उलूक टाइम्स

बुधवार, 11 मई 2016

किसे पड़ी है तेरे किसी दिन कुछ नहीं कहने की उलूक कुछ कहने के लिये एक चेहरा होना जरूरी होता है



लिखा हुआ हो 
कहीं पर भी हो कुछ भी हो 
देख कर उसे पढ़ना और समझना 
हमेशा जरूरी नहीं होता है 

कुछ कुछ खराब हो चुकी आँखों को 
खुली रख कर जोर लगा कर 
साफ साफ देखने की कोशिश करना 

कुछ दिखना कुछ नहीं दिखना 
फिर दिखा दिखा सब  दिख गया कहना 
कहने सुनने सुनाने तक ही ठीक होता है 

सुना गया सब कुछ कितना सही होता है 
सुनाई देने के बाद सोचना जरूरी नहीं होता है 

रोजाना कान की सफाई करना 

ज्यादातर लोगों 
की आदत में वैसे भी
शामिल नहीं होता है 

लिखने लिखाने से कुछ होना है 
या नहीं होना है 

लिखने वाले कौन है 
और लिखे को पढ़ कर 
लिखे पर सोचने 
लिखे पर कुछ कहने वाले कौन हैं 

या किसने लिखा है क्या लिखा है 

लिख दिया है बताने वाले लोगों को 
सारा लिखा पता होना जरूरी नहीं होता है 

लेखक लेखिका का पोस्टर लगा कर 
दुकान खोल लेने से 
किताबें बिकना शुरु होती भी हैं 
तब भी हर दुकान का रजिस्ट्रेशन 
लेखक के नाम से हर जगह होना होता है 
या नहीं होता है किसे पता होता है 

लिखने लिखाने वाला 
लिखने की दुकान के
शटर खोलने की आवाज के साथ उठता है 
शटर गिराने की आवाज के साथ सोता है 

कौन जानता है 
ऐसा भी होता है या नहीं होता है 

अपनी अपनी किताबें संभाले हुए लोगों को 
आदत पड़ चुकी होती है 
अपना लिखा अपने आप पढ़नें की 

खुद समझ कर खुद को खुद ही समझा ले जाना 
खुदा भी समझ पाया है या नहीं खुदा ही जानता है 
सब को पता हो ये भी जरूरी नहीं होता है 

किसी के कुछ लिखे को नकार देने की हिम्मत 
सभी में नहीं होती है 

पूछने वाले पढ़ते हैं या नहीं 
पता नहीं भी होता है 

प्रश्न करना इतना जरूरी नहीं होता है 

लिखना कुछ भी कहीं भी कभी भी 
इतना जरूरी होता है  

दुनियाँ चलती है चलती रहेगी 
हर आदमी खरीफ की फसल हो 

जरूरी कहीं थोड़ा सा होता है 
कहीं जरा सा भी नहीं होता है 

फारिग हो कर आया हर कोई कहे
जरूरी है जमाने के हिसाब से खेत में जाना 

इस जमाने में अब जरूरी नहीं 
थोड़ा नहीं बहुत ही खतरनाक होता है 

सफेद पन्ना दिखाने के लिये रख 

काफी है ‘उलूक’ 

लिखा 
लिखाया काला सब सफेद होता है । 

 चित्र साभार: www.pinterest.com

गुरुवार, 5 मई 2016

भीख भिखारी कटोरे अपदस्थ सरकार के समय का सरकारी आदेश तैयार शिकार और कुछ तीरंदाज अखबारी शिकारी

संदर्भ: व्यक्तिगत और संस्थागत परीक्षार्थी। राज्यपाल की समझ में आयेगी बात क्योंकि परीक्षा निधी की लेखा जाँच गोपनीयता के मुखौटे के पीछे छिपा कर नहीं होने दी जाती है। पूरे देश को देखिये अरबों का झमेला है। आभार उनका ।

आता है 

एक सरकारी
आदेश


उस समय

जब
अपदस्त
होती है

जनता की
सरकार


आदेश
छीन लेने का


सारे कटोरे

सभी सफेदपोश
भिखारियों के

और

दे
दिये जाते हैं

उसी समय
उसी आदेश
के साथ


सारे कटोरे

कहीं और के
तरतीब के साथ

लाईन
लगाने

और
माँग कर

खाने वाले

पेट भरे हुऐ

भूखे
भिखारियों को


खबर
अखबार

ही देता है

रोज की
खबरों

की तरह

पका कर
खबर को

बिना नमक
मिर्च धनिये के

खुश होते हैं

कुछ लोग
जिनको

पता होता है

समृद्ध
पढ़े लिखे

बुद्धिजीवी
भिखारियों
के भीख

मांगने

और
बटोरने

के तरीकों

और

उनके
कटोरों का


उसी
समय लेकिन


समय भी
नहीं लगता है


उठ खड़ा
होता है

सवाल

अखबार

समाचार
और

खबर देने
वालों के

अखबारी
रिश्तेदारों

के कटोरों का

जिनका
कटोरा
कहीं ना कहीं


कटोरों से
जुड़ा होता है


पता
चलता है

दूसरे दिन

सुबह का
अखबार

गवाही देना
शुरु होता है


पुराने
शातिर
सीखे हुए

भिखारियों
की तरफ से

कहता है

बहुत
परेशानी

हो जायेगी

जब भीख

देने वालों
की जेबें

फट जायेंगी

दो रुपियों
की भीख

चार रुपिया
हो जायेगी


बात

उस
भीख की

हो रही
होती है
जो
करोड़ों
की होती है

अरबों की
होती है


जिसे नहीं
पाने से

बदहजमी

डबलरोटी

कूड़ेदान में
डालने
वालों को
हो रही होती है


जनता को
ना मतलब

कटोरे से
होता है


ना कटोरे
वालों से
होता है


अखबार
वालों को


अमीर
भिखारियों के

खिलाफ
दिये गये


फैसले से
बहुत
खुजली
हो रही होती है


पहले दिन
की खबर


दूसरे दिन
मिर्च मसाले

धनिये से
सजा कर

परोसी गई
होती है


‘उलूक’ से
होना
कुछ
नहीं होता है


हमेशा
की तरह

उसके पेट में
गुड़ गुड़ हो
रही होती है


बस ये
देख कर

कि

किसी को
मतलब
ही
नहीं होता है


इस बात से
कि
भीख
की गंगा

करोड़ो की

हर वर्ष

आती जाती
कहाँ है


और
किस जगह

खर्च हो
कर
बही
जा रही
होती है ।


 चित्र साभार: www.canstockphoto.com

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

कविता और छंद से ही कहना आये जरूरी नहीं है कुछ कहने के लिये जरूरी कुछ उदगार होते हैं



