उलूक टाइम्स

शनिवार, 9 सितंबर 2017

किस बात की शर्म जमावड़े में शरीफों के शरीफों के नजर आने में



किस लिये चौंकना मक्खियों के मधुमक्खी हो जाने में
सीखना जरूरी है बहुत कलाकारी कलाकारों से उन्हीं के पैमानों में

किताबें ही किसलिये दिखें हाथ में पढ़ने वालों के
जरूरी नहीं है नशा बिकना बस केवल मयखाने में

शहर में हो रही गुफ्तगू पर कान देने से क्या फायदा
बैठ कर देखा किया कर घर पर ही हो रहे मुजरे जमाने में

दुश्मनों की दुआयें साथ लेना जरूरी है बहुत
दोस्त मशगूल हों जिस समय हवा बदलवाने की निविदा खुलवाने में

‘उलूक’ सिरफिरों को बात बुरी लगती है
शरीफों की भीड़ लगी होती है जिस बात को शरीफों को शराफत से समझाने में ।

चित्र साभार: Prayer A to Z

बुधवार, 6 सितंबर 2017

आभार गौरी लंकेश जानवरों के लिये मरने के लिये

बहुत परेशान
रहते हैं लोग
जो चिट्ठाकारी
नहीं समझते हैं

लेकिन चिट्ठा
लेखन
करने वाले
पर मिलकर
बहस करते हैं

पड़ोसी का
खरीदा हुआ
अखबार माँग
कर पढ़ने
वाले लोग
महीने के
सौ दो सो
बचा कर
बहुत कुछ
बाँचने का
दावा करते हैं

शहर के लोग
ना चिट्ठी
जानते हैं
ना चिट्ठों से ही
उनका कोई
लेना देना है

उनकी
परेशानी है
अखबार में
आने से
रोक दी
जा रही
खबरों से
जो कहीं कहीं
चिट्ठों में कुछ
गैर सरकारी
लोग लिख
ले जाते हैं
गौरी लंकेश
हो जाते हैं
गोली खाते हैं
मर जाते हैं

गौरी लंकेश
एक बहाना है
लोग रोज
मर रहे हैं
लिखने
वाले नहीं
वो लोग
जिनको पता है
वो क्या कर रहे हैं

शहर छोड़िये
पूरे राज्य में
कितने
चिट्ठाकार हैं
जरा गिनिये
जरूरी है
आप लोगों
के लिये गिनना

कल
कितने लोगों
को गोली
खानी है
कितने लोगों
ने मरना है

कितने
लोगों को
बस यूँ ही
किसी झाड़
झंकार के
पीछे मरी हुई
एक लाश हो
कर तरना है

कितनों
के नाम
मजबूरी में
अखबार में
छापे जायेंगे

‘उलूक’
‘गौरी लंकेश’
हो जाना
सौभाग्य की
बात है
तुझे पता है
सारे पूँछ
कटे कुत्ते
पूँछ कटे
कुत्ते के
पीछे ही
 जाकर
अपनी
कटी पूँँछ
बाद में
छुपायेंगे।

चित्र साभार: Asianet Newsable

सोमवार, 4 सितंबर 2017

रोज के रास्ते से रोज का आना रोज का जाना बीच में टपके उत्सव की शुभकामना

अपनी
ही गलियाँ
रोज का आना
रोज का जाना
दीवारों से दोस्ती
सीढ़ियों का
जूतों को
अपनाना

पहचाने हुऐ से
केलों के कुछ
शरमाते हुए से
जमीन पर
गिरे छिलकों
का याद दिलाना
बचपन के स्कूल
के श्यामपट पर
लिखा हुआ बनाना

नाली में फंसे
पॉलीथिन के
अवशेषों से
टकरा कर
फौव्वारे पर
एक इंद्रधनुष
का बन जाना

आदत में
शामिल हो
चुकी सीवर
की महक का
भीनी भीनी सी
सुगन्ध हो जाना

महीने भर से
चल रहे
गली के छोर
पर गणेशोत्सव
के ऊँची आवाज
में सुबह उठाते
रात को जगाते
सुरीले भजनो
का लोरी हो जाना

आस्था के
सैलाब से
ओतप्रोत
बिना हवा चले
झूमते पेड़ पौंधे
जैसे मयखाने से
अभी निकल कर
आया हो दीवाना

