उलूक टाइम्स: कहानी
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रविवार, 21 जनवरी 2024

कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी

शीशे के घर में बैठ कर
आसान है बयां करना उस पार का धुंआ
खुद में लगी आग
कहां नजर आती है आईने के सामने भी तभी

बेफ़िक्र लिखता है
सारे शहर के घोड़ों के खुरों के निशां लाजवाब
अपनी फटी आंते और खून से सनी सोच
खोदनी भी क्यों है कभी

हर जर्रा सुकूं है
महसूस करने की जरूरत है लिखा है किताब में भी
सब कुछ ला कर बिखेर दे सड़क में
गली के उठा कर हिजाब सभी

पलकें ही बंद नहीं होती हैं कभी
पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
रात के अँधेरे में से अँधेरा भी छान लेता है
क़यामत है आज का कवि 

कौन अपनी लिखे बिवाइयां
और आंखिर लिखे भी क्यों बतानी क्यों है
सारी दुनियां के फटे में टांग अड़ा कर
और फाड़ बने एक कहानी अभी

‘उलूक’ तूने करनी है बस बकवास
और बकवास इतिहास नहीं होता है कभी
कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख
कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी 

नबी = ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदेर्शों का उद्घोषक।
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

मंगलवार, 18 अगस्त 2020

तो बेशरम उलूक कब छोड़ेगा तू लिखना बकवास छोड़ ही दे ये नादानी है

 

अरे 
सब तो
लिख रहे हैं 
कुछ ना कुछ 
मेरे लिखे से क्या परेशानी है 

मैं तो
कब से
लिख रहा हूँ 
मुझे खुद पता नहीं है 
मेरे लिखे लिखाये में कितना पानी है 

मेरे
लिखने से
किसलिये परेशान हैं 

आपके लिये
उठाने वाले  कलम
गिन लीजियेगा हजूर

हर
डेढ़ शख्स
फिदा है आप पर 
बाकी आधा
है या नहीं भी किसलिये सोचना 
है

लिख दीजियेगा
आँकड़े की कोई बे‌ईमानी है 

मेरा लिखना
मेरा देखना
मेरी अपनी बीमारी है 

अल्लाह करे
किसी को ना फैले
ये कोरोना नहीं रूमानी है

सब
देख कर लिखते हैं
फूल खिले अपने आसपास के 
झाड़ पर
लिखने की
मेरे जैसे खड़ूस ने खुद ही ठानी है 

सब अमन चैन तो है
सुबह के अखबार क्यों नहीं देखता है 

कहाँ भुखमरी है
कहाँ गरीबी है कहाँ कोई बैचेन है 

तेरे शहर की
हर हो रही गलत बात पर
नजर डालने वाला

जरूर
 कोई चीनी है
या पाकिस्तानी  है

पता नहीं
क्या सोचता है
क्या लिखता है
पागलों के शहर का एक पागल
काँग्रेस और भाजपा तो
आनीजानी है 


शहर
पागल नहीं है
हवा पानी में
कुछ मिला कर रखा है किसी ने
ना कहना
कितनी बेईमानी 
है 

कत्ल से लेकर
आबरू लूटने की भी 
नहीं छपी
इस शहर की कई कहानी है 


कोई
कुछ नहीं
कहता है यहाँ ‘उलूक’
यही तो
एक अच्छे शहर की निशानी है 


चित्र साभार: https://nohawox.initiativeblog.com/

बुधवार, 21 अगस्त 2019

चाँद सूरज की मिट्टी की कहानी नहीं भी सही ‘उलूक’ किसी पत्थर को सिर फोड़ने की दवाई बता कर दे ही जायेगा



