उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

ऊपर वाले के जैसे ही कुछ अपने अपने नीचे भी बना कर वंदना कर के आते हैं

आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

चित्र साभार: www.womanthology.co.uk

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

देखना/ दिखना/ दिखाना/ कुछ नहीं में से सब कुछ निकाल कर ले आना (जादू)

गाँधारी ने
सब कुछ
बताया
कुछ भी
किसी से
नहीं छिपाया
वैसा ही
समझाया
जैसा
धृतराष्ट्र ने
खुद देखा
और देख कर
उसे दिखाया

धृतराष्ट्र
ने भी
सब कुछ
वही कहा
जो घर
घर में
रखी हुई
संजयों की
आँखोँ ने
संजयों को
दिखाया

संजयों
को जो
समझाया
गया
अपनी समझ
को बिना
तकलीफ दिये
उन्होने भी
ईमानदारी
के साथ
अपने धृतराष्ट्र
की आन
की खातिर
आगे को
बढ़ाया

परेशान
होने की
जरूरत
नहीं है
अगर
आँख वाले
को वो सब
आँख फाड़
कर देखने
से भी नजर
नहीं आया

एक नहीं
हजार
उदाहरण हैं
कुछ कच्चे हैं
कुछ पके
पकाये हैं

असम्भव
नहीं है
एक देखने
वाले को
अपनी
आँख पर
भरोसा
नहीं होना
सम्भव है
देखने वाले
की आँख का
खराब होना

आँख खराब
होने की
उसे खुद ही
जानकारी
ना होना

दूरदृष्टि
दोष होना
निकट दृष्टि
दोष होना
काला या
सफेद
मोतियाबिंद
होना
एक का
दो और
दो का एक
दिख
रहा होना

फिर ऐसे में
वैसे भी
किसी से
क्या कहना
अच्छा है
जिसे जो
दिख रहा हो
देखते
रहने देना

किसी
से कहें
या ना
कहें पर
बहुत
जरूरी है
गाँधारी को
क्या दिखा
जरूर देखने
के लिये
अपनी
आँख पर
पट्टी बाँध
कर देखने
का प्रयास
करना

आज सारे
के सारे
गाँधारी
अपने अपने
धृतराष्ट्रों
 के ही
देखे हुऐ को
देख रहे हैं
एक बार फिर
सिद्ध हो गया है
कहीं के भी हों
सारे गाँधारी
एक जैसा
एक सुर
में कह रहे हैं

ऐसे में
तू भी
खुशी
जाहिर कर
मिठाई बाँट
दिमाग
मत चाट

किसने
क्या देखा
क्या बताया
इस सब को
उधाड़ना
बंद कर
उधड़े फटे
को रफू
करना सीख
कब तक
अपनी आँख
से खुद ही
देखता रहेगा
‘उलूक’

गोद में
चले जा
किसी
गाँधारी के
सीख
कर आ
किसी
धृतराष्ट्र
के लिये
आँख
बंद कर
उसकी
आँखों से
देखने
की कला

तभी होगा
तेरा और
तेरी सात
पुश्तों का
तेरी घर
गली शहर
प्रदेश देश
तक के
देश प्रेमी
संतों
का भला ।

चित्र साभार: ouocblog.blogspot.com

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

देश प्रेम देश भक्ति और देश

विश्वविद्यालय
देश के
कहाँ होते हैं
विश्व के होते हैं

सिखाये
हुऐ के
हिसाब
से होते हैं

देशप्रेम
छोड़िये
बड़े प्रेम
विश्वप्रेम
पर चल
रहे होते हैं

पर कन्फ्यूजन
भी होते हैं
और
अपनी जगह
पर होते है

चाँसलर
वाईस चाँसलर
प्रोफेसर
देश के ही
बराबर के
ही होते हैं

कभी
लगता है
देश से
भी शायद
कुछ और
बड़े होते हैं

छात्र छात्राएं
अभिभावक
दलों के
हिसाब से
अलग अलग
होते हैं

नारे लगते
समय नहीं
दिखते हैं

जरूरत भी
नहीं होती है
और
वैसे भी
पता कहाँ
किसी को
होते हैं

कोई नहीं
पूछता है
हिसाब किताब
किताबों कापियों
की दुकानों का

स्कूल कालेज
और पढ़ाई
सब
अलग अलग
विषय होते हैं

हिन्दू
मुसलमान
शहर गाँव
इलाका विशेष
ठाकुर बनिया
बामन
कुत्ता बिल्ली
के काम्बिनेशन
अलग अलग
होते हैं

कहाँ किस
का प्रयोग
करना है
वही लोग
जानते हैं
जिनके
हिसाब किताब
के बही खाते
एक जैसे ही
और कुछ
अलग होते हैं

