उलूक टाइम्स

शनिवार, 8 जुलाई 2017

बदचलन होती हैं कुछ कलमें चलन के खिलाफ होती हैं

 
खासों में आम सहमति से होती हैं कुछ खास बातें
कहीं किसी किताब में नहीं होती हैं

चलन में होती हैं कुछ पुरानी चवन्नियाँ और अठन्नियाँ
अपनी खरीददारियाँ अपनी दुकानें अपनी ही बाजार होती है

होती हैं लिखी बातें पुरानी सभी हर बार 
फिर से लिख कर सबमें बाँटनी होती हैं

पढ़ने के लिये नहीं होती हैं कुछ किताबें
छपने छपाने के खर्चे ठिकाने लगाने की रसीद काटनी होती हैं

लिखी  होती हैं किसी के पन्ने में हमेशा कुछ फजूल बातें
कैसे सारी हमेशा ही घर की हवा के खिलाफ होती हैं

कलमें भी बदचलन होती हैं ‘उलूक’
नियत भी किसी की खराब होती है ।

चित्र साभार: 123RF.com

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

श्रद्धांजलि कमल जोशी

आप भी
शायद नहीं
जानते होंगे
कमल जोशी 
को

मैं भी नहीं
जानता हूँ

बस उसकी
और
उसकी तस्वीरों
से कभी कभी
मुठभेड़ हुई है

कोई खबर
ले कर
नहीं आया हूँ
बस लिख
रहा हूँ

खबर
मिली है
वो अब
नहीं है
क्यों नहीं है
पता नहीं है

सुना गया है
लटके मिले हैं
लटके या
लटकाया गया
पता नहीं है

सुना है
समाज के लिये
बहुत सोचते थे
किस समाज
के लिये
मुझे पता नहीं है


मेरी दिली
इच्छा थी
ऐसी कई
फजूल
इच्छायें
होती हैं

उसको
जानने की

बस इतना
पता करना था
उसका समाज
और मेरा समाज
एक ही है
या कुछ अलहदा

बातें हैं

बहुत
से लोग
मरते हैं
घर में
मोहल्ले में
शहर में
और
समाज में

घर से
मोहल्ले से
समाज तक
पहुँचने से
पहले
भटक जाना
अच्छी बात
नहीं होती है

उसके
अन्दर भी
कोई
आग होगी

ऐसा मैंने
नहीं कहा है
लोग
कह रहे हैं

अन्दर की
नमी में
आग भी
शरमा कर
बहुत बार
खुद ही
बुझ लेती है

सब में
इतनी हिम्मत
कहाँ होती है

अब हिम्मत
उसकी
खुद की थी
या समाज की
खोज का
विषय है

तुम्हारे मरने
के बाद
पता चला कि
तुम भी
रसायन विज्ञान
के विद्यार्थी रहे थे

तुम्हारे अन्दर
क्या चल रहा था

लोग तुम्हारे
जाने के बाद
कयास
लगा रहे हैं

‘उलूक’ की
श्रद्धांजलि
तुम्हें भी
और उस
समाज के
लिये भी
जो तुम्हें
रोक भी
नहीं सका ।

शनिवार, 1 जुलाई 2017

चिट्ठाकार चिट्ठाकारी चिट्ठे और उनका अपना दिन एक जुलाई आईये अपनी अपनी मनायें


चिट्ठा 
रोज भी लिखा जाता है 

चिट्ठा 
रोज 
नहीं भी लिखा जाता है 

इतना कुछ
होता है आसपास 

एक के नीचे 
तीन 
छुपा ले जाता है 

मजबूरी है 
अखबार की भी 

सब कुछ 
सुबह लाकर 
नहीं बता पाता है 

लिखना लिखाना 
पढ़ना पढ़ाना 
एक साथ एक जगह 
होता 
देखा जाता है 

चिट्ठाकारी 
सबसे बड़ी है 
कलाकारी 

हर कलाकार 
के 
पास होता है 
पर्दा खुद का 

खुद ही खोला 
खुद ही 
गिराया जाता है 

खुद छाप लेता है 
रात को 
अखबार अपना 

सुबह 
खुद ही पढ़ने 
बिना नागा 
आया जाता है 

अपनी खबर 
आसानी से छपने की 
खबर मिलती है 

कितने लोग 
किस खबर 
को
ढूँढने 

कब निकलते है

बस यही अंदाज 
यहाँ
नहीं लगाया 
जाता है 

जो भी है 
बस लाजवाब है 
चिट्ठों की दुनियाँ

‘उलूक’ 
अपनी लिखी किताब
खुद बाँचना

यहाँ के अलावा 
कहीं और
नहीं 
सिखाया जाता है । 

“ हैप्पी ब्लॉगिंग” 