अभी तो
बस

शुरु सा
ही
किया है
लिखना

किसे
पता है
कहाँ तक
जा कर

सारा सब
लिख
लिया जायेगा

क्या
लिख रहे हैं
और
किसके लिये

किसलिये सोचना
अभी से

कौन सा
पढ़ लेने
वालों को
भी
समझ में

सारा
सब कुछ
इतनी जल्दी
ही
आ जायेगा

वो
लिखते हैं ये

हम
समझते हैं वो

इस उस
से
उलझते हुऐ

बहुत कुछ
गुजर जायेगा

उसका
वो
लपेटेगा उसको
उधर ही

इधर
के
लपेटे में
इधर का ही
तो
लपेटने समेटने
के
लिये आयेगा

छोटी छोटी
कहानी
कुछ पहेली
कुछ झमेले

सब के
अपने अपने
घर गली
मोहल्ले शहर के

किस लिये
सुनाने बताने समझाने

किसी
दूर बैठे
उबासी भरे
मगज के विद्वान को

कौन सा
देश बनना है
मिल मिला कर

घर घर
की
समस्याओं को

घर में
आपस में
मिलबाँट
कर

इधर से उधर
खिसका
दिया जायेगा

वो
चाँद से
सूरज तक
लिखे
बहुत अच्छा है

रात
का निसाचर
‘उलूक’
भी

तारे
नहीं भी सही
नजदीक के

किसी
उल्कापिंड तक
पहुँचा कर
पाठकों को

कुछ
कम ही मगर

उलझा
तो
ले ही जायेगा।

चित्र साभार: https://paintingvalley.com



सोमवार, 10 अगस्त 2015

बिल्ली और घंटी वाली पुरानी कहानी में संशोधन करने के लिये संसद में प्रस्ताव पास करवायें