बहुत
अच्छे होते हैं 
समझदार
होते हैं 

किसी
अपने 
जैसे के लिये 
वफादार
होते हैं 

ज्यादा
के
लिये नहीं 
थोड़े थोड़े
के लिये 

अपनी
सोच में 
खंजर
और 
बात में लिये 
तलवार
होते हैं 

सच्चे
 होते हैं 

ना खुदा
के
होते हैं 
ना भगवान
के
होते हैं 

ना दीन
के
होते हैं 
ना ईमान
के
होते हैं 

बहुत
बड़ी
बात होती है 

घर में
एक
नहीं भी हों 

चोरों के
सरदार
के 
साथ साथ

चोरों के 
परिवार
के
होते हैं 

रोज
सुबह के 
अखबार
के
होते हैं 

जुबाँ से
रसीले 
होठों से
गीले 

गले
मिलने को 
किसी के भी 
तलबगार
होते हैं 

पहचानता है 
हर कोई

समाज 
के लिये
एक 
मील का पत्थर 
एक सड़क 

हवा में
 बिना 
हवाई जहाज 
उड़ने
के लिये 
भी
तैयार होते हैं 

गजब
होते हैंं 
कुछ लोग 

उससे गजब 
उनके
आसपास 

मक्खियों
की तरह 
किसी
आस में 
भिनाभिनाते 

कुछ
कुछ के 
तलबगार
होते हैं 

कहते हैं

किसी 
तरह लिखते हैं 

किसी तरह 
ना
कवि होते हैं 
ना
कहानीकार होते हैं 

ना ही
किसी उम्मीद 

और
ना किसी
सम्मान 
के
तलबगार
होते हैं 

उलूक
तेरे जैसे
देखने

तेरे जैसे
सोचने 

तेरा जैसे
कहने वाले 

लोग
और आदमी 
तो

वैसे भी
नहीं 
कहे जाने चाहिये 

संक्रमित
होते हैं 

बस बीमार

और 
बहुत ही 
बीमार होते हैं । 

चित्र साभार: cliparts.co

शनिवार, 23 अप्रैल 2016

कपड़े शब्दों के कभी हुऐ ही नहीं उतारने की कोशिश करने से कुछ नहीं होता

फलसफा
जिंदगी का
सीखने की
जरा सी भी
कोशिश

कभी
थोड़ी सी भी
किया होता

आधी सदी
बीत गई
तुझे आये
हुऐ यहाँ
इस जमीन
इस जगह पर

कभी
किसी दिन
एक दिन के
लिये ही सही
एक अदद
आदमी
कुछ देर के
लिये ही सही
हो तो गया होता

जानवर
ही जानवर
लिखने
लिखाने में
कूद कर
नहीं आते
तेरे इस
तरह हमेशा

आदमी
लिखने का
इतना तो
हौसला
हो ही
गया होता

सपेरे
नचा रहे हैं
अपने अपने साँप
अपने अपने
हिसाब से

साँप नहीं
भी हो पाता
नाचना तो
थोड़ा बहुत
सीख ही
लिया होता

कपड़े
उतारने से बहुत
आसान होने
लगी है जिंदगी

दिखता है
हर तरफ
धुँधला नहीं
बहुत ही
साफ साफ
कुँआरे
शीशे की तरह

बहुत सारे
नंगों के बीच में
खड़ा कपड़े
पहने हुऐ
इस तरह शरमा
तो नहीं रहा होता

क्या
क्या कहेगा
कितना कहेगा
कब तक कहेगा
किस से कहेगा
‘उलूक’

हर कोई
कह रहा
है अपनी
कौन
सुन रहा
है किसकी

फैसला
जिसकी भी
अदालत में होता
तेरे सोचने के जैसा
कभी भी नहीं होता

रोज
उखाड़ा कर
रोज
बो लिया कर

कुछ
शब्द यहाँ पर

शब्दों
के होते
हुए कबाड़ से

खाली
दिमाग के
शब्दों को

इतना नंगा
कर के भी
हर समय
खरोचने
की आदत
से कहीं
भी कुछ
नहीं होता।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2016

सीन होता है फिल्म का होता है जिसमें कुछ गधे होते हैं जो सारे घोडो‌ को लाईन में लगा रहे होते हैं

कैसे कहे कोई
होना हमेशा ही
नियम से
ही होता है
अगर होता है
मान भी लिया
होता ही है
तो फिर
समझाइये
गधों में से
सबसे बेकार
का एक गधा
सबसे अच्छे
घोड़े के अस्तबल
में घोड़ो के बीच
घोड़ा बन कर
कैसे अपनी टेड़ी
पूँछ को सीधा
तान कर
खड़ा होता है
बताइये
गधे के अस्तबल
में दिखने के
दिन से ही कैसे
सारे गधों का
अच्छा दिन
कैसे शुरु होता है
हर जगह गधा
और तो और
जहाँ किसी की
जगह नहीं
होती है उस
 जगह पर भी
कोई ना कोई
गधा सो
रहा होता है
गधा गधे के
लिये भाषण
घोड़ो के सामने
दे रहा होता है
किस तरह घोड़ा
गधे की तीमारदारी
में लगा होता है
गधा ना होने
का अफसोस
किसी को
नश्तर चुभो
रहा होता है
कैसे सारे गधे
एक हो कर
नारे लगाना
शुरु हो रहे होते हैं
गधे के सारे
रिश्तेदार घोड़ों
 की जगह पर
नजर आ रहे
हो रहे होते हैं
पूँछ हिला रहे
होते हैं मुस्कुरा
रहे होते हैं
बस अपने होने
का कुछ बताने
से कतरा रहे होते हैं
कैसे एक इलाके
के सारे गधे
घोड़े हैं करके
अखबार के उसी
इलाके के गधों के
द्वारा दिखाये
जा रहे होते हैं
गधों का इलाका
गधे कहीं भी नहीं
नापने जा रहे होते हैं
घोड़े अपने टापों की
आवाज पर मगन
हो कर गा रहे होते हैं
कोई फर्क नहीं
पड़ रहा होता है
उनके घोड़ेपन पर
रोज गधों की दुलत्ती
जो खा रहे होते हैं
फिर भी मुस्कुरा
रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 13 अप्रैल 2016

