उलूक टाइम्स

बुधवार, 8 फ़रवरी 2017

आदमी सोचते रहने से आदमी नहीं हुआ जाता है ‘उलूक’

एकदम
अचानक
अनायास
परिपक्व
हो जाते हैं
कुछ मासूम
चेहरे अपने
आस पास के

फूलों के
पौंधों को
गुलाब के
पेड़ में
बदलता
देखना

कुछ देर
के लिये
अचम्भित
जरूर
करता है

जिंदगी
रोज ही
सिखाती
है कुछ
ना कुछ

इतना कुछ
जितना याद
रह ही नहीं
सकता है

फिर कहीं
किसी एक
मोड़ पर
चुभता है
एक और
काँटा

निकाल कर
दूर करना
ही पड़ता है

खून की
एक लाल
बून्द डराती
नहीं है

पीड़ा काँटा
चुभने की
नहीं होती है

आभास
होता है
लगातार
सीखना
जरूरी
होता है

भेदना
शरीर को
हौले हौले
आदत डाल
लेने के लिये

रूह में
कभी करे
कोई घाव
भीतर से
पता चले
कोई रूह
बन कर
बैठ जाये
अन्दर
दीमक
हो जाये

उथले पानी
के शीशों
की
मरीचिकायें
धोखा देती 

ही हैं

आदमी
आदमी
ही है
अपनी
औकात
समझना
जरूरी है
'उलूक'

कल फिर
ठहरेगा
कुछ देर
के लिये
पानी

तालाब में
मिट्टी
बैठ लेगी
दिखने
लगेगें
चाँद तारे
सूरज
सभी
बारिश
होने तक ।

चित्र साभार: Free Clip art

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

आज कुछ टुकड़े पुराने जो पूरे नहीं हो पाये टुकड़े रह गये

(कृपया बकवास को
कवि, कविता और
हिंदी की किसी
विधा से ना जोड़ेंं
और
टुकड़ों को ना जोड़ें,
अभिव्यक्ति कविता से हो
और कवि ही करे
जरूरी नहीं होता है ) 


सोच खोलना
बंद करना भी
आना चाहिये
सरकारी
दायरे में
ज्यादा नहीं भी
कम से कम
कुछ घंटे ही सही
>>>>>>>>>>>>

बेहिसाब
रेत में
बिखरे हुऐ
सवालों को
रौंदते हुऐ
दौड़ने में
कोई बुराई
नहीं है
गलती
सवालों
की है
किसने
कहा था
उनसे उठने
के लिये
बेवजह
बिना सोचे
बिना समझे
बिना जाने
बिना बूझे
और
बिना पूछे
उससे
जिसपर
उठना शुरु
हो चले
>>>>>>

मालूम है
बात को
लम्बा
खींच
देने से
ज्यादा
समझ
में नहीं
आता है

खींचने की
आदत पड़
गई होती
है जिसे
उससे
फिर भी
आदतन
खींचा ही
जाता है
जानता है
ज्ञानी
बहुत अच्छी
तरह से
अपने घर में
बैठे बैठे भी
अपने
आस पास
दूसरों के
घरों के
कटोरों की
मलाई की
फोटो देख
देख कर
अपने फटे
दूध को
नहीं सिला
जाता है
>>>>>>>

कोई नहीं
खोलता है
अपनी खुद
की किताबें
दूसरों
के सामने

खोलनी
भी क्यों हैं
पढ़ाने की
कोशिश
जरूर
करते
हैं लोग
समझाने
के लिये
किताबें
लोगों को

 बहुत सी
किताबें
रखी हुई
दिखती
भी हैं
किताबचियों
के आस पास
कहीं करीने
से लगी हुई
कहीं बिखरी
हुई सी
कहीं धूल
में लिपटी
कहीं साफ
धूप
दिखाई गई
सूखी हुई सी ।

>>>>>>>>>

चित्र साभार: ClipartFest

सोमवार, 30 जनवरी 2017

दो मिनट का मौन सायरन का तीस जनवरी के ग्यारह बजे

रोज के नौ
और
पाँच बजे के
सायरन
के अलावा

आज ग्यारह
और
ग्यारह
बज कर
दो मिनट
पर दो
बार बजे
सायरन के
बीच के
दो मिनट

सायरन
मौन रहा
श्रद्धांजलि
देता रहा
हर वर्ष
की तरह

सड़क पर
दौड़ती
गाड़ियाँ
करती रही
चुनाव प्रचार

बजाती
रही भोंपू
चीखता रहा
भाड़े का
उद्घोषक

श्रद्धा के साथ
अपने गांंधी
का चित्र
लगाये
अपने कोट
के बटन
के बगल में

गांंधी
कभी एक
हुआ होगा
आज कई
हो गये हैं

जीवित
गांंधी का
श्रद्धांजलि
देना
गाँधी को
गाँधियों की
सभा में
ध्वनिमत से
हाथ खड़े
कर पारित
भी नहीं