चित्र साभार: Dreamstime.com

शुक्रवार, 30 जून 2017

बुरा हैड अच्छा टेल अच्छा हैड बुरा टेल अपने अपने सिक्कों के अपने अपने खेल

           
              चिट्ठाकार दिवस की शुभकामनाएं ।


आधा
पूरा 
हो चुके 


साल
के 
अंतिम दिन 

यानि

ठीक 
बीच में 

ना इधर 
ना उधर 

सन्तुलन 
बनाते हुऐ 

कोशिश 
जारी है 

बात
को 
खींच तान 
कर

लम्बा 
कर ले 
जाने
की 

हमेशा 
की
तरह 

आदतन 

मानकर

अच्छी
और 
संतुलित सोच 
के
लोगों को 

छेड़ने
के लिये 
बहुत जरूरी है 

थोड़ी सी 
हिम्मत कर 

फैला देना 
उस
सोच को 

जिसपर 

निकल
कर 
आ जायें 

उन बातों 
के
पर 

जिनका 
असलियत 
से

कभी 
भी कोई 
दूर दूर 
तक
का 
नाता रिश्ता 
नहीं हो 

बस

सोच 
उड़ती हुई 
दिखे 

और 
लोग दिखें 

दूर 
आसमान 
में कहीं 

अपनी
नजरें 
गढ़ाये हुऐ 

अच्छी
उड़ती हुई
इसी 
चीज पर 

बंद
मुखौटों 
के
पीछे से 

गरदन तक 
भरी

सही 
सोच को 

सामने लाने 
के
लिये ही

बहुत
जरूरी है 

गलत
सोच के 

मुद्दे

सामने 
ले कर
आना 

डुगडुगी
बजाना 

बेशर्मी के साथ 

शरम
का 
लिहाज 
करने वाले 

कभी कभी 

बमुश्किल 
निकल कर 
आते हैं
खुले में

उलूक’ 

सौ सुनारी 
गलत बातों
पर 

अपनी अच्छी 
सोच
की 

लुहारी
चोट 
मारने
के
लिये।

मंगलवार, 27 जून 2017

पुराना लिखा मिटाने के लिये नया लिखा दिखाना जरूरी होता है

लगातार
कई बरसों तक
सोये हुऐ पन्नों पर
नींद लिखते रहने से
 शब्दों में उकेरे हुऐ
सपने उभर कर
नहीं आ जाते हैं

ना नींद
लिखी जाती है
ना पन्ने उठ
पाते हैं नींद से

खुली आँख से
आँखें फाड़ कर
देखते देखते
आदत पढ़ जाती है
नहीं देखने की
वो सब
जो बहुत
साफ साफ
दिखाई देता है

खेल के नियम
खेल से ज्यादा
महत्वपूर्ण होते हैं

नदी के किनारे से
चलते समय के
आभास अलग होते हैं

बीच धारा में पहुँच कर
अन्दाज हो जाता है

चप्पू नदी के
हिसाब से चलाने से
नावें डूब जाती हैं

बात रखनी
पड़ती है
सहयात्रियों की

और
सोच लेना होता है
नदी सड़क है
नाव बैलगाड़ी 
है 
और
यही जीवन है

किताबों में
लिखी इबारतें
जब नजरों से
छुपाना शुरु
कर दें उसके
अर्थों को

समझ लेना
जरूरी हो
जाता है

मोक्ष पाने
के रास्ते का
द्वार कहीं
आसपास है

रोज लिखने
की आदत
सबसे
अच्छी होती है

कोई ज्यादा
ध्यान नहीं
देता है
मानकर कि
लिखता है
रहने दिया जाये

कभी कभी
लिखने से
मील के पत्थर
जैसे गड़ जाते हैं

सफेद पन्ने
काली लकीरें
पोते हुऐ जैसे
उनींदे से

ना खुद
सो पाते हैं
ना सोने देते हैं

‘उलूक’
बड़बड़ाते
रहना अच्छा है

बीच बीच में
चुप हो जाने से
मतलब समझ में
आने लगता है
कहे गये का
होशियार लोगों को

पन्नो को नींद
आनी जरूरी है
लिखे हुऐ को भी
और लिखने वाले
का सो जाना
सोने में सुहागा होता है ।

चित्र साभार: Science ABC

गुरुवार, 22 जून 2017

हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी सबसे अलग होती है ये बहुत ही साफ बात है