दूर कहीं जा अपने घर से जिसके भी घर जितना चाहे खेल कबड्डी

कौन
देख रहा
किस ब्रांड की
किसकी चड्डी

रहने दे
खुश रह
दूर कहीं
अपने घर
से जाकर

जितना
मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

अपने
घर की
रेलमपेल

खेलने वाले
तेरे ही अपने
उनके खेल
तेरे ही खेल

मत बन
अपने ही
घर के
अपनों के

कबाब की
खुद ही तू हड्डी

दूर कहीं
अपने घर
से जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

खबर छाप
फोटो खींच

दिखा दूर
कहीं जंगल में
जहरीला सांप

घर में बैठा
एक नहीं
हर कोई
लागे जब

अपना ही
मुहँबोला बाप

बातें सुन
घर की घर में
बड्डी बड्डी

मत कर
ताँक झाँक
रहने दे
झपट्टा झपट्टी

मालूम होता
है खुद का
खुद को

सब कुछ
कहाँ से

कितनी
अंदर की

कहाँ से
कहाँ तक
फटी हुई है
अपनी खुद
की ही चड्डी

दूर कहीं
अपने घर से
जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी

लेकर हड्डी
दूर निकल कर

बहुत
दूर से
नहीं नजर
पड़े जहाँ से
अपने घर की
शराब की भड्डी

इसके उसके
सबके घर में

जा जा कर
झंडे लहराकर

सबको समझा
इसके उसके
घर की
फड्डा फड्डी

दूर कहीं
अपने घर से
जाकर
जितना मन चाहे
खेल कबड कबड्डी ।

चित्र साभार: www.vidhyalya.in

सोमवार, 11 अप्रैल 2016

आदत है उलूक की मुँह के अंदर कुछ और रख बाहर कुछ और फैलाने की



चर्चा है कुछ है
कुछ लिखने की है
कुछ लिखाने की है
टूटे बिखरे पुराने
बेमतलब शब्दों
की जोड़ तोड़ से
खुले पन्नों की
किताबों की 
एक दुकान को
सजाने की है
शिकायत है
और बहुत है
कुछ में से भी
कुछ भी नहीं
समझा कर
बस बेवकूफ
बनाने की है
थोड़ा सा कुछ
समझ में आने
लायक जैसे को भी
घुमा फिरा कर
सारा कुछ लपेट
कर ले जाने की है
चर्चा है गरम है
असली खबर के
कहीं भी नहीं
आने की है
आदमी की बातें हैं
कुछ इधर की हैं
कुछ उधर की हैं
कम नहीं हैं
कम की नहीं हैं
बहुत हैं बहुत की हैं
मगर आदमी के लिये
उनको नहीं
बना पाने की है
कहानियाँ हैं लेकिन
बेफजूल की हैं
कुछ नहीं पर भी
कुछ भी कहीं पर भी
लिख लिख कर
रायता फैलाने की है
एक बेचारे सीधे साधे
उल्लू का फायदा
उठा कर हर तरफ
चारों ओर उलूकपना
फैला चुपचाप झाड़ियों
से निकल कर
साफ सुथरी सुनसान
चौड़ी सड़क पर आ कर
डेढ़ पसली फुला
सीना छत्तीस
इंची बनाने की है
चर्चा है अपने
आस पास के
लिये अंधा हो
पड़ोसी  के लिये
सी सी टी वी
कैमरा बन
रामायण गीता
महाभारत
लिख लिखा
कर मोहल्ला रत्न
पा लेने के जुगाड़ में
लग जाने की है
कुछ भी है सब के
बस की नहीं है
बात गधों के
अस्तबल में रह
दुलत्ती झेलते हुए
झंडा हाथ में
मजबूती से
थाम कर जयकारे
के साथ चुल्लू
भर में डूब
बिना तैरे तर
जाने की है
मत कहना नहीं
पड़ा कुछ
भी पल्ले में
पुरानी आदत
है
उलूक की
बात मुँह के अंदर
कुछ और रख
बाहर कुछ और
फैलाने की है ।

चित्र साभार:
www.mkgandhi.org

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2016

आदमी और आदमी के घोड़े हो जाने का व्यापार

अनायास
अचानक

नजर
पड़ती है

आस पास

जगह जगह
फैली हुई
लीद पर

कुछ ताजी
कुछ बासी
कुछ अकड़ी

कुछ लकड़ी
हुई सी
चारों तरफ
अपने

माहौल
बनाये हुऐ
किसी बू की

बद कहें
या खुश

समझना
शुरु करने पर
दिखाई नहीं देते

किसी भी
जानवर के
खुरों के निशान

नजर
आते हैं
बस कुछ लोग

जो
होते ही हैं
हमेशा ही
इस तरह की
जगहों पर
आदतन

रास्ते से
भेजे गये
कुछ लोग

कब कहाँ
खो जाते हैं

कब घोड़े
हो जाते हैं

पता
चलता है
टी वी और
अखबार से

घोड़ों के
बिकने
खरीदने के
समाचार से

आदमी का
घोड़ा हो जाना

कहाँ पता
चलता है

कौन
आदमी है
कौन
घोड़ा है

कौन
लीद को
देखता है
किसी की

पर
आदमी कुछ
घोड़े हो
चुके होते हैं
ये सच होता है

घोड़ों का
ऐसा व्यापार

जिसमें
बिकने वाला
हर घोड़ा

घोड़ा कभी
नहीं रहा
होता है

गजब का
व्यापार
होता है

सोचिये

हर पाँच
साल में

पाँच साल भी
अब
किस्मत
की बात है

अगर आप
कुछ नहीं
को भेज रहे हैं
कहीं

उसके
अरबों के
घोड़े हो जाने
की खबर पर

खम्भा भी
खुद का ही
नोचते हैं

लगे रहिये
लीद के इस
व्यापार में

आनंद
जरूरी है

समझ
अपनी
अपनी है

घोड़ों को
कौन बेच
रहा है

कौन
घोड़ा है

लीद
किसके लिये
जरूरी है

लगे रहिये

‘उलूक’
को जुखाम
हुआ है

और
वो लीद
मल रहा है

सुना है
लीद से
ही मोक्ष
मिलता है ।

चित्र साभार: www.shutterstock.com

बुधवार, 16 मार्च 2016

जब जनाजे से मजा नहीं आता है दोबारा निकाला जाता है

लाश को
कब्र से
निकाल कर

फिर से
नहला
धुला कर

नये कपड़े
पहना कर

आज
एक बार
फिर से
जनाजा
निकाला गया

सारे लोग
जो लाश के
दूर दूर तक
रिश्तेदार
नहीं थे
फिर से
इक्ट्ठा हुऐ

एक कुत्ते
को मारा
गया था
शेर मारने
की खबर
फैलाई
गई थी
कुछ ही
दिन पहले

मजा नहीं
आया था
इसलिये
फिर से
कब्र
खोदी गई

कुत्ते की
लाश
निकाल कर
शेर के
कपड़े
पहनाये गये

जनाजा
निकाला गया
एक बार
फिर से

सारे कुत्ते
जनाजे
में आये

खबर
कल के सारे
अखबारों
में आयेगी
चिंता ना करें

समझ में
अगर नहीं
आये कुछ
ये पहला
मौका
नहीं है जब

कबर
खोद कर
लाश को
अखबार
की खबर
और फोटो
के हिसाब से
दफनाया और
फिर से
दफनाया
जाता है

कल का
अखबार
देखियेगा
खबर
देखियेगा

सच को
लपेटना
किसको
कितना
आता है

ठंड
रखा कर
'उलूक'
तुझे
बहुत कुछ
सीखना
है अभी

आज बस
ये सीख
दफनाये गये
एक झूठ को
फिर से
निकाल
कर कैसे
भुनाया
जाता है ।

http://www.fotosearch.com/

मंगलवार, 15 मार्च 2016

जमूरे सारे कुछ जमूरों को छोड़ कर मदारी के इशारे पर मदारी मदारी खेलने निकल कर चले

कुछ जमूरे मिलें
शागिर्दी के लिये

तमन्ना है जिंदगी
में एक बार
बस
एक ही बार

मदारी होने का
ज्यादा नहीं
एक ही मिले
मौका तो मिले

जमूरा बना रह
जाये कोई
ताजिंदगी
निकलते चलें
इधर से भी
और
उधर से भी

कब कौन
बन जाये
मदारी
सामने सामने
कैसे किस
तरीके से
कभी तो
ये राज
थोड़ा सा
ही सही
कुछ तो खुले

नहीं दिखा
एक भी
मदारी
सोचता
हुआ सा
भी कभी

उसका
कोई जमूरा
उसके बराबर
आ कर
खड़ा हो कर
उसके जैसा
ही नहीं
कभी भी कुछ
छोटा मोटा
सा भी
मदारी की
तरह का कहीं
गलती से भी
कभी कहीं
जा कर बने