प्रयोग
जातियों पर
जितने
विश्वविद्यालयों
में होते हैं
और कहीं भी
नहीं दिखते हैं
ना ही कहीं होते हैं

कुत्ता
फालतू मे
गाली
खाता है
हमेशा ही
लेकिन वो
सही में कुछ
इस तरीके के ही
गली के कुत्ते होते हैं

नारे उगते हैं
पता नहीं
कहाँ किस
खेत में
बस दिखते हैं
उगते हुऐ
देश द्रोही
के नाम पर
सारों में
से कुछ
छोड़ कर
सारे के सारे
अन्दर हो
रहे होते हैं

जय हो देश की
देश प्रेमियों की

उनके पैजामों
के अन्दर
की हवा में
उनके उगाये
मटर हरे हरे
हो रहे होते हैं

देश का
खून पीने
के लिये
लगाये गये
नलों से
टपकने वाले
खून के चर्चे
कहीं भी नहीं
हो रहे होते हैं

पाले हुऐ
सरकार के
सरकारी लोगों के
काम देख कर भी
अनदेखे हो रहे होते हैं

जो नियम
से करते है
नियम को
देखसुन कर
नियम के
हिसाब से

ऐसे सारे
के सारे
देशद्रोही
देश के
कोने कोने मे
रो रहे होते हैं

माफ करियेगा
'उलूक'
जानता है
तेरे शहर में
तेरे मोहल्ले में
तेरे घर में
इस तरह
के जलवे
हो भी
और
नहीं भी
हो रहे होते हैं

लिखने दे
बबाल ना कर
मत बता
मुझे मेरे हाल
मुझे पता है
तेरे जैसे
ना हो
सकते हैं
ना होंगे
ना हो
रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.gograph.com

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंदर कुछ और और लिखा हुआ कुछ और ही होता है


सोच कर 
लिखना 
और 
लिख कर 
लिखे पर 
सोचना 

कुछ 
एक 
जैसा ही 
तो 
होता है 

पढ़ने वाले 
को तो बस 
अपने 
लिखे का 
ही 
कुछ 
पता होता है 

एक 
बार नहीं 
कई 
बार होता है 
बार बार होता है 

कुछ 
आता है
यूूँ ही खयालों में 

खाली दिमाग 
के 
खाली पन्ने 
पर 
लिखा हुआ 
भी तो 
कुछ 
लिखा होता है 

कुछ 
देर के लिये 
कुछ 
तो कहीं 
पर 
जरूर होता है 

पढ़ते पढ़ते ही 
पता नहीं 
कहाँ 
जा कर 
थोड़ी सी 
देर में ही 

कहाँ जा कर 
सब कुछ 
कहीं खोता है 

सबके 
लिखने में 
होते हैं गुणा भाग 

उसकी 
गणित 
के 
हिसाब से 
अपना 
गणित खुद पढ़ना 
खुद सीखना 
होता है 

देश में लगी 
आग 
दिखाने के लिये 
हर जगह होती है 

अपनी 
आँखों का 
लहू 
दूसरे की 
आँख में 
उतारना होता है 

अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी 
शरम होती है 

अपने लिये 
किसी 
की 
शरम का 
चश्मा 
उतारना 
किसी 
की 
आँखों से 


कर सके कोई 
तो 
लाजवाब होता है 

वो 
कभी लिखेंगे 
जो लिखना है वाकई में 

सारे 
लिखते हैं 
उनका खुद का 
लिखना 
वही होता है 


जो कहीं भी 
कुछ भी 
लिखना ही नहीं होता है 

कपड़े ही कपड़े 
दिखा रहा होता है 
हर तरफ ‘उलूक’ 
बहुत फैले हुऐ 
ना पहनता है जो 
ना पहनाता है 

जिसका 
पेशा ही 
कपड़े उतारना होता है 

खुश दिखाना 
खुद को 
उसके पहलू में खड़े हो कर 
दाँत निकाल कर 
बहुत ही 
जरूरी होता है 

बहुत बड़ी 
बात होती है 
जिसका लहू चूस कर 
शाकाहारी कोई 

लहू से अखबार में 
तौबा तौबा 
एक नहीं 
कई किये होता है 

दोस्ती 
वो भी 
फेसबुक 
की करना 
सबके 
बस में कहाँ होता है 

इन सब को 
छोड़िये 
सब से 
कुछ अलग 
जो होता है 

एक 
फेस बुक का 
एक अलग
पेज हो जाना
होता है । 

चित्र साभार: www.galena.k12.mo.us

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

श्रद्धांजलि अविनाश जी वाचस्पति

एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है

सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है

चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है

ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है

तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं

चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना

कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं

विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है

इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है

आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है

तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं

चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं

जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी

श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी

बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है

दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है

चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है

‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है

‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में

थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।

चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com