हिन्दी में
लिखना
अलग बात है

हिन्दी
लिखना
अलग बात है

हिन्दी
पढ़ लेना
अलग बात है

हिन्दी
समझ लेना
अलग बात है

हिन्दी
भाषा का
अलग प्रश्न
पत्र होता है

साहित्यिक
हिन्दी
अलग बात है

हिन्दी
क्षेत्र की
क्षेत्रीय भाषायें

हिन्दी
पढ़ने
समझने
वाले ही

समझ
सकते हैं
समझा
सकते हैं

ये सबसे
महत्वपूर्ण

समझने
वाली बात है

हिन्दी बोलने
लिखने वाले
हिन्दी में लिख
सकते हैं

किस लिये
हिन्दी में
लिख रहे हैं

हिन्दी
की डिग्री
रखे हुऐ
लोग ही
पूछ सकते हैं

हिन्दी
के भी कभी
अच्छे दिन
आ सकते हैं

कब आयेंगे
ये तो बस
हिन्दी की
डिग्री लिये
हुऐ लोग ही
बता सकते हैं

भूगोल
से पास
किये लोग

कैसे
हिन्दी की
कविता बना
सकते है

कानून
बनना
बहुत जरूरी है

कौन सी
हिन्दी

कौन
कौन लोग
खा सकते हैं
पचा सकते हैं

नेताओं की
हिन्दी अलग
हिन्दी होती है

कानूनी
हिन्दी
समझने की
अलग ही
किताब होती है

‘उलूक’
तू किस लिये
सर फोड़ रहा है
हिन्दी के पीछे

तेरी हिन्दी
समझने वाले
हैं तो सही

कुछ तेरे
अपने ही हैं

कुछ
तेरे ही हैं
आस पास हैं

और
बाकी
बचे कुछ
क्या हुआ

अगर बस
आठ पास हैं

हिन्दी को
बचा सकते हैं
जो लोग

वो
बहुत
खास हैं
खास खास हैं।


चित्र साभार: Pixabay

सोमवार, 19 जून 2017

बे सिर पैर की उड़ाते उड़ाते यूँ ही कुछ उड़ाने का नशा हो जाता है

सबके पास
होती हैं
कहानियाँ
कुछ पूरी
कुछ अधूरी

अपंग
कहानियाँ
दबी होती है
पूरी कहानियोँ
के ढेर के नीचे

कलेजा
बड़ा होना
जरूरी
होता है
हनुमान जी
की तरह
चीर कर
दिखाने
के लिये

आँखे
सबकी
देखती हैं
छाँट छाँट
कर कतरने
कहानियोँ
के ढेर
में अपने
इसके उसके

कुछ
कहानियाँ
पैदा होती हैं
खुद ही
लकुआग्रस्त

नहीं चाहती हैं
शामिल होना
कहानियों
के ढेर में
संकोचवश

इच्छायें
आशायें
रंगीन
नहीं भी सही
काली नहीं
होना चाहती हैं

अच्छा होता है
धो पोछ कर
पेश कर देना
कहानियोँ को
कतरने बिखेरते
हुऐ सारी
इधर उधर

कहानियों की
भीड़ में छुपी
लंगडी
कहानियाँ
दिखायी ही
नहीं देती
के बहाने से
अपंंग
कहानियों से
किनारा करना
आसान हो जाता है

‘उलूक’
कहानियों
के ढेर से
एक लंगड़ी
कहानी
उठा कर
दिखाने वाला
जानता है

कहानियाँ
बेचने वाला
ऐसे हर
समय में

दूसरी तरफ
की गली से
होता हुआ
किसी और
मोहल्ले की ओर
निकल जाता है।

चित्र साभार: https://es.123rf.com

शनिवार, 17 जून 2017

अट्ठाईस लाख का घपला पुराना हो भी अगर घर का ‘उलूक’ किस लिये बिना सबूत नया नया रो रहा होता है

सोच कर
लिखे गये
कुछ को
पढ़ कर
कोई 
कुछ भी
सोच रहा
होता है

लिखे हुऐ पर
लिखने वाला
समय 
नहीं
लिख
 रहा
होता है 


किसे
पता होता है
सोचने से
लिखने तक
पहुँच लेने में
कितना समय
लग रहा होता है

होने का क्या है
हो चुका कुछ
आज ही नहीं
हो रहा होता है

पता हेी
नहीं होता है
बहुत बार
पहले भी
कुछ कुछ
ऐसा ही
कई बार
हो रहा
होता है

सोच कर
लिखना
कई बार
लगता है
सच में बहुत
बुरा हो
रहा होता है

अपने शहर
की बात
अपने शहर
के लोगों से
करना ठीक
नहीं हो
रहा होता है

खून हो
रहा होता है
किसी के
हाथों से
खुले आम
हो रहा
होता है
अपना ही
कोई कर
रहा होता है
कोई कुछ भी
नहीं कहीं
कह रहा
होता है

