उलूक टाइम्स

मंगलवार, 11 जुलाई 2017

अपनी अपनी लकीरें

तुझे अपनी
खींचनी हैं
लकीरें

मुझे अपनी
खींचने दे

मैं भी
आता हूँ
देखने
तेरी लकीरें

तू भी
बिना नागा
आता रहा है

लकीरें
समझने
आता है
कोई या
गिन कर
चला
जाता है
पता नहीं
चलता है

फिर भी
आना जाना
लगा रहता है
क्या कम है

लकीरें
खींचने वाला
आने जाने
वालों की
गिनती से
अपनी लकीरों
को गिनना
शुरु नहीं
 कर देता है

लकीरें खींचना
मजबूरी होती है

लकीरें
सब की होती हैं

कौन किस
लकीर का
किस तरह
से उपयोग
कर ले
जाता है
उसे ही
पता होता है

कान नाक
और आँख
सबकी
एक जैसी
दिखती हैं
पर होती
नहीं हैं

कुछ दिखाना
पसन्द करते हैं
कुछ छिपाना
पसन्द करते हैं

पर खेल
सारा लकीरों
का ही है

तेरी लकीर
मेरी लकीर से
कितनी लम्बी
कितनी सीधी
या ऐसा कुछ भी

अपनी अपनी
लकीरें ले कर
दूसरों की
लकीरों को
तव्वजो
दे लेना
बहुत बड़ी
बात है

लकीरें
समझने
के लिये
होती भी
नहीं हैं

इसीलिये
‘उलूक’
भी लकीरें
पीट रहा
है अपनी

अब किसी
की लकीर
बड़ी हो
जाती है
किसी की
सीधी हो
जाती है

कोई बात
नहीं है
अगली
 लकीर में
 संशोधन
किया जा
सकता है

लकीरबाजों
को ठंड
रखनी भी
जरूरी है ।

चित्र साभार: notimerica.com960

शनिवार, 8 जुलाई 2017

बदचलन होती हैं कुछ कलमें चलन के खिलाफ होती हैं

 
खासों में आम सहमति से होती हैं कुछ खास बातें
कहीं किसी किताब में नहीं होती हैं

चलन में होती हैं कुछ पुरानी चवन्नियाँ और अठन्नियाँ
अपनी खरीददारियाँ अपनी दुकानें अपनी ही बाजार होती है

होती हैं लिखी बातें पुरानी सभी हर बार 
फिर से लिख कर सबमें बाँटनी होती हैं

पढ़ने के लिये नहीं होती हैं कुछ किताबें
छपने छपाने के खर्चे ठिकाने लगाने की रसीद काटनी होती हैं

लिखी  होती हैं किसी के पन्ने में हमेशा कुछ फजूल बातें
कैसे सारी हमेशा ही घर की हवा के खिलाफ होती हैं

