अलग
जो होता है
एक
फेस बुक का
एक अलग
पेज हो जाना
होता है ।
एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है
सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है
चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है
ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है
तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं
चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना
कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं
विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है
इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है
आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है
तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं
चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं
जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी
श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी
बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है
दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है
चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है
‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है
‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में
थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।
चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com