मदारी हों
जमूरे हों
जमूरे मदारी
के ही हो
मदारी जमूरों
के ही हो
दोनो ही रहें

एक दूजे
के लिये
ही बने
होते हैं
दोनो ही रहें
दोनों ही बनें
एक दूसरे
के साथ
रह कर
चलायें
सरकस
कहीं का
भी हो

सरकस चलें
चलते रहें
बिना मदारी का
हो जाये ‘उलूक’
जैसा जमूरा
ना बन पाये
मदारी भी कभी

खबर
जब मिले

जमूरे कुछ
जमूरों को
छोड़ सारे
जमूरों के
साथ मिल
मदारी के लिये

एक बार
फिर
मिल जुल
कर सभी
कुछ सुना है
बहुत कुछ
करने को
हाथ में
लेकर हाथ
ये चले
और
वो चले ।

चित्र साभार: www.garylellis.org

गुरुवार, 10 मार्च 2016

कुछ लोग लोगों को उनके बारे में सब कुछ बताते हैं

कुछ लोग
भगवान
नहीं होते हैं

बस उनका
होना ही
काफी होता है

किसी को भी
अपने बारे में
उतना पता
नहीं होता है
जितना
कुछ लोगों को
सारे लोगों
के बारे में
पता होता है

रात के देखे
सभी सपने
सुबह होने होने
तक बहुत ही
कम याद रहते हैं

बिना धुले
साबुन के
मटमैले कपड़े
जैसे ही धुँधले
हो चुके होते हैं

उन सारे
सपनों की
खबर को
लोगों को
सुनाने में
इन कुछ
लोगों को
महारत
हासिल होती है

अलसुबह
मुँह धोने
से पहले
आईने के
सामने खड़ा
जब तक
कोई खुद
को परख
रहा होता है

इन लोगों
की तीसरी
आँख से
देखा सब कुछ
बिस्तरे की
सिलवट की
गिनतियों के
साथ कहीं
किसी सुबह
के अखबार
के मुख्य
पृष्ठ पर
बड़े अक्षरों में
छप रहा होता है

ये लोग
अपने जैसे
सभी भगवानों
को बारीकी से
पहचानते हैं

बोलते
नहीं है
कुछ भी
कहीं भी
किसी से
किसी के लिये

लेकिन
हवा हवा में
हवा की
धूल मिट्टी को
भी छानते हैं

सारा सब कुछ
इन्हीं की
सदभावनाओं
पर टिका
और चल
रहा होता है

अपने बारे में
अच्छी  दो चार
गलफहमियाँ
पाला हुआ
कोई अपनी
अच्छाइयों के
जनाजों को
कहीं गिन
रहा होता है

उसकी गिनती
सही है और
गलत है
यही
कुछ लोग
बताते हैं

जानकारी
आदमी की
आदमी के
अंदर से
निकाल कर
आदमी को
बेच जाते हैं

आदमी
अपने बारे में
सोचता रहता है

होने ना
होने के
हिसाब से
कुछ लोग
उसका
कहीं भी
नहीं होना
हर जगह
जा जा
कर बताते हैं

भगवानों
में भगवान
धरती में
पैदा हुऐ
इन्सानों
से अलग

कुछ अलग
तरह के लोग
सब कुछ
हो जाते हैं

‘उलूक’
भगवान की पूजा
करने से नहीं
मिलता है मोक्ष

कुछ लोगों
की शरण में
जाना पड़ता है

आज के
जमाने में
भगवान भी
उन्ही लोगों
से पूछने
कुछ ना
कुछ आते हैं ।

चित्र साभार: fremdeng.ning.com

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

ऊपर वाले के जैसे ही कुछ अपने अपने नीचे भी बना कर वंदना कर के आते हैं

आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

चित्र साभार: www.womanthology.co.uk

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

देखना/ दिखना/ दिखाना/ कुछ नहीं में से सब कुछ निकाल कर ले आना (जादू)

गाँधारी ने
सब कुछ
बताया
कुछ भी
किसी से
नहीं छिपाया
वैसा ही
समझाया
जैसा
धृतराष्ट्र ने
खुद देखा
और देख कर
उसे दिखाया

धृतराष्ट्र
ने भी
सब कुछ
वही कहा
जो घर
घर में
रखी हुई
संजयों की
आँखोँ ने
संजयों को
दिखाया

संजयों
को जो
समझाया
गया
अपनी समझ
को बिना
तकलीफ दिये
उन्होने भी
ईमानदारी
के साथ
अपने धृतराष्ट्र
की आन
की खातिर
आगे को
बढ़ाया

परेशान
होने की
जरूरत
नहीं है
अगर
आँख वाले
को वो सब
आँख फाड़
कर देखने
से भी नजर
नहीं आया

एक नहीं
हजार
उदाहरण हैं
कुछ कच्चे हैं
कुछ पके
पकाये हैं

असम्भव
नहीं है
एक देखने
वाले को
अपनी
आँख पर
भरोसा
नहीं होना
सम्भव है
देखने वाले
की आँख का
खराब होना

आँख खराब
होने की
उसे खुद ही
जानकारी
ना होना

दूरदृष्टि
दोष होना
निकट दृष्टि
दोष होना
काला या
सफेद
मोतियाबिंद
होना
एक का
दो और
दो का एक
दिख
रहा होना

फिर ऐसे में
वैसे भी
किसी से
क्या कहना
अच्छा है
जिसे जो
दिख रहा हो
देखते
रहने देना

किसी
से कहें
या ना
कहें पर
बहुत
जरूरी है
गाँधारी को
क्या दिखा
जरूर देखने
के लिये
अपनी
आँख पर
पट्टी बाँध
कर देखने
का प्रयास
करना

आज सारे
के सारे
गाँधारी
अपने अपने
धृतराष्ट्रों
 के ही
देखे हुऐ को
देख रहे हैं
एक बार फिर
सिद्ध हो गया है
कहीं के भी हों
सारे गाँधारी
एक जैसा
एक सुर
में कह रहे हैं

ऐसे में
तू भी
खुशी
जाहिर कर
मिठाई बाँट
दिमाग
मत चाट

किसने
क्या देखा
क्या बताया
इस सब को
उधाड़ना
बंद कर
उधड़े फटे
को रफू
करना सीख
कब तक
अपनी आँख
से खुद ही
देखता रहेगा
‘उलूक’

गोद में
चले जा
किसी
गाँधारी के
सीख
कर आ
किसी
धृतराष्ट्र
के लिये
आँख
बंद कर
उसकी
आँखों से
देखने
की कला

तभी होगा
तेरा और
तेरी सात
पुश्तों का
तेरी घर
गली शहर
प्रदेश देश
तक के
देश प्रेमी
संतों
का भला ।

चित्र साभार: ouocblog.blogspot.com

शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

देश प्रेम देश भक्ति और देश

विश्वविद्यालय
देश के
कहाँ होते हैं
विश्व के होते हैं

सिखाये
हुऐ के
हिसाब
से होते हैं

देशप्रेम
छोड़िये
बड़े प्रेम
विश्वप्रेम
पर चल
रहे होते हैं

पर कन्फ्यूजन
भी होते हैं
और
अपनी जगह
पर होते है

चाँसलर
वाईस चाँसलर
प्रोफेसर
देश के ही
बराबर के
ही होते हैं

कभी
लगता है
देश से
भी शायद
कुछ और
बड़े होते हैं

छात्र छात्राएं
अभिभावक
दलों के
हिसाब से
अलग अलग
होते हैं

नारे लगते
समय नहीं
दिखते हैं

जरूरत भी
नहीं होती है
और
वैसे भी
पता कहाँ
किसी को
होते हैं

कोई नहीं
पूछता है
हिसाब किताब
किताबों कापियों
की दुकानों का

स्कूल कालेज
और पढ़ाई
सब
अलग अलग
विषय होते हैं

हिन्दू
मुसलमान
शहर गाँव
इलाका विशेष
ठाकुर बनिया
बामन
कुत्ता बिल्ली
के काम्बिनेशन
अलग अलग
होते हैं