मरने वाले
शहर में
रोज ही मर
रहे होते हैं
एक दो
बाजार में
अगले दिन
दिखने वाला
उसके जैसे
कोई भी
भूत नहीं
हो रहा
होता है

लिखना बेवफाई
बेवफाओं के देश में

इस से बढ़ कर
बड़ा गुनाह
कोई नहीं
 हो रहा होता है

हिस्सेदारी में
नहीं लगे
लोगों को
कहने का
कोई
हक नहीं
हो रहा होता है

लुटेरे सफेदपोशों
की लूट का हिस्सा
उनके अपनों में
बट रहा होता है

रविश को भी
मिल रही
हैं गालियाँ
लोकतंत्र का
सबूत बन रही हैं
गाँधी भेी
गालियाँ
खा रहा है
इससे अच्छा
कुछ भी कहीं
नहीं हो
रहा होता है

 ‘उलूक’
बहुत ही गंदी
आदत होती है
तेरे जैसे
कहने वालों की
बहुत सा
बहुत अच्छा
रोज ही जब
अखबारों में
रोज ही हो
रहा होता है ।

चित्रसा भार: Credit Union Times

रविवार, 11 जून 2017

सीखिये नस दबाना और पाइये जवाब क्यों दिखता है सफेद कौए का काले कौए के सर के ऊपर हाथ

कृष्ण अर्जुन
उपदेश
और गीता
आज भी हैं
 बस गीता
किताब
नहीं रही
अखबार
हो गई है

बुद्धिजीवियों
के ऊपर बैठा
हुआ कौआ
का का करता है

कौए को
कृष्ण की
नस का
पता रहता है

अखबार
गीता है
और उसपर
छपी खबर
श्लोक होती है

जिनको नहीं
पता है वो
समझ लें
और
हनुमान
चालीसा पढ़ना
छोड़ कर
रोज सुबह का
अखबार बाँच लें

चोरी करें
डाका डालें
कुर्सी में
बैठने के लिये

ऊपर कहीं
दूर से दबाव
डलवालें

वहाँ भी कृष्ण हैं
गीता बाँचते हैं
खबर बहुत
जरूरी होती है
नस दबाने
के बाद ही
सीढ़ी पूरी
होती है

सफेद कौआ
काले कौए की
वकालत करता
नजर आता है

अखबार कौए
के रंग की बात
पता नहीं क्यों
खा जाता है

नस दबाना
अब किसी
और जगह
सिखाया
जाने वाला है

जगह नहीं
मिल रही है
कहीं भेी
अभी तक
ये अलग
बात है
और
छोटा सा
बबाला
आने वाला है

समय बहुत
अच्छा है
बस नस
दबा कर
कुछ भी
कहीं भी
कैसा भी
काम किसी
से भी करवाना

आधार कार्ड
के साथ
हो जाने
वाला है

ठंड रखना
जरूरी है

फर्जी की
तरक्की का
सरकारी आदेश
जल्दी ही
आने वाला है

‘उलूक’
अखबार
सरकार
और फर्जी
मत सोच

आराम से
किसी भी
ईमानदार
की
ईमानदारी
 की
नींव खोद ।

चित्र साभार: Dreamstime.com

शुक्रवार, 9 जून 2017

अपना देखना खुद को अपने ही जैसा दिखाई देता है

बहुत लिखता है
आसपास रहता है
अलग बात है
लिखता हुआ
कहीं भी नहीं
दिखाई देता है

दिखता है तो
बस उसका
लिखा हुआ ही
दिखाई देता है

क्या होता है
अगर उसके
लिखे हुऐ में
कहीं भी
वो सब नहीं
दिखाई देता है

जो तुझे भी
उतना ही
दिखाई देता है
जितना सभी को
दिखाई देता है

आँखे आँखों में
देख कर नहीं
बता सकती
हैं किसी की
उसे क्या
दिखाई देता है

लिखता बहुत
लाजवाब है
लिखने वाला

हर कोई खुल
कर देता है
बधाई पर
बधाई देता है

बहुत
दूर होता है

फिर भी पढ़ने
वाले को जैसे
लिखे लिखाये में
अपने एक नहीं
हजारों आवाज
देता हुआ
सुनाई देता है

