उलूक टाइम्स

रविवार, 31 दिसंबर 2017

वर्ष पूरा हुआ एक और बनी रहे पालतू लोगों की फालतू होड़ कल आ रहा हूँ मैं अबे ओ कुर्सी छोड़

आईये
फिर से
शुरु हो जायें
गिनती करना
उम्मीदों की

उम्मीदें
किसकी कितनी
उम्मीदें कितनी
किससे उम्मीदें

हर बार
की तरह
फिर एक बार
मुड़ कर देखें


कितनी
पूरी हो गई

कितनी अधूरी
खुद ही रास्ते में
खुद से ही
उलझ कर
कहीं खो गई

आईये
फिर से उलझी
उम्मीदों को
उनके खुद के
जाल से
निकाल कर
एक बार
और सुलझायें

धो पोछ कर
साफ करें
धूप दिखायें

कुछ लोबान
का धुआँ
लगायें

कुछ फूल
कुछ पत्तियाँ
चढ़ायें

कुछ
गीत भजन
उम्मीदों के
फिर से
बेसुरे रागों
में अलापें
बेसुरे हो कर
सुर में
सुर मिलायें

आईये
फिर से
कमजोर
हो चुकी
उम्मीदों की
कमजोर
हड्डियों की
कुछ
पन्चगुण
कुछ
महानारयण
तेल से
मालिश
करवायें

आह्वान करें
आयुर्वेदाचार्यों का
पुराने अखाड़ों
को उखाड़ फेंक
नयी कुश्तियाँ
करवाने के
जुगाड़ लगवायें

आईये
हवा से हवा में
हवा मारने
की मिसाईलें
अपनी अपनी
कलमों में
लगवायें

करने दें
कुर्सीबाजों
को सत्यानाश
सभी का

खीज निकालें
खींस निपोरें
बेशरम हो जायें

करने वाले
करते रहें
मनमानी

कुछ ना
कर सकने का
शोक मनायें

बहुत
लिख लिया
‘उलूक’
पिछ्ले साल
अगले साल
के लिये
बकवासों की
फिर से
बिसात बिछायें

इकतीस
दिसम्बर
को लुढ़कें
होश गवायें

एक
साल बाद
उठ कर
कान
पकड़ कर
माफी माँग
फिर से
शुरु हो जायें।

(श्वेता जी के अनुरोध पर 2018 की शुभकामनाओं के साथ) :

चित्र साभार: http://tvtropes.org

गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

हिमालय में अब सफेद बर्फ दूर से भी नजर नहीं आती है काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद रात भर अब नींद नहीं आती है


कविता करते करते निकल पड़ा 
एक कवि  हिमालयों से
हिमालय की कविताओं को बोता हुआ 

हिमालयी पहाड़ों केबीच से 
छलछल करती नदियों के साथ 
लम्बे सफर में दूर मैदानों को 

साथ चले
उसके विशाल देवदार के जंगल उनकी हरियाली 
साथ चले
उसके गाँव के टेढ़े मेढे‌ रास्ते 
साथ चली
उसके गोबर मिट्टी से सनी 
गाय के गोठ की दीवारों की खुश्बूएं 
और
वो सब कुछ 
जिसे समाहित कर लिया था उसने 
अपनी कविताओं में 

ब्रह्म मुहूर्त की किरणों के साथ 
चाँदी होते होते 
गोधूली पर सोने में बदलते 
हिमालयी बर्फ के रंग की तरह 
आज सारी कविताएं 
या तो बेल हो कर चढ़ चुकी हैं आकाश 
या बन चुकी हैं छायादार वृक्ष 
बस वो सब कहीं नहीं बचा 
जो कुछ भी रच दिया था उसने 
अपनी कविताओं में 

आज भी लिखा जा रहा है समय 
पर कोई कैसे लिखे तेरी तरह का जादू 
वीरानी देख रहा समय वीरानी ही लिखेगा 
वीरानी को दीवानगी ओढ़ा कर लिखा हुआ भी दिखेगा 
पर उसमें तेरे लिखे का इन्द्रधनुष कैसे दिखेगा 
जब सोख लिये हों सारे रंग आदमी की भूख ने 