बिल्ली चूहे

और
बिल्ली के
गले में घंटी
बांधने की कहानी

बहुत
पुरानी
जरूर है

पर
कहानी ही है

ना कभी
किसी बिल्ली
के घंटी बंधी

ना चूहों
की हिम्मत
कभी इतनी बनी

आदमी के
दिमाग की
खुराफातों
की बातें

किसी के
समझ में आई
और उसने

बिल्ली चूहे
के ऊपर
घंटी एक
मार कर

एक
कहानी बनाई

कहानी तो
कहानी होती है

सच सच होता है

क्या किया जाये

अगर
एक चूहों के
जमघट के

कुछ
टेढ़े मेढ़े
कमजोर चूहे

कहीं से
कुछ लम्बी मूँछें

और
कहीं से
कुछ लम्बी पूँछें
मार कर लायें

अपने ही
घर से चोरी गई

कुछ
मलाई से

कुछ अपने

और
कुछ अपने
कुछ चमचों
पर चिपका कर
बिल्ली हो जायें

चारों और
बिल्लियों का
डर फैलायें

तितर
बितर
हुऐ चूहे

अपने
ही बीच के
कुछ चूहों
के डर से
हलकान हो कर

घंटी के
सपने देखना
शुरु हो जायें

इस सब
को समझें

बिल्ली
कभी नही थी

घंटी जरूर थी

चूहों
के बीच
किसी
एक दो
चूहों के
गले में घंटी
बधने बधाने की
नई कहानी बनायें

बिल्ली
और
घंटी वाली
पुरानी कहानी में

संशोधन
करने के लिये

संसद
में प्रस्ताव
पास करवायें ।

चित्र साभार: members.madasafish.com

रविवार, 7 दिसंबर 2014

लिखे हुऐ को लिखे हुऐ से मिलाने से कुछ नहीं होता है

अंगूठे के
निशान
की तरह

किसी
की भी
एक दिन
की कहानी

किसी
दूसरे की
उसी दिन
की कहानी


जैसी
नहीं हो पाती है

सब तो
सब कुछ
बताते नहीं है

कुछ की
आदत होती है

आदतन
लिख दी जाती है

अब
अपने रोज
की कथा
रोज लिखकर

रामायण
बनाने की
कोशिश
सभी करते हैं

किसी
को राम
नहीं मिलते हैं

किसी
की सीता
खो जाती है

रोज
लिखता हूँ
रोज पढ़ता हूँ

कभी
अपने लिखे
को उसके लिखे के
ऊपर भी रखता हूँ

कभी
अपना
लिखा लिखाया

उसके
लिखे लिखाये से
बहुत लम्बा हो जाता है

कभी उसका
लिखा लिखाया
मेरे लिखे लिखाये की
मजाक उड़ाता है

जैसे
छिपाते छिपाते भी
एक छोटी चादर से

बिवाईयाँ
पड़ा पैर
बाहर
निकल आता है

फिर भी
सबको
लिखना
पड़ता ही है

किसी को
दीवार पर
कोयले से

किसी को
रेत पर
हथेलियों से

किसी को
धुऐं और
धूल के ऊपर
उगलियों से

किसी को
कागज पर
कलम से

कोई
अपने
मन में ही
मन ही मन
लिख लेता है

रोज का
लेखा जोखा
सबका
सबके पास
जरूर
कुछ ना कुछ
होता है

बस
इसका लिखा
उसके लिखे
जैसा ही हो
ये जरूरी
नहीं होता है

फिर भी
लिखे को लिखे
से मिलाना भी
कभी कभी
जरूरी होता है

निशान से
कुछ ना भी
पता चले

पर उस पर
अंगूठे का पता
जरूर होता है ।

चित्र साभार: raemegoneinsane.wordpress.com

शनिवार, 6 सितंबर 2014

किसी एक दिन की बात उसी दिन बताता भी नहीं हूँ

ऐसा नहीं है कि
दिखता नहीं है
ऐसा भी नहीं है
कि देखना ही
चाहता नहीं हूँ
बात उठने
उठाने तक
कुछ सोचने
सुलझाने तक
चाँद पूरा
निकल कर
फैल जाता है
तारा एक
बहुत छोटा सा
पीली रोशनी में
कहीं खो जाता है
रोज छाँटता हूँ
अपने बाग में
सुबह सुबह
एक कली और
दो पत्तियाँ
शाम लौटने तक
पूजा कि धुली
थालियों के साथ
किसी पेड़ की
जड़ में पड़ा
उन्ही और उन्ही
को पाता भी हूँ
और दिन भर में
होता है कुछ
अलग अलग सा
इसके साथ भी
उसके साथ भी
कुछ होता भी
है कही और
क्या कुछ होता है
समझने समझाने
तक सब कुछ ही
भूल जाता भी हूँ
उसके रोज ही
पूछने पर मुझसे
मेरे काम की
बातों को
बता सकता
नहीं हूँ कुछ भी
बता पाता भी नहीं हूँ
उसके करने कराने
से भर चुका है
दिल इतना ‘उलूक’
ऐसा कुछ करना
कराना तेरी कसम
चाहता भी नहीं हूँ
लिख देना
कुछ नहीं करने
की कहाँनी रोज
यहाँ आ कर
काम होता
ही है कुछ कुछ
फिर ना कहना
कभी कुछ कुछ
सुनाता ही नहीं हूँ ।

चित्र साभार: http://thumbs.dreamstime.com/

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

घर घर की कहानी से मतलब रखना छोड़ काम का बम बना और फोड़

आज उसकी भी
घर वापसी हो गई
उधर वो उस घर से
निकल कर आ
गया था गली में
इधर ये भी
निकल पड़ा था
बीच गली में
पता नहीं कब से
उदास सा खड़ा था
दोनो बहुत दिनो से
गली गली खेल रहे थे
टीम से बाहर
निकाल दिया जाना
या नाराज होकर टीम
को छोड़ के आ जाना
एक जैसी ही बात है
खिलाड़ी खिलाड़ी के
खेल को समझते हैं
कोई गली में हो रहा
कठपुतली का तमाशा
जैसा जो क्या होता है
थोड़ी देर के लिये
पुतली की रस्सी
हाथ में किसी को
थमा के नचाने वाला
दिशा मैदान को
निकल जाये और
तमाशे की घड़ी
अटकी रहे खुली
बेशरम बेपरदा
देखने वाला भी
निकाल ले कुछ नींद
या लेता रहे जम्हाई
थोड़ी देर के लिये सही
अब घर की बात हो
और एक ही बाप हो
तो अलग बात है
बाप पर बाप हो
और घर से बाहर
एक बाप खुश और
एक बाप अंदर
से नाराज हो
खैर दूर से दूसरे के
घर के तमाशे को
देखने का मजा ही
कुछ और होता है
जब लग रहा था
इधर वाला उस
घर में घुस लेगा
और उधर वाला इस
घर में घुस लेगा
तभी सब ठीक रहेगा
पोल पट्टी खुलती रहेगी
खबर मिलती रहेगी
पर एक बाप अब
बहुत नाराज दिख रहा है
जब से वो अपने ही घर में
फिर से घुस गया है
अब क्या किया जाये
ये सब तो चलना ही है 

उलूक तू तमाशबीन है
था और हमेशा ही रहेगा
तूने कहना ही है कहेगा
होना वही ढाक के
तीन ही पत्ते हैं
बाहर था तो देख कर
खुजली हो जाती थी
अंदर चला गया
तो हाथ से ही
खुजला देगा
प्रेम बढ़ेगा
देश प्रेम भी
बाप और बेटों का
एक साथ ही दिखेगा
एक अंदर और एक
गली में वंदे नहीं कहेगा।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