बहुत छपता है
पहले पन्ने को
खोलने का जश्न
हर बार होता है

भीड़ जुटती है
चेहरे के पीछे
के चेहरों को
गिना जाता है
बहुत आसानी से

अखबारों के
पन्नों में छपी
तस्वीरों पर
खबर का मौजू
देखते ही
समझ में
आ जाता है

होगा जरूर
कहीं ना कहीं
खबर में चर्चे में

बस चार लाईन
पढ़ते ही पहले
उसका ही नाम
खासो आम जैसा
दिखाई देता है

अपने देखने से
मतलब रखना
चाहिये ‘उलूक’

जरूरी नहीं
होता है हर
किसी को
खून का रंग
लाल ही
दिखाई देता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com/categories/seeing-clipart

शुक्रवार, 2 जून 2017

चोर चोर चिल्लाना शगुन होता है फुसफुसाना ठीक नहीं माना जाता है

महीना
बदलने से

किसने
कह दिया

लिखना

बदल
जाता है

एक
महीने में
पढ़ लिख
कर

कहाँ
कुछ नया
सीखा
जाता है

खुशफहमी
हर बार ही

बदलती है
गलतफहमी में

जब भी
एक पुराना
जाता है

और
कोई नया
आता है

कोई तो
बात होती
ही होगी

फर्जियों में

फर्जियों का
पुराना खाता

बिना
आवेदन किये

अपने आप
नया हो
जाता है

कान से
होकर
कान तक
फिसलती
चलती है

फर्जीपने के
हिसाब की
किताबें

फर्जियों
की फर्जी
खबर पर

सीधे सीधे
कुछ
कह देना

बदतमीजी
माना जाता है

बाक्स
आफिस
पर

उछालनी
होती है
फिलम
अगर

बहुत
पुराना
नुस्खा है

और
आज भी
अचूक
माना
जाता है

हीरो के
हाथ में
साफ साफ

मेरा बाप
चोर है

काले
रंग में
सजा के
लिखा
जाता है

‘उलूक’
चिड़ियों की
खबरों में भी

कभी ध्यान
लगाता

थोड़ा
सा भी  अगर

अब तक
समझ चुका
होता
शायद

तोते को
कितना भी
सिखा लो

चोर चोर
चिल्लाना

चोरों के
मोहल्ले में तो

इसी
बात को

कुर्सी में
बैठने का
शगुन माना
जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Panda

सोमवार, 29 मई 2017

बहुत तेजी से बदल रहा है इसलिये कहीं नहीं मिल रहा है

सुना है
बहुत कुछ
बहुत तेजी से
बदल रहा है

पुराना
कुछ भी
कहीं भी
नहीं चल
रहा है

जितना भी है
जो कुछ भी है
सभी कुछ
खुद बा खुद
नया नया
निकल रहा है

लिखना नहीं
सीख पाया
है बेवकूफ
तब से अब तक

लिखते लिखते
अब तक
लिखता
चल रहा है

बेशरम है
फिर से
लिख रहा है

कब तक
लिखेगा
क्या क्या
लिखेगा
कितना
लिखेगा
कुछ भी
पता नहीं
चल रहा 
है

पुराना
लिखा सब
डायरी से
बिखर कर

इधर
और उधर
गिरता हुआ
सब मिल
रहा है

गली
मोहल्ले
शहर में
बदनाम
चल रहा है

बहुत दूर
कहीं बहुत
बड़ा मगर
नाम चल
रहा है

सीखना
जरूरी
हो रहा है

लिख कर
बहुत दूर
भेज देना

गली
में लिखा
गली में

शहर
में लिखा
शहर में

बिना मौत
बस कुछ
यूँ ही
मर रहा है

लत लग
चुकी है
‘उलूक’ को

बाल की खाल
निकालने की

बाल मिल
रहा है मगर

खाल
पहले से
खुद की
खुद ही
निकाला हुआ
मिल रहा है ।

चित्र साभार: Inspirations for Living - blogger

बुधवार, 24 मई 2017

कोशिश करें लिखें भेड़िये अपने अपने अन्दर के थोड़े थोड़े लिखना आता है सब को सब आता है