‘सुमित्रानन्दन पन्त’ 
हिमालय में अब सफेद बर्फ 
दूर से भी नजर नहीं आती है 
काले पड़ चुके पहाड़ों को शायद 
रात भर अब नींद नहीं आती है 

पुण्यतिथी पर नमन और श्रद्धाँजलि 
अमर कविताओं के रचयिता को  ‘उलूक’ की । 

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

अच्छा हुआ गालिब उस जमाने में हुआ और कोई गालिब हुआ


‘उलूक’ की 2017 की सौवीं बकवास गालिब के नाम :

दो सौ के ऊपर से और बीस बीत गये साल
कोई दूसरा नहीं गालिब हुआ

अब तो समझा भी दे गालिब
गालिब हुआ भी तो कोई कैसे गालिब हुआ

बहुत शौक है दीवानों को
गालिब हो जाने का आज भी
जैसे आज ही गालिब हुआ

लगता है
कभी तो हुआ कुछ देर को ये भी गालिब हुआ
और वो भी गालिब हुआ

समझ में किसे आता है पता भी कहाँ होता है
अन्दाजे गालिब हुआ तो क्या हुआ

बयाने गालिब पढ़ लिया बस
उसी समय से सारा सब कुछ ही गालिब हुआ

ये हुआ गालिब कुछ नहीं हुआ
फिर भी इस साल का ये सौवाँ हुआ

तेरे जन्मदिन के दिन भी कोई नयी बात नहीं हुई
वही कुछ रोज का धुआँ धुआँ हुआ

अब तो एक ही गालिब रह गया है जमाने में गालिब
कुछ भी कहना उसी का शेरे गालिब हुआ

‘उलूक’ की नीयत ठीक नहीं हैं गालिब
क्या हुआ अगर कोई इतना भी गालिब हुआ ।

चित्र साभार: http://youthopia.in/irshaad-ghalib/



गालिब का मतलब : सं-पु.] -
उर्दू के एक प्रख्यात कवि (शायर) का उपनाम
[वि.] 1. विजयी 2. प्रबल 3. ज़बरदस्त; बलवान
4. जिसकी संभावना हो; संभावित
5. दूसरों को दबाने या दमन करने वाला

सोमवार, 25 दिसंबर 2017

हैप्पी क्रिसमस मेरी क्रिसमस जैसे कह रहे हों राम ईसा मसीह से आज कुछ ऐसी सोच जगायें


ईसा मसीह को
याद कर रही है
जहाँ सारी दुनियाँ
बहुत सी और भी
हैं महान आत्माएं

किस किस को
याद करें
किस किस को
भूल जायें

पराये अपने
होने लगे हैं
बहुत अच्छा है
आईये कुछ
मोमबत्तियाँ
प्यार के
इजहार
की जलायें
रोशनी प्रेम
और भाईचारे
की फैलायें

सीमायें
तोड़ कर सभी
चलो इसी तरह
किसी एक
दिन ही सही
मंशा आदमियत
की बनायें
आदमी हो जायें

सहेज लें
समय को
मुट्ठी में
इतना कि
अपने पराये
ना हो पायें

याद
आने लगे हैं
अटल जी
याद आ रहे हैं
मालवीय
याद आने
शुरु हो गये हैं
और भी अपने
आस पास के
आज एक नहीं
कई कई

न्यूटन जैसे
और भी हैं
इन्हीं
कालजयी
लोगों में
आज के दिन
जन्म लिये
महापुरुषों में

सभी
तारों को
एक ही
आकाश में
चाँद सूरज
के साथ
देखने की
इच्छा जतायें

पिरो लें
सभी
फूलों को
एक साथ
एक धागे में
एक माला
एक छोटी
ही सही
यादों को
सहेजने
की बनायें

याद आ रहे हो
बब्बा आज
तुम भी बहुत
इन सब के बीच में
तुम्हारी जन्मशती
के दिन हम सब
मिलकर सब के साथ
दिया एक यादों का
आज चलो जलायें

हैप्पी क्रिसमस
मेरी क्रिसमस
जैसे कह
रहे हों राम
ईसा मसीह से
आज कुछ ऐसी
सोच जगायें।