कहाँ किस
का प्रयोग
करना है
वही लोग
जानते हैं
जिनके
हिसाब किताब
के बही खाते
एक जैसे ही
और कुछ
अलग होते हैं

प्रयोग
जातियों पर
जितने
विश्वविद्यालयों
में होते हैं
और कहीं भी
नहीं दिखते हैं
ना ही कहीं होते हैं

कुत्ता
फालतू मे
गाली
खाता है
हमेशा ही
लेकिन वो
सही में कुछ
इस तरीके के ही
गली के कुत्ते होते हैं

नारे उगते हैं
पता नहीं
कहाँ किस
खेत में
बस दिखते हैं
उगते हुऐ
देश द्रोही
के नाम पर
सारों में
से कुछ
छोड़ कर
सारे के सारे
अन्दर हो
रहे होते हैं

जय हो देश की
देश प्रेमियों की

उनके पैजामों
के अन्दर
की हवा में
उनके उगाये
मटर हरे हरे
हो रहे होते हैं

देश का
खून पीने
के लिये
लगाये गये
नलों से
टपकने वाले
खून के चर्चे
कहीं भी नहीं
हो रहे होते हैं

पाले हुऐ
सरकार के
सरकारी लोगों के
काम देख कर भी
अनदेखे हो रहे होते हैं

जो नियम
से करते है
नियम को
देखसुन कर
नियम के
हिसाब से

ऐसे सारे
के सारे
देशद्रोही
देश के
कोने कोने मे
रो रहे होते हैं

माफ करियेगा
'उलूक'
जानता है
तेरे शहर में
तेरे मोहल्ले में
तेरे घर में
इस तरह
के जलवे
हो भी
और
नहीं भी
हो रहे होते हैं

लिखने दे
बबाल ना कर
मत बता
मुझे मेरे हाल
मुझे पता है
तेरे जैसे
ना हो
सकते हैं
ना होंगे
ना हो
रहे होते हैं ।

चित्र साभार: www.gograph.com

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2016

अंदर कुछ और और लिखा हुआ कुछ और ही होता है


सोच कर 
लिखना 
और 
लिख कर 
लिखे पर 
सोचना 

कुछ 
एक 
जैसा ही 
तो 
होता है 

पढ़ने वाले 
को तो बस 
अपने 
लिखे का 
ही 
कुछ 
पता होता है 

एक 
बार नहीं 
कई 
बार होता है 
बार बार होता है 

कुछ 
आता है
यूूँ ही खयालों में 

खाली दिमाग 
के 
खाली पन्ने 
पर 
लिखा हुआ 
भी तो 
कुछ 
लिखा होता है 

कुछ 
देर के लिये 
कुछ 
तो कहीं 
पर 
जरूर होता है 

पढ़ते पढ़ते ही 
पता नहीं 
कहाँ 
जा कर 
थोड़ी सी 
देर में ही 

कहाँ जा कर 
सब कुछ 
कहीं खोता है 

सबके 
लिखने में 
होते हैं गुणा भाग 

उसकी 
गणित 
के 
हिसाब से 
अपना 
गणित खुद पढ़ना 
खुद सीखना 
होता है 

देश में लगी 
आग 
दिखाने के लिये 
हर जगह होती है 

अपनी 
आँखों का 
लहू 
दूसरे की 
आँख में 
उतारना होता है 

अपनी बेशरमी
सबसे बड़ी 
शरम होती है 

अपने लिये 
किसी 
की 
शरम का 
चश्मा 
उतारना 
किसी 
की 
आँखों से 


कर सके कोई 
तो 
लाजवाब होता है 

वो 
कभी लिखेंगे 
जो लिखना है वाकई में 

सारे 
लिखते हैं 
उनका खुद का 
लिखना 
वही होता है 


जो कहीं भी 
कुछ भी 
लिखना ही नहीं होता है 

कपड़े ही कपड़े 
दिखा रहा होता है 
हर तरफ ‘उलूक’ 
बहुत फैले हुऐ 
ना पहनता है जो 
ना पहनाता है 

जिसका 
पेशा ही 
कपड़े उतारना होता है 

खुश दिखाना 
खुद को 
उसके पहलू में खड़े हो कर 
दाँत निकाल कर 
बहुत ही 
जरूरी होता है 

बहुत बड़ी 
बात होती है 
जिसका लहू चूस कर 
शाकाहारी कोई 

लहू से अखबार में 
तौबा तौबा 
एक नहीं 
कई किये होता है 

दोस्ती 
वो भी 
फेसबुक 
की करना 
सबके 
बस में कहाँ होता है 

इन सब को 
छोड़िये 
सब से 
कुछ अलग 
जो होता है 

एक 
फेस बुक का 
एक अलग
पेज हो जाना
होता है । 

चित्र साभार: www.galena.k12.mo.us

सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

श्रद्धांजलि अविनाश जी वाचस्पति

एक चिट्ठाकार
का चले जाना
कोई नयी बात
नहीं होती है

सभी
जाते हैं
जाना ही
होता है

चिट्ठेकार का
कोई बिल्ला
ना आते समय
चिपकाया जाता है

ना जाते समय
कुछ चिट्ठेकार
जैसा बताने वाला
चिपकाया हुआ
उतारा ही जाता है

तुम भी
चल दिये
चिट्ठे
कितना रोये
पता नहीं

चिट्ठों में
दिखता भी
नहीं है
चिट्ठों की
खुशी गम
हंसना या रोना

कुछ चिट्ठे
कम हो जाते हैं
कुछ चिट्ठे
गुम हो जाते हैं
कुछ गुमसुम
हो जाते हैं

विश्वास होता
है किसी को
कि ऐसा ही
कुछ होता है

इसी विश्वास
के कारण
निश्वास
भी होता है

आना जाना
खोना पाना
तो लगा रहता है

तेरे आने
के दिन
क्या हुआ
पता नहीं

चिट्ठों का
इतिहास जैसा
अभी किसी
चिट्ठेकार ने
कहीं लिख
दिया हो
ऐसा भी
दिखा नहीं

जाने के दिन
टिप्पणी नहीं
भी मिलेगी
तो भी

श्रद्धांजलि
जगह जगह
इफरात से
एक नहीं
कई बार
चिट्ठे में ही नहीं
कई जगह
दीवार दर
दीवार मिलेगी

बहुत सारे
चिट्ठेकारों
में से एक
अब बहुत
बड़ा कह लूँ
कम से कम
जाने के बाद
तो बड़ा
और
बड़े के आगे
बहुत लगा
लेना
जायज हो
ही जाता है