कलमें भी बदचलन होती हैं ‘उलूक’
नियत भी किसी की खराब होती है ।

चित्र साभार: 123RF.com

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

श्रद्धांजलि कमल जोशी

आप भी
शायद नहीं
जानते होंगे
कमल जोशी 
को

मैं भी नहीं
जानता हूँ

बस उसकी
और
उसकी तस्वीरों
से कभी कभी
मुठभेड़ हुई है

कोई खबर
ले कर
नहीं आया हूँ
बस लिख
रहा हूँ

खबर
मिली है
वो अब
नहीं है
क्यों नहीं है
पता नहीं है

सुना गया है
लटके मिले हैं
लटके या
लटकाया गया
पता नहीं है

सुना है
समाज के लिये
बहुत सोचते थे
किस समाज
के लिये
मुझे पता नहीं है


मेरी दिली
इच्छा थी
ऐसी कई
फजूल
इच्छायें
होती हैं

उसको
जानने की

बस इतना
पता करना था
उसका समाज
और मेरा समाज
एक ही है
या कुछ अलहदा

बातें हैं

बहुत
से लोग
मरते हैं
घर में
मोहल्ले में
शहर में
और
समाज में

घर से
मोहल्ले से
समाज तक
पहुँचने से
पहले
भटक जाना
अच्छी बात
नहीं होती है

उसके
अन्दर भी
कोई
आग होगी

ऐसा मैंने
नहीं कहा है
लोग
कह रहे हैं

अन्दर की
नमी में
आग भी
शरमा कर
बहुत बार
खुद ही
बुझ लेती है

सब में
इतनी हिम्मत
कहाँ होती है

अब हिम्मत
उसकी
खुद की थी
या समाज की
खोज का
विषय है

तुम्हारे मरने
के बाद
पता चला कि
तुम भी
रसायन विज्ञान
के विद्यार्थी रहे थे

तुम्हारे अन्दर
क्या चल रहा था

लोग तुम्हारे
जाने के बाद
कयास
लगा रहे हैं

‘उलूक’ की
श्रद्धांजलि
तुम्हें भी
और उस
समाज के
लिये भी
जो तुम्हें
रोक भी
नहीं सका ।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

चिट्ठाकार चिट्ठाकारी चिट्ठे और उनका अपना दिन एक जुलाई आईये अपनी अपनी मनायें


चिट्ठा 
रोज भी लिखा जाता है 

चिट्ठा 
रोज 
नहीं भी लिखा जाता है 

इतना कुछ
होता है आसपास 

एक के नीचे 
तीन 
छुपा ले जाता है 

मजबूरी है 
अखबार की भी 

सब कुछ 
सुबह लाकर 
नहीं बता पाता है 

लिखना लिखाना 
पढ़ना पढ़ाना 
एक साथ एक जगह 
होता 
देखा जाता है 

चिट्ठाकारी 
सबसे बड़ी है 
कलाकारी 

हर कलाकार 
के 
पास होता है 
पर्दा खुद का 

खुद ही खोला 
खुद ही 
गिराया जाता है 

खुद छाप लेता है 
रात को 
अखबार अपना 

सुबह 
खुद ही पढ़ने 
बिना नागा 
आया जाता है 

अपनी खबर 
आसानी से छपने की 
खबर मिलती है 

कितने लोग 
किस खबर 
को
ढूँढने 

कब निकलते है

बस यही अंदाज 
यहाँ
नहीं लगाया 
जाता है 

जो भी है 
बस लाजवाब है 
चिट्ठों की दुनियाँ

‘उलूक’ 
अपनी लिखी किताब
खुद बाँचना

यहाँ के अलावा 
कहीं और
नहीं 
सिखाया जाता है । 

“ हैप्पी ब्लॉगिंग” 

चित्र साभार: Dreamstime.com

शुक्रवार, 30 जून 2017

बुरा हैड अच्छा टेल अच्छा हैड बुरा टेल अपने अपने सिक्कों के अपने अपने खेल

           
              चिट्ठाकार दिवस की शुभकामनाएं ।


आधा
पूरा 
हो चुके 


साल
के 
अंतिम दिन 

यानि

ठीक 
बीच में 

ना इधर 
ना उधर 

सन्तुलन 
बनाते हुऐ 

कोशिश 
जारी है 

बात
को 
खींच तान 
कर

लम्बा 
कर ले 
जाने
की 

हमेशा 
की
तरह 

आदतन 

मानकर

अच्छी
और 
संतुलित सोच 
के
लोगों को 

छेड़ने
के लिये 
बहुत जरूरी है 

थोड़ी सी 
हिम्मत कर 

फैला देना 
उस
सोच को 

जिसपर 

निकल
कर 
आ जायें 

उन बातों 
के
पर 

जिनका 
असलियत 
से

कभी 
भी कोई 
दूर दूर 
तक
का 
नाता रिश्ता 
नहीं हो 

बस

सोच 
उड़ती हुई 
दिखे 

और 
लोग दिखें 

दूर 
आसमान 
में कहीं 

अपनी
नजरें 
गढ़ाये हुऐ 

अच्छी
उड़ती हुई
इसी 
चीज पर 

बंद
मुखौटों 
के
पीछे से 

गरदन तक 
भरी

सही 
सोच को 

सामने लाने 
के
लिये ही

बहुत
जरूरी है 

गलत
सोच के 

मुद्दे

सामने 
ले कर
आना 

डुगडुगी
बजाना 

बेशर्मी के साथ 

शरम
का 
लिहाज 
करने वाले 

कभी कभी 

बमुश्किल 
निकल कर 
आते हैं
खुले में

उलूक’ 

सौ सुनारी 
गलत बातों
पर 

अपनी अच्छी 
सोच
की 

लुहारी
चोट 
मारने
के
लिये।