कुछ
कहने का

कुछ
लिखने का

कुछ
दिखने का

मन
किसका
नहीं होता है

सब
चाहते हैं
अपनी बात
को कहना

सब
चाहते हैं
अपनी
बात को
कह कर

प्रसिद्धि
के शिखर
तक पहुँच
कर उसे छूना

लिखना

सब
को आता है

कहना

सब
को आता है

लिखने
के लिये

हर कोई
आता है

अपनी बात

हर कोई
चाहता है

शुरु करने
से पहले ही

सब कुछ सारा

बस

मन की बात
जैसा कुछ
हो जाता है

ऐसा हो जाना
कुछ अजूबा
नहीं होता है

नंगा
हो जाना
हर किसी को

आसानी
से कहाँ
आ पाता है

सालों
निकल
जाते हैं

कई सालों
के बाद
जाकर

कहीं से
कोई निकल
कर सामने
आता है

कविता
किस्सागोई

भाषा की
सीमाओं
को बांधना

भाषाविधों
को आता है

कौन रोक
सकता है
पागलों को

उनको
नियमों
में बाँधना
किसी को
कहाँ
आता है

पागल
होते हैं
ज्यादातर
कहने वाले

मौका
किसको
कितना
मिलता है

किस
पागल को

कौन पागल
लाईन में
आगे ले
जाता है

‘उलूक’
लाईन मत
गिना कर

पागल मत
गिना कर

बस हिंदी
देखा कर

विद्वान
देख कर
लाईन में
लगा
ले जाना

बातों की
बात में
हमेशा ही
देखा
जाता है ।

चित्र साभार:

शनिवार, 20 मई 2017

खाली पन्ने और मीनोपोज

लोग
खुद के
बारे में
खुद को
बता रहे
हों कहीं

जोर जोर से
बोलकर
लिखकर
बड़े बड़े
वाक्यों में
बड़े से
श्याम पट पर
सफेद चौक
की बहुत लम्बी
लम्बी सीकों से

लोग
देख रहे हों
बड़े लोगों के
बड़े बड़े
लिखे हुऐ को
श्याम पट
की लम्बाई
चौड़ाई को
चौक की
सफेदी के
उजलेपन को भी

बड़ी बात
होती है
बड़ा
हो जाना
इतना बड़ा
हो जाना
समझ में
ना आना
समझ
में भी
आता है
आना
भी चाहिये
जरूरी है

कुछ लोग
लिखवा
रहे हों
अपना बड़ा
हो जाना
अपने ही
लोगों से
खुद के
बारे में
खुद के
बड़े बड़े
किये धरे
के बारे में
लोगों को
समझाने
के लिये
अपना
बड़ा बड़ा
किया धरा

शब्द वाक्य
लोगों के भी हों
और खुद के भी
समझ में आते हों
लोगों को भी
और खुद को भी

आइने
के सामने
खड़े होकर
खुद का बिम्ब
नजर आता हो
खुद को और
साथ में खड़े
लोगों को
एक जैसा
साफ सुथरा
करीने से
सजाई गयी
छवि जैसा
दिखना
भी चाहिये
ये भी जरूरी है

इन लोग
और
कुछ लोग
से इतर

सामने
से आता
एक आदमी
समझाता हो
किसी
आदमी को

जो वो
समझता है
उस आदमी
के बारे में

समझने वाले के
अन्दर चल रहा हो
पूरा चलचित्र
उसका अपना
उधड़ा हुआ हो
उसको खुद
पानी करता
हुआ हो
बहुत बड़ी
मजबूरी 
है

कुछ भी हो

तुझे क्या
करना है
‘उलूक’

दूर पेड़ पर
बैठ कर
रात भर
जुगाली कर
शब्दों को
निगल
निगल कर
दिन भर

सफेद पन्ने
खाली छोड़ना
भी मीनोपोज
की निशानी होता है

तेरा इसे समझना
सबसे ज्यादा
जरूरी 
है
बहुत जरूरी है ।

चित्र साभार: People Clipart

बुधवार, 10 मई 2017

जमीन पर ना कर अब सारे बबाल सोच को ऊँचा उड़ा सौ फीट पर एक डंडा निकाल

पुराने
जमाने
की सोच
से निकल

बहुत
हो गया
थोड़ा सा
कुछ सम्भल

खाली सफेद
पन्नों को
पलटना छोड़

हवा में
ऊँचा उछल
कर कुछ गोड़

जमीन पर
जो जो
होना था
वो कबका
हो चुका
बहुत हो चुका

चुक गये
करने वाले
करते करते
दिखा कर
खाया पिया
रूखा सूखा

ऊपर की
ओर अब
नजर कर
ऊपर की
ओर देख

नीचे जमीन
के अन्दर
बहुत कुछ
होना है बाकि
ऊपर के बाद
समय मिले
थोड़ा कुछ
तो नीचे
भी फेंक