तेरी कहानी का होगा ये फैसला नही था कुछ पता इधर भी और उधर भी

वो जमाना
नहीं रहा
जब उलझ
जाते थे
एक छोटी सी
कहानी में ही
अब तो
कितनी गीताऐं
कितनी सीताऐं
कितने राम
सरे आम
देखते हैं
रोज का रोज
इधर भी
और उधर भी
पर्दा गिरेगा
इतनी जल्दी
सोचा भी नहीं था
अच्छा किया
अपने आप
बोल दिया उसने
अपना ही था
अपना ही है
सिर पर हाथ रख
कर बहुत आसानी से
उधर भी और इधर भी
हर कहाँनी
सिखाती है
कुछ ना कुछ
कहा जाता रहा है
देखने वाले का
नजरिया देखना
ज्यादा जरूरी होता है
सुना जाता है
उधर भी और इधर भी
कितना अच्छा हुआ
मेले में बिछुड़ा हुआ
कोई जैसे बहुत दूर से
आकर बस यूँ ही मिला
दूरबीन लगा कर
देखने वालों को
मगर कुछ भी
ना मिला देखने
को सिलसिला कुछ
इस तरह का
जब चल पड़ा
इधर भी और उधर भी
उसको भी पता था
इसको भी पता था
हमको भी पता था
होने वाला है
यही सब जा कर अंतत:
इधर भी और उधर भी
रह गया तो बस
केवल इतना गिला
देखा तुझे ही क्योंकर
इस तरह सबने
इतनी देर में जाकर
तीरंदाज मेरे घर में
भी थे तेरे जैसे कई
इधर भी और उधर भी
खुल गया सब कुछ
बहुत आसानी से
चलो इस बार
अगली बार रहे
ध्यान इतना
देखना है सब कुछ
सजग होकर तुझे
इधर भी और उधर भी । 

शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

कहानी की भी होती है किस्मत ऐसा भी देखा जाता है

कहानियाँ
बनती हैं
एक नहीं बहुत

हर जगह पर
अलग अलग

पर
हर कहानी
एक जगह नहीं
बना पाती है

कुछ
छपती हैं
कुछ
पढ़ी जाती हैं

अपनी अपनी
किस्मत होती है
हर कहानी की

उस
किस्मत के
हिसाब से ही
एक लेखक
और
एक लेखनी
पा जाती हैं

एक
बुरी कहानी
को एक अच्छी
लेखनी ही
मशहूर बनाती है

एक
अच्छी कहानी
का बैंड भी एक
लेखनी ही बजाती है

पाठक
अपनी
सोच के
अनुसार ही
कहानी का
चुनाव कर पाता है

इस मामले में
बहुत मुश्किल
से ही अपनी
सोच में कोई
लोच ला पाता है

मीठे का शौकीन मीठी
खट्टे का दीवाना खट्टी
कहानी ही लेना चाहता है

अब कूड़ा
बीनने वाला भी
अपने हिसाब से ही
कूड़े की तरफ ही
अपना झुकाव
दिखाता है

पहलू होते हैं ये भी
सब जीवन के ही

फ्रेम देख कर
पर्दे के अंदर रखे
चित्र का आभास
हो जाता है

इसी सब में
बहुत सी
अनकही
कहानियों की
तरफ किसी का
ध्यान नहीं जाता है

क्या किया जाये
ये भी होता है
और
बहुत होता है

एक
सर्वगुण
संपन्न भी
जिंदगी भर
कुँवारा
रह जाता है ।

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

कपडे़ का जूता

आज
एक छोटी
सी कहानी है

जो मैने
बस थोडे़
से में ही
यहां पर
सुनानी है

ये भी
ना समझ
लिया जाये
कि कोई
सुनामी है

जैसे
सबकी
कहानी होती है

किसी की
नयी तो
किसी की
बस
थोड़ी सी
पुरानी होती है

इसमें
एक मेरा
राजा है
और
दूसरी उसकी
अपनी रानी है

राजा मेरा
आज बहुत
अच्छे मूड
में नजर
आ रहा था

अपनी रानी
के लिये
तपती धूप में
एक मोची
के धौरे बैठा
कपड़े के जूते
सिलवा रहा था

मोची
पसीना
टपका रहा था

साथ में
कपड़े पर
सूईं से
टाँके भी 
लगाता
जा रहा था

राजा
आसमान के
कौओं को
देख कर
सीटी बजा
रहा था

मोची
कभी जूते
को देख
रहा था

कभी
राजा को
देख कर
चकरा रहा था

लीजिये
राजा जी

ये लीजिये
तैयार हो गया
ले जाइये

पर
चमड़ा छोड़
कपड़े पर
क्यों आ गये
बस ये बता
कर हमें जाइये

इतनी ही
विनती है हमारी
जिज्ञासा हमारी
जाते जाते
मिटा भी जाइये

राजा ने
जूता उठाया
मोची के हाथ
में उसके
दाम को टिकाया

अपना दायें
गाल को
छूने के लिये
मोची
की ओर
गाल को बढ़ाया

मोची भी
अब जोर से
खिलखिलाया

अरे
पहले अगर
बता भी देते तो
आपका क्या जाता

कपड़ा
जरा तमीज से
मैं भी काट ले जाता

एक कपड़े
का जूता
अपनी लुगाई
के लिये
भी शाम
को ले जाता

आपकी
तरह मेरा
गाल भी
बजने बजाने
के काम
से पीछा
छुड़ा ले जाता
राजा तेरा
क्या जाता।