मूल्यों की
टोकरियों के
बोझ उठाये
टीका लगाये
झंडा बरदारों
का नजरोंं
नजरों में
नागरिकता
समझाना

व्यवहार
नमस्कार
बदलती
आबोहवा में
बहुत खुश
नहीं भी हों
जरूरी है दिखाना

जमाने की रस्में
कम से कम
अपने ही
कर्मोत्सव के दिन
‘उलूक’ की
सिक्का खड़ा
कर हैड टेल
करने की फितूरों
से ध्यान हटाना

झंडे वालों को
झंडे वालों की
बिना झंडे
वालों को
बिना झंडे
वालों की
मिलें इस
दिवस की
शुभकामना।

गुरुवार, 31 अगस्त 2017

कभी तो छोड़ दिया कर ‘उलूक’ हवा हवा में हवा बना कर हवा दे जाना




किसी की मजबूरी होती है
अन्दर की बात लाकर
बाहर के अंधों को दिखाना
बहरों को सुनाना

और
बेजुबानों को
बात को बार बार कई बार
बोलने बतियाने के लिये
उकसाना

सबके बस में भी
नहीं होती है

झोले में कौए रख कर
रोज की कबूतर बाजी

हर कोई नहीं कर सकता है

भागते हुऐ शब्दों को
लंगोट पहना पहना कर
मैदान में दौड़ा ले जाना

कुछ कलाकार होते हैं
माहिर होते हैं

जानते हैं शब्दों को बाँध कर
उल्लू की भाँति
अंधेरे आकाश में
बिना लालटेन बांधे
उड़ा ले जाना

सुना है
कहीं किसी हकीम लुकमान ने
अपने बिना लिखे नुस्खे
में कहा है

अच्छा नहीं होता है
पत्थरों पर 
कुछ भी लिख लिखा कर
 सबूत दे जाना

देख सुन कर तो
कभी किसी दिन
समझ लिया कर
‘उलूक’

अन्दर की बात का
बाहर निकलते निकलते
हवा हवा में हवा होकर
हवा हो जाना।

चित्र साभार: www.clker.com

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

राम और रहीम को एक साथ श्रद्धाँजलि देने का इस से अच्छा मौका कब और कहाँ मिल पाता है

जब भी
शुरु किया
जाता है
सोचना
कुछ
लिखने
के लिये
सोच बन्द
हो जाती है
कुछ लिखा
ही नहीं जाता है


आँख कान नाक
बन्द किये हुऐ
गाँधी के
बन्दरों का चेहरा
सामने से चिढ़ाता
हुआ नजर आता है

दुकान खोलने
के बाद कुछ
बिके ना बिके
बेचने की
कोशिश करना
दुकानदार की
मजबूरी हो जाता है

ग्राहक
इस बाजार में
वैसे भी बहुत
कम होते हैं

सोच खरीदने
बेचने वाले कुछ
दुकानदारों को
तरस आ जाता है

बहुत कुछ
हुआ होता है
बड़ा और
बहुत बड़ा

लिखने की
सोचते उसी
बड़े पर
किस्मत खराब
के सामने से
ही घर के
बड़े उस हुऐ का
छोटा भाई
दिखाई खड़ा
दे जाता है

बाद में
लिखना चाहिये
सोच कर
लिखने वाला
लिखना छोड़ कर
सड़क पर
निकल चला
जाता है

हर तीसरा
दिखता है
बड़े की सोच
के समर्थन
का झंडा
उठाये हुऐ

पर पता नहीं
क्यों इस बार
चुपचाप
मूँगफली छीलते
छिक्कल खाते हुऐ

दाने सड़क पर
फेंकता हुआ
पाया जाता है

साँप सूँघना
साँपों का
किसी ने सुना
हो या ना सुना हो

अपने पाले
साँप को
सजाये जिंदगी
हो जाने से
पिता ही नहीं
पूरे कुनबे का
गला सूख
जाता है
उनसे कुछ
नहीं कहा
जाता है

साँप को हो
जाती है सजा

‘उलूक’
नोचता है
बाल अपने
ही सर के
पिता साँप का
जब तुरन्त ही
साँप के सँपोले
को पालने की
जुगत लगाना
शुरु हो जाता है ।

चित्र साभार: Republic World