चित्र साभार: Shutterstock



स्व. श्री देवकी नन्दन जोशी
25/12/1917 - 12/02/2007

रविवार, 24 दिसंबर 2017

लिखने वाले को लिखने की बीमारी है ये सब उसके अपने करम हैं । वैधानिक चेतावनी: (कृपया समझने की कोशिश ना करें)

डूबेगी नहीं
पता है
डुबाने वाला
पानी ही
बहुत
बेशरम है

बैठे हैं
डूबती हुई
नाव में लोग

हर चेहरे पर
फिर भी नहीं
दिख रही है
कोई शरम है

पानी नाव
में ही
भर रहा है
नाव वालों के
अपने भी
करम हैं

डुबोने वाले को
तैरने वालों के भी
ना जाने क्यों
डूब जाने
का भरम है

अच्छाई से
परेशान होता है
बुराई पर
नरम दिखता है
दिखाने के लिये
थानेदार
बना बैठा है

थाने का हर
सिपाही भी
नजर आता है
जैसे बहुत गरम है

लिखा होता है
बैनर होता है
आध्यात्मिक
होता है

ईश्वरीय होता है
विश्वविद्यालय होता है
सब कुछ परम है

याद आ गयी
तो देखने चल दिये
पता चलता है
 कुछ भी नहीं है
बस एक बहुत
बड़ा सा एक हरम है

अजीब है रिवायते हैं
किसी को पता
भी नहीं होता है
क्या करम है
क्या कुकरम हैं

बस देखता
रहता है ‘उलूक’
दिन में भी अंधा है
रात की चकाचौंध
का उसपर भी
कुछ रहम है ।

आभार: गूगल

शनिवार, 23 दिसंबर 2017

चल रहा है सिलसिला लिखने लिखाने का फिर फिर वही बातें नया तो अब वैसे भी कहीं कुछ होना ही नहीं है

लिखना
सीख ही
रहा है
अभी भी

कई सालों से
लिखने वाला

क्या
लिख रहा है

क्यों
लिख रहा है

अभी तो
पूछना
ही नहीं है

शेर गजल
कविता भी
पढ़ रहा है

लिखी लिखाई
बहुत सी कई

शेर सोचने
और गजल
लिखने की

अभी तो
हैसियत
ही नहीं है

मत बाँध लेना
उम्मीद भी
किसी दिन

नया कुछ
लिखे
देखने की

सूरतें सालों
साल हो गये हैं

कहीं भी
कोई भी
अभी तो
बदली
ही नहीं हैं

किताबों में
लिख दी
गयी हैं

जमाने भर
की सभी
बातें कभी के

किसलिये
लिखता है
खुराफातें

जो किताबों
तक अभी
भी पहुँची
ही नहीं हैं

कल
लिख रहा था
आज
लिख रहा है
कल भी
लिखने के लिये
आ जायेगा

होना जब
कुछ भी
नहीं है
तो लिखने
की भी
जरूरत
ही नहीं है

अच्छा नहीं है
लिये घूमना
खाली गिलास
खाली बोतलों
के साथ
लिखने के
लिये शराबें

‘उलूक’
कुछ ना कुछ
पी रहा है
हर कोई
अपने
हिसाब का

समझाता
हुआ
जमाने को

पीने
पिलाने की
कहीं भी अब
इजाजत
ही नहीं है ।

चित्र साभार: Childcare

बुधवार, 20 दिसंबर 2017

जरूरी नहीं है कि लिखने वाला किसी को कुछ समझाने के लिये ही लिखना चाहता है क्योंकि हजूर यहाँ सबको सब समझ में आता है