समय रहते
श्रद्धा के साथ
कर ही लेना
चाहिये अपना
श्राद्ध खुद ही
गया जाकर

शास्त्र
सम्मत है
‘उलूक’
हिचक मत

सायरन
ग्यारह
बजे का
कब तक
इसी
तरह बजेगा

दो मिनट
का मौन
रखते हुऐ
किस गांंधी
के लिये
कौन
जानता है ?

चित्र साभार: www.thehindubusinessline.com

शुक्रवार, 27 जनवरी 2017

बिना झंडे के लोग लावारिस हो रहे हैं

चेहरे
दिखा
करते
थे कभी
आज झंडे
हो रहे हैं

उग रहे
हैं झंडे
बेमौसम
बिना पानी
झंडे ही झंडे
हो रहे हैं

चल रहे हैं
लिये हाथ में
डंडे ही डंडे
कपड़े रंगीले
हरे पीले
गेरुए
हो रहे हैं

धनुष है
ना तीर है
निशाने
सपनों
में लिये
अपने अपने
जगह जगह
गली कोने
अर्जुन
ही अर्जुन
हो रहे हैं

शक्ल
अपनी
आईने में
देखने से
सब के ही
आजकल
परहेज
हो रहे हैं

सच्चाई
सामने
देख कर
क्योंकि
कई क्लेश
हो रहे हैं

उग रहे हैं
रोज झंडे
चेहरों के
ऊपर कई
बस चेहरे
हैं कि
बेनूर हो
रहे हैं

खेत अपने
लिये साथ
में वो हैं
किसान
हो रहे हैं

झंडे लिये
हाथ में
किसी के
खेत में
कोई झंडे
बो रहे हैं

बिना डंडे
बिना झंडे
के बेवकूफ
सो रहे हैं

गली मोहल्ले
में तमाशे
करने वाले
अपनी किस्मत
पे रो रहे हैं

देश के लिये
इक्ट्ठा कर
रहे हैं झंडे
झंडों को
इधर भी
उधर भी

झंडे के
ऊपर भी
झंडे और
नीचे भी
झंडे हो
रहे हैं

इन्सान
की बात
इन्सानियत
की बात
फजूल की
बात है
इन दिनों
‘उलूक’

औकात की
बात कर
बिना झंडे
के लोग
लावारिस
हो रहे हैं ।

चित्र साभार: Canstockphoto.com

बुधवार, 25 जनवरी 2017

बधाई है बधाई है बधाई है बधाई है



गण हैं तंत्र है सिपाही हैं
झंडा है एक है तिरंगा है

आजाद हैं आजादी है
शहनाई हैं देश है जज्बा है सेवा है
मिठाई है मलाई है मेवा है

चुनाव हैं जरूरी हैं लड़ना है मजबूरी है

दल है बल है
कोयला है कोठरी हैं
काजल है धुलाई है
निरमा है सफेद है जल है सफाई है

दावेदारी है दावेदार हैं
कई हैं प्रबल हैं
इधर हैं उधर हैं
इधर से उधर हैं उधर से इधर हैं

खुश हैं खुशी है
शोर है आवाजाही है

चश्मा है लाठी है धोती है
काली है सूची है
नाम लेने की भी मनाही है

सिल्क है अंगूठी है
कलफ है कोठी है
वाह है वाहवाही है

छब्बीस है जनवरी है
सालों से आई है

आती है जाती है
आज फिर से चली आई है

शरम की बात नहीं
बेशर्मी नहीं बेहयाई नहीं
‘उलूक’ की चमड़ी
खुजली वाली है खुजलाई है

कबूतरों की बारात है
देखी कहीं एसी कभी
कौओं की अगुआई है
कौओं ने सजाई है

गण हैं तंत्र है सिपाही हैं
झंडा है बधाई है
बधाई है बधाई है बधाई है ।


चित्र साभार: www.fotosearch.com