दुनियाँ की
यादाश्त
वैसे भी
बड़ी बड़ी
बातों को
थोड़ी देर
तक जमा
करने की
होती है

चिट्ठे
चिट्ठाकारी
चिट्ठाकार
जैसा
बहुत सारा
बहुत कुछ
गूगल में ही
गडमगड
होकर
गजबजा
जाता है

‘उलूक’
तू भी आदत
से बाज नहीं
आ पाता है
तुझे और तेरी
उलूकबाजी
को उड़ने
का हौसला
देने वाले के
जाने के दिन
भी तुझसे कुछ
उलटा सीधा
कहे बिना
नहीं रहा
जाता है

‘अविनाश जी
वाचस्पति’
अब नहीं रहे
इस दुनियाँ में

थोड़ी देर के
लिये मौन
रहकर
श्रद्धा से सर
झुका कर
श्रद्धांजलि
देने के लिये
दोनो हाथ
आकाश
की ओर
क्यों नहीं
उठाता है ।

चित्र साभार: nukkadh.blogspot.com

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

प्रश्न हैं बने बनाये हैं बहुत हैं फिर किसलिये नये ढूँढने जाता है

प्रश्न उठना और
उठते प्रश्न को
तुरंत पूछ लेना
बहुत अच्छी बात है
लेकिन
किसी के लिये
समझना जरूरी है
किसी के लिये
बस एक मजबूरी है
प्रश्न कब पूछा जाये
किस से पूछा जाये
क्यों पूछा जाये
सबसे बड़ी बात
यह देखना
पूछने के लिये
उठे प्रश्न की
क्या औकात है
वैसे जैसा
साफ नजर आता है
पूछे गये प्रश्न से
पता चल जाता है
प्रश्न नियत होते हैं
उत्तर नियत होते हैं
प्रश्न पूछने वाले
नियत होते हैं
उत्तर देने वाले
नियत होते है
बस थोड़े से कुछ
दो चार बेवकूफ
सब कुछ समझते
बूझते हुऐ एक दूसरे
के साथ प्रश्नों की
अंताक्षरी फिर भी
खेल रहे होते हैं
रोज ही दूरदर्शन
में दूर से दर्शन होते है
बहस के लिये
हर तरफ की तरफ से
अपने अपने मुर्गे
खड़े किये होते हैं
किसी की कलगी
रंगीन होती है
किसी किसी ने
रामनामी दुपट्टे
ओढ़े हुऐ होते हैं
मुरगे लढ़ाने वाला
परदे के पीछे से
कहीं किसी अदृष्य
धागे से बंधा होता है
सामने से मगर
कठपुतलियों को
घो रहा है का जैसा
आभास दे रहा होता है
उसे पता होता है
वो खुद भी एक
कठपुतले के
हाथों खेल रहा
कठपुतला होता है
प्रश्न उठाये कोई
अपने आस पास से
एक नहीं अनेक
पड़े होते है
लेकिन प्रश्न पूछने
वाले हजार मील
दूर के पत्थर को
देख रहे होते हैं
अपना कुछ अपनी
सोच से बने वो
जमाने लद रहे होते हैं
 समय की बलिहारी है
ऐसे समय में गधे सारे
अपने अपने गधों की
लीद कुरेद रहे होते हैं
अपने गधे की लीद
की खुश्बू के नशे में
इतना झूम रहे होते हैं
सावन के सारे अंधे
जैसे हरी घास के
ढेर पर कूद रहे होते हैं
‘उलूक’
नोच सकता है
तू भी जितना
नोच ले प्रश्नों को
प्रश्नों के कपड़े
वैसे भी नहीं होते हैं
अपने आस पास से
उठे प्रश्नों पर आँख मूँद
और पूछ कहीं
आसमान के
नीले रंग पर
या सुबह की
सुर्ख धूप पर
या कुछ और
वो सब
जो भी तुझे
प्रश्न पूछना
सीखे  हुऐ
लोगो द्वारा
तुझसे पूछने
के लिये
सुझाया जाता है
आसपास के
ज्वलंत प्रश्नों से
जल जाने से अच्छा
किसी का सुझाया
किसी का बताया
प्रश्न पूछने से
साँप को मारना
और लाठी को टूटने
से बचाना भी सीखा
सिखाया जाता है
सबक भी मिलता है
बहुत दूर का
पूछा गया एक
छोटा सा प्रश्न
हमेशा अपने घर के
बड़े बड़े निरुत्तर
कर देने वाले प्रश्नो से
बचाना भी सिखाता है ।

 चित्र साभार: worldartsme.com

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

देश प्रेम

भाई कोई
नई चीज नहीं है
सबको ही देश की
पड़ी ही होती है
सभी देश के
भक्त होते हैं
देश के बारे में
ही सोचते हैं
देश के लिये ही
उनके पास
वक्त ही वक्त
होता है
झंडा देश का
बस उनके लिये
प्राण होता है
फहराना उसे
ऐसे लोगों के लिये
रोज का ही
काम होता है
बहुत बड़ी
बात होती है
देश के बारे में
सोचते सोचते
बीच में समय
अगर कुछ
निकाल ले जाते हैं
क्या बुराई है इसमें
अगर कुछ अपने
और अपने परिवार
के लिये भी थोड़ा
सा चुन्नी भर इस सब
के बीच कर
के ले जाते हैं
परिवार छोटा सा
या बहुत बड़ा भी
हो सकता है
कैसे बनाना है
काम करने कराने
पर निर्भर करता है
कहीं जाति से काम
चल जाता है
कहीं इलाका
काम में आता है
कहीं इलाके की
जाति काम में
आ जाती है
कहीं जाति का
इलाका काम
में आता है
किसी को गिराना हो
परिवार की खातिर
तो उसे बताना भी
नहीं कुछ पड़ता है
मजबूरी में उसे
उसके किसी इलाके
खास का होने का
खामियाजा उठाना
जरूर पड़ता है
चोर सारे एक से
एक मुहर वाले
पता नहीं कैसे
एक हो जाते हैं
समाज के अन्दर के
किसी ईमानदार का
पाजामा बहुत आसानी
से खींच ले जाते हैं
चोर के फोटो
अखबार के मुख्य पृष्ठ
पर रोज ही होते हैं
पाजामा उतरे हुऐ
लोग शरम से खुद
ही मर जाते हैं
जमाना पाजामा पाजामा
खेल रहा होता है
बेशरम हाथी के
ऊपर बैठा मुकुट पहन
आईसक्रीम
पेल रहा होता है
‘उलूक’ तू फिक्र
क्यों करता है
हाल अपने पैजामे
का देख कर
तेरे सभी चाहने
वालों में से सबसे
पहला तेरा ही
पैजामा खींचने की
फिराक में कब से
तेरे नखरे फाल्तू में
झेल रहा होता है ।