लिखे
हुऐ को 

सात बार
पढ़ कर

जनाब
पूछ्ते हैं

ओये
तू कहना
क्या चाहता है


साफ साफ

असली
बात को
दो चार
सीधे साधे
शब्दों में ही
बता कर
क्यों नहीं
जाता है

बात को
लपेट कर
घुमा कर
फालतू की
जलेबी
बना कर

किसलिये
लिखने को
रोज का रोज
यहाँ पर
आ जाता है

सुनिये जनाब
जिसकी जितनी
समझ होती है
वो उतना ही तो
समझ पाता है

बाकि बचे का
क्या करे कोई
कूड़ेदान में ही
तो जा कर के
फेंका जाता है

ये भी सच है
कूड़ेदान पर
झाँकने के लिये
आज बस वो
ही आता है

जिसकी
समझ में
गाँधी की फोटो
के साथ लगा हुआ
एक झाड़ू से
सजा पोस्टर

और
उसको बनवाने
वाले की मंशा का
पूरा का पूरा खाँचा
आराम से घुस कर

साफ सफाई का
धंधा फैलाने के
मन्सूबे धीरे धीरे
पैर उठा कर
सपने के ऊपर
सपने को चढ़ाता है

कबाड़ी
कबाड़ देखता है
कबाड़ी
कबाड़ छाँटता है
कबाड़ी
कबाड़ खरीदता है
कबाड़ी
कबाड़ बेचता है

कबाड़ी
के हाथों से
होकर उसके
बोरे में पहुँचकर
चाहे धर्म ग्रंथ हो
चाहे माया मोह हो
सारा सब कुछ
कबाड़ ही हो जाता है

कबाड़ी
उसी सब से
अपनी रोजी चलाता है
भूख को जगाता है
रोटी के सपने को
धीमी आँच में
भूनता चला जाता है

इसी तरह का
कुछ ऐसा कबाड़
जो ना कहीं
खरीदा जाता है

ना कहीं
बेचा जाता है
ना किसी को
नजर आते हुऐ
ही नजर आता है

एक कोई
सरफिरा

उसपर
लिखना ही
शुरु हो जाता है

‘उलूक’
क्या करे
हजूरे आला
अगर कबाड़ पर
लिखे हुऐ उस
बेखुश्बूए
अन्दाज को
कोई खुश्बू
मान कर
सूँघने के लिये
भी चला आता है ।

चित्र साभार: http://www.maplegrovecob.org

शनिवार, 16 दिसंबर 2017

पीछे की बहुत हो गयी बकवासें कुछ आगे की बताने की क्यों नहीं सीख कर आता है

मत नाप
बकवास को
उसकी लम्बाई
चौड़ाई और
ऊँचाई से

नहीं होती हैं
दो बार की
गयी बकवासें
एक दूसरे की
प्रतिलिपियाँ

बकवासें जुड़वा
भी नहीं होती हैं

ये भी एक अन्दाज है
हमेशा गलत निशाना
लगाने वाले का

इसे शर्त
मत मान लेना
और ना ही
शुरू कर देना
एक दिन
की बकवास
को उठाकर
दूसरे दिन की
बकवास के ऊपर
रखकर नापना

बकवास आदत
हो जाती हैं
बकवास खूँन में
भी मिल जाती हैं

बैचेनी शुरु
कर देती हैं
जब तक
उतर कर
सामने से लिखे
गये पर चढ़ कर
अपनी सूरत
नहीं दिखाती हैं

कविता कहानियाँ
बकवास नहीं होती है
सच में कहीं ना कहीं
जरूर होती हैं

लिखने वाले कवि
कहानीकार होते है
कुछ नामी होते हैं
कुछ गुमनाम होते हैं

बकवास
बकवास होती है
कोई भी कर
सकता है
कभी भी
कर सकता है
कहीं भी
कर सकता है

बकवासों को
प्रभावशाली
बकवास बना
ले जाने की
ताकत होना
आज समझ
में आता है
इससे बढ़ा
और गजब का
कुछ भी नहीं
हो सकता है
बकवास करने
वाले का कद
बताता है

कुछ समय
पहले तक
पुरानी धूल जमी
झाड़ कर
रंग पोत कर
बकवासों को
सामने लाने
का रिवाज
हुआ करता था

उसमें से कुछ
सच हुआ करता था
कुछ सच ओढ़ा हुआ
परदे के पीछे से
सच होने का नाटक
मंच के लिये तैयार
कर लिये गये का
आभासी आभास
दिया करता था

रहने दे ‘उलूक’
क्यों खाली खुद
भी झेलता है और
सामने वाले को
भी झिलाता है

कभी दिमाग लगा कर
‘एक्जिट पोल’ जैसा
आगे हो जाने वाला
सच बाँचने वाला
क्यों नहीं हो जाता है