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

एक राजा के लम्बे कान

धन्ना नाई
की कहानी

मेरी माँ 
मुझे

सुनाती थी

पेट में उसके
कोई भी
बात नहीं
पच पाती थी

निकल ही
किसी तरह
कही भी
आती थी

राजा ने
बाल काटने
उसे
बुलाया था

उसके
लम्बे कान
गलती से
वो देख
आया था

बताने पर
किसी को भी
उसे मार
दिया जायेगा
ऎसा कह कर
उसे धमकाया था

पर बेचारा
आदत का मारा
निगल
नहीं पाया था

एक
पेड़ के
ठूँठ के सामने
सब उगल
आया था

पेड़ की
लकड़ी का
तबला कभी
किसी ने
बना के
बजाया था

उसकी
आवाज में
राजा का
भेद भी
निकल
आया था

मेरी
आदत भी
उस नाई
की तरह ही
हो जाती है

अपने
आस पास
के सच
देख कर
भड़क जाती है

रोज तौबा
करता हूँ
कहीं
किसी को
कुछ नहीं
बताउंगा

सभी तो
कर रहे हैं
करने दो
मैं कौन सा
कद्दू में तीर
मार ले जाउंगा

उस समय
मैं अपने को
सबसे अलग सा
देखने लग जाता हूँ

सारे लोग
बहुत सही
लगते हैं
और
मैं अकेला
जोकर हो जाता हूँ

एक राजा के
दो लम्बे कान
तो बहुत
पुराने हो गये

कहानी सुने भी
मुझे अपनी माँ से
जमाने हो गये

आज रोज
एक राजा
देख के
आता हूँ
उसके लम्बे
कानों को
भी हाथ
लगाता हूँ
वहाँ कोई
किसी को
भाव नहीं देता
जान जाता हूँ

फिर रोज
धन्ना नाई
की तरह
कसम खाता हूँ

पर यहाँ
आ कर तो
हल्ला मचाने में
बहुत मजा आता है

लगता है
नक्कार खाने मे
तूती बजाने
जैसे कोई जाता है

देखना ये है
कि इस ठूंठ का
कोई कैसे
तबला बना पाता है

फिर
मेरे राजाओं
के लम्बे लम्बे
कानों की खबर
इकट्ठा कर
उनके कान भरने
चला जाता है?

चित्र साभार: Fresh Korean

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

हे राम !

राम की कहानी
तुलसी की जुबानी
बहुत है पुरानी

दादी से माँ तक
आते आते लगता है
अब चैन की
नींद सो रही है

बच्चों के
भारी भारी बस्तों में
स्कूल की रेलमपेल में
सीता भी उनींदी सी
किसी किताब
किसी कापी
के किसी मुढ़े तुढ़े पन्ने में
कहीं खो रही है

घर में भी फुरसत में
बातों बातों में कभी
राम भी भूले से भी
नहीं आना चाह रहे हैं

कर्म और
फल वाली
कहावत में भी
मजे अब उतने
नहीं आ रहे हैं

फलों के पेड़ भी
अब लोग गमलों में
तक कौन सा
लगाना चाह रहे हैं

बोते हुवे वैसे
बहुत से लोग
बहुत सी चीजें बस
दिखाने के लिये
दिखा रहे हैं

आम का बीज
दिख रहा है
उसी बीज से बबूल
का पेड़ उगा ले
जा रहे हैं

दादी और माँ ने भी
ऎसा कुछ कभी
क्यों नहीं बताया
जो दिखाया भी
इस जमाने के
हिसाब से बड़ा
अजीब सा ही दिखाया

अब वो सब पता नहीं
कहां खोता जा रहा है
जमाना जो कुछ
दिखा रहा है
पता नहीं चल रहा है
वो किस खेत में
बोया जा रहा है

बड़ी बैचेनी है
कोई इस बात
को क्यों नहीं
समझा रहा है

जब राम का
हो रहा है ये हाल है
तो बतायें
क्या फिर बच्चों को
कृ्ष्ण कबीर तुलसी
रहीम के बारे में

जब राम की कहानी
तुलसी की जुबानी
बहुत ही पुरानी
जैसी हो रही है

दादी से
माँ तक होकर
मुझ तक आते आते
जैसे कहानी
के अन्दर ही
किसी कहानी में
ही कहीं खो रही है।