चित्र साभार: whiterocksun.com

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

गधों के घोड़ों से ऊपर होने के जब जमाने हो रहे होते हैं

मुद्दई जैसे जैसे
सुस्त हो रहे होते हैं
मुद्दे भी उतनी ही
तेजी से चोरी
हो रहे होते हैं
मुद्दे बिल्ली के
 शिकार मोटे
तगड़े किसी चूहे
जैसे हो रहे होते हैं
बहुत उछल कूद
कर भी लेते हैं
मगर शिकार
शिकारी बिल्ले के
जबड़े में फंस कर
ही हो रहे होते हैं
किताबें मोटी कुछ
बगल में दबाकर
किताब पढ़ने वाले
ज्ञान समेट बटोर
कर जबर्दस्ती
फैला दे रहे होते हैं
काम कराने वाले
मगर अखबार की
पुरानी रद्दी से ही
अपने किये गये
कर्मों की धूल
रगड़ रगड़ बिना पानी
के धो रहे होते हैं
बेवकूफ आदमी
आदमी के सहारे
आदमी को फँसाने
की तिकड़मों को
ढो रहे होते हैं
समझदार के देश में
गाँधी पटेल नेता जी
की आत्माओं को
लड़ा कर जिंदा
आदमी की किस्मत
के फैसले हो रहे होते हैं
जमीन बेच रहा हो
कौड़ियों के मोल कोई
इसका यहाँ इसको
और उसका वहाँ उसको
इज्जत नहीं लुट रही है
जब इसमें किसी की
और मोमबत्तियों को
लेकर लोगों की सड़कों
में रेलमपेल के खेल
नहीं हो रहे होते है
 फिर तेरी ही अंतड़ियों
में मरोड़ किसलिये
और क्यों हो रहे होते हैं
मुद्दे शुरु होते समय
कीमत कहाँ बताते हैं अपनी
गरम होने में समय लेते हैं
समाचार में आते आते
बिकना शुरु हुऐ नहीं
खबर देते हैं अरबों
करोड़ों के हो रहे होते हैं
‘उलूक’ अपनी अक्ल
मत घुसेढ़ा कर हर जगह
हर बात पर उस जगह
जहाँ घोड़ों की जगह
गधो‌ के दाम बहुत
ऊँचे हो रहे होते हैं‌ ।


चित्र साभार: www.colourbox.com

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

एक हैं पी0 सी0 तिवारी

वैसे तो कई हैं
जिन्होने
विद्रोही होने के
दावे खुद ही लिख
खुद ही के सीने
पर टांंके हुऐ हैं
दिखते भी हैं
पैसे भी मिलते हैं
या नहीं मिलते हैं
कभी वो नहीं बांंचे है
उन्हीं के बीच के हैं
पी0 सी0 तिवारी
दिखते वो भी
थोड़ा सा बांंकें हैं
राज्यों से टूट
नये उगे राज्य
छत्तीसगढ़ झारखंड
उत्तराखण्ड में से
सबसे ज्यादा
उसी राज्य के
चूसकों के द्वारा
चूसे गये राज्य
का कथित निवासी
कहलाते हैं
कथित कहा
क्योंकि डर लगा
कोई भी
पूछ सकता है यहाँ
किसी से भी
कैसे कह दिया
यहाँ का है
उसके चेहरे पर
कहाँ ऐसा कुछ है
जो लिखा है
यहाँ तेरे मेरे जैसे
लोगों के लगते
फांंके हैं
वैसे भी यहाँ कोई
कुछ नहीं करता है
जिनको लगता है
वो करते हैं
उनसे क्षमा है
मेरा भ्रम भी
हो सकता है
मुझे क्या लगता है
उसके लिये कोई
कुछ नहीं
कर सकता है
यहाँ हर किसी की
नजर किसी
ना किसी
के फटे के
भीतर होती है
अपनी अपनी
मौज होती है
किसी के पास
इसका बिल्ला
होता है
किसी के पास
उसका बिल्ला
होता है
सबसे बड़ी
मौज में
इसका भी
और उसका भी
एक कुत्ते का
पिल्ला होता है
उधर देश के
लिये सरहद पर
कत्ल होने वालों
में पांंच में से चार
की विधवाओं का
पता किसी दूर
पहाड़ी के निर्जन
गाँव जहाँ तक
गाड़ी की सड़क
भी नहीं पहुंंचती है
का मिलता है
युवा यहाँ सोचता नहीं
कहने पर चलता है
ठेकेदारी छोटी मोटी
कर लेने से
उसका काम चल
निकलता है
पी0 सी0 तिवारी
जैसे लोग सत्ता के
काम बिगाड़ते है
झाडू से सफाई
करवाने वाले मंत्री
प्रधानमंत्री लोग
पी0 सी0 तिवारी को
कौन सा पहचानते हैं
उस आदमी की
क्या बात करनी
इस देश में जो
ना सोनिया का है
ना मोदी का है
पी0 सी0 तिवारी 

जो जेल में है
आदमी के एक्ट से
आदमी के खेल में है
ईमानदार लोग
जासूस लोग
सब जानते हैं
मजबूर होते हैं
 सरकारी
लोग होते हैं
कुछ नहीं
कर सकते हैं
यही बस
नहीं मानते हैं
बहुत कुछ है
लिखने से
क्या होना है
इस देश में
कुत्तों के लिये
हर जगह सोना है
किसी ने यूँ ही
पूछा ‘उलूक’
से आज भाजपा
का कोई
चप्पा चप्पा
आ रहा है
क्या वहाँ जा रहे हो
‘उलूक’ ने बोला
‘पी सी तिवारी'
जैसे समाज के
आदमी का
आदमी हूँ 
वो खुद ही 
अंदर हो चुका है 
क्या जेल में मुझे भी 
डालने जा रहे हो 
नैनीसार की जमीन 
उत्तराखण्ड की
जमीन ही नहीं है 
मोदी जी और 
रावत जी
भी जानते हैं
तुम में कितनी
हिम्मत है
उत्तराखण्डी
तुम भी अपनी
अपनी औकात 
पहचानते हो ।

शुक्रवार, 22 जनवरी 2016

‘रोहित’

सारे के सारे
सब कुछ
कह चुके
गणित
लगा कर
जोड़ घटाना
गुणा भाग कर

अपने अपने
लिये
अपने अपने
हिसाब से
बना चुके
खाते खतौनी
तेरी मौत के

पर
दुख: है
गिनीज बुक
रिकॉर्डस
में नहीं
आ पायेगी
‘रोहित’

वो जो हुआ
तेरे साथ
कोई नई
चीज नहीं है

हर
विश्वविद्यालय
में हुई है
होनी होती है
सबसे
जरूरी होती है
यू जी सी को
भी पता होती है

कि
उपर चढ़ने
के लिये
जरूरी
हमेशा
जिंदा शरीर
से अच्छी एक
लाश ही होती है

हत्या
और आत्महत्या
तो बस एक
बात होती है

बाकी वो
राजनीति
क्या होती है
बस एक
बच्चा होती है
जो और
जगह होती है

खिचड़ी
पक रही
होती है
चावल
किसी का
दाल किसी
की होती है

सब को
पता होती है
कुत्तों के
नोचने के लिये
माँस चिपकी ह्ड्डी
ज्यादा अच्छी
चीज होती है

विश्वविद्यालय
बड़ी
क्या कहना
चाहिये
नहीं कही
जा रही है

जो देखकर
अपने घर
के पालतू
की शक्ल
जैसी ही एक
चीज की
मेल की
फीमेल
होती है

भड़वों
के लिये
वक्तव्य
देने सहेजने
की काँटेदार
झाड़ियों की
बीज होती है

जिस
गृह के
गृहपति
की बहुत बड़ी
कीमत होती है

उस घर
में हर एक
चीज बिकने
और
खरीदने की
चीज होती है

किसी
के हिस्से
में कटी टाँग
किसी
के हिस्से
में कटा हाथ
किसी
के हिस्से में
मौत की खबर
किसी
आत्माहीन
के हाथ में
मरे हुऐ की
आत्मा होती है