जहाँ बकवासों को
फूल मालाओं से
लादा भी जाता है
और
दाम बकवासों का
झोला भर भर कर
पहले भी
और बाद में भी
निचोड़ लिया जाता है ।

चित्र साभार: http://www.freepressjournal.in

गुरुवार, 14 दिसंबर 2017

सारा सब कुछ अभी ही लिख देगा क्या माना लिख भी लेगा तो आगे फिर लिखने के लिये कुछ भी नहीं बचेगा क्या ?


रहने भी दे
हमेशा
खुद से ही
बहस मत
कर लिया कर

कुछ औरों का
लिखना भी
कभी तो देख
भी लिया कर

अपना अपना
भी लिख रहे हैं
लिखने वाले

 तू भी कभी
कुछ अपना ही
लिख लिया कर

इधर उधर
देखना
थोड़ी देर के
लिये ही सही

कभी आँखें ही
कुछ देर
के लिये सही
बन्द भी
कर दिया कर

कभी कुछ नहीं तो

हो भी
सकने वाला
एक सपना ही
लिख दिया कर

लिखे हुऐ कुछ में
समय कितनों के
लिखे में दिखता है

ये भी कभी कुछ
देख लिया कर

हमेशा
घड़ी देखकर
ही लिखेगा क्या

कभी चाँद तारे
भी देख लिया कर

सब का लिखा
घड़ी नहीं होता है

बता पायेगा क्या
कितने बज रहे हैं
अपने लिखे हुऐ
को ही देख कर कभी

रोज का ना सही
कभी किसी जमाने
के लिखे को
देखकर ही

समय उस समय
का बता दिया कर

घड़ी पर
लिखने वाले
बहुत होते हैं
घड़ी घड़ी
लिखने वाले
घड़ी लिख लें
जरूरी नहीं

कभी
किसी दिन
किसी की
घड़ी ना सही

घड़ी की
टिक टिक
पर ही कुछ
कह दिया कर

समय
सच होता है
सच लिखने
वाले को
समय दूर
से ही सलाम
कर देता है

समय
लिखने वाले
और समय
पढ़ने वाले
होते तो हैं
मगर
थोड़े से होते हैं

कभी समय
समझने वालों
को समझकर

समय पर
मुँह अँधेरे
भी उठ
लिया कर

अपनी
नब्ज अपने
हाथ में होती है

सब नाप
रहे होते हैं
थोड़े से
कुछ होते हैं
नब्ज दूसरों
की नापने वाले

उन्हें डाक्टर कहते हैं

कभी
किसी दिन
किसी डाक्टर
का आला ही
पकड़ लिया कर

‘उलूक’ देखने
सुनने लिखने
तक ठीक है
हर समय
फेंकना
ठीक नहीं है

औरों
को भी कभी
कुछ समय
के लिये
समय ही सही
फेंकने दिया कर ।

चित्र साभार: http://www.toonvectors.com

रविवार, 10 दिसंबर 2017

जानवर पैदा कर खुद के अन्दर आदमी मारना गुनाह नहीं होता है

किस लिये
इतना
बैचेन
होता है

देखता
क्यों नहीं है
रात पूरी नींद
लेने के बाद भी

वो दिन में भी
चैन की
नींद सोता है

उसकी तरह का ही
क्यों नहीं हो लेता है

सब कुछ पर
खुद ही कुछ
भी सोच लेना
कितनी बार
कहा जाता है
बिल्कुल
भी ठीक
नहीं होता है