किसी ने नहीं
देखना है
किसी ने नहीं
सुनना है
किसी ने नहीं
बताना है

अपना
माहौल
खुद अपने
आप ही
बनाना है

सामने की
आँखों से
देखना छोड़

सिर के पीछे
दो चार
अपने लिये
नयी आँखें फोड़

देख खुद को
खुद के लिये
खुद ही

सुना
जमाने को
ऊँचाइयाँ
अपने अन्दर
के बहुत उँचे
सफेद
संगमरमरी
बुत की

आज मिली
खबर का
‘उलूक’
कर कुछ
खयाल

जेब में
रखना छोड़
दे आज से
अपना रुमाल

सौ फीट
का डंडा
रख साथ में
और कर
कमाल

लहरा सोच
को हवा में
कहीं दूर
बहुत दूर
बहुत ऊँचे

खींचता
चल डोर
दूर की
सोच की
बैठ कर
उसी डन्डे
के नीचे
अपनी
आँखें मींचे ।


चित्र साभार: http://www.nationalflag.co.za

बुधवार, 3 मई 2017

समय गवाह है पर

समय गवाह है
पर गवाही
उसकी किसी
काम की
नहीं होती है

समय साक्ष्य
नहीं हो पाता है
बिना बैटरी की
रुकी हुयी
पुरानी पड़
चुकी घड़ियों
की सूईयों का

अब इसे
शरम कहो
या बेशर्मी

कबूलने में
समय के साथ
सीखे हुऐ झूठ
को सच्चाई
के साथ

क्या किया जाये
सर फोड़ा जाये
या फूटे हुऐ
समय के टुकड़े
एकत्रित कर
दिखाने की
कोशिश
की जाये

समझाने को
खुद को
गलती उसकी
जिसने
सिखाया गलत

समय के
हिसाब से
वो सारा
गलत

हस्ताँतरित
भी हुआ
अगली पीढ़ी
के लिये

पीढ़ियाँ आगे
बढ़ती ही हैं
जंजीरे समय
बाँधता है

ज्यादातर
खोल लेते हैं
दिखाई देती है
उनकी
उँचाइयाँ

जहाँ गाँधी
नहीं होता है

गाँधी होना
गाली होता है
बहुत छोटी सी

कोई किसी को
छोटी गालियाँ
नहीं देता है

ऊपर पहुँचने
के लिये बहुत
जरूरी होता है

समय के
साथ चलना
समय के साथ
समय को सीखना
समय के साथ
समय को
पढ़ लेना
और समझ कर
समय को
पढ़ा ले जाना

गुरु मत बनो
‘उलूक’
समय का

अपनी
घड़ी सुधारो
आगे बड़ो
या पीछे लौट लो

किसी को
कोई फर्क
नहीं पड़ता है

समय समय
की कद्र
करने वालों
का साथ देता है

जमीन पर
चलने की
आदत ठीक है

सोच
ठीक नहीं है

जमाना सलाम
उसे ही ठोकता है

जिसकी ना
जमीन होती है

और जिसे
जमीन से
कोई मतलब
भी नहीं होता है ।

चित्र साभार: Can Stock Photo

रविवार, 30 अप्रैल 2017

समझदारी है लपकने में झपटने की कोशिश है बेकार की “मजबूर दिवस की शुभकामनाएं”

 

पकड़े गये बेचारे शिक्षा अधिकारी लेते हुऐ रिश्वत
मात्र पन्द्रह हजार की
खबर छपी है एक जैसी है फोटो के साथ है मुख्य पृष्ठ पर है
इनके भी है और उनके भी है अखबार की

चर्चा चल रही है जारी रहेगी बैठक
समापन की तारीख रखी गयी है अगले किसी रविवार की
खलबली मची है गिरोहों गिरोहों
बात कहीं भी नहीं हो रही है किसी के भी सरदार की 

सुनने में आ रहा है
आयी है कमी शेयर के दामों में रिश्वत के बाजार की
यही हश्र होता है बिना पीएच डी किये हुओं का
उसूलों को अन्देखा करते हैं
फिक्र भी नहीं होती है जरा सा भी
इतने फैले हुऐ कारोबार की

अक्ल के साथ करते हैं व्यापार समझदार उठाईगीर
उठाते हैं बहुत थोड़ा सा रोज अँगुलियों के बीच
मुट्ठी नहीं बंधती है सुराही के अन्दर कभी
किसी भी सदस्य की चोरों के मजबूत परिवार की

सालों से कर रहे हैं कई हैं हजारों पन्द्रह भर रहे हैं
गागर भरने की खबर पहुँचती नहीं
फुसफुसाती हुई डर कर मर जाती है पीछे के दरवाजे में
कहीं आफिस में किसी समाचार की

उबाऊ ‘उलूक’
फिर ले कर बैठा है एक पकाऊ खबर
मजबूर दिवस की पूर्व संध्या पर सोचता हुआ
मजबूरों के आने वाले निर्दलीय एक त्यौहार की ।

चित्र साभार: Shutterstock

बुधवार, 26 अप्रैल 2017

लाश कीड़े और चूहों की दौड़

एक
सड़ रही
लाश को
ठिकाने लगा
रहे कीड़ों में

कुछ कीड़े
ऐसे भी
होते हैं
जो लाश के
बारे में
सोचना
शुरु कर
देते हैं
लाश को
दर्द नहीं
होता है
साले
कामचोर
होते हैं

आदत होती है
ऐसे कीड़ों की
ठेके लेना
अच्छाई के
संदेशों के बैनर
बनाने की

कीड़े
चूहा दौड़
में माहिर
होते हैं

जानते हैं
चूहों की
दौड़ को
दूर से
देखकर
उसपर
टिप्पणी
करने वाले
चूहे को कोई
भाव नहीं देता है

दौड़ में
शामिल होना
जरूरी होता है
चूहा होने
के लिये

अपने
आसपास की
हलचलों को
समझना बूझना
और फिर उसपर
कुछ कहने वाले
कुछ बेवकूफ चूहों
का काम होता है

चूहा दौड़
इसलिये
नहीं होती है
कि किसी को
कुछ जीतना
होता है

चूहा अपने
अगल बगल
आगे पीछे
दौड़ते हुऐ
चूहों को
देख कर
खुश होता है

और फिर
और जोर से
ताकत लगा कर
खुद भी दौड़ता है

रोज निकलते हैं
परीक्षाफल
चूहा दौड़ के

जीतने वाले
चूहे ही होते हैं

चूहे खुश होते हैं
फिर शुरु कर
देते हैं दौड़

क्योंकि चूहे
जीते होते हैं

लाश को नोचते
कीड़े अपना काम
कर रहे होते हैं

कीड़ों के भी
गिरोह होते हैं

‘उलूक’ समझ ले
दूर से बैठकर
तमाशा देखने
वाले कीड़े
कामचोर
कीड़े होते हैं

लाश के बारे में
सोचते हैं
और मातम
करते हैं
बेवकूफ होते  हैं
और रोते हैं । 


चित्र साभार: Kill Clip Art Illustrations.

शनिवार, 22 अप्रैल 2017

चिकने घड़े चिकने घड़े की करतूत के ऊपर बैठ कर छिपाते हैं

अचानक
हवा चलनी
बन्द हो
जाती है

साँय साँय
की आवाज
सारे जंगल
से गायब
हो जाती है

कितनी भी
सूईंयाँ गिरा
ले जाये कोई
रास्ते रास्ते

आवाज
जरूर होती
होगी इतनी
खामोशी में

पर
कान तक
पहुँचने
पहुँचने तक
पता नहीं
चलता है

कैसे किस
सोख्ते में
सोख ली
जाती है

ढोलचियों
के खुद के
रोजाना
खुद के लिये
अपने हाथों
से ही पीटे
जाने वाले
ढोल सारे
लटके हुऐ
कहीं नजर
आते हैं

मातम मना
रहे हों जैसे
सारे मिल
जुल कर
कुछ इसी
तरह का
अहसास
कराते हैं

शेरों के
मुखौटे भी
नजर आते
हैं गर्दनों से
पीछे की
ओर लटके हुऐ

सारे गधे
गधों के
कान के
पीछे कुछ
फुसफुसाते
हुऐ पाये
जाते हैं

ये बात
कोई नयी
नहीं होती है

ऐसी बात
भी नहीं है
कि हमेशा
ही होती है

बस कभी
हजार दो
हजार
बार की
हरकतों
के बीच
कहीं

कोई एक
दो गिरोह
के साथी
अपने ही
घर की
थालियों
की रोटियाँ
छिपाते
हुऐ पकड़े
जाते हैं

कोई सजा
किसी को
नहीं होती है

अपनी
सरकार
होती है
इन्ही में से
किसी को
पुरुस्कार
बाँटे जाते हैं

खामोशी भी
कुछ दिनों
की होती है

चिकने घड़े
भी कहाँ
किसी के
हाथ में
आते हैं

शोर नहीं
होता है
कुछ देर में
फुसफुसाने
वाले भी
अपने अपने
घरों को
चले जाते हैं

हवा की
मजाल है
की रुक सके
ज्यादा देर तक

पेड़ जल्दी ही
साँय साँय
करना शुरु
हो जाते हैं

‘उलूक’
रोक लेता है
थूक अपना
अपने गले के
बीच में ही कहीं

सारे मुखौटे
पीठ के पीछे
से निकल कर

गधों के चेहरों
पर वापस
फिर से चिपके
हुऐ नजर आते हैं

उत्सव फिर
शुरु होते हैं
जश्न मनाते हुऐ
बेशरम ठहाके
भी साथ
में लगाते हैं।

चित्र साभार: fallout.wikia.com