शोक सभा
होती है
जरूर होती है

शोक
संदेश भी
होता है
पढ़े लिखों
की भाषा
होती है

पर कहीं
नहीं होता है
आत्मा
को नोचने
वालों का
हिसाब किताब

उनके
हिसाब किताब
की किताब
उन लोगों
के खाते
देखने वालों
के पास होती है


विश्वविद्यालयों
जैसे 
एक
बड़े चीरफाड़ घर 

में लाशों के  
पहरेदारों की 
कमी नहीं होती है 

तेरी
मौत से
‘रोहित’
विश्वविद्यालयों
के अंदर
के पढ़े लिखे
कफन खोरों
कफन
बेचने वालों
और उनके
तीमारदारों
की आमदनी
में बढॉतरी
तेरे जैसे के
मरने के
बाद जरूर
होती है ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

रविवार, 17 जनवरी 2016

लोगों की लोगों द्वारा लोगों के लिये

अब्राहम लिंकन
लोगों के लिये
बोल गये थे
लोगों की
समझ में
आज तक बात
नहीं घुस पाई है
धूर्तों की जय हो
नियम कानून
बना संवार कर
अपने साम्राज्य
की ईंटे क्या
चमकाई हैं
धूर्तों की महासभा
में फिर एक बार
धूर्तों ने अपनी
ताकत दिखलाई है
धूर्तों की, धूर्तों द्वारा,
धूर्तों के लिए
लाग़ू होता है
लोग की जगह
होना भी चाहिये
कोई बुराई नहीं है
खबर भी आई है
नियमावली नई
बनवाई है
बात धूर्तों के खुद
के अधिकारों की है
खुजली हो जाने
वालों को खुजली
होती ही है
होती आई है
कोई नई बात नहीं है
कई बार खुजलाई है
खुजलाने की आदत
पड़ ही चुकी है
अच्छा महसूस होता है
दवाई भी इसीलिये
नहीं कोई कभी खाई है
बैचेनी सी महसूस
होने लगती है हमेशा
पता चलता है जब
कई दिनों से उनकी
कोई खबर शहर के
पन्ने में अखबार
के नहीं आई है
‘उलूक’ तू लोगों में
वैसे भी नहीं
गिना जाता है
और धूर्तों से तेरा
हमेशा का छत्तीस
का नाता है

तुझे भी हर बात पर
खुजलाने के अलावा
और क्या आता है 

खुजला ले तमन्ना
से जी भर कर
यहाँ खुजली करने
की किसी को भी
दूर दूर तक कहीं 

नहीं 
कोई मनाही  है ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

सच

क्या किया जाये
जब देर से
समझ में आये

खिड़कियाँ
सामने
वाले की
जिनमें
घुस घुस
कर देखने
समझने
का भ्रम
पालता
रहा हो कोई

खिड़कियाँ
थी ही नहीं
आईने थे

यही होता है
यही गीता है
यही कृष्ण है
और
यही अर्जुन है
बहुत सारी

गलतफहमियाँ
खुद की
खुद को
पता होती हैं
देखना कौन
चाहता है

पर सामने
वाले की
खिड़कियाँ
जो आईना
होती है
हर कोशिश
में देखने की
अपना सच
बिना किसी
लाग लपेट के
बहुत साफ
साफ
दिखाता है
समझ में
आता है
घुसना
समझ में
आता है
दिखना
सब कुछ
साफ साफ

नहीं समझ
में आता है
आईने में
दिखी
परछाइयाँ
खुद की
खुद की
कमजोरियाँ

कृष्ण भी
खुद मे ही है
अर्जुन भी
खुद में ही है
खिड़कियाँ
नहीं हैं
बस आईने हैं

कौन क्या
देखना
चाहता है
खुद बता
देता है
खुद को
उसका सच

देखने की
कोशिश में
तेरे सारे झूठ
तुझे नजर
आते हैं
‘उलूक’
खुश मत
हुआ कर

आईना हटा
कर कुछ
खिड़कियों में
झाँकना सीख

लोग
खिड़कियाँ
खुली तो
रखते हैं
पर आईना
भी रखते
हैं साथ में ।

सोमवार, 11 जनवरी 2016

अब आत्माऐं होती ही नंगी हैं बस कुछ ढकने की कुछ सोची जाये

 
कई दिन के सन्नाटे में रहने के बाद 
डाली पर उल्टे लटके बेताल की बैचेनी बढ़ी
पेड़ से उतर कर जमीन पर आ बैठा

हाथ की अंगुलियों के बढ़े हुऐ नाखूनों से
जमीन की मिट्टी को कुरेदते हुऐ 
लग गया करने कुछ ऐसा
जो कभी नहीं किया

उस तरह का कुछ
मतलब कोशिश सोचने की
कुछ सोचना
सोचना बेताल का पहली अजब बात

दूसरा सोचा भी कुछ गजब का 
क्या
एक आत्मा
और वो भी पहने हुऐ सूट टाई

बेताल खुद चाहे नहीं पहन पाया कभी कुछ भी

उधर नये जमाने के साथ बदलता
विक्रमादित्य
जैसे थाली में लुढ़कता सा एक गोल बैगन

जबसे बीच बीच में बेताल को टामा दे दे कर 
गायब होना शुरु हुआ है
बेताल तब तब इसी तरह से बेचैन हुआ है

होता ही है
बेरोजगारी बड़ी ही जान लेवा होती है

सधा हुआ सालों साल का काम बदल दिया जाये
यही सब होता है

सोचने के साथ लिखना हमेशा नहीं होता है
सोच के कुछ लिखा हो
लिखा जैसा हो जरूरी नहीं होता है

कलम आरी भी नहीं होती है
तलवार की तरह की मानी गई है
पर उतनी भारी भी नहीं होती है

लिखना छोड़ दिया जाये
लम्बे अर्से के बाद
कलम उठाने की कोशिश की जाये

समझ में नहीं आ पाती है 
सीधे पन्ने के ऊपर
उसकी इतनी टेढ़ी चाल
आखिर क्यों होती है जानते सब हैं 
इतनी अनाड़ी भी नहीं होती है

रहने दे ‘उलूक’ छोड़ ये सब लफ्फाजी
और कुछ कर चलकर मदद कर

दूर कर बेताल की उलझन मिले उसे भी कुछ काम

कपड़े पहने शरीफों की नंगी आत्माओं को
कपड़े से ढकने का ही सही
लाजवाब काम

जो भी है जैसा भी है काम तो एक काम है
मार्के का सोचा है शुरु करने की देर है

दुकान खुलने की खबर आये ना आये

होना पर पक्का है कुछ ऐसा
जैसा बिकने से पहले ही
सारा का सारा माल साफ हो जाये

विक्रमादित्य करते रहे 
अपने जुगाड़ अपने हिसाब से

बेताल पेड़ पर जा कर 
हमेशा की तरह लटकने की
आदत ना छोड़ पाये

आत्माऐं हों नंगी रहें भी नंगी
कुछ कपड़ों की बात करके ही सही
नंगेपने को पूरा ना भी सही
थोड़ा सा ही कहीं

पर
ढक लिया जाये ।

चित्र साभार: www.wikiwand.com