नयी कुछ
लिखी गयी
हैं किताबें
उनमें अब
ये सब भी
लिखा होता है

सीखता
क्यों नहीं है
एक पूरी भीड़ से

जिसने
अपने लिये
सोचने के लिये
कोई किराये पर
लिया होता है

तमाशा देखता
जरूर है पर
खुश नहीं होता है

किसलिये
गलतफहमी
पाल कर
गलतफहमियों
में जीता है

कि तमाशे पर
लिख लिखा
देने से कुछ

तमाशा फिर
कभी भी
नहीं होता है

तमाशों
को देखकर
तमाशे के
मजे लेना
तमाशबीनों
से ही
क्यों नहीं
सीख लेता है

शिकार
पर निकले
शिकारियों को
कौन उपदेश देता है

‘उलूक’
पता कर
लेना चाहिये

कानून जंगल का
जो शहर पर लागू
ही नहीं होता है

सुना है
जानवर पैदा कर
खुद के अन्दर

एक आदमी को
मारना गुनाह
नहीं होता है ।

चित्र साभार: shutterstock.com

शनिवार, 9 दिसंबर 2017

अचानक से सूरज रात को निकल लेता है फिर चाँद का सुबह सवेरे से आना जाना शुरु हो जाता है


जब भी
कभी
सैलाब आता है 

लिखना
भी 
चाहो
अगर कुछ

नहीं
लिखा जाता है 

लहरों
के ऊपर 
से
उठती हैं लहरें 
सूखी हुई सी कई

बस सोचना सारा
पानी पानी सा 
हो जाता है 

इसकी
बात से 
उठती है जरा 
सोच एक नयी 

उसकी याद 
आते ही सब  
पुराना पुराना 
सा हो जाता है 

अचानक
नींद से 
उठी दिखती है 

सालों से सोई 
हुई कहीं की
एक भीड़ 

फिर से
तमाशा 
कठपुतलियों का 

जल्दी
ही कहीं 
होने का आभास 
आना शुरू
हो जाता है 

जंक
लगता नहीं है 
धागों में
पुराने 
से पुराने
कभी भी 

उलझी हुई
गाँठों 
को सुलझाने में 
मजा लेने वालों का
मजा दिखाना 
शुरु हो जाता है  

पुरानी शराबें 
खुद ही चल देती हैं 
नयी बोतल के अन्दर 

कभी
इस तरह भी 
‘उलूक’ 

शराबों के
मजमें 
लगे हुऐ

जब कभी 
एक
लम्बा जमाना 
सा हो जाता है ।

चित्र साभार: recipevintage.blogspot.com

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

असली सब छिपा कर रोज कुछ नकली हाथ में थमा जाता है


सब कुछ लिख देने की चाह में
नकली कुछ लिख दिया जाता है

बहुत कुछ असली लिखा जाने वाला
कहीं भी नजर नहीं आता है

कहीं नहीं लिखा जाता है वो सब
जो 
लिखने के लिये 
लिखना शुरु करने से पहले
तैयार कर लिया जाता है

सारा सब कुछ
शुरु में ही कहीं छूट जाता है
दौड़ने लगता है उल्टे पाँँव
जैसे लिखने वाले से ही
दूर कहीं भागना चाहता है

जब तक समझने की कोशिश करता है
लिखते लिखते लिखने वाला

कलम पीछे छूट जाती है
स्याही जैसे फैल जाती है
कागज हवा में फरफराना शुरु हो जाता है
ना वो पकड़ में आता है
ना दौड़ता हुआ खयाल कहीं नजर आता है

कितनी बार समझाया गया है
सूखने तो दिया कर स्याही पहले दिन की

दूसरे दिन गीले पर ही
फिर से लिखना शुरु हो जाता है

कितना कुछ लिखा 
कितना कुछ लिखना बाकी है
कितना कुछ बिका कितना बिकेगा
कितना और बिकना बाकी है

हिसाब लगाते लगाते
लिखने वाला 
लेखक तो नहीं बन पाता है
बस थोड़ा सा कुछ शब्दों को
तोलने वाली मशीन हाथ में लिये 
एक बनिया जरूर हो जाता है

कुछ नहीं किया जा सकता है ‘उलूक’

देखते हैं एक नये सच को
खोद कर निकाल कर
समझने के चक्कर में

रोज एक नया झूठ बुनकर
आखिर कब तक 
कोई हवा में उसकी पतंग बना कर उड़ाता है

पर सलाम है उसको
जो ये देखने के लिये हर बार

हर पन्ने में किनारे से झाँकता हुआ
फिर भी कहीं ना कहीं
जरूर नजर आ जाता है ।

चित्र साभार: www